रिश्तों के दायरे कभी इतने मजबूत हो जाते हैं कि गैर भी अपनों से बढ़कर हो जाते हैं। कभी अपने इतने बेगाने हो जाते हैं कि अपने खून के रिश्तों को तार-तार कर देते हैं या करने पर आमादा होते हैं। यह एक घर की कहानी नहीं लगती क्योंकि ऐसे मामले समय-समय पर सामने आ रहे हैं। रिश्तों के मायने शायद कोई रह नहीं गये। बेटियों को डरकर जीना पड़ता है, समाज से भी और अपनों से भी। उनका डर उन्हें सहमने पर मजबूत करता है। वे अपनों पर से विश्वास खो देती हैं। बेटियों का जीवन कभी आसान नहीं रहा। उनपर सदा चील-कव्वों की नजरें रही हैं। शिकार करने वाले भूखे भेड़िये उन्हें नोचने के लिए तैयार बैठे रहे हैं। मौका मिला नहीं कि शिकार पर हाथ डाल दिया। तब उनकी तड़पन और छटपटाहट को देखने के सिवा किया ही क्या जा सकता है। उनकी जिंदगी पल भर में वीरान कर देते हैं ऐसे भूखे भेड़िये और रह जाती हैं बस रोती-बिलखती लाश से भी बदतर जिंदगी ढोने को मजबूर बेटियां।
हाल ही में एक पति ने अपनी पत्नि की चाकुओं से गोद कर हत्या कर दी। चौंकाने वाली बात यह है कि एक पिता अपनी सगी बेटी पर बुरी नजर रखता था। इसका उसकी पत्नि ने विरोध किया तो उसे जान से हाथ धोना पड़ा। जब उसकी दोनों बेटियों को मां की मौत का पता चला तो उन्होंने अपने बाप को सरेआम पीटकर अधमरा कर दिया। यह घटना उ.प्र. के कुन्दरकी के गांव इमरतपुर की है।
अर्जनटिना में भी एक पिता ने तो अपनी सगी बेटी का कई साल तक यौनशोषण किया। मुंबई में भी ऐसा ही कुछ हुआ था। ये मामले सामने आ गए। लेकिन उन मामलों का क्या जो अभी तक बंद दरवाजों में छिपे हैं। जब तक चीखों की आहट दूसरों तक पहुंचती है, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। ऐसे पिताओं को जल्लाद से भी बदतर संज्ञा दी जाए, वह कम ही है। उन्हें ऐसी सजा दी जानी चाहिए जो दूसरों के लिए सबक हो। ऐसे लोग समाज को खराब तो करते ही हैं, साथ ही अपने स्वार्थ के लिए एक मासूम का जीवन भी बर्बाद कर देते हैं। ये हत्यारों से भी खतरनाक हैं। बेटियां आखिर किसके पास जाएं अपनी सुरक्षा के लिए क्योंकि उनका अपना घर तक उनके लिए सुरक्षित नहीं रहा। वे समाज से डरती हैं कि कहीं उनके परिवार पर बदनामी की कालिख न पुत जाए और यह सदा के लिए एक धब्बे की तरह हो जायेगा। मगर एक न एक दिन तो सच सामने आता ही है, तबतक कहानी बहुत खराब हो चुकी होती है।
हम एक ऐसे समाज में जी रहे हैं जहां रिश्तों की बहुत अहमियत होती है। बाप और बेटी का रिश्ता पवित्र होता है। उसे आंच किसी कीमत पर नहीं आनी चाहिए। रोती आंखों और दुखी मन को देखने वाला कोई नहीं है। ऐसा आखिर कब तक होता रहेगा और हम केवल परिणाम का इंतजार करेंगे या सच सामने आने का। लेकिन तब तक तो बहुत कुछ बिखर चुका होगा। बेटियों को डर-डर कर कब तक जीना होगा? कब तक उनका शोषण होता रहेगा, बाहर भी और घर में भी? बेटियां फिर क्यों न कहें कि वे किसे मानें अपना?
-harminder singh
Sunday, June 7, 2009
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| हमारे प्रेरणास्रोत | हमारे बुजुर्ग |
..शिक्षा के क्षेत्र में अतुलनीय काम था मुंशी जी का ...अपने अंतिम दिनों में | तब एहसास होगा कि बुढ़ापा क्या होता है? सम्मान के हकदार नेत्र सिंह रामकली जी दादी गौरजां |
![]() >>मेरी बहन नेत्रा >>मैडम मौली | >>गर्मी की छुट्टियां >>खराब समय >>दुलारी मौसी >>लंगूर वाला >>गीता पड़ी बीमार | >>फंदे में बंदर जानवर कितना भी चालाक क्यों न हो, इंसान उसे काबू में कर ही लेता है। रघु ने स्कूल से कहीं एक रस्सी तलाश कर ली. उसने रस्सी का एक फंदा बना लिया |
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सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य गिरीराज सिद्धू ने व्यक्त किया अपना दुख बुढ़ापे का सहारा गरीबदास उन्हीं की श्रेणी में आते हैं जिन्हें अपने पराये कर देते हैं और थकी हड्डियों को सहारा देने के बजाय उल्टे उनसे सहारे की उम्मीद करते हैं |
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अपने याद आते हैं राजाराम जी घर से दूर रह रहे हैं। उन्होंने कई साल पहले घर को अलविदा कह दिया है। लेकिन अपनों की दूरी अब कहीं न कहीं परेशान करती है, बिल्कुल भीतर से |
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इस सब का कारण शायद हमारे ही भीतर है जो इंसान को पतन की ओर ले जाता है।कही कोई ऐसी भूल हुई है जो इंसान की सोच ऐसी घिनोनी हो जाती है। शायद इन सब के पीछे हमारा प्राकृति विरुध किया गया आचरण ही जिम्मेदार हो।मेरा तो ऐसा ही सोचना है।
ReplyDeleteइस सब का कारण शायद हमारे ही भीतर है जो इंसान को पतन की ओर ले जाता है।कही कोई ऐसी भूल हुई है जो इंसान की सोच ऐसी घिनोनी हो जाती है। शायद इन सब के पीछे हमारा प्राकृति विरुध किया गया आचरण ही जिम्मेदार हो।मेरा तो ऐसा ही सोचना है।
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