बूढ़ी काकी कहती है-‘‘बुढ़ापा तो आना ही है। सच का सामना करने से भय कैसा? क्यों हम घबराते हैं आने वाले समय से जो सच्चाई है जिसे झुठलाना नामुमकिन है।’’.

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Monday, September 22, 2008

यूं ही नहीं मनाया जाता जश्न



जश्न यूं ही नहीं मनाया जाता। वजह होती है जश्न मनाने की। आजकल हम जल्दी में हैं। इतने काम हैं, फुर्सत ही नहीं, उठने-सोने की भी नहीं। खाना-पीना जैसे-तैसे हो जाता है। यह व्यस्त लोगों की कहानी है, शायद जरुरत से ज्यादा व्यस्त लोग, बिज लोग।

कामयाबी की खुशी मनायी जाती है और जश्न भी। जीतना एक कामयाबी ही तो है, लेकिन एक इंतजार के बाद की कामयाबी और लंबे संघर्ष की।

बच्चे खेले, जीते और हारे मगर एक खुश है, दूसरा दुखी। जीतने की खुशी बचपन से ही शुरु हो जाती है। हार-जीत के पहलुओं को छूने की आदत हर किसी को कई सीखों से अवगत करा देती है। छोटी-छोटी चीजों को इकट्ठा करने के बाद कई बड़ी और अद्भुत चीजें बनती हैं।

खेल फैसले के बिना पूरे नहीं होते। बिना हार-जीत का खेल कैसा? जिंदगी का खेल कम दायरे वाला नहीं। वह कभी न रुकने वाला खेल है। जहां खेल रुका, समझो खिलाड़ी रुका, फिर वह कभी नहीं खेल पायेगा और न देख पायेगा। यह जिंदगी के खेल का अंतिम पन्ना होगा।

अफसोस कि हम अपने में सिमट कर रह गये, जश्न की फुर्सत कहां? जश्न तो खुशियों में मनाये जाते हैं या ऐसे पलों में जो दुर्लभ हैं। आप इतने व्यस्त हैं कि समय नहीं खुद से बात करने का भी। हम उतने खुश भी तो नहीं, जो खुशी से रह सकें। भाग-दौड़ और बस भाग-दौड़। पता नहीं कब ठहरेंगे कुछ पलों के लिये जब केवल हम ही होंगे, बस हम ही।

उम्मीद करें कि ऐसा हो क्योंकि खुद से बातें भी तो करनी चाहिये, नहीं तो खुद का फायदा ही क्या? खुद से बात करने की कोशिश करें, शायद इससे मसला सुलझ जाये।

-harminder singh

Sunday, September 14, 2008

घर बाहर सभी जगह उपेक्षित बुढ़ापा



वृद्धावस्था एक ऐसी बीमारी है जिसका इलाज मौत के अलावा और कुछ नहीं। जब अवस्था अपने अवसान के द्वार तक पहुंचती है तो वृद्ध मानव उस समय बहुत थक चुका होता है। उसे उस समय किसी ऐसे व्यक्ति की चाह होती है जो उसे ढांढस बंधाये और उसे अपनत्व दिखाये। बहुत कम लोग ऐसे होंगे जिन्हें जीवन के अंतिम पड़ाव में अपनों ने सहारा दिया हो, उनके दुख-दर्द को बांटा हो। अधिकांश लोग अपने वृद्ध मां-बाप को एक बोझ मानने लगते हैं तथा उनसे जल्दी से जल्दी छुटकारा चाहते हैं। वे लोग वास्तव में कितने बेवकूफ होते हैं? उन्हें यह मालूम नहीं कि उन्हें भी कुछ दिन इसी स्थिति से गुजरना होगा। जिन बच्चों को वह अपना मानकर उनकी हर आवश्यकता पूरी करने के लिये भारी मशक्कत और अमानवीय कार्य कर रहा है। जिस प्रकार उसके मां-बाप ने बचपन में सबकुछ अपनी संतान पर समर्पित कर दिया और उसके प्रतिफल में घोर निराशा, अभाव भरा समय और उससे भी कठिन अपने दुख-दर्दों को बयान तक करने पर प्रतिबंध।

वृद्धावस्था व्यतीत कर रहे किसी व्यक्ति की स्थिति का वर्णन आदि श्री गुरु ग्रंथ साहिब में किसी संत ने यों किया है-
नैनहू नीर बहे तन खीना केश भये दुध बानी। रुंधा कंठ सबद नहीं उचरै अब क्या करै परानी।।
अर्थात् आंखों से पानी बह रहा है, शरीर क्षीण हो चुका, केश दूध की तरह सफेद हो गये, गला रुंध गया जिससे शब्दों का उच्चारण भी नहीं कर सकता।

ऐसी स्थिति होने पर वह क्या करे? पूरी तरह निराश्रय होने पर उसे ईश्वर के अलावा और कोई सहारा नहीं दिखायी देता। संत जी इस दुख के निराकरण के लिये कहते हैं कि- राजा राम हाए वैद बनवारी। अपने जन को लेहु उबारी।’ अर्थात् वृद्धावस्था रुपी रोग की दवाई केवल ईश्वर के पास ही है। यदि उसकी डोर पकड़ ले तो वे अपने भक्त को जरुर उबारेंगे।

गुरु ग्रंथ साहिब में ही गुरु तेग बहादुर जी की वाणी भी यही कहती है। तथा राम नाम न जपने वाले को बावरा कहकर नाम के लिये प्रेरित करते हैं-‘विरध भयो सूझै नहीं, काल पहुंचयो आन। कहु नानक नर बावरे क्यों ना भजै भगवान।।’

हमारे संतों की वाणी बुढ़ापे के दुखों के निराकरण का भक्ति ही अमोघ अस्त्र मानती है। लेकिन परमात्मा की भक्ति भी वही लोग नहीं करने देते जिन्हें उन्होंने जन्म दिया, पाल पोस कर इस योग्य बनाया कि वे अपना तथा अन्य जरुरतमंदों को सहारा दे सकें। कई वृद्धों की दारुण स्थिति देखकर हृदय रो उठता है लेकिन उनके वारिसों का हृदय द्रवित नहीं होता।

पिछले कुछ वर्षों में भारत सरकार और राज्य सरकारों ने वृद्ध जनों के लिये कुछ कल्याणकारी कदम उठायें हैं जैसे वृद्धावस्था पेंशन आदि। इस तरह की योजनायें देखने सुनने में बहुत ही लुभावन लगती हैं। यदि इसकी हकीकत में पहुंचते हैं तो इस तरह की व्यवस्था को क्रियान्वित करने वाले समाज कल्याण विभाग के कर्मचारियों की प्रणाली पर बहुत ही क्षोभ और दर्द होता है। कई वृद्ध तथा विधवा महिलायें विकास खंड कार्यालयों पर भूखी-प्यासी संबंधित कर्मचारियों की प्रतीक्षा में सुबह से शाम तक बैठी रहती हैं। उनके आंसू पोंछने वला कोई नहीं दिखाई देता है। अधिक परेशान होने पर उन्हें दलाल की शरण लेनी पड़ती है। जो दो-चार सौ रुपये मिलने होते हैं उनमें पहले ही बंदरबांट शरु हो जाती है। बी.डी.ओ. से लेकर सी.डी.ओ. तक इस हरकत से पूरी तरह वाकिफ होते हैं लेकिन उनकी माता-पिता के सदृश्य उनसे वे बचकर निकल जाते हैं। सभाओं में गोष्ठी और भाषणों में इनकी बातों से ऐसा लगता है मानों वे वृद्धों की स्थिति से बहुत ही दुखी हों और उनके लिये बहुत कुछ कर रहे हों। अधिक कमजोर और कृश्काय वृद्ध बेचारे कहीं आ जा भी नहीं सकते। जे.पी. नगर जनपद की सुमिरन नामक एक दलित वृद्धा सी.डी.ओ. कार्यालय पर किसी तरह अपने गांव से पहुंच गयी लेकिन इसे उसकी बदकिस्मती कहें या भ्रष्टाचारी सरकारी नौकरों की कारस्तानी। उसके ऊपर को टैक्ट्रर उतर गया जिससे वह बुरी तरह घायल हो गयी और जल्दी ही मर भी गयी। उसे मिलने वाली राशि पता नहीं कहां चली गयी। यह किसी एक ही सुरमन की व्यथा नहीं बल्कि देश भर में न जाने कितनी सुरमन जीवन के अंतिम पड़ाव में कष्ट भोग रही है। भरे पूरे परिवारों में उनकी ओर कोई नहीं झांकता। कई महिला हितों के हिमायती एन.जी.ओ. भी जानबूझकर इधर से आंखें बंद किये हैं।

-harminder singh

Friday, September 12, 2008

लाडले बच्चे



मां-बाप ने तमाम जीवन जिद्दीपने को सहा, बूढ़े हुये तो अकेले पड़ गये। अब बचपन का लाड-प्यार किस मोल का रहा। तब बेटी ने अपने मां-बाप को सहारा दिया। वह सुख था तो अंतिम दिनों का और अधिक भी नहीं, लेकिन यह बताने के लिये काफी है कि बेटे बेटी की तरह नहीं हो सकते। लाडली बेटी है तो वह भी जिद्दी होगी, लेकिन सहारा भी होगी

लाडले बड़े हो रहे हैं। मांओं के प्यारे कहलाते हैं ये। सुना है, पिता भी कम इन्हें नहीं चाहते। तब तो ऐसों की मौज है। ना मां का डर, ना बाप का। कुछ निठल्लापन भी ‘एक्सट्रा फैट’ की तरह आ गया है। वाह हो लाडली औलादों की। वैसे प्यार इन्हें भरपूर मिलता है, इसमें कोई शक नहीं।

लाडला बेटा है तो क्या कहने। सारी फरमाइशें फौरन पूरीं।

‘बेटे के लिये क्या लायें?’ पापा कहते हैं।

बेटा मुंह पिचकाकर कहता है-‘आईसक्रीम।’

पिता-‘कौन सी वाली।’

पिता कई फ्लेवर बताता चला जाता है।

बेटा कहता है-‘हां, यही वाली।’

पिता का झटपट बाजार का रुख, बेटे के लिये आईसक्रीम हाजिर।

बाप को पता नहीं कि बेटा अभी फरमाइशों की शुरुआत कर रहा है। बाप इससे भी अंजान है कि बेटे की गठरी बड़ी मोटी है, फरमाइशें ही फरमाइशें हैं, और न सुनने का वह आदी नहीं।

उम्र बढ़ती है, नखरे भी। ठीक है, मांगे पूरी की जा रही हैं। जिद्दीपने की जड़ें गहरी हो रही हैं। उनकी सिंचाई ढंग से जो की जा रही है। बागवां बेहाल होकर भी भले चंगे हैं। यह स्नेह है, औलाद का मोह, लेकिन इसे हम पुत्र का स्नेह कहेंगे।

पुत्र इकलौता है तो सोने पर सुहागा। वह अल्हड़ है, मस्त है। घर सिर पर उठाकर चलने की उसकी आदत परिवार में बुरी नहीं मानी जाती। वह मनमानी वाला है, गुस्सैल भी। खाता कम, बिखेरता ज्यादा है। शांत रहने के बजाय उद्दंड हो चला है। जबकि बेटी एक कोने में बैठी है। वह उसे तंग करने में कोई कसर छोड़ेगा नहीं। मां-बाप इस पर ध्यान कम देंगे। बेटा पहले, बेटी बाद में।

मां-बाप ने तमाम जीवन जिद्दीपने को सहा, बूढ़े हुये तो अकेले पड़ गये। अब बचपन का लाड-प्यार किस मोल का रहा। तब बेटी ने अपने मां-बाप को सहारा दिया। वह सुख था तो अंतिम दिनों का और अधिक भी नहीं, लेकिन यह बताने के लिये काफी है कि बेटे बेटी की तरह नहीं हो सकते। लाडली बेटी है तो वह भी जिद्दी होगी, लेकिन सहारा भी होगी।

-harminder singh

अमर उजाला में वृद्धग्राम

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AMAR UJALA BLOG KONA
monday, 8 sept. 2008

Thursday, September 4, 2008

बुढ़ापे का मर्म


अभिवादन शीलस्य नित्यम् वृद्धोप सेवनम् च।

चत्वारि तस्य वर्धंन्ते आयु विद्या यशोबलम्।।

अर्थात् अभिवादन के योग्य और वृद्धों की सेवा करने से उसकी आयु, विद्या, यश और बल, चार चीजें बढ़ती हैं।

हमारे शास्त्रों का उपरोक्त वचन सौ फीसदी सत्य है। जो लोग अथवा समाज इसका पालन करते हैं, वे सभी प्रगति की ओर अग्रसर होते हैं। प्राचीन काल में ऐसे अधिकांश लोग थे जो इसका पालन करते थे। यही कारण था कि हमारा देश हमेशा से ऋषि-मुनियों और साधु-संतों का रहा है। अपने से बड़े और प्रतिष्ठित पदों पर विराजमान लोगों का सम्मान करना लोग अपना कर्तव्य मानते थे।

जब हम आधुनिक भौतिकवादी युग के लोगों की प्राचीन मानव से तुलना करते हैं तो पता चलता है कि उपरोक्त संस्कारों से हम कटते जा रहे हैं। यही कारण है कि हमारे पारिवारिक रि’ते भी आये दिन तार-तार होते नजर आते हैं। संयुक्त परिवार टूट कर बिखर रहे हैं। लोग सम्मान चाहने का प्रयास तो करते हैं लेकिन वे दूसरों का सम्मान नहीं करना चाहते।

जिन लोगों ने परिवार की रक्षा करते, उन्हें अच्छा भोजन और शिक्षा दिलाने अपनी बहुमूल्य युवावस्था को खर्च कर दिया। उनमें से अनेकों वृद्ध अपनी दुर्दशा को देखकर मर्माहत हैं। अपनी सारी संपत्ति बेटे और अन्य लोगों को देने वाले वृद्धों का और भी बुरा हाल है। कई अपनों की उपेक्षा के शिकार हैं। वे मरना चाहते हैं लेकिन ऐसा भी नहीं हो पाता। बहुत कम वृद्ध ऐसे हैं जिनकी संतानें उनके अंतिम दिनों में उन्हें किसी परेशानी का अहसास नहीं होने देते। घर और बाहर उपेक्षित होने वालों की भी कमी नहीं।

अपने सुख में व्यवधान न पड़े, ऐसे युवक अपने बुजुर्गों को अलग-थलग कर तन्हाई में छोड़ देते हैं। उन्हें उनके सुख-दुख से कोई सरोकार नहीं। वे यह नहीं सोचते कि उनके सिर पर भी बुढ़ापा प्रतीक्षा में है कि जल्दी से जल्दी उन्हें भी वह अपनी गिरफ्त में ले ले।

फिल्मों में भी वृद्ध उपेक्षित हैं। नायक कहता है-‘बुढ़ापे तेरा मुंह काला-जवानी तेरा बोलबाला।’ और भी-‘ना बाबा ना बाबा पिछवाड़े बुड्ढा खांसता’ या ‘क्या करुं राम, मुझे बुड्ढा मिल गया।’

जिधर भी देखो वहीं इस बुढ़ापे का उपहास हो रहा है। ‘वृद्धोप सेवनम्’ की जगह उन्हें परेशान किया जा रहा है और वह भी उनके द्वारा जिन्हें वृद्धों ने उठना, बैठना और चलना सिखाया है। उनके उज्जवल भविष्य के लिये वह सब किया है जितना वे करने में समर्थ भी न थे।

-harminder singh


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शुरुआत तो हुई, बदलेगा इंडिया

महान शिक्षाविद श्योराज सिंह नहीं रहे


बुढ़ापे का इश्क
बुढ़ापा ये नहीं कहता कि जिंदगी का सफरनामा यहीं तक। बूढ़ों को भला कोई रोक सकता इश्क करने से। अरे, इश्क कीजिये, फिर समझिये कि जिंदगी क्या चीज है। लेकिन अब तो जिंदगी उतनी बची नहीं, लेकिन जितनी बची है उतनी में बहुत कुछ सोचा जा सकता है


आखिरी पलों की कहानी
दुनिया को करीब से देखा है इन्होंने। दुनिया बोलती आंखों का सितारा है। मोह भी यहीं है और माया भी। बच्चे बड़े हो रहे हैं और नौजवान बूढ़े। यह तो होता ही आया है कि बीज उगता है तो दूसरा पेड़ बन कर गिर भी जाता है। उम्र का सारा खेल यह है। इसका कोई शातिर खिलाड़ी भी तो नहीं


अभी तक कहां जीता रहा?
उलझे हुये बोलों को सुनने की कोई गुंजाइश नहीं है। मैं अपने को स्थिति के साम्य करने की कोशिश कर रहा हूं। पल दो पल की मुस्कराहटों का मुझसे क्या लेना देना

Wednesday, September 3, 2008

शुरुआत तो हुई, बदलेगा इंडिया



बहुत खुश हैं हम। इसके कारण हैं। हम पहली बार ओलंपिक से तीन तमगे छीन लाये हैं। बिंद्रा सोने के साथ खड़े हैं। गर्व से चौड़ी छाती हो गयी है हमारी। बिजेन्द्र और सुशील की शर्मीली मुस्कराहट और अधिक उत्साहित कर देती है। मन झूमने को करता है। विजय-गीत ऐसे ही लोगों के लिये गाये जाते हैं। तिरंगा शान से लहरा रहा है और कह रहा है-‘जस्बा है तो जीत है।’

हाकी में लगातार छह ओलंपिक तक सोना लाये हम। कुल आठ सोने हो चुके हैं राष्ट्रीय खेल के जिसका सिलसिला 1980 के मास्को में सोने के साथ आजतक थमा हुआ है। समय काफी लंबा गुजर गया। 2008 में जाकर अभिनव बिंद्रा ने सोना पहना।

आजकल माहौल जश्न का है। यह जश्न जीत का है। हमारे ओलंपिक के हीरो किसी भी हीरो से कम नहीं हैं। क्रिकेट के हीरो तो इनके सामने कुछ भी नहीं लगते और फिल्मी के हीरो की बात ही नहीं करनी चाहिये। इस साल भारत ने इतिहास बनाया है जिसे भूला नहीं जा सकेगा, याद रहेगा बीजिंग।

थोड़ा दुख जरुर है हमें अपने पर। एक अरब हैं हम फिर भी क्रिकेट के अलावा हम कुछ और सोचते ही नहीं। खेलों को बढ़ावा देने की बात होती है, क्रिकेट पर आकर सिमट जाती है। चीन ने 100 से अधिक मेडल जीते, इसे क्या कहेंगे। उनमें चीनी महिलाओं की हिस्सेदारी आधी थी।

अकेला एक अमरीकी तैराकी में किसी से नहीं हारा। उसके खाते में 8 स्वर्ण आये। फेल्प्स बीजिंग हारने नहीं आया था, वह अपराजित रहा। हम उन्हें देखकर कुछ तो सीख सकते हैं। एक अरब हैं हम, फिर भी बहुत पीछे। जिस दिन हमने क्रिकेट देखना छोड़ दिया उस दिन कई बदलावों से गुजरेगा भारत। इतना पैसा और समय बर्बाद कर दिया बड़े-बड़े स्टेडियम बनाने में, मिला क्या- सिर्फ एक बर्ल्ड कप। इसका कुछ प्रतिशत अगर दूसरे खेलों पर खर्च किया जाता तो कहानी कुछ ओर होती। लेकिन ऐसा लगता है कि बिंद्रा, सुशील और बिजेन्द्र से शुरुआत हुई है कुछ बदलाव की। शायद बदलेगा इंडिया।

-harminder singh




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बुढ़ापे का इश्क
बुढ़ापा ये नहीं कहता कि जिंदगी का सफरनामा यहीं तक। बूढ़ों को भला कोई रोक सकता इश्क करने से। अरे, इश्क कीजिये, फिर समझिये कि जिंदगी क्या चीज है। लेकिन अब तो जिंदगी उतनी बची नहीं, लेकिन जितनी बची है उतनी में बहुत कुछ सोचा जा सकता है



आखिरी पलों की कहानी
दुनिया को करीब से देखा है इन्होंने। दुनिया बोलती आंखों का सितारा है। मोह भी यहीं है और माया भी। बच्चे बड़े हो रहे हैं और नौजवान बूढ़े। यह तो होता ही आया है कि बीज उगता है तो दूसरा पेड़ बन कर गिर भी जाता है। उम्र का सारा खेल यह है। इसका कोई शातिर खिलाड़ी भी तो नहीं



अभी तक कहां जीता रहा?
उलझे हुये बोलों को सुनने की कोई गुंजाइश नहीं है। मैं अपने को स्थिति के साम्य करने की कोशिश कर रहा हूं। पल दो पल की मुस्कराहटों का मुझसे क्या लेना देना
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कैदी की डायरी......................
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बूढ़ी काकी कहती है
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घर से स्कूल
>>चाय में मक्खी............................>>भविष्य वाला साधु
>>वापस स्कूल में...........................>>सपने का भय
हमारे प्रेरणास्रोत हमारे बुजुर्ग

...ऐसे थे मुंशी जी

..शिक्षा के क्षेत्र में अतुलनीय काम था मुंशी जी का

...अपने अंतिम दिनों में
तब एहसास होगा कि बुढ़ापा क्या होता है?

सम्मान के हकदार

नेत्र सिंह

रामकली जी

दादी गौरजां

कल्याणी-एक प्रेम कहानी मेरा स्कूल बुढ़ापा

....भाग-1....भाग-2
सीधी बात नो बकवास

बहुत कुछ बदल गया, पर बदले नहीं लोग

गुरु ऐसे ही होते हैं
युवती से शादी का हश्र भुगत रहा है वृद्ध

बुढ़ापे के आंसू

बूढ़ा शरीर हुआ है इंसान नहीं

बुढ़ापा छुटकारा चाहता है

खोई यादों को वापिस लाने की चाह

बातों बातों में रिश्ते-नाते बुढ़ापा
ऐसा क्या है जीवन में?

अनदेखा अनजाना सा

कुछ समय का अनुभव

ठिठुरन और मैं

राज पिछले जन्म का
क्योंकि तुम खुश हो तो मैं खुश हूं

कहानी की शुरुआत फिर होगी

करीब हैं, पर दूर हैं

पापा की प्यारी बेटी

छली जाती हैं बेटियां

मां ऐसी ही होती है
एक उम्मीद के साथ जीता हूं मैं

कुछ नमी अभी बाकी है

अपनेपन की तलाश

टूटी बिखरी यादें

आखिरी पलों की कहानी

बुढ़ापे का मर्म



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>>मेरी बहन नेत्रा

>>मैडम मौली
>>गर्मी की छुट्टियां

>>खराब समय

>>दुलारी मौसी

>>लंगूर वाला

>>गीता पड़ी बीमार
>>फंदे में बंदर

जानवर कितना भी चालाक क्यों न हो, इंसान उसे काबू में कर ही लेता है। रघु ने स्कूल से कहीं एक रस्सी तलाश कर ली. उसने रस्सी का एक फंदा बना लिया

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वृद्धग्राम पर पहली पोस्ट में मा. होराम सिंह का जिक्र
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वृद्धों की सेवा में परमानंद -
डा. रमाशंकर
‘अरुण’


बुढ़ापे का दर्द

दुख भी है बुढ़ापे का

सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य गिरीराज सिद्धू ने व्यक्त किया अपना दुख

बुढ़ापे का सहारा

गरीबदास उन्हीं की श्रेणी में आते हैं जिन्हें अपने पराये कर देते हैं और थकी हड्डियों को सहारा देने के बजाय उल्टे उनसे सहारे की उम्मीद करते हैं
दो बूढ़ों का मिलन

दोनों बूढ़े हैं, फिर भी हौंसला रखते हैं आगे जीने का। वे एक सुर में कहते हैं,‘‘अगला लोक किसने देखा। जीना तो यहां ही है।’’
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इक दिन बिक जायेगा माटी के मोल
प्रताप महेन्द्र सिंह कहते हैं- ''लाचारी और विवशता के सिवाय कुछ नहीं है बुढ़ापा. यह ऐसा पड़ाव है जब मर्जी अपनी नहीं रहती। रुठ कर मनाने वाला कोई नहीं।'' एक पुरानी फिल्म के गीत के शब्द वे कहते हैं-‘‘इक दिन बिक जायेगा, माटी के मोल, जग में रह जायेंगे, प्यारे तेरे बोल।’’

...............कहानी
[kisna.jpg]
किशना- एक बूढ़े की कहानी
(भाग-1)..................(भाग-2)
ये भी कोई जिंदगी है
बृजघाट के घाट पर अनेकों साधु-संतों के आश्रम हैं। यहां बहुत से बूढ़े आपको किसी आस में बैठे मिल जायेंगे। इनकी आंखें थकी हुयी हैं, येजर्जर काया वाले हैं, किसी की प्रेरणा नहीं बने, हां, इन्हें लोग दया दृष्टि से जरुर देखते हैं

अपने याद आते हैं
राजाराम जी घर से दूर रह रहे हैं। उन्होंने कई साल पहले घर को अलविदा कह दिया है। लेकिन अपनों की दूरी अब कहीं न कहीं परेशान करती है, बिल्कुल भीतर से

कविता.../....हरमिन्दर सिंह .
कभी मोम पिघला था यहां
इस बहाने खुद से बातें हो जायेंगी
विदाई बड़ी दुखदायी
आखिर कितना भीगता हूं मैं
प्यास अभी मिटी नहीं
पता नहीं क्यों?
बेहाल बागवां

यही बुढापा है, सच्चाई है
विदा, अलविदा!
अब कहां गई?
अंतिम पल
खत्म जहां किनारा है
तन्हाई के प्याले
ये मेरी दुनिया है
वहां भी अकेली है वह
जन्म हुआ शिशु का
गरमी
जीवन और मरण
कोई दुखी न हो
यूं ही चलते-चलते
मैं दीवाली देखना चाहता हूं
दीवाली पर दिवाला
जा रहा हूं मैं, वापस न आने के लिए
बुढ़ापा सामने खड़ा पूछ रहा
मगर चुप हूं मैं
क्षोभ
बारिश को करीब से देखा मैंने
बुढ़ापा सामने खड़ा है, अपना लो
मन की पीड़ा
काली छाया

तब जन्म गीत का होता है -रेखा सिंह
भगवान मेरे, क्या जमाना आया है -शुभांगी
वृद्ध इंसान हूं मैं-शुभांगी
मां ऐसी ही होती है -ज्ञानेंद्र सिंह
खामोशी-लाचारी-ज्ञानेंद्र सिंह
उम्र के पड़ाव -बलराम गुर्जर
मैं गरीबों को सलाम करता हूं -फ़ुरखान शाह
दैनिक हिन्दुस्तान और वेबदुनिया में वृद्धग्राम
hindustan vradhgram ब्लॉग वार्ता :
कहीं आप बूढ़े तो नहीं हो रहे
-Ravish kumar
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इन काँपते हाथों को बस थाम लो!
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