बूढ़ी काकी कहती है-‘‘बुढ़ापा तो आना ही है। सच का सामना करने से भय कैसा? क्यों हम घबराते हैं आने वाले समय से जो सच्चाई है जिसे झुठलाना नामुमकिन है।’’.

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Thursday, December 25, 2008

शिव सेना मोरचे पर दिखाये जौहर

मुंबई में आतंकी हमले के बाद जहां राजनैतिक वाद-विवाद चल रहा है वहीं कुछ ऐसे लोग कुछ अधिक ही बोल रहे हैं जो देश में क्षेत्रीयता को बढ़ावा देकर राष्ट्रीय एकता को तोड़ने का प्रयास करते रहे हैं। शिव सेना प्रमुख और उनके भतीजे राज ठाकरे की करतूतों को पूरा देश अच्छी तरह जानता है। वे लोग कई बार उत्तरी भारत बल्कि बिहार और उत्तर प्रदेश के कुछ गरीबों पर इसलिये हमले करते रहे हैं कि वे काम के लिये मुंबई पहुंचते हैं। राज ठाकरे ने बीते दिनों इसी तरह के कई गरीब लोगों के साथ मारपीट की। जबकि इस हिंसा में कई नवयुवक मारे भी जा चुके हैं। दोनों ठाकरे अपनी-अपनी पार्टी को सेना नाम दिये हैं। बाल ठाकरे ने अपने समाचार पत्र में यह लिखा है कि भारत को पाकिस्तान पर चढ़ाई कर देनी चाहिये। उनसे पूछा जाना चाहिये कि उन्होंने भी शिव सेना बना रखी है। उन्हें अपने सैनिकों को यह काम सौंप देना चाहिये। वे बार-बार इसे बहुत बड़ी देशभक्ति कहते रहते हैं। यदि वे ऐसा नहीं कर सकते तो दूसरों को युद्ध छेड़ने की सीख किस मुंह से दे रहे हैं। बल्कि ठाकरे को उनकी सेना का कमांडर बन कर मोरचे पर पहुंचना चाहिये। यदि वे ऐसा नहीं कर सकते तो क्या वे और उनकी सेना एक ढकोसला ही कहलायेगी। वे अपने कमजोर भाईयों पर तो अकारण ही हमला करवा देते हैं और देश पर हमला करने वालों के पास तक भी फटकने का साहस नहीं रखते। यदि वे वास्तव में ही मुंबई और देश हितैषी हैं तो उस समय ताज होटल क्यों नहीं पहुंचे जब देश के जवान आतंकियों से जूझ रहे थे। ठाकरे को मालूम होना चाहिये वहां मर-मिटने वालों में उत्तर भारत के भी जवान थे। मुंबई पर मालिकाना हक जताने वाले ठाकरे अथवा शिव सैनिक मुंह छुपा कर अपने घरों में क्यों छिपे बैठे थे? ठाकरे जैसे लोगों को सभी अच्छी तरह जान चुके। भले ही वे अपने को कुछ भी समझते हों।

यह बच्चों का खेल नहीं बल्कि आज के युग में दो परमाणु शक्ति संपन्न देशों का युद्ध पूरी दुनिया के लिये ही बहुत बड़ा खतरा बन सकता है। ऐसे में बहुत ही गंभीरता से विचार करके एक-एक कदम उठाना पड़ता है। यही हमारी सरकार कर भी रही है। ऐसा नहीं कि हम कुछ नहीं कर रहे या कर नहीं सकते। सरकार कोई भी ऐसा कदम नहीं उठाना चाहती जिससे कोई खामियाजा भुगतना पड़े। युद्ध से पूर्व उसके परिणामों का आकलन करना एक बहुत बुद्धिमत्ता का काम है। यह केन्द्र सरकार की सूझबूझ ही है कि वह विश्व समुदाय के सम्मुख यह सिद्ध कर चुकी है कि पाकिस्तान ही दुनिया भर में फैल रहे आतंकवाद की जड़ है। ऐसे में प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह का यह कहना बहुत ही सटीक है कि पाक पूरी दुनिया के लिये खतरा है। ऐसे में विश्व के अधिकांश शक्तिशाली देश भारत के समर्थन में आ गये हैं। जबकि पिछली सभी सरकारों की नीतियों के कारण विश्व की शक्तियां भारत के बजाय पाकिस्तान के समर्थन में खड़ी हो जाती थीं। विश्व के सभी शक्तिशाली देश भी मुंबई हमले से आहत हैं और वे इस नतीजे पर पहुंच गये हैं कि पाक में आतंकवाद पनप रहा है। आतंकी प्रशिक्षित होकर वहां से भारत समेत कई अन्य देशों में पहुंच कर आतंक फैलाने को बेकसूर लोगों को निशाना बना रहे हैं। अमेरिकी खुफिया एजेंसी ने भी जांच में यही पाया है कि यह हमला पाकिस्तान से भेजे आतंकियों द्वारा ही किया गया। एक जीवित पकड़ा आतंकी भी यही कह चुका कि वह पाकिस्तानी है और उसके मारे गये सभी साथी पाक में प्रशिक्षण लेकर यहां तबाही मचाने को आये थे।

बाल ठाकरे हों या राज ठाकरे उन्हें ऐसे अवसर पर कोई ऊल-जलूल बयान नहीं देना चाहिये। अन्यथा समय की मांग को जानकर उन्हें अपनी शिव सेना लेकर पाकिस्तानी सेना से भिड़कर यह सिद्ध करना चाहिये कि उनकी सेना वास्तव में ही एक देश-भक्त और बहादुर सेना है।

-Harminder Singh

Wednesday, December 24, 2008

युवा हवा का रुख

युवाओं की स्थिति पतंग के समान होती है, इधर-उधर इतराती पतंग। तेज हवा के झोंके पर डोर छूटने का डर भी रहता है। उन्मुक्त गगन से बातें करने की चाह कई बार धरातल पर भी रहने को विवश कर देती है। संगति का प्रभाव उजड़ा सेवरा न फैला दे, इसलिये अंगारों से बचकर खेलने की सलाह काम आयेगी। अक्सर जल्दबाजी में बहुत कुछ थम जाता है


मैंने बूढ़ी काकी से पूछा कि युवा जीवन में अहम बदलाव हैं क्या? काकी मुस्कराई और बोली,‘जीवन पैर जमाना इसी समय सीखता है। एक बेहतर और टिकाऊ नींव इसी अवस्था बनकर तैयार होती है। हम जानते हैं कि मकान को धंसने से बचाने के लिये नींव कितनी उपयोगी है। कमजोर नींव के मकान अक्सर ढह जाया करते हैं।’

‘युवाओं की स्थिति पतंग के समान होती है, इधर-उधर इतराती पतंग। तेज हवा के झोंके पर डोर छूटने का डर भी रहता है। उन्मुक्त गगन से बातें करने की चाह कई बार धरातल पर भी रहने को विवश कर देती है। तभी कहा जाता है, जो गलत नहीं, कि इतनी तेजी अच्छी नहीं। रगों में रक्त का प्रवाह इस कदर गतिमान होता है कि जोश और जस्बे की कमी नहीं रहती। उम्मीदों के घोड़े दौड़ते हैं पंख लगाकर। नयी सोच, नई ऊर्जा का संसार रच रहा होता है।’

‘मोम की तरह मुलायम भी होता यह समय। हल्की सी गर्मी से मोम पिघलने लगता है तथा उसे किसी आकार में ढाला जा सकता है। यह समय आकार लेने का भी है। अपने आसपास के वातावरण से हम कितने प्रभावित होते हैं? विचारों का हम पर क्या प्रभाव पड़ता है, यह भी सोचने योग्य विषय है। सांचा ढल जाता है, लेकिन सुन्दर और बेकार होने में देर नहीं लगती। निखार आ गया तो बेहतर, निखरे हुये पर दाग लग गया तो जीवन भर के लिये मजबूत छाप रह जायेगी। शायद ऐसे मौके पर खुद को कोसने का वक्त भी न मिले।’

‘कदमों को कीचड़ से बचाने की जरुरत पड़ेगी। निर्मल पैर ही अच्छे लगते हैं। संगति का प्रभाव उजड़ा सेवरा न फैला दे, इसलिये अंगारों से बचकर खेलने की सलाह काम आयेगी। अक्सर जल्दबाजी में बहुत कुछ थम जाता है। ठिठक कर चलने में कोई बुराई नहीं है। खेल-खेलने वाले कोई ओर होते हैं, भुगतने वाले कोई ओर। इस तरह बनी-बनाई बातें बिगड़ जाती हैं और यहीं से बिखराव की स्थिति उत्पन्न होती है। तब अपनों की याद आती है। अंत में सहारा भी वे ही बनते हैं।’

काकी के विचारों से मैं और अधिक प्रभावित होता जा रहा था। पता नहीं क्यों उसके शब्दों का मुझ पर गहरा असर पड़ रहा था। शब्दों की गहराई समझ में आ रही थी। यही कारण था कि काकी का एक-एक शब्द मुझे कीमती लग रहा था। शायद में बोलों को धीरे-धीरे चुनता जा रहा था।

-Harminder Singh

Friday, December 12, 2008

मच्छर मारना कोई अपराध नहीं

मच्छर मारने पर दुनिया के किसी भी कोने में सजा का प्रावधान नहीं। मतलब यह कि मच्छरों की कहीं सुनवाई नहीं। उनकी कोई अहमियत नहीं। वो कहते हैं ना-‘भला मच्छर की भी कोई औकात होती है।’


च्छरों के हमले काफी खतरनाक होते हैं। खासतौर पर जब आप चैन की नींद सोने की कोशिश कर रहे हों। आमतौर पर चैन की नींद आजकल लोगों को उतनी नसीब नहीं हो रही।

मुझे बड़ी कठिनाई होती है जब मच्छर मेरे कान पर भिन-भिन करते हैं। मन करता है उन्हें जीवित न छोड़ूं। यह विचार हर उस ‘दुखियारे जन’ का है जो ‘मच्छर जाति’ के आक्रमण से व्यथित है। हम बखूबी जानते हैं कि हत्या करना पाप नहीं ‘महापाप’ है, लेकिन मच्छर को मारना मजबूरी है। इसका कुछ माक्रोन व्यास का मामूली डंक तगड़े से तगड़े इंसान को बदहाल कर देता है।

अहिंसा की प्रवृत्ति इंसानियत दर्शाती है, मगर ‘रक्त-प्रेमी’ इस जीव को मारने पर हमें कोई नहीं कहता कि हमने कोई अपराध किया है। हां, मच्छर मारना कोई अपराध नहीं। इसके लिये दुनिया के किसी भी कोने में सजा का प्रावधान नहीं। मतलब यह कि मच्छरों की कहीं सुनवाई नहीं। उनकी कोई अहमियत नहीं। वो कहते हैं ना-‘भला मच्छर की भी कोई औकात होती है।’ लेकिन हम शायद यह भूल गये कि इसके डंक की तिलमिलाहट हमें इससे डरने पर मजबूर कर देती है। तभी हम इस ‘आतंकी’ से अपनी सुरक्षा का प्रबंध करते हैं।

पहले कछुआ छाप जलाते थे, मच्छर भाग जाते थे। मच्छर समय दर समय शक्तिशाली होते गये। जमाना बदला, मच्छर भी और अब वक्त ऐसा है कि ‘कछुआ’ चल बसा, ‘स्प्रे’ आ चुके लेकिन मच्छरों का कद बढ़ता ही जा रहा है। पहले मच्छर छोटे हुआ करते थे, अब वे काफी बड़े हो गये हैं। उनके पैरों की लंबाई को देखकर मैं कई बार हैरान हुआ हूं। जैसे-जैसे किसी जाति को मिटाने की कोशिश की जाती है, वह उसका मुकाबला करने के लिये समय-दर-समय मजबूत होती जाती है। यही मच्छरों के साथ भी हो रहा है। वे शायद ही हमारा कभी पीछा छोडें। चांद पर हम जाने की तैयारी कर रहे हैं। भविष्य में लोग दूसरे ग्रहों पर जायेंगे तो मच्छर शायद वहां भी उनके साथ होंगे। ताजे खून से प्यास बुझाने वाले ये जीव काफी चालाक भी होते हैं। आप इन्हें मसलने के लिये हाथ बढ़ाइये ये फौरन वहां से उड़ जायेंगे। वैसे हल्की सी ठेस से इनकी जीवनलीला समाप्त हो जाती है।

मच्छरों की आदतें इंसानों से मेल खाती हैं। वैसे कुछ दुबले-पतले लोगों को ‘मच्छर’ कहा जाता है। मच्छर जहां पैदा होते हैं, वहीं रहने वालों का खून चूसते हैं। ये प्राणी रक्त के भूखे होते हैं। इतने भूखे की अधिक खून चूसने के बाद इनसे ठीक से चला भी नहीं जाता। ठीक वही हालात जो पेटू इंसानों की या ‘खव्वा’ टाइप लोगों की होती है।

मेरे साथ कई बार ऐसा हुआ है कि मेरे अच्छे-भले सपनों को इन्होंने नष्ट कर दिया। एक रात की बात है कि मैं आराम से हवाई यात्रा कर रहा था बिना हवाई-जहाज के। अचानक कहीं से एक मच्छर ने मुझे काटा। मेरा संतुलन गड़बड़ा गया। मैं गिरने ही वाला था कि सपना टूट गया। मैंने ईश्वर का शुक्रिया किया कि मुझे आसमान से गिरने और मरने से बचा लिया। लेकिन वास्तव में मैं पलंग से नीचे गिर गया था। तभी एक मच्छर मेरे कान पर भिनभिनाया। वह शायद यही गा रहा था-‘कहो कैसी रही।’

-HARMINDER SINGH

Friday, December 5, 2008

उनकी खिड़की के कांच अभी चटके नहीं




ये सब रुकना चाहिये क्योंकि एक-एक जिंदगी बहुत कीमती है। आतंकियों का खेल खेलने का तरीका बेगुनाहों को मौत के घाट उतार देता है। पल भर में सब तबाह हो जाता है। सुहाग उजड़ जाते हैं, अपने बिछुड़ जाते हैं और बसे बसाये आशियाने बिखर जाते हैं। यह इंसानियत को शर्मसार करने वाला कृत्य है।

तड़पते इंसानों को देखना बहुत की पीड़ादायक होता है, मगर उनपर जो बीत रही होती है वह इससे भी कई गुना दर्दनाक है। हम अब तक पूरी तरह नहीं समझ पाये कि यहां कोई भी सुरक्षित है। कभी भी किसी की जान जा सकती है क्योंकि हमारे आसपास हर समय मौत मंडरा रही है। सच यह भी है कि हम अपनी मौत से भाग नहीं सकते।

आतंकी कहीं कुछ भी कर सकते हैं। इस साल जो हुआ उससे यह बात और पक्की हो गयी है। उनके इरादे कितने खतरनाक हैं यह भी हम सब जान गये हैं। और यह भी कि उनके लिये केवल हम भेड़-बकरी हैं जिन्हें कब हलाल करना है या झटके से मारना है वे अच्छी तरह जानते हैं। फिर हम ठहरे हुये क्यों है? हमारी सुरक्षा व्यवस्था के जिम्मेदार हम खुद ही हैं क्योंकि जिनके हाथ हमारी सुरक्षा का जिम्मा है शायद उनकी खिड़की के कांच अभी चटके नहीं हैं।

-Harminder Singh

Sunday, November 30, 2008

अपने ही अपने होते हैं




प्रेम की वजह अनंत हैं। इसके रुपों की व्याख्या करना इतना आसान नहीं। यह विस्तृत है। बचपन से लेकर आजतक हमने किसी किसी से प्रेम ही तो किया है। शायद इसमें बंधकर ही हमने कठिन रास्तों को चुना, लेकिन सरलता से पार करने में हम कामयाब भी हुए। मां-बाप और औलाद के बीच प्रेम जमकर हंसा और खूब नाचा


बूढ़ी काकी का जीवन नीरस था। उसकी उम्र हंसने-खेलने की नहीं, ढांढस बांधने की थी। वह ममता को टटोलती नहीं, ममता मायूस भी नहीं, जैसी पहले थी, अब उससे अधिक बहती थी।

यह हकीकत किसी से छिपी नहीं कि बुढ़ापा नम्र हृदय होता है। बूढ़ी काकी का दिल पिघल जाता है। उसकी आंखें छलक रही थीं, इतनी सूखी होकर भी। हृदय मोम है, विचार उसे पिघला देते हैं।

काकी को देखकर मैंने पूछा,‘इतने प्रेम की वजह क्या है?’

काकी बोली,‘यह भाव है जो प्रकट हो जाता है। रोकना बस से बाहर, लेकिन सच यह है कि प्रेम का रुप न तुमने साक्षात देखा, न मैंने, केवल हृदय ने उसे ढंग से पहचाना है। मेरे जैसे बुजुर्गों के लिये बहुत कुछ मायने रखता है प्रेम का एक-एक शब्द।’

‘मेरे अपने यदि मेरे साथ होते हैं तो वह संसार की सबसे मूल्यवान चीज होती है। उस समय की खुशी के बराबर कुछ नहीं। तुम्हें मैंने स्नेह किया है और मेरे लिये यह वक्त यादगार रहेगा।’

‘प्रेम की वजह अनंत हैं। इसके रुपों की व्याख्या करना इतना आसान नहीं। यह विस्तृत है। बचपन से लेकर आजतक हमने किसी न किसी से प्रेम ही तो किया है। शायद इसमें बंधकर ही हमने कठिन रास्तों को चुना, लेकिन सरलता से पार करने में हम कामयाब भी हुए। मां ने औलाद से प्रेम किया, पिता ने भी। रुठने-मनाने का खेल भी यहीं से शुरु हुआ। प्रेम का उदय होता है, तो उसमें गुंजाइश होती है। अपने लाडले को सर आंखों पर बैठाया। पालने में झुलाया, किसी सुख की कमी न रहने दी। लाडली भी अपना ही खून थी। उसे भरपूर स्नेह दिया। मगर अंतर की उत्पत्ति भी प्रेम के साथ ही हो चुकी थी। सो फर्क का नजारा भी देखने को मिला। खैर, औलाद का सुख उसे जनने वाले अच्छी तरह जान सकते हैं। मां-बाप और औलाद के बीच प्रेम जमकर हंसा और खूब नाचा।’

बूढ़ी काकी की बात खत्म ही नहीं हो रही थी। चूंकि सवाल इतना पेचीदा था कि उसका उत्तर शुरु ही ठीक तरह से कहां हुआ था।

काकी ने आगे कहा,‘औलाद का अपनापन हर किसी पालनहार की ख्वाहिश होती है। चाहत का दामन न छूटे इसलिये वे चाहते हैं कि उनकी औलाद उनकी आंखों से दूर न हो।’

‘अगर हमें युवाओं की बात करें तो इस समय में रिश्तों की एक अजीब उलझन का सामना करने की तैयारी पहले से ही की जाए तो बेहतर है। यह समय रिश्तों के दरकने का भी होता है, डरने-सहमने का होता है, अपनों से दूरी बनने का भी होता है और हां, पतली डोर पर चलने का भी होता है। युवा मन चंचलता लिये होता है, अठखेलियां जमकर होती हैं। जिम्मेदारियों का अहसास कभी होता है, कभी नहीं। मनमौजी कहने में कोई हिचक नहीं है। यह बदलावों का वक्त होता है, शारीरिक भी और मानसिक भी। वास्तव में यह दौर हलचलों का होता है। पर हमने तो बुढ़ापे के प्रेम के विषय में बात की थी, ये अवस्थायें मध्य कहां से गईं।’ इतना कहकर काकी रुक गई।

-Harminder Singh

Saturday, November 29, 2008

जिंदगी छिनने का मातम



कल खुशी के दिने थे, आज वहां रोने वालों का तांता लगा है। क्योंकि किसी ने कोई अपना खोया है। कईयों के घर मातम छाया है। जिंदगी छिनने के बाद मातम ही तो मनाया जाता है। आतंकियों की करतूत ने पल भर में मुंबई को कभी न खत्म होने वाला दर्द दे दिया। मुंबई दहली, देश दहला और पूरी दुनिया ने इसपर क्षोभ प्रकट किया। निरीह लोगों को मारना कायराना कृत्य नहीं तो और क्या है?

जिन्होंने अपनों को खोया है वे टूट चुके हैं। कभी यह सोचा नहीं गया था कि रात इतनी काली भी हो सकती है।
कुछ लोगों ने जिंदगियां तबाह करने का ठेका लिया हुआ है। वे खौफ का खेल बखूबी जानते हैं। उनका मकसद दहशत फैलाना है। मरते और दर्द से कराहते लोगों से उनका कोई लेना-देना नहीं, वे तो लाशों के ढेर पर जश्न मनाने वालों में से हैं। उन्हें हम हंसते हुये, शांति में रहते अच्छे नहीं लगते। वे चाहते हैं हम भी उनकी तरह एक बर्बाद और टूटे-फूटे मुल्क के बाशिंदों की तरह जियें। हमारी धरती को लाल करने की कोशिश में लगे रहते हैं ये दहशतगर्द।

मुंबई ने पहले भी कई जख्म झेले हैं। पर हर बार उठ खड़ी हुई है मुंबई नये जस्बे के साथ। हम जानते हैं कि मरने वाले इंसान हैं और मारने वाले भी लेकिन किसी हैवान से कम नहीं।

-Harminder Singh

Thursday, November 27, 2008

इतिहास अदभुत है और लोग भी




सौ साल पहले की दुनिया सौ साल बाद कुछ और हो गयी। लोग भी बदले, मौसम भी, विचार भी और इतिहास भी। इतिहास ने बहुत कुछ सिखाया है हमें क्योंकि इतिहास में बहुत कुछ गंवाया है हमने. इतिहास हम ही बनाते और बिगाड़ते हैं इसलिये इतिहास हमारे द्वारा ही लिखा जायेगा



वे लोग आज हमारे बीच नहीं हैं। उनके बारे में हम कहीं न कहीं कुछ न कुछ पढ़ते-देखते-सुनते-लिखते रहते हैं। वे अदभुत थे और पराक्रमी भी, शांत भी थे और हिंसक भी। विद्वान भी और महान भी। उन पुराने लोगों को स्मरण करने मात्र से एक अजीब सी अनुभूति होती है। यह एक लगाव है, जो समय के साथ-साथ घटता-बढ़ता रहता है।

सौ साल पहले की दुनिया सौ साल बाद कुछ और हो गयी। लोग भी बदले, मौसम भी, विचार भी और इतिहास भी। पुराने युग के लोगों के बारे में जानने की इच्छा होती है क्योंकि मैं उनको समझना चाहता हूं। मेरा इतिहास से कोई खास लगाव कभी नहीं रहा। इतिहास केवल मेरे लिये बोरियत का विषय था।

आज मैं कई प्राचीन पुस्तकें पढ़ रहा हूं। इतिहास में भविष्य छिपा है और भविष्य के लिये इतिहास को छूना बहुत जरुरी है। इस स्पर्श से दुनिया में बहुत कुछ बदला और दहला है।

इतिहास ने बहुत कुछ सिखाया है हमें क्योंकि इतिहास में बहुत कुछ गंवाया है हमने। अपनी पहचान को तलाश करने की कोशिश की है, अपने पूर्वजों को जाना है। भविष्य में आज का वक्त इतिहास हो जायेगा, लेकिन हम जानते हैं कि इतिहास हम ही बनाते और बिगाड़ते हैं इसलिये इतिहास हमारे द्वारा ही लिखा जायेगा।

हमने अपने बड़ों से अपने पूर्वजों के बारे में काफी सुना है। अपनी जाति विशेष के बारे में पढ़ा भी है। हमें इतना अवश्य जान लेना चाहिये कि हम कौन थे और क्या हुये? अपने धर्म के विषय में हम पूरा नहीं जानते और न ही यह कि हमारे महापुरुष किस तरह जीवन व्यतीत करते थे, उनका रहन-सहन क्या था, वे वास्तव में जैसा कहा जाता है वैसे ही थे या सच्चाई कुछ और थी। मैंने जाट इतिहास को पूरा तो नहीं पढ़ा लेकिन ठाकुर देसराज की लिखी पुस्तक के कई अहम खंडों को पढ़ चुका हूं। मैं विभिन्न धर्मों की पुस्तकों को पढ़ने का इच्छुक हूं। समय-समय पर यह अवसर मुझे मिलता रहता है। शिव पुराण पढ़कर पता लगा कि शिव के कितने नाम हैं। गुजरे लोगों के द्वारा कहे गये कथन भविष्य के प्रति आगाह करते हैं। उनका भविष्य हमारा आज है।


पुदीने की चटनी और परांठे

पुदीने की चटनी का स्वाद काफी अच्छा होता है। अगर परांठे के साथ यह चटनी ली जाये तो स्वाद कई गुना बढ़ जाता है। और पुदीना घर का हो तो समझो रोज चटनी चखी जा सकती है। खासकर सर्दियों में यह काफी अच्छी लगती है।

स्कूल में लंच के दौरान मैं अक्सर परांठे और चटनी लेकर जाता था। कुछ दोस्त थे जो मैदान में इकट्ठा हो जाते। सबके टिफिन बाक्स खुल जाते- स्कूल की छोटी-सी पार्टी हो जाती। राहुल शर्मा मेरे साथ बचपन से पढ़ा है। उसे पुदीने की चटनी बहुत भाती थी। उसकी जुगत रहती कि वह सारी चटनी चट कर जाये। चटनी के लिये मेरी मां की तारीफ होती। मुझे अच्छा लगता। हम जानते हैं कि तारीफ इंसान की ऊर्जा को कई गुना बढ़ा देती है। मेरे साथ ऐसा ही होता। लंच के समय मैं अधिक उत्साहित रहता। शायद मिलबांट कर खाने की प्रवृत्ति का आनंद था वह।

पुदीना स्वास्थ्य के लिये काफी लाभदायक होता है। वैसे धनिये के ताजे पत्तों की चटनी भी परांठों साथ बुरी नहीं लगती। वह भी कम स्वास्थ्यवद्र्धक नहीं।

-harminder singh

Wednesday, November 19, 2008

न सिमटेगा यह प्रेम


इस समय सूखे रेगिस्तान में एक बूंद भी सागर बहा देती है। थकी आंखें जिनकी नमीं कब की सूख चुकी, हरी-भरी दिखाई देती हैं। बुढ़ापे को और चाहिये ही क्या?


पास रखी एक किताब के पन्ने पलटते हुये काकी कहती है,‘मैं किताबें बहुत खुशी से पढ़ती थी। स्कूल की किताबों के एक-एक अक्षर को मैं जोड़ कर रखती, कभी भूलती नहीं। आज भी कई कहानियां, कविताएं याद हैं जिन्हें शायद ही कभी भूल पाऊं। कोरे कागज पर कलम चलाने का एक अदभुत आनंद था जिसकी सीमा अनंत थी। वह दिन खुशी के थे। मेरी किताबें मेरे पास नहीं, उनका सबकुछ मैंने यहां समेट रखा है।’ काकी ने अपना जर्जर हाथ अपने कमजोर माथे पर रखा।

काकी की बातों में इतना खो गया था कि खुद को भूल गया। कल्पनायें करते-करते मेरी आंख लग गयी। सुबह मेरी नींद टूटी। मैंने खुद को काकी के पास पाया। काकी मेरी बालों को सहला रही थी। यह स्नेह था जिसे परिभाषित करने में युग बीत जायें पर इस धारा को अविरल बहने से कोई रोक नहीं सकता।

प्रेम एक बंधन में बंधा होता है जिसकी डोर मजबूत होती है। एक-दूसरे से जोड़े रखता है प्रेम का बंधन। हम न चाहते हुये भी उससे छूट नहीं सकते। मोह का खेल पुराना नहीं, नया भी नहीं, यह रिश्तों के अदभुत संगम के बाद उत्पन्न हुआ है जो बिना दिखे बहुत कुछ कह जाता है। उन अनछुए पहलुओं से भी हमारा सामना करा देता है जिन्हें हम भूल चुके थे। अनजाने में इतना सब घट जाता है कि उसे सोचना अजीब था। बुढ़ापे का प्रेम अधिक पिघला हुआ होता है। इस समय सूखे रेगिस्तान में एक बूंद भी सागर बहा देती है। थकी आंखें जिनकी नमीं कब की सूख चुकी, हरी-भरी दिखाई देती हैं। बुढ़ापे को और चाहिये ही क्या? इतना सब तो मिल गया उसे।

-harminder singh

Wednesday, November 12, 2008

खाकी का रंगः पर सारा तालाब मैला नहीं

खाकी का समय-दर-समय रंग बदला है, असर भी। आज खाकीवाले बदनाम हैं। तालाब का पानी कहीं मैला है, तो कहीं मटमैला। कुछ मछलियां उसे गंदा करने पर तुली हैं, बाकी उन्हीं की तरह न होते हुये भी, उन्हीं के जैसी लग रही हैं



आप
वरदी वाले हैं तो कुछ भी कर सकते हैं। आपका एक रौब है, बस डंडा घुमाने की देरी है। रिक्शेवाला आपसे डरता है क्योंकि थप्पड़ की ताकत वह जानता है और खाकी की भी।

वरदी की कीमत शायद आजकल पुलिस से जुड़े लोग भूल चुके हैं। वरदी की आड़ में घिनौने काम करने में इन्हें शर्म महसूस नहीं होती। कसूर को बेकसूर साबित करने की जैसे यहां होड़ लगी और धन बटोरने की भूख।

कितनी बद्दुआओं को अपने में समेटे है खाकी। कितने दागों, राजों को छिपाये, एक मामूली इंसान को ताकत बख्शती है खाकी।

नाम काफी है बदनामी के कारण। काफी वक्त पहले लोग एक पुलिसवाले को सलाम करते थे, कुछ इज्जत थी। समय बदला, लोग भी, पुलिस भी। अब पुलिसवाला गुजरता है तो सलाम नहीं होता, कई की नजरों में हिकारत जरुर होती है। सलाम करने वाले गिने-चुने होते हैं।

खाकी का समय-दर-समय रंग बदला है, असर भी। आज खाकीवाले बदनाम हैं। तालाब का पानी कहीं मैला है, तो कहीं मटमैला। कुछ मछलियां उसे गंदा करने पर तुली हैं, बाकी उन्हीं की तरह न होते हुये भी, उन्हीं के जैसी लग रही हैं।

एक पहलू यह भीः वरदी वालों की कहानी दो तरह से चलती है। एक मुखौटा नकली लगता है कभी-कभी और कई बार बहुत बदला हुआ सा। जैसा भी वे करते हैं, रोकना नामुमकिन हैं क्योंकि ऐसा करने और सिखाने वाले हम ही तो हैं। उन्हें रिश्वत देता कौन है? उन्हें राजनीतिक दबाव में दबाता कौन है? उनके तबादले करवाता कौन है?
यह हकीकत है कि चौबीसों घंटें खाकी कुछ इंच की गोली के निशाने पर रहती है। कब किस पुलिसवाले का सीना चीरती हुई यह पार हो जाये किसे पता। सोने की फुर्सत हमें तो है, लेकिन एक सिपाही सोता कितना है यह जानने की कोशिश कितनों ने की होगी? एक पुलिस वाले का जबाव था,‘हम जागते हैं ताकि आप तसल्ली से सो सकें।’

एक बात कही जा सकती है कि पुलिस का अस्तित्व न होता तो शायद स्थिति कहीं कुछ और अधिक भयावह और खतरनाक होती। चलो काफी हद तक इस वजह से हम सेक्योर हैं।

हां, कई स्याह पन्ने जरुर हैं जब वरदी दागदार होती है, लेकिन उसको करता तो एक मामूली इंसान ही है, जिसकी वजह वरदी की ताकत होती है।

-हरमिन्दर सिंह

Thursday, November 6, 2008

उड़ती-चलती जिंदगी




जिंदगी जीने का मुकाम सिखा रही है। यह हंस रही है और मुस्करा रही है। आने वालों को आना है तो आओ, बाकियों को छोड़ती जा रही है। नये जीवन के नये रुप का स्वागत जोर शोर से हो रहा है। उड़ते पंछियों की तरह मदमस्त है जिंदगी लेकिन कहीं उदास भी है।

कोई बात ऐसी नहीं जो न कहे सके जिंदगी। जीने के कई तरीके हैं। कोई कैसा जीता है, तो कोई ऐसे। खुशी और दुख के कारणों को सीखने के लिये पैदा होना जरुरी है। पैदाईश है तो मौत से बचके निकलना नामुमकिन। काफी जोड़ हैं जिन्हें समझना आसान नहीं। रचियता की रचना बेजोड़ है।

कई रंगों से भिगोकर रचनाकार ने तय किया कि क्यों न कोई बेशकीमती चीज बनाई जाये। उसने जीवों का संचार किया। तब से आज तक जीवों का एक बहुत बड़ा संसार है। हम रुकते हुये अच्छे नहीं लगते क्योंकि गति जीवन देती है। किसी के लिये यूं ही शांत रहना आसान नहीं। इसका मतलब कोई रुका हुआ नहीं। नींद में होते हैं तो सपने गतिमान हैं। उनकी गति और पहुंच यहां तक नहीं। न जाने कितनी दूर तक जाते हैं सपने और हमें ले जाते हैं। कल्पनाओं को साकार करने का बेहतर और सुलभ तरीका हैं सपने। दिन में सपने देखने का मन करे तो देखो लेकिन साकार होते हुये सपने अच्छे लगते हैं।

जिंदगी चलती फिरती किताब है जिसके पन्ने कोरे हैं। जितना जिये उतने पन्ने भरे गये बाकि कोरे हैं। इस किताब को कभी भरा नहीं जा सका। इसके कुछ पन्ने जीवन के रंगों से रंगे हैं तो कुछ बेरंग हैं। रुकी थमी यादों के कई पाठ सलीखे से लगे हैं। लिखावट पर किसी का ध्यान नहीं जाता। इतना कुछ पढ़ने को हैं कि पढ़ने में कई जीवन कम पड़ जायें। वाह! क्या कमाल है जिंदगी।

हंसती हुई अच्छी लगती है जिंदगी। रोना उसे संभालने के लिये साथ रहता है। दोनों में प्रेम है और यह रिश्ता अटूट है। कभी न टूटने वाला तथा इतराता हुआ रिश्ता। बचपन से लेकर आजतक तो इन्होंने संभाला हैं हमें। दुखी तो रोये, खुशी इतनी हुई तो रोये। खुशी के आंसू आये। हो गया न हंसना-रोना एक साथ।

उन पलों का शुक्रिया जो कुछ सिखा गये। जीवन तो जैसे-तैसे चल रहा है मगर तेजी के लिये किसी का सहारा चाहिये। खुद को मैंने तलाश किया। आप शायद हैरान हों लेकिन हम ही तो हैं जो खुद को चलाते हैं तेज भी, धीमे भी।

उम्मीदों की टोकरी को सिर पर अभी भी उठाये हैं। शायद इसी ख्याल में कि इक दिन यह टोकरी फूलों की बरसात करेगी। बरसात का इंतजार है और एक ओर उम्मीद की टोकरी आकर टिक गयी है। न जाने कितनी टोकरियों का वजन है, पता नहीं चलता। भला उम्मीदों का भी कोई वजन होता है। वे तो हल्की-फुल्की हैं, शांत हैं, चुप रहती हैं पर पूरी होने पर बहुत चहकती हैं।

जीवन के पहलू कई हैं जिनकी शुरुआत कीजिये तो खत्म होने का नाम नहीं लेंगे। वैसे अनंत का कोई छोर नहीं होता। जीवन को अंत होते हुये भी इसका अंत नहीं। जिंदगी रुकती नहीं, चलती है, न खत्म होती है। यह एक ऐसा ख्याल है जो निरंतर है।

समझ से परे है जीवन, समझना बस से बाहर है। मैं तो यहीं ठहर गया, वह नहीं ठहरा। रहस्य वह जो न समझा जा सके। इसलिये जीवन एक रहस्य है जिसकी शुरुआत तो है लेकिन अंत का पता नहीं। कल्पना से भी परे है और बहुत सी बातों को संजोये है जीवन।

-harminder singh

Monday, November 3, 2008

बूढ़ी काकी कहती है




कई ऐसे पल होते हैं जिन्हें हम कीमती कहते हैं। उन्हें कहां आसानी से भुलाया जा सकता है। छाप गहरी हो तो वह जीवन भर के लिये अमिट हो जाती है और जिंदगी में एक छाप नहीं कई रंग एक साथ अंकित हो जाते हैं। हम सोचते रह जाते हैं। उधर सारा खेल रचा जा चुका होता है। यह जीवन के रंग भी हैं

बूढ़ी काकी मुझे कहानी सुनाती है। मैं बड़े चाव से सुनता हूं। उसके चेहरे की झुर्रियां उसकी उम्र को ढक नहीं सकतीं। वह बताती जाती है, मैं सुनता जाता हूं। काकी कहती है-‘जीवन के रंग एक से नहीं होते। बहुत उतार-चढ़ाव होते हैं, बड़ी फिसलन होती है। मामूली कुछ नहीं होता।’

मैं चुपचाप कभी अपने हाथों को खुजलाता हूं, कभी काकी के चेहरे को देखता हूं। समझ से परे लगता है कि एक व्यक्ति मेरे सामने है, जीवित है मेरी तरह। वह भी हंसता-बोलता है, फिर क्यों वह बूढ़ा है, मैं जवान।

बूढ़ी काकी से यह प्रश्न किया तो वह बोली-‘यह सच है कि हम पैदा हुये। यह भी सच है कि हम जिंदगी बिताने के लिये जीते हैं। और यह भी सच है कि उम्र बीतती है तो बुढ़ापा आना ही है।’

मैं अपने प्रश्न का उत्तर शायद ही पूरा पा सकूं क्योंकि यह सवाल और उत्तर उलझे हुये हैं। मैं पशोपेश में हूं कि पैदा सिर्फ बूढ़ा होने के लिये ही होते हैं या पैदा मरने के लिये होते हैं। इसपर काकी थोड़ा हंसती है, कहती है-‘यह नियम है कि जो उत्पन्न हुआ है, वह समाप्त भी होगा। जैसे-जैसे वस्तुएं पुरानी होती जाती हैं, वे क्षीण भी होने लगती हैं और यहीं से उनका अंतिम अध्याय शुरु होता है। कहानी हर किसी की शुरु होती है, मगर खत्म होने के लिये। हम उन्हीं वस्तुओं में से हैं जो उम्र के बढ़ने के साथ ही क्षीण हो रही हैं।’

‘समय के बीतने के बाद किसी भी चीज की कीमत बदल जाती है। शुरुआत से अंत तक का सफर मजेदार ही रहता हो यह सही नहीं। अब यह निर्णय हमें करना है कि हम जर्जर काया वालों को सलाम करें या उन्हें जिनके बल पर दुनिया घूमती है। यह सच है कि दोनों महत्वहीन नहीं, लेकिन नजरिये की बात है कि फर्क महसूस किया जाता है।’

काकी मुझे प्यार से पुचकारती है। उसकी कहानी शुरु होती है-
‘घर का आंगन था, कोई रोक-टोक नहीं। बच्ची थी आखिर मैं। समय ही समय था, बीत जाये कोई गम नहीं। अठखेलियां होती थीं खूब। फिक्र का नामोनिशान न था। एक अनजानी सी लड़की, अनजान देश में जी रही थी। कायदा क्या होता है कौन जाने? बस मैं ही मैं थी, अपने में मस्त। मां-बाप की लाडली इकलौती नन्हीं परी। मां खुश होती, कहती-‘देखो, कैसे लगती है मेरी लाडो।’

‘हां, सबसे सुन्दर है ना।’ पिताजी भी मां के साथ कहते।

‘अरे, जी करता है देखती रहूं।’

‘मेरा भी मन नहीं करता आंख बचाने को।’

‘निहारती रहूं, बस इसी तरह।’

‘मैं भी.....।’

‘हां।’

‘सुन्दर राजकुमारी।’

‘प्यारी रानी।’

‘भावुकता को समेटा नहीं जाता, वह तो बहती है, बहे चली जाती है। आंसू आंखों में मचलने के बाद गिरते रहे। बूंदे अनगिनत थीं।’

‘मैं आज वह नहीं जो पहले थी और यही तो बदलाव की सच्चाई है। तुम छोटे हो, मैं बुजुर्ग कितना फर्क है।’

इतना कहकर काकी रुक गयी। उसका चेहरा कुछ गंभीर हो गया। काकी किसी सोच में पड़ गयी।

यह सोच भी अजीब चीज होती है। वक्त के साथ चलती है और वक्त-बे-वक्त सिमट भी जाती है।

काकी से मैंने पूछा-‘आप कुछ पुरानी यादें टटोल कर भावुक क्यों हो गयीं?’

काकी ने मुस्कराहट के साथ कहा-‘पुरानी बातें यूं भूली नहीं जातीं। कई ऐसे पल होते हैं जिन्हें हम कीमती कहते हैं। उन्हें कहां आसानी से भुलाया जा सकता है। छाप गहरी हो तो वह जीवन भर के लिये अमिट हो जाती है और जिंदगी में एक छाप नहीं कई रंग एक साथ अंकित हो जाते हैं। हम सोचते रह जाते हैं। उधर सारा खेल रचा जा चुका होता है। यह जीवन के रंग भी हैं।’

‘यादों की पोटली आकार में कितनी भी क्यों न हो, होती बे-हिसाब है। सदियां बीत जाती हैं इन्हें समझने में, लेकिन यादें इकट्ठी एक जिंदगी में इतनी हो जाती हैं, कि संजाते रहिये, और संजोते रहिये।’


-harminder singh

Friday, October 31, 2008

किस मकसद के लिये?

दिल्ली ठहरी नहीं, लोग रुके नहीं, बस एक सिहरन थी जो कम हो रही है, बस इसी सोच के साथ कि अगला धमाका न हो


आतंकवाद के कदम इतने आगे जा चुके हैं कि वे काफी जद्दोजहद के बाद ही रोके जा सकते हैं। एक कौम को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है और भविष्य में इसके कोई आसार नहीं कि लोगों की सोच में बदलाव आये। कभी-कभी परिस्थितियां ऐसी हो जाती हैं कि उनके कारण समाज के वर्गों में असहजता उत्पन्न हो जाती है। यही आजकल हो रहा है। भीड़ बढ़ती जा रही है, लोग उसमें शामिल हैं लेकिन कुछ गिने-चुने जहर की पुडि़या लिये घूम रहे हैं।

बम फटने का इंतजार कर रहे हैं। पता नहीं कब क्या हो जाये? कल निशाना हम भी हो सकते हैं और परसों कोई और। लोगों का ढेर बिखरा हुआ भी हो सकता है और अपनों को तलाशती आंखें भी। पर उन्हें इससे क्या लेना-देना जो इंसानों की मौत के खेल को खेल रहे हैं। यह उनका आनंद है और वे इसका ज’न भी जरुर मनाते होंगे। यहां का मातम, वहां का जश्न! सोचने पर मजबूर करता है कि हम हैं क्या? कैसे हो गये हैं और क्यों?

पता नहीं वक्त सिमटेगा या हमें समेटेगा। लेकिन हम इतना जानते हैं कि हम खुद ही खुद को मारने का संकल्प लेते जा रहे हैं। जेहादी होते जा रहे हैं। मकसद कितना और कैसा है, मगर खून बहाने का मकसद साफ नजर आता है। इससे क्रूर क्या हो सकता है कि बच्चों और महिलाओं को भी नहीं बख्शता एक धमाका।

बड़े शहर घूमने के ख्बाव देखे थे कभी, आज डर लगता है कि कहीं कुछ ऐसा-वैसा न हो जाये। दिल्ली तो राजधानी है उसमें थोड़े अंतराल पर धमाके हुये और कई जिंदगियां बिना कुछ बताये अचानक चल बसीं। ये अच्छा थोड़े ही था। दिल्ली ठहरी नहीं, लोग रुके नहीं, बस एक सिहरन थी जो कम हो रही है, बस इसी सोच के साथ कि अगला धमाका न हो।

-harminder singh

Friday, October 10, 2008

छली जाती हैं बेटियां



बेटियां अपने घरों में भी सुरक्षित नहीं। उनके शोषण की दास्तां मार्मिक है। वे अपनी कहानी किसी से कह नहीं सकतीं क्योंकि उन्हें लगता है, उनका कोई अपना नहीं, सगा नहीं। सगों द्वारा भी छली गयी हैं बेटियां। शारीरिक और मानसिक प्रताड़ना आजीवन के लिये चुभन छोड़ देती है जिसकी टीस न जीने देती है, न मरने।

बेटियों की चीखें बंद दीवारों में झटपटाती हुईं रह जाती हैं। रिश्तों के मायने फिर क्या रह गये? अपनों से दुखी हैं बेटियां।

खुली हवा में सांस लेने की सोच का गला घोंट दिया जाता है। आसमान में उड़ने की तमन्ना का ढेर भरभराकर ढह जाता है, ताश के पत्ते बिखर जाते हैं। लड़की की उम्मीदों को फड़फड़ाने के लिये छोड़ दिया जाता है।

जब अपने पराये सा सुलूक करें तो स्थिति अच्छी नहीं रह जाती। लड़कियों को बेमतलब पीटा जाता है। उनसे कई गुना काम कराया जाता है। जरा-जरा सी बात पर दुत्कार मिलती है। यह सब नहीं, बहुत कुछ होता है बेटियों के साथ।

उनके चेहरों पर शंका की लकीरें हैं, डरी-सहमी सी हैं पर खामोशी कुछ कहती है और बहुत कुछ। पढ़ने की उन्हें जरुरत नहीं क्योंकि परिवार वाले कहते हैं-‘पढ़-लिख क्या करेगी? दूसरे घर चौका-बरतन ही तो करना है। घर-बार की बात सीखना चाहिये।’ यह सोच धीरे-धीरे सिमट रही है, बेटियां अभी भी बेटों का दर्जा नहीं पा सकीं।

बेटियों की कहानी रोती-बिलखती है और वे मजबूर हैं। उनके कंधे कमजोर नहीं, मगर समाज की बेडि़यां उन्हें रह रहकर रोकती हैं। बहुतों ने बंधनों से खुद को आजाद किया है, नये आसमान की ओर रुख किया है। वे बदली हैं, उन्होंने ओरों को बदला है। यह उनकी कामयाबी का परचम है।


-harminder singh

Monday, October 6, 2008

मां ऐसी ही होती है



मां किस्मत वालों को मिलती हैं। वे किस्मत वालें हैं जिनके पास उनकी मां है। जो लोग अपनी मां को खो चुके हैं, वे शायद दुखी हैं और कभी-कभी बहुत दुखी भी। उनकी आंखों में आंसू हैं क्योंकि कोई अपना उन्हें छोड़ कर चला गया


मां होती ही ऐसी है। बच्चा हंसता है, तो मां हंसती है। वह रोता है, तो मां भी रोती है। मां की ममता को पहचाना बहुत कम लोगों ने है। उसके लिये हम हमेशा छोटे ही हैं, दुलारे भी हैं और प्यारे भी। उसके जाने के बाद उसकी याद हमें आयेगी, यह हम जानते हैं। वह कभी न लौट कर आने के लिये हमसे केवल एक बार विदाई लेगी। यह विदाई अंतिम होगी।

हम कहते हैं कि मां किस्मत वालों को मिलती हैं। वे किस्मत वालें हैं जिनके पास उनकी मां है। जो लोग अपनी मां को खो चुके हैं, वे शायद दुखी हैं और कभी-कभी बहुत दुखी भी। उनकी आंखों में आंसू हैं क्योंकि कोई अपना उन्हें छोड़ कर चला गया। उसके अंतिम पल में कई अपनी मां के पास थे और कई को पता ही नहीं कि उनकी भी कभी कोई मां थी। पाने से ज्यादा खोने का गम होता है। और पीड़ा तब अधिक बढ़ जाती है, जब आप उसे खो देते हैं जिसे आप बहुत चाहते हैं, शायद बहुत ज्यादा। यह सब इतना अचानक हो जाता है कि आपको पता ही नहीं चलता कि कोई आपसे कब का रुठ कर चला गया। ऐसी जगह जहां से लौटना हर किसी के लिये नामुमकिन रहा है। मेरी आंखें नम हो गयी हैं जब मैं यह लिख रहा हूं क्योंकि मेरे पास भी ऐसा कुछ घटा है जिसके बाद यह लिख सका हूं। एक बच्चा कभी पहले बहुत खुश हुआ करता था। उसकी हंसी रोके नहीं रुकती थी। वह हंसता हुआ अच्छा लगता था। बातें बनाना कोई उससे सीखे। मुझे उसने प्रभावित किया था। वह अब दुखी है और उसका दुख कभी न खत्म होने वाला है। उसका कोई उसे छोड़ कर चला गया और वह एकदम अकेला पड़ गया। उसकी आंखें किसी को खोजती होंगी, वह अब उसके सामने नहीं है। वह रोता है और जी भर कर रोता है। भला एक 12 साल का बच्चा कर भी क्या सकता है। ऐसे मौकों पर रोया ही तो जाता है। उसकी मां अब रही नहीं। उसकी यादें हैं बस, जिनको ध्यान कर सिर्फ रोना आता है। वह प्यार अब नहीं रहा, दुलार पीछे छूट गया।

किसी को भूला इतनी आसानी से नहीं जा सकता। इसलिये कहा गया है-
It takes only a minute to get a crush on someone, an hour to like someone, and a day to love someone but it takes a lifetime to forget someone.

यह सच है कि अपनों से दूरी और बहुत लंबी दूरी जिंदगी भर का दर्द दे जाती है। हम उन्हें खुशी पता नहीं कितने दे पाते हैं लेकिन उनके दूर चले जाने पर रोते बहुत हैं। यह हमारी कमजोरी है कि हम भावनाओं में आसानी से बह जाते हैं। यह लगाव अदृश्य होता है, लेकिन मजबूती से जुड़ा हुआ। इसकी डोर कभी कमजोर नहीं पड़ती और शायद समय-दर-समय और मजबूत होती जाती है। यही जीवन का सच है। रिश्तों की डोरी हमें जोड़े रखती है, नहीं तो हम कब के बिखर गये होते।

मां के लिये यह गीत गुनगुनाया जा सकता है-
‘तेरी उंगली पकड़ के चला,
ममता के आंचल में पला,
मां ओ मेरी मां, मैं तेरा लाडला।’

-harminder singh

Monday, September 22, 2008

यूं ही नहीं मनाया जाता जश्न



जश्न यूं ही नहीं मनाया जाता। वजह होती है जश्न मनाने की। आजकल हम जल्दी में हैं। इतने काम हैं, फुर्सत ही नहीं, उठने-सोने की भी नहीं। खाना-पीना जैसे-तैसे हो जाता है। यह व्यस्त लोगों की कहानी है, शायद जरुरत से ज्यादा व्यस्त लोग, बिज लोग।

कामयाबी की खुशी मनायी जाती है और जश्न भी। जीतना एक कामयाबी ही तो है, लेकिन एक इंतजार के बाद की कामयाबी और लंबे संघर्ष की।

बच्चे खेले, जीते और हारे मगर एक खुश है, दूसरा दुखी। जीतने की खुशी बचपन से ही शुरु हो जाती है। हार-जीत के पहलुओं को छूने की आदत हर किसी को कई सीखों से अवगत करा देती है। छोटी-छोटी चीजों को इकट्ठा करने के बाद कई बड़ी और अद्भुत चीजें बनती हैं।

खेल फैसले के बिना पूरे नहीं होते। बिना हार-जीत का खेल कैसा? जिंदगी का खेल कम दायरे वाला नहीं। वह कभी न रुकने वाला खेल है। जहां खेल रुका, समझो खिलाड़ी रुका, फिर वह कभी नहीं खेल पायेगा और न देख पायेगा। यह जिंदगी के खेल का अंतिम पन्ना होगा।

अफसोस कि हम अपने में सिमट कर रह गये, जश्न की फुर्सत कहां? जश्न तो खुशियों में मनाये जाते हैं या ऐसे पलों में जो दुर्लभ हैं। आप इतने व्यस्त हैं कि समय नहीं खुद से बात करने का भी। हम उतने खुश भी तो नहीं, जो खुशी से रह सकें। भाग-दौड़ और बस भाग-दौड़। पता नहीं कब ठहरेंगे कुछ पलों के लिये जब केवल हम ही होंगे, बस हम ही।

उम्मीद करें कि ऐसा हो क्योंकि खुद से बातें भी तो करनी चाहिये, नहीं तो खुद का फायदा ही क्या? खुद से बात करने की कोशिश करें, शायद इससे मसला सुलझ जाये।

-harminder singh

Sunday, September 14, 2008

घर बाहर सभी जगह उपेक्षित बुढ़ापा



वृद्धावस्था एक ऐसी बीमारी है जिसका इलाज मौत के अलावा और कुछ नहीं। जब अवस्था अपने अवसान के द्वार तक पहुंचती है तो वृद्ध मानव उस समय बहुत थक चुका होता है। उसे उस समय किसी ऐसे व्यक्ति की चाह होती है जो उसे ढांढस बंधाये और उसे अपनत्व दिखाये। बहुत कम लोग ऐसे होंगे जिन्हें जीवन के अंतिम पड़ाव में अपनों ने सहारा दिया हो, उनके दुख-दर्द को बांटा हो। अधिकांश लोग अपने वृद्ध मां-बाप को एक बोझ मानने लगते हैं तथा उनसे जल्दी से जल्दी छुटकारा चाहते हैं। वे लोग वास्तव में कितने बेवकूफ होते हैं? उन्हें यह मालूम नहीं कि उन्हें भी कुछ दिन इसी स्थिति से गुजरना होगा। जिन बच्चों को वह अपना मानकर उनकी हर आवश्यकता पूरी करने के लिये भारी मशक्कत और अमानवीय कार्य कर रहा है। जिस प्रकार उसके मां-बाप ने बचपन में सबकुछ अपनी संतान पर समर्पित कर दिया और उसके प्रतिफल में घोर निराशा, अभाव भरा समय और उससे भी कठिन अपने दुख-दर्दों को बयान तक करने पर प्रतिबंध।

वृद्धावस्था व्यतीत कर रहे किसी व्यक्ति की स्थिति का वर्णन आदि श्री गुरु ग्रंथ साहिब में किसी संत ने यों किया है-
नैनहू नीर बहे तन खीना केश भये दुध बानी। रुंधा कंठ सबद नहीं उचरै अब क्या करै परानी।।
अर्थात् आंखों से पानी बह रहा है, शरीर क्षीण हो चुका, केश दूध की तरह सफेद हो गये, गला रुंध गया जिससे शब्दों का उच्चारण भी नहीं कर सकता।

ऐसी स्थिति होने पर वह क्या करे? पूरी तरह निराश्रय होने पर उसे ईश्वर के अलावा और कोई सहारा नहीं दिखायी देता। संत जी इस दुख के निराकरण के लिये कहते हैं कि- राजा राम हाए वैद बनवारी। अपने जन को लेहु उबारी।’ अर्थात् वृद्धावस्था रुपी रोग की दवाई केवल ईश्वर के पास ही है। यदि उसकी डोर पकड़ ले तो वे अपने भक्त को जरुर उबारेंगे।

गुरु ग्रंथ साहिब में ही गुरु तेग बहादुर जी की वाणी भी यही कहती है। तथा राम नाम न जपने वाले को बावरा कहकर नाम के लिये प्रेरित करते हैं-‘विरध भयो सूझै नहीं, काल पहुंचयो आन। कहु नानक नर बावरे क्यों ना भजै भगवान।।’

हमारे संतों की वाणी बुढ़ापे के दुखों के निराकरण का भक्ति ही अमोघ अस्त्र मानती है। लेकिन परमात्मा की भक्ति भी वही लोग नहीं करने देते जिन्हें उन्होंने जन्म दिया, पाल पोस कर इस योग्य बनाया कि वे अपना तथा अन्य जरुरतमंदों को सहारा दे सकें। कई वृद्धों की दारुण स्थिति देखकर हृदय रो उठता है लेकिन उनके वारिसों का हृदय द्रवित नहीं होता।

पिछले कुछ वर्षों में भारत सरकार और राज्य सरकारों ने वृद्ध जनों के लिये कुछ कल्याणकारी कदम उठायें हैं जैसे वृद्धावस्था पेंशन आदि। इस तरह की योजनायें देखने सुनने में बहुत ही लुभावन लगती हैं। यदि इसकी हकीकत में पहुंचते हैं तो इस तरह की व्यवस्था को क्रियान्वित करने वाले समाज कल्याण विभाग के कर्मचारियों की प्रणाली पर बहुत ही क्षोभ और दर्द होता है। कई वृद्ध तथा विधवा महिलायें विकास खंड कार्यालयों पर भूखी-प्यासी संबंधित कर्मचारियों की प्रतीक्षा में सुबह से शाम तक बैठी रहती हैं। उनके आंसू पोंछने वला कोई नहीं दिखाई देता है। अधिक परेशान होने पर उन्हें दलाल की शरण लेनी पड़ती है। जो दो-चार सौ रुपये मिलने होते हैं उनमें पहले ही बंदरबांट शरु हो जाती है। बी.डी.ओ. से लेकर सी.डी.ओ. तक इस हरकत से पूरी तरह वाकिफ होते हैं लेकिन उनकी माता-पिता के सदृश्य उनसे वे बचकर निकल जाते हैं। सभाओं में गोष्ठी और भाषणों में इनकी बातों से ऐसा लगता है मानों वे वृद्धों की स्थिति से बहुत ही दुखी हों और उनके लिये बहुत कुछ कर रहे हों। अधिक कमजोर और कृश्काय वृद्ध बेचारे कहीं आ जा भी नहीं सकते। जे.पी. नगर जनपद की सुमिरन नामक एक दलित वृद्धा सी.डी.ओ. कार्यालय पर किसी तरह अपने गांव से पहुंच गयी लेकिन इसे उसकी बदकिस्मती कहें या भ्रष्टाचारी सरकारी नौकरों की कारस्तानी। उसके ऊपर को टैक्ट्रर उतर गया जिससे वह बुरी तरह घायल हो गयी और जल्दी ही मर भी गयी। उसे मिलने वाली राशि पता नहीं कहां चली गयी। यह किसी एक ही सुरमन की व्यथा नहीं बल्कि देश भर में न जाने कितनी सुरमन जीवन के अंतिम पड़ाव में कष्ट भोग रही है। भरे पूरे परिवारों में उनकी ओर कोई नहीं झांकता। कई महिला हितों के हिमायती एन.जी.ओ. भी जानबूझकर इधर से आंखें बंद किये हैं।

-harminder singh

Friday, September 12, 2008

लाडले बच्चे



मां-बाप ने तमाम जीवन जिद्दीपने को सहा, बूढ़े हुये तो अकेले पड़ गये। अब बचपन का लाड-प्यार किस मोल का रहा। तब बेटी ने अपने मां-बाप को सहारा दिया। वह सुख था तो अंतिम दिनों का और अधिक भी नहीं, लेकिन यह बताने के लिये काफी है कि बेटे बेटी की तरह नहीं हो सकते। लाडली बेटी है तो वह भी जिद्दी होगी, लेकिन सहारा भी होगी

लाडले बड़े हो रहे हैं। मांओं के प्यारे कहलाते हैं ये। सुना है, पिता भी कम इन्हें नहीं चाहते। तब तो ऐसों की मौज है। ना मां का डर, ना बाप का। कुछ निठल्लापन भी ‘एक्सट्रा फैट’ की तरह आ गया है। वाह हो लाडली औलादों की। वैसे प्यार इन्हें भरपूर मिलता है, इसमें कोई शक नहीं।

लाडला बेटा है तो क्या कहने। सारी फरमाइशें फौरन पूरीं।

‘बेटे के लिये क्या लायें?’ पापा कहते हैं।

बेटा मुंह पिचकाकर कहता है-‘आईसक्रीम।’

पिता-‘कौन सी वाली।’

पिता कई फ्लेवर बताता चला जाता है।

बेटा कहता है-‘हां, यही वाली।’

पिता का झटपट बाजार का रुख, बेटे के लिये आईसक्रीम हाजिर।

बाप को पता नहीं कि बेटा अभी फरमाइशों की शुरुआत कर रहा है। बाप इससे भी अंजान है कि बेटे की गठरी बड़ी मोटी है, फरमाइशें ही फरमाइशें हैं, और न सुनने का वह आदी नहीं।

उम्र बढ़ती है, नखरे भी। ठीक है, मांगे पूरी की जा रही हैं। जिद्दीपने की जड़ें गहरी हो रही हैं। उनकी सिंचाई ढंग से जो की जा रही है। बागवां बेहाल होकर भी भले चंगे हैं। यह स्नेह है, औलाद का मोह, लेकिन इसे हम पुत्र का स्नेह कहेंगे।

पुत्र इकलौता है तो सोने पर सुहागा। वह अल्हड़ है, मस्त है। घर सिर पर उठाकर चलने की उसकी आदत परिवार में बुरी नहीं मानी जाती। वह मनमानी वाला है, गुस्सैल भी। खाता कम, बिखेरता ज्यादा है। शांत रहने के बजाय उद्दंड हो चला है। जबकि बेटी एक कोने में बैठी है। वह उसे तंग करने में कोई कसर छोड़ेगा नहीं। मां-बाप इस पर ध्यान कम देंगे। बेटा पहले, बेटी बाद में।

मां-बाप ने तमाम जीवन जिद्दीपने को सहा, बूढ़े हुये तो अकेले पड़ गये। अब बचपन का लाड-प्यार किस मोल का रहा। तब बेटी ने अपने मां-बाप को सहारा दिया। वह सुख था तो अंतिम दिनों का और अधिक भी नहीं, लेकिन यह बताने के लिये काफी है कि बेटे बेटी की तरह नहीं हो सकते। लाडली बेटी है तो वह भी जिद्दी होगी, लेकिन सहारा भी होगी।

-harminder singh

अमर उजाला में वृद्धग्राम

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AMAR UJALA BLOG KONA
monday, 8 sept. 2008

Thursday, September 4, 2008

बुढ़ापे का मर्म


अभिवादन शीलस्य नित्यम् वृद्धोप सेवनम् च।

चत्वारि तस्य वर्धंन्ते आयु विद्या यशोबलम्।।

अर्थात् अभिवादन के योग्य और वृद्धों की सेवा करने से उसकी आयु, विद्या, यश और बल, चार चीजें बढ़ती हैं।

हमारे शास्त्रों का उपरोक्त वचन सौ फीसदी सत्य है। जो लोग अथवा समाज इसका पालन करते हैं, वे सभी प्रगति की ओर अग्रसर होते हैं। प्राचीन काल में ऐसे अधिकांश लोग थे जो इसका पालन करते थे। यही कारण था कि हमारा देश हमेशा से ऋषि-मुनियों और साधु-संतों का रहा है। अपने से बड़े और प्रतिष्ठित पदों पर विराजमान लोगों का सम्मान करना लोग अपना कर्तव्य मानते थे।

जब हम आधुनिक भौतिकवादी युग के लोगों की प्राचीन मानव से तुलना करते हैं तो पता चलता है कि उपरोक्त संस्कारों से हम कटते जा रहे हैं। यही कारण है कि हमारे पारिवारिक रि’ते भी आये दिन तार-तार होते नजर आते हैं। संयुक्त परिवार टूट कर बिखर रहे हैं। लोग सम्मान चाहने का प्रयास तो करते हैं लेकिन वे दूसरों का सम्मान नहीं करना चाहते।

जिन लोगों ने परिवार की रक्षा करते, उन्हें अच्छा भोजन और शिक्षा दिलाने अपनी बहुमूल्य युवावस्था को खर्च कर दिया। उनमें से अनेकों वृद्ध अपनी दुर्दशा को देखकर मर्माहत हैं। अपनी सारी संपत्ति बेटे और अन्य लोगों को देने वाले वृद्धों का और भी बुरा हाल है। कई अपनों की उपेक्षा के शिकार हैं। वे मरना चाहते हैं लेकिन ऐसा भी नहीं हो पाता। बहुत कम वृद्ध ऐसे हैं जिनकी संतानें उनके अंतिम दिनों में उन्हें किसी परेशानी का अहसास नहीं होने देते। घर और बाहर उपेक्षित होने वालों की भी कमी नहीं।

अपने सुख में व्यवधान न पड़े, ऐसे युवक अपने बुजुर्गों को अलग-थलग कर तन्हाई में छोड़ देते हैं। उन्हें उनके सुख-दुख से कोई सरोकार नहीं। वे यह नहीं सोचते कि उनके सिर पर भी बुढ़ापा प्रतीक्षा में है कि जल्दी से जल्दी उन्हें भी वह अपनी गिरफ्त में ले ले।

फिल्मों में भी वृद्ध उपेक्षित हैं। नायक कहता है-‘बुढ़ापे तेरा मुंह काला-जवानी तेरा बोलबाला।’ और भी-‘ना बाबा ना बाबा पिछवाड़े बुड्ढा खांसता’ या ‘क्या करुं राम, मुझे बुड्ढा मिल गया।’

जिधर भी देखो वहीं इस बुढ़ापे का उपहास हो रहा है। ‘वृद्धोप सेवनम्’ की जगह उन्हें परेशान किया जा रहा है और वह भी उनके द्वारा जिन्हें वृद्धों ने उठना, बैठना और चलना सिखाया है। उनके उज्जवल भविष्य के लिये वह सब किया है जितना वे करने में समर्थ भी न थे।

-harminder singh


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शुरुआत तो हुई, बदलेगा इंडिया

महान शिक्षाविद श्योराज सिंह नहीं रहे


बुढ़ापे का इश्क
बुढ़ापा ये नहीं कहता कि जिंदगी का सफरनामा यहीं तक। बूढ़ों को भला कोई रोक सकता इश्क करने से। अरे, इश्क कीजिये, फिर समझिये कि जिंदगी क्या चीज है। लेकिन अब तो जिंदगी उतनी बची नहीं, लेकिन जितनी बची है उतनी में बहुत कुछ सोचा जा सकता है


आखिरी पलों की कहानी
दुनिया को करीब से देखा है इन्होंने। दुनिया बोलती आंखों का सितारा है। मोह भी यहीं है और माया भी। बच्चे बड़े हो रहे हैं और नौजवान बूढ़े। यह तो होता ही आया है कि बीज उगता है तो दूसरा पेड़ बन कर गिर भी जाता है। उम्र का सारा खेल यह है। इसका कोई शातिर खिलाड़ी भी तो नहीं


अभी तक कहां जीता रहा?
उलझे हुये बोलों को सुनने की कोई गुंजाइश नहीं है। मैं अपने को स्थिति के साम्य करने की कोशिश कर रहा हूं। पल दो पल की मुस्कराहटों का मुझसे क्या लेना देना

Wednesday, September 3, 2008

शुरुआत तो हुई, बदलेगा इंडिया



बहुत खुश हैं हम। इसके कारण हैं। हम पहली बार ओलंपिक से तीन तमगे छीन लाये हैं। बिंद्रा सोने के साथ खड़े हैं। गर्व से चौड़ी छाती हो गयी है हमारी। बिजेन्द्र और सुशील की शर्मीली मुस्कराहट और अधिक उत्साहित कर देती है। मन झूमने को करता है। विजय-गीत ऐसे ही लोगों के लिये गाये जाते हैं। तिरंगा शान से लहरा रहा है और कह रहा है-‘जस्बा है तो जीत है।’

हाकी में लगातार छह ओलंपिक तक सोना लाये हम। कुल आठ सोने हो चुके हैं राष्ट्रीय खेल के जिसका सिलसिला 1980 के मास्को में सोने के साथ आजतक थमा हुआ है। समय काफी लंबा गुजर गया। 2008 में जाकर अभिनव बिंद्रा ने सोना पहना।

आजकल माहौल जश्न का है। यह जश्न जीत का है। हमारे ओलंपिक के हीरो किसी भी हीरो से कम नहीं हैं। क्रिकेट के हीरो तो इनके सामने कुछ भी नहीं लगते और फिल्मी के हीरो की बात ही नहीं करनी चाहिये। इस साल भारत ने इतिहास बनाया है जिसे भूला नहीं जा सकेगा, याद रहेगा बीजिंग।

थोड़ा दुख जरुर है हमें अपने पर। एक अरब हैं हम फिर भी क्रिकेट के अलावा हम कुछ और सोचते ही नहीं। खेलों को बढ़ावा देने की बात होती है, क्रिकेट पर आकर सिमट जाती है। चीन ने 100 से अधिक मेडल जीते, इसे क्या कहेंगे। उनमें चीनी महिलाओं की हिस्सेदारी आधी थी।

अकेला एक अमरीकी तैराकी में किसी से नहीं हारा। उसके खाते में 8 स्वर्ण आये। फेल्प्स बीजिंग हारने नहीं आया था, वह अपराजित रहा। हम उन्हें देखकर कुछ तो सीख सकते हैं। एक अरब हैं हम, फिर भी बहुत पीछे। जिस दिन हमने क्रिकेट देखना छोड़ दिया उस दिन कई बदलावों से गुजरेगा भारत। इतना पैसा और समय बर्बाद कर दिया बड़े-बड़े स्टेडियम बनाने में, मिला क्या- सिर्फ एक बर्ल्ड कप। इसका कुछ प्रतिशत अगर दूसरे खेलों पर खर्च किया जाता तो कहानी कुछ ओर होती। लेकिन ऐसा लगता है कि बिंद्रा, सुशील और बिजेन्द्र से शुरुआत हुई है कुछ बदलाव की। शायद बदलेगा इंडिया।

-harminder singh




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बुढ़ापे का इश्क
बुढ़ापा ये नहीं कहता कि जिंदगी का सफरनामा यहीं तक। बूढ़ों को भला कोई रोक सकता इश्क करने से। अरे, इश्क कीजिये, फिर समझिये कि जिंदगी क्या चीज है। लेकिन अब तो जिंदगी उतनी बची नहीं, लेकिन जितनी बची है उतनी में बहुत कुछ सोचा जा सकता है



आखिरी पलों की कहानी
दुनिया को करीब से देखा है इन्होंने। दुनिया बोलती आंखों का सितारा है। मोह भी यहीं है और माया भी। बच्चे बड़े हो रहे हैं और नौजवान बूढ़े। यह तो होता ही आया है कि बीज उगता है तो दूसरा पेड़ बन कर गिर भी जाता है। उम्र का सारा खेल यह है। इसका कोई शातिर खिलाड़ी भी तो नहीं



अभी तक कहां जीता रहा?
उलझे हुये बोलों को सुनने की कोई गुंजाइश नहीं है। मैं अपने को स्थिति के साम्य करने की कोशिश कर रहा हूं। पल दो पल की मुस्कराहटों का मुझसे क्या लेना देना

Wednesday, August 27, 2008

‘नीड़ अब अपने नहीं’ 45प्लस इंडिया.com पर

वृद्धग्राम का लेख ‘नीड़ अब अपने नहीं’ उम्रदराजों की चर्चित साइट 45plusindia.com पर पढ़ सकते हैं।

इसका लिंक नीचे दे रहा हूं-

http://www.45plusindia.com/details.aspx?sid=8&id=369

महान शिक्षाविद श्योराज सिंह नहीं रहे



प्रमुख शिक्षाविद सरदार श्योराज सिंह का ह्रदय गति रूक जाने से निधन हो गया। वे 65 वर्ष के थे। उनकी मृत्यू के समाचार से पूरे प्रदेश के शिक्षा जगत में शोक छा गया। इस समाचार से कई कालेजों में छुटटी कर दी गयी और शोक सभा कर उन्हें श्रृद्धा सुमन अर्पित किये।

सरदार श्योराज सिंह जे. पी. नगर जिले के ग्राम नंगलिया बहादुरपुर में एक साधारण कृषक परिवार में पैदा हुए। उन्होंने संसाधनों के आभाव में उच्च शिक्षा प्राप्त की। क्षेत्र के ग्रामाचलों में शिक्षा का उचित प्रबंध न होने के कारण वे क्षेत्र की शिक्षा व्यवस्था के प्रति हमेशा चिन्तित रहते थे। इसी कारण इन्होंने मूढा खेड़ा गांव में एक स्कूल की स्थापना की। अल्प समय में ही सरदार जी के प्रयास से यह संस्था जनता इंण्टर कालेज के नाम से विख्यात हुई। आस-पास के गावों के ऐसे बच्चों को यहां विशेष लाभ पहुंचा जो मंडी धनौरा, अमरोहा या गजरौला आदि स्थानों पर पढने नहीं जा सकते थे। कालेज के संस्थापक और प्रधानाचार्य दोनों उत्तरदायित्वों को निभाते रहे। यह कालेज उनके कार्यकाल में अनुशासन तथा शिक्षा के क्षेत्र में प्रदेश के सर्वश्रेष्ठ कालेजों में गिना जाने लगा। यहां प्रवेश लेने वालों की भीड़ लग गयी। दूर दराज के छात्रों के लिये उन्होंने छात्रावास की व्यवस्था की जो सफलता के साथ चल रही है।

सरदार श्योराज सिंह की योग्यता को देखते हुए शिक्षा विभाग ने उन्हे माध्यमिक शिक्षक सेवा चयन आयोग का सदस्य बनाया गया। वहां भी वे सबसे कर्मठ और इमानदार शिक्षाविद के रूप में सेवायें देते रहे। उस समय जे. पी. नगर के साथ ही मुरादाबाद और रामपुर जनपदों के शिक्षा मंदिरों के हित में जो किया उसका शिक्षा जगत हमेशा ऋणी रहेगा। सरदार श्योराज सिंह ने विधिवत तीन वर्ष पूर्व प्रधानाचार्य के पद से सेवनिवृति प्राप्त की लेकिन वे एक दिन भी शिक्षा जगत की निस्वार्थ सेवाओं से विरत नहीं रहे। वे केवल मूंढा खेड़ा के कालेज की सेवा में ही नहीं बल्कि कई अन्य शिक्षण संस्थाओं को भी शिक्षा निर्देश देते रहे। अनेक शिक्षक और कालेज उनसे सलाह लेने आते थे। ऐसे लोगों का उन्होंने उचित मार्गर्शन कर शिक्षा जगत की भरपूर और निस्वार्थ सेवा की।

ग्राम कौराला के एक नव युवक स जगजीत सिंह की प्रार्थना पर उन्होंने एक इंटर कालेज और कन्या डिग्री कालेज के निमार्ण संचालक और शिक्षा व्यवस्था में अपनी योग्यता और प्रतिभा का भरपूर योगदान किया। ये दोनों संस्थायें आज क्षेत्र की सर्वश्रेष्ठ संस्थाओं में से है। यह सब स. श्योराज सिंह के दिशा निर्देश और परिश्रम का फल है।

विगत दिनों जुबीलेंट आरगेनोसिस लि0 नामक सबसे बड़ी औद्योगिक ईकाई की और से स. श्योराज सिंह को शिक्षा जगत की अभूतपूर्व की सेवाओं के लिये सम्मानित किया गया था। वे शिक्षा के क्षेत्र के अलावा कई धार्मिक और सामाजिक गतिविधियों में भी सक्रिय रहे। सरदार जी ने कभी भी अपनी सेवाओं के प्रचार प्रसार का प्रयास नहीं किया जैसा कि संप्रति हर क्षेत्र में हो रहा है। वे नाम के लिये नहीं बल्कि काम के लिये काम करते रहे। और यही उनकी महानता का कारण है। 24 अगस्त को काल के क्रूर हाथों ने उन्हें हमसे हमेशा के लिये छीन लिया। उस समय वे अपने पुत्र के पास गुड़गाव गये थे। 25 अगस्त को ब्रजघाट गंगा तट पर उनका अन्तिम संस्कार कर दिया गया।

संबंधित लिंक >>>
अनुशासन के तरफदार

-harminder singh

Friday, August 22, 2008

अधूरी कहानी

टूटी छत के नीचे बैठा सरधना कुछ बुदबुदा रहा था। जिस चारपाई पर वह था उसकी हालत भी उसकी उसी की हालत भी खस्ता थी। एकदम घिसी हुई सभी वस्तुएं एक परंपरा का बोध कराती थीं जिसके तहत कल्पनाशील चित्रकार कल्पना छोड़कर ऐसा दृश्य उकेरे जो वास्तविक लगे। सरधना की व्याख्या करने के लिये चारपाई के नजदीक लाठी मानों कुछ कह रही थी। शायद यही कि उसका और उसके मालिक का साथ पुराना है, सदियों का पुराना। लेकिन वक्त के दरवाजों की ध्वनि कर्कश हो चुकी है। कपाट कभी भी बन्द हो सकते हैं। सदा के लिये। समय के अन्तिम पड़ाव की और बढते कदमों को भला कौन रोक सकता है। खुद समय भी नहीं।

सरधना की बीमारी हर किसी की बीमारी है। जीवन की यह सच्चाई है। वह चुप है। बोले तो किससे। आसपास सब का सब निर्जन, शान्त, मूर्त रूप में। उस कोठरी में बरसों रहना पहले खलता था। अब आदत बन चुका है। परिवार से अलग एकान्त में रहता सरधना कुछ करने काबिल नहीं। उसके मुख पर मुस्कराहट की हल्की परछाई पड़ती है। फिर यकायक वह लाठी की तरफ हाथ बढाता है। पूरी उर्जा व्यय कर उठने की कोशिश करता है। वह बाहर की तेज धूप से बचने के लिये सिर पुराना गन्दा पर भद्दा सा कपड़ा ढक लेता है। पैरो में चप्पलें टूटी हालत में हैं। फिर चारपाई के नीचे रखा वह कटोरा उसके दूसरे हाथ में होता है। कुछ समय बाद सरधना सड़क के किनारे एक पेड़ के नीचे होता है। उसने सिर के कपड़े को उतार कर जमीन पर बिछा दिया और जिस पर वह बैठ गया। घण्टों बीत गये सरधना ऐसी ही मुद्रा में था मगर चुपचाप, धीरज बंधाए।

-by harminder singh

Sunday, August 17, 2008

बातें



क्या कहें,
हजार बातें हैं, कही नहीं जातीं,
बंदोबस्त पूरा है, खुलते हुये पत्तों की तरह,
ओढ़ लो चलो, बातों का कंबल,
खटर-पटर से दूर, ठहरे हुये रास्ते,
जा रही बातों की मंजिल,
टकटकी लगाये बैठा है कोई,
यूं ही नहीं बरसती हैं बातें।

अल्हड़, मस्ती में चूर, उम्मीदों से भरी हैं बातें,
खुली किताब के उड़ते हुये शब्द हैं बातें,
ये भी हैं बातें, वे भी हैं बातें,
क्या-क्या नहीं हैं बातें,
नई हैं बातें, पुरानी भी हैं,
इस रास्ते के मोड़ पर रुकीं,
उस मोड़ पर दौड़ती हैं बातें,
कभी शांत नहीं हैं बातें।

उम्मीदों की चुपड़ी हुई रोटी,
चावल से बनी खिचड़ी हैं बातें,
टोकरी पर चढ़ी धूल के कण,
हवा का शोर हैं बातें,
रुई की गरमाहट, तकिये का आराम,
सरपट दौड़ती गाड़ी, बिना टायर की साईकिल,
मस्त हाथी की चिंघाड़ हैं बातें।

खिलते फूल की खुशबू जो महक रही है,
गुंजन जो हो रही है,
रंग जो बह रहे हैं,
सब की तरह चहकती हैं बातें।

बचपन की यादें समेटे,
पड़ोसन की चुगली हैं बातें,
पेड़ की डाल की लचक हैं बातें,
मोम की मुलायम परत हैं बातें,
सूखे पत्ते की खड़खड़ाहट हैं बातें,
गूंगे की फरमाईश का मर्म हैं बातें।

कल का सपना,
आज का सवेरा,
बादलों का अंधेरा,
पक्षियों का बसेरा,
सब कुछ हैं बातें।

कवि की कल्पना का सूखा समुद्र,
यम की गली का चैराहा,
टेसू के फूल का सौंदर्य हैं बातें,
गधे की दुलत्ती भी हैं बातें,
नीम की छाल की तरह,
निंबोरी सी लाभदायक,
आंवले सी खट्टी,
शहद सी मीठी,
त्रिफले सी कड़वी हैं बातें।

निराली हैं,
चालाकों की चालाकी का औजार,
नेताओं की कुर्सी का मोह, और
स्वार्थ से परिपूर्ण हैं बातें,
चिडि़यों का शोर थमने के बाद
सांप की सरसराहट हैं बातें,
कलम की स्याही से लिखी इबारत,
पन्नों के मोड़, अक्षरों की वनावट की तरह हैं बातें।

बीमार भी करती हैं बातें,
ताजगी की तरह हैं बातें,
खुली की दहाड़ सी भी,
मच्छर की झूं-झूं सी भी,
पर्वत की ऊंचाई,
खाई की गहराई,
समेटे हुये हैं बातें।

पानी को रोकती चट्टानों सी चिकनी,
रेत की परत सी खुरदरी हैं बातें,
नेत्रों की खुली पलकों सी,
हिलतें ओठों सी,
फड़फड़ाती हैं बातें,
कुछ भी नहीं, लेकिन
बहुत कुछ कहती हैं बातें।

-by harminder singh

Wednesday, August 13, 2008

पापा की प्यारी बेटी


पापा, प्यार और बेटी काफी जुड़े हुये हैं। पिता को सबसे प्यारी अपनी बेटी होती है। सबसे छोटी बेटी कलेजे का टुकड़ा होती है उनकी नजर में। यह आमतौर पर देखने में आया है कि एक बाप अपनी बेटी को हद तक चाहता है। डोली विदा होती है, तो उसकी आंखें ज्यादा नम होती है। वह भीतर तक रोता है।

मां का विचार बदला हुआ होता है। उसके लिये बेटा लाडला है। मुझे लगता है यह लगाव दोनों माता-पिता में अलग-अलग होता है। पिता बेटी को आजादी देने का इच्छुक है, पर मां को जमाने की फिक्र है। कहती है-‘‘सयानी हो गयी, लोग क्या कहेंगे।’’

पिता के लिये पुत्री जैसे बड़ी ही न हुई हो, अभी छोटी ही है और सदा छोटी ही रहेगी। मां परेशान है और बेटी को ‘उपदेश’ देते नहीं थकती।

बेटी के प्रति मां का व्यवहार कई अवसरों पर भेदभाव वाला है। बेटा कुछ भी करे, करने दो। कहेगी-‘‘बेटे ऐसे ही होते हैं।’’ फिर कहेगी-‘‘ये जानें किस पर गई है। भाई को पढ़ने नहीं देती।’’

बेटी अपना दर्द पिता से अच्छी तरह बता सकती है। पिता उसकी बात ध्यान से समझता है।

फिर एक दिन ऐसा आता है जब चीजें पुरानी होने लगती हैं और लोग भी। तब लड़का पास नहीं होता। बेटी ही काम आती है। वह मां-बाप को दुखी देखकर दुखी होती है। उसका मन कोमल है, वह दोनों को एक नजर से प्रेम करती है।

-harminder singh

Friday, August 1, 2008

टूटी बिखरी यादें

टूटी बिखरी यादें भला जुड़ कैसी सकती हैं। यादें तो मोतियों की माला की तरह टूटकर बिखर गयी हैं। वक्त की कमी है, फिर भी समेट रहा हूं। मैं हताश हूं, लेकिन खुद को ऐसा होने से रोक रहा हूं। मैं इतना जानता हूं कि चलना मुझे है नहीं, रुककर क्या करुंगा, फिर भी चले जा रहा हूं। उस रास्ते रुककर नहीं देखा जहां मैं कभी ठिठोली करता था। वहा गली नहीं चला जहां उम्मीदों को पर लगे।

अपनापन तब था, अब अपने में बसा हूं। यहां सुबह ठंडी नहीं, नम नहीं, मगर उजाला तो है ही, बिना किसी काम का। मेरा मतलब न उजाले से रहा, न अंधेरे से। यादों को मिटाने की मुहिम छिड़ चुकी है। पता नहीं क्यों उलझ कर रहा गया हूं। वाकई उलझ गया हूं मैं। बीती बातें किनारे करने की अनंत कोशिशें की हैं। कुछ हासिल न हो सका। चिपकी हैं यादें। धुंधली पड़कर भी मेरे साथ खड़ी हैं यादें। भुलाये नहीं भूलती यादें। जी करता है माला को तोड़कर फेंक दूं। एक-एक कर बिखर जायेंगी यादें, लेकिन माला बिना मोतियों की है। जीवित हैं यादें और पुरानी होकर भी नयी हैं।

इकट्ठा करता-करता थकान महसूस हो रही है। बूढ़ी हड्डियां थक बड़ी जल्दी जाती हैं। वक्त को तेजी से बढ़ता हुआ देख भी भय लगता है। बहुत बदलाव है, नयापन छूट गया। पुराने पन्ने उड़ने को बेताब हैं। उन्हें सिमेटना मुश्किल है, जिल्द में जोड़ना मुश्किल है।

यादों की खुशबू बिखर गयी इधर-उधर, सब जगह। लेकिन महक आ रही है पुराने पलों से, मीठी-मीठी। खट्टे पल हैं, मीठे हैं और कड़वे भी। यहां चमक है, भीड़ है, उनमें मैं भी हूं।

तब जल्दी थी, होड़ भी। तेजी भी आगे बढ़ने की। होड़ कभी न खत्म होने वाली। बहुत आगे निकल गया। लालसा चंचल थी और चंचलता अठखेली जरुर करती है। शिखर को छूकर भी बहुत कुछ बाकी समझ रहा था। अचानक सच्चाई से सामना हुआ। झुठलाने की कोशिश की, नहीं झुठला सका। फिर अकेला हो गया एकदम अकेला। अब केवल मैं था और आज भी मैं ही हूं।

वे पल अनमोल थे लेकिन बिना मोल के। इक सपना था जो पीछे छूट गया जाने कब का। मलबे का ढेर पुराना हो गया। एक दिन साफ हो जायेगा। फिर कोई अनजाना मुसाफिर इमारत खड़ी करेगा और सिलसिला चलता रहेगा।

-by harminder singh
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कैदी की डायरी......................
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घर से स्कूल
>>चाय में मक्खी............................>>भविष्य वाला साधु
>>वापस स्कूल में...........................>>सपने का भय
हमारे प्रेरणास्रोत हमारे बुजुर्ग

...ऐसे थे मुंशी जी

..शिक्षा के क्षेत्र में अतुलनीय काम था मुंशी जी का

...अपने अंतिम दिनों में
तब एहसास होगा कि बुढ़ापा क्या होता है?

सम्मान के हकदार

नेत्र सिंह

रामकली जी

दादी गौरजां

कल्याणी-एक प्रेम कहानी मेरा स्कूल बुढ़ापा

....भाग-1....भाग-2
सीधी बात नो बकवास

बहुत कुछ बदल गया, पर बदले नहीं लोग

गुरु ऐसे ही होते हैं
युवती से शादी का हश्र भुगत रहा है वृद्ध

बुढ़ापे के आंसू

बूढ़ा शरीर हुआ है इंसान नहीं

बुढ़ापा छुटकारा चाहता है

खोई यादों को वापिस लाने की चाह

बातों बातों में रिश्ते-नाते बुढ़ापा
ऐसा क्या है जीवन में?

अनदेखा अनजाना सा

कुछ समय का अनुभव

ठिठुरन और मैं

राज पिछले जन्म का
क्योंकि तुम खुश हो तो मैं खुश हूं

कहानी की शुरुआत फिर होगी

करीब हैं, पर दूर हैं

पापा की प्यारी बेटी

छली जाती हैं बेटियां

मां ऐसी ही होती है
एक उम्मीद के साथ जीता हूं मैं

कुछ नमी अभी बाकी है

अपनेपन की तलाश

टूटी बिखरी यादें

आखिरी पलों की कहानी

बुढ़ापे का मर्म



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>>मेरी बहन नेत्रा

>>मैडम मौली
>>गर्मी की छुट्टियां

>>खराब समय

>>दुलारी मौसी

>>लंगूर वाला

>>गीता पड़ी बीमार
>>फंदे में बंदर

जानवर कितना भी चालाक क्यों न हो, इंसान उसे काबू में कर ही लेता है। रघु ने स्कूल से कहीं एक रस्सी तलाश कर ली. उसने रस्सी का एक फंदा बना लिया

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वृद्धग्राम पर पहली पोस्ट में मा. होराम सिंह का जिक्र
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वृद्धों की सेवा में परमानंद -
डा. रमाशंकर
‘अरुण’


बुढ़ापे का दर्द

दुख भी है बुढ़ापे का

सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य गिरीराज सिद्धू ने व्यक्त किया अपना दुख

बुढ़ापे का सहारा

गरीबदास उन्हीं की श्रेणी में आते हैं जिन्हें अपने पराये कर देते हैं और थकी हड्डियों को सहारा देने के बजाय उल्टे उनसे सहारे की उम्मीद करते हैं
दो बूढ़ों का मिलन

दोनों बूढ़े हैं, फिर भी हौंसला रखते हैं आगे जीने का। वे एक सुर में कहते हैं,‘‘अगला लोक किसने देखा। जीना तो यहां ही है।’’
[old.jpg]

इक दिन बिक जायेगा माटी के मोल
प्रताप महेन्द्र सिंह कहते हैं- ''लाचारी और विवशता के सिवाय कुछ नहीं है बुढ़ापा. यह ऐसा पड़ाव है जब मर्जी अपनी नहीं रहती। रुठ कर मनाने वाला कोई नहीं।'' एक पुरानी फिल्म के गीत के शब्द वे कहते हैं-‘‘इक दिन बिक जायेगा, माटी के मोल, जग में रह जायेंगे, प्यारे तेरे बोल।’’

...............कहानी
[kisna.jpg]
किशना- एक बूढ़े की कहानी
(भाग-1)..................(भाग-2)
ये भी कोई जिंदगी है
बृजघाट के घाट पर अनेकों साधु-संतों के आश्रम हैं। यहां बहुत से बूढ़े आपको किसी आस में बैठे मिल जायेंगे। इनकी आंखें थकी हुयी हैं, येजर्जर काया वाले हैं, किसी की प्रेरणा नहीं बने, हां, इन्हें लोग दया दृष्टि से जरुर देखते हैं

अपने याद आते हैं
राजाराम जी घर से दूर रह रहे हैं। उन्होंने कई साल पहले घर को अलविदा कह दिया है। लेकिन अपनों की दूरी अब कहीं न कहीं परेशान करती है, बिल्कुल भीतर से

कविता.../....हरमिन्दर सिंह .
कभी मोम पिघला था यहां
इस बहाने खुद से बातें हो जायेंगी
विदाई बड़ी दुखदायी
आखिर कितना भीगता हूं मैं
प्यास अभी मिटी नहीं
पता नहीं क्यों?
बेहाल बागवां

यही बुढापा है, सच्चाई है
विदा, अलविदा!
अब कहां गई?
अंतिम पल
खत्म जहां किनारा है
तन्हाई के प्याले
ये मेरी दुनिया है
वहां भी अकेली है वह
जन्म हुआ शिशु का
गरमी
जीवन और मरण
कोई दुखी न हो
यूं ही चलते-चलते
मैं दीवाली देखना चाहता हूं
दीवाली पर दिवाला
जा रहा हूं मैं, वापस न आने के लिए
बुढ़ापा सामने खड़ा पूछ रहा
मगर चुप हूं मैं
क्षोभ
बारिश को करीब से देखा मैंने
बुढ़ापा सामने खड़ा है, अपना लो
मन की पीड़ा
काली छाया

तब जन्म गीत का होता है -रेखा सिंह
भगवान मेरे, क्या जमाना आया है -शुभांगी
वृद्ध इंसान हूं मैं-शुभांगी
मां ऐसी ही होती है -ज्ञानेंद्र सिंह
खामोशी-लाचारी-ज्ञानेंद्र सिंह
उम्र के पड़ाव -बलराम गुर्जर
मैं गरीबों को सलाम करता हूं -फ़ुरखान शाह
दैनिक हिन्दुस्तान और वेबदुनिया में वृद्धग्राम
hindustan vradhgram ब्लॉग वार्ता :
कहीं आप बूढ़े तो नहीं हो रहे
-Ravish kumar
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इन काँपते हाथों को बस थाम लो!
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