बूढ़ी काकी कहती है-‘‘बुढ़ापा तो आना ही है। सच का सामना करने से भय कैसा? क्यों हम घबराते हैं आने वाले समय से जो सच्चाई है जिसे झुठलाना नामुमकिन है।’’.

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Wednesday, March 25, 2009

वृद्धाश्रम के अभागे

उम्र बढ़ती है, ख्यालात सिकुड़ते हैं। हां, तजुर्बा बढ़ता जाता है। अपने में सिकुड़ने का मन करता है। यह हकीकत का जायका है। विचारों की आंधी चलती है लेकिन टूटी-बिखरी और अधूरी।

हृदय की कठोरता पिघलने लगती है। अपनेपन की तलाश रहती है, लेकिन अपने पास नहीं होते। यादों का सहारा होता है बस। रोती हैं यादें भी, उन्हें याद करने वाले भी। मां की ममता उबलती है, पिता का प्यार, पर बुढ़ापा चुपचाप रहता है। वह दर्शक है जीवन के आखिरी पलों का और गवाह भी।
वृद्ध आश्रमों में बहुत उम्रदराज रहते हैं। उनकी खामोशी सब कुछ बयां करती है। उनकी नम और थकी आंखें भी शांत हैं। बाहर जर्जरता की चादर है तो अंदर के जीव की छटपटाहट मार्मिक है। यह जीवन का मर्म है। इन वृद्धों में से कईयों को उनके अपनों ने घर से बेघर किया है। इनसे पूछो तो भर्राये गले से कहते हैं-‘बच्चों को भूला नहीं जाता।’ जबकि इनके बच्चे इन्हें भूल गये। ये जर्जर लोग कहते हैं कि उनके अपनों ने जो उनके साथ किया, वे फिर भी उन्हें याद करते रहेंगे। अपने तो अपने होते हैं।

यह बुढ़ापे का प्रेम है। बुढ़ापा प्रेम का भूखा है। यह समय यूं ही ऐसे कटता नहीं। मन चंचल है लेकिन वह भी ठहर जाता है। जवानी हंसती है बुढ़ापे की बेबसी पर।

अपने बच्चों के प्रति प्यार तमाम जिंदगी कम नहीं होता। यह प्रकृति है, प्रेम की प्रकृति। मां हंसी थी जब बच्चा छोटा था। फिर और हंसी जब वह जवान हुआ। अब वह आश्रम में है जहां वह अकेली है। यह विडंबना है, जीवन की विडंबना। कुछ लोग तो हैं आसपास धीरज बंधाने को। पर वर्षों का दुलार थोड़े ही आसानी से भुलाया जा सकता है। जागती है ममता और एक मां, हां एक मां कुछ पल के लिए तिलमिला उठती है। यह अटूट स्नेह की तड़पन है।

आश्रम तो आश्रम हैं, घर नहीं। लेकिन सोच कभी बूढ़ी नहीं होती। वह कभी जर्जर नहीं होती, ताजी रहती है। मां झटपटा रही है, वियोग की पीड़ा और दूरी का दर्द। घड़ी की सूई, टिक-टिक कर कुछ इशारा कर रही है। नम और धुंधली आंखों से साफ दिखाई नहीं दे रहा। वक्त कम है और यादें बेहिसाब।

दर्द बांटने को और भी जर्जर काया वाले हैं। वे खुश तो बिल्कुल नहीं। निराशा उन्हें भी घेरे हैं। क्या करें किसी तरह ढांढस बंधा रहे हैं एक दूसरे का।

महिलाओं के लिए यह कष्टकारी समय है। वृद्धाश्रम में उन्हें वक्त काटने को विवश होना पड़ रहा है। कुछ को बेटों ने घर से बेघर किया, कुछ को बहुओं ने पर दोनों अपने हैं, आज भी। पता नहीं क्यों भूले नहीं भुलाये जाते।

आज उनकी जिंदगी के उन पलों को लौटा नहीं सकते। ऐसा जरुर कुछ कर सकते हैं ताकि वे कुछ देर अपना दर्द भूल सकें। बुढ़ापा यही चाहता है। वह सहारा चाहता है, चाहें कुछ पलों का ही क्यों न हो। यहां सूखा हुआ ऐसा रेगिस्तान हैं जहां एक बूंद की भी कीमत है।

-Harminder Singh

Sunday, March 15, 2009

धारावाहिक और महिलायें

महिलाओं को लगता है कि टेलीविजन पर उनकी कहानी चल रही है। वे भावुक हो जाती हैं। जब ‘महाभारत’ और ‘रामायण’ सीरियल दूरदर्शन पर आते थे, तो महिलायें सारा काम-काज छोड़कर उन्हें देखने बैठ जाती थीं। उनमें से कई कहतीं,‘देखो, बेचारा भरत कैसे दुखी हो रहा है? वह अपने भाई से कितना प्यार करता है।’ द्रोपदी का चीर-हरण देखकर उनकी आंखें भर आती थीं। कहतीं,‘कैसी बीत रही होगी इस अबला पर।’ राम-सीता को वन में जाता देख कहतीं,‘बुरा हो कानी समंथरा का।’ आज भी ‘विदाई’ देखकर महिलायें भावुक हो जाती हैं। यही कारण है कि ‘बालिका वधु’ और ‘विदाई’ महिलाओं में सबसे अधिकतर पोपुलर हो रहे हैं। इसका परिणाम यह है कि इन दो धारावाहिकों को कई सम्मानों से नवाजा जा चुका है।

टेलीविजन ने महिलाओं को बहुत काम दिया है। वे अब घर पर बोर नहीं होती हैं। पिछले दिनों जब टेलीविजन के टेक्नीशियनों की हड़ताल हो गयी थी तो हमारे न्यूज चैनल कुछ यूं परेशान महिलाओं को दिखा रहे थे-‘ये हैं मिसेज कपूर जो पिछले कई दिनों से दुखी हैं। कारण है उनका मनपसंद धारावाहिक का न आना। अब वे पौधों को पानी देकर गुजारा चला रही हैं। उन्होंने पत्र-पत्रिकाओं को पढ़ना शुरु कर दिया है।’ तब सीरियल चिपकू टाइप महिलायें रिपीट टेलिकास्टों को देखकर अवसादग्रस्त सी हो गयी थीं।

महिलाओं के मोटापे का कारण भी उनके मनपसंद धारावाहिक हैं। दिनभर टीवी के आगे बैठकर घंटों टीवी देखना और उसके सामने बैठकर भोजन करना, फैट को बढ़ायेगा ही। ये वे ही महिलायें होती हैं जो बाद में कहती हैं,‘पता नहीं क्यों मैं इतनी मोटी हो गयी।’ सुबह टहलने वालों में मोटी महिलायें अधिक होती हैं।

सास-बहू की खटर-पटर और चालों को देखकर लगता है कि भारतीय महिलायें चाहें वे शहरी हों या कस्बाई छोटी-छोटी बातों को बड़ा बना देती हैं। धारावाहिकों से उत्साहित होकर बहुत सी महिलायें पार्लरों पर जाकर वैसा ही मेकअप कराती हैं जैसा कि उन्होंने उस सिरीयल में देखा था।

वर्षों पहले मैं ‘श्रीमान-श्रीमति’ देखा करता था। हालांकि वह सास-बहू टाइप धारावाहिक नहीं था। लेकिन उसमें एक महिला को अपने पति पर शक रहता था। वह मजेदार कामेडी सीरियल था। महिलाओं को शकी मिजाज दिखाना गलत नहीं है। उन्हें शक करने की अजीब आदत होती है। धारावाहिकों ने उनके शक को एक नयी परिभाषा दी है। उनके सामने इतने सारी स्थितियां प्रस्तुत कर दी हैं जब वे शक कर सकती हैं। यानि सीरियल शक करने की नई तरकीबों को भी सुझा रहे हैं।

पहनावे को भी बदल रहे हैं धारावाहिक। खासकर खलनायिकाओं के पहनने के तरीके उन्हें भा रहे हैं। बिंदी लगाने के नये स्टाइलों की कापी की जा रही है।

हमारे धारावाहिक निर्माता सही नब्ज को पहचानते हैं। इसलिये 80 प्रतिशत से ज्यादा धारावाहिक रोने-धोने वाले होते हैं। वीरानी परिवार के लगभग हर सदस्य के नाम उन्हें याद हो गये थे। तुलसी को भला कौन भूल सकता है? बहुओं और सासों के झगड़ों, नखरों, स्टाइलों को देखकर लगता है कि टेलीविजन की दुनिया में पुरुषों को कम स्पेस दिया जा रहा है। निर्माता जानते हैं कि मार्केट में महिलाओं और बच्चों के संबंधित कोई चीज उतार दो, फिर देखो कैसे उसकी मांग बढ़ती है।

-Harminder Singh

Wednesday, March 11, 2009

बंधन मुक्ति मांगते हैं

मैंने काकी से पूछा,‘उन्मुक्त होने में घबराहट कैसी?’

अबकी बार काकी गंभीर थी। उसने मेरे सिर पर हाथ रखकर कहा,‘घबराहट उसकी नहीं, घबराहट इसकी है। यहां का मोह इतना है कि संसार को छोड़ कर जाना प्राणी नहीं चाहता। यह अजीब ही तो है कि हम जहां अस्थायी हैं, उससे बिछड़ जाने से घबराते हैं। यहीं रहने की आदत जो पड़ गई है, फिर क्यों जायें यहां से? संसार हमारा घर कभी था ही नहीं, न होगा। मकसद क्या है? यह भी पता नहीं। सिर्फ पैदा होने और मरने आते हैं हम। क्या-क्या और क्यों-क्यों होता है यह सब। इसे ही तो ईश्वर की मर्जी कहते हैं।’

मैंने फिर पूछा,‘फिर उन्मुक्त भी होना चाहते हैं, क्यों?’

बूढ़ी काकी मुस्कराई,‘देखो, दोनों चीजें एक साथ होने की चाह में रहती हैं। हम मुक्ति भी चाहते हैं और मरने से भय लगता है। आराम भी चाहिए और श्रम करना नहीं चाहते। यह सोच पर निर्भर करता है कि हमें क्या चाहिए? धरती के सुखों की लालसा हमें यहां से चिपके रहने को विवश करती है, लेकिन हमारी आत्मा अवधि पूर्ण होने पर इस शरीर को छोड़ने की तैयारी में लग जाती है। यह तैयारी प्रायः बुढ़ापे से ही प्रारंभ हो जाती है। मेरे अंदर का जीव कब का प्रसन्न हो रहा है कि नये सफर की शुरुआत जल्द होगी। मेरा मन जोकि हृदय से अधिक घुलमिल कर रहता है आजकल उदास रहने लगा है। उसे डर है कहीं वह यहीं न छूट जाए।’

‘भय लगता है मुझे। इसका कोई तोड़ भी तो नहीं। गुजरे वक्त को हम अबतक ढोते आये हैं, पता ही नहीं चला। जमाना आगे बढ़ता रहा, हम देखते रहे और चलते रहे। अब वक्त नहीं कहता कि आगे चलो। कहता है कि बस भी करो, बहुत हुआ, विश्राम करने का समय आ गया। मनुष्य शरीर सारे बंधनों से मुक्त होगा और आजाद होगी आत्मा अपने नये देश जाने के लिए। यह उजाले को छूने की कोशिश होगी। सब कुछ यहीं रह जायेगा- अपना भी, अपने भी और पराये भी।’

-Harminder Singh
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कैदी की डायरी......................
>>सादाब की मां............................ >>मेरी मां
बूढ़ी काकी कहती है
>>पल दो पल का जीवन.............>क्यों हम जीवन खो देते हैं?

घर से स्कूल
>>चाय में मक्खी............................>>भविष्य वाला साधु
>>वापस स्कूल में...........................>>सपने का भय
हमारे प्रेरणास्रोत हमारे बुजुर्ग

...ऐसे थे मुंशी जी

..शिक्षा के क्षेत्र में अतुलनीय काम था मुंशी जी का

...अपने अंतिम दिनों में
तब एहसास होगा कि बुढ़ापा क्या होता है?

सम्मान के हकदार

नेत्र सिंह

रामकली जी

दादी गौरजां

कल्याणी-एक प्रेम कहानी मेरा स्कूल बुढ़ापा

....भाग-1....भाग-2
सीधी बात नो बकवास

बहुत कुछ बदल गया, पर बदले नहीं लोग

गुरु ऐसे ही होते हैं
युवती से शादी का हश्र भुगत रहा है वृद्ध

बुढ़ापे के आंसू

बूढ़ा शरीर हुआ है इंसान नहीं

बुढ़ापा छुटकारा चाहता है

खोई यादों को वापिस लाने की चाह

बातों बातों में रिश्ते-नाते बुढ़ापा
ऐसा क्या है जीवन में?

अनदेखा अनजाना सा

कुछ समय का अनुभव

ठिठुरन और मैं

राज पिछले जन्म का
क्योंकि तुम खुश हो तो मैं खुश हूं

कहानी की शुरुआत फिर होगी

करीब हैं, पर दूर हैं

पापा की प्यारी बेटी

छली जाती हैं बेटियां

मां ऐसी ही होती है
एक उम्मीद के साथ जीता हूं मैं

कुछ नमी अभी बाकी है

अपनेपन की तलाश

टूटी बिखरी यादें

आखिरी पलों की कहानी

बुढ़ापे का मर्म



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>>मेरी बहन नेत्रा

>>मैडम मौली
>>गर्मी की छुट्टियां

>>खराब समय

>>दुलारी मौसी

>>लंगूर वाला

>>गीता पड़ी बीमार
>>फंदे में बंदर

जानवर कितना भी चालाक क्यों न हो, इंसान उसे काबू में कर ही लेता है। रघु ने स्कूल से कहीं एक रस्सी तलाश कर ली. उसने रस्सी का एक फंदा बना लिया

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वृद्धग्राम पर पहली पोस्ट में मा. होराम सिंह का जिक्र
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वृद्धों की सेवा में परमानंद -
डा. रमाशंकर
‘अरुण’


बुढ़ापे का दर्द

दुख भी है बुढ़ापे का

सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य गिरीराज सिद्धू ने व्यक्त किया अपना दुख

बुढ़ापे का सहारा

गरीबदास उन्हीं की श्रेणी में आते हैं जिन्हें अपने पराये कर देते हैं और थकी हड्डियों को सहारा देने के बजाय उल्टे उनसे सहारे की उम्मीद करते हैं
दो बूढ़ों का मिलन

दोनों बूढ़े हैं, फिर भी हौंसला रखते हैं आगे जीने का। वे एक सुर में कहते हैं,‘‘अगला लोक किसने देखा। जीना तो यहां ही है।’’
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इक दिन बिक जायेगा माटी के मोल
प्रताप महेन्द्र सिंह कहते हैं- ''लाचारी और विवशता के सिवाय कुछ नहीं है बुढ़ापा. यह ऐसा पड़ाव है जब मर्जी अपनी नहीं रहती। रुठ कर मनाने वाला कोई नहीं।'' एक पुरानी फिल्म के गीत के शब्द वे कहते हैं-‘‘इक दिन बिक जायेगा, माटी के मोल, जग में रह जायेंगे, प्यारे तेरे बोल।’’

...............कहानी
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किशना- एक बूढ़े की कहानी
(भाग-1)..................(भाग-2)
ये भी कोई जिंदगी है
बृजघाट के घाट पर अनेकों साधु-संतों के आश्रम हैं। यहां बहुत से बूढ़े आपको किसी आस में बैठे मिल जायेंगे। इनकी आंखें थकी हुयी हैं, येजर्जर काया वाले हैं, किसी की प्रेरणा नहीं बने, हां, इन्हें लोग दया दृष्टि से जरुर देखते हैं

अपने याद आते हैं
राजाराम जी घर से दूर रह रहे हैं। उन्होंने कई साल पहले घर को अलविदा कह दिया है। लेकिन अपनों की दूरी अब कहीं न कहीं परेशान करती है, बिल्कुल भीतर से

कविता.../....हरमिन्दर सिंह .
कभी मोम पिघला था यहां
इस बहाने खुद से बातें हो जायेंगी
विदाई बड़ी दुखदायी
आखिर कितना भीगता हूं मैं
प्यास अभी मिटी नहीं
पता नहीं क्यों?
बेहाल बागवां

यही बुढापा है, सच्चाई है
विदा, अलविदा!
अब कहां गई?
अंतिम पल
खत्म जहां किनारा है
तन्हाई के प्याले
ये मेरी दुनिया है
वहां भी अकेली है वह
जन्म हुआ शिशु का
गरमी
जीवन और मरण
कोई दुखी न हो
यूं ही चलते-चलते
मैं दीवाली देखना चाहता हूं
दीवाली पर दिवाला
जा रहा हूं मैं, वापस न आने के लिए
बुढ़ापा सामने खड़ा पूछ रहा
मगर चुप हूं मैं
क्षोभ
बारिश को करीब से देखा मैंने
बुढ़ापा सामने खड़ा है, अपना लो
मन की पीड़ा
काली छाया

तब जन्म गीत का होता है -रेखा सिंह
भगवान मेरे, क्या जमाना आया है -शुभांगी
वृद्ध इंसान हूं मैं-शुभांगी
मां ऐसी ही होती है -ज्ञानेंद्र सिंह
खामोशी-लाचारी-ज्ञानेंद्र सिंह
उम्र के पड़ाव -बलराम गुर्जर
मैं गरीबों को सलाम करता हूं -फ़ुरखान शाह
दैनिक हिन्दुस्तान और वेबदुनिया में वृद्धग्राम
hindustan vradhgram ब्लॉग वार्ता :
कहीं आप बूढ़े तो नहीं हो रहे
-Ravish kumar
NDTV

इन काँपते हाथों को बस थाम लो!
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