बूढ़ी काकी कहती है-‘‘बुढ़ापा तो आना ही है। सच का सामना करने से भय कैसा? क्यों हम घबराते हैं आने वाले समय से जो सच्चाई है जिसे झुठलाना नामुमकिन है।’’.

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Tuesday, May 20, 2008

किशना-एक बूढ़े की कहानी, भाग-1

किशना खेत में हल जोत रहा था। जून की तपती दुपहरी में सूरज की लावा उगलती किरणें, बदहाल करती गर्मी की धरती पर बूंदे गिरती थीं। पसीना उसकी काया से छलक कर अतृप्त धरा को श्रम की बूंदों से तृप्त कर रहा था। उसके कुर्ते का गीलापन उसके कठिन परिश्रम की एक अदभुत झलक दर्शा रहा था। खेत जोतते-जोतते सूरज भी ढलने लगा। वह रेत पर बैठ गया और डूबते सूर्य को निहराने लगा।



किशना- एक बूढ़े की कहानी (भाग-1)


लेखक : हरमिन्दर सिंह
चित्रांकन- हरमिन्दर सिंह


किशना की भाभी ने ऐसे नाजुक समय में एक बच्ची को जन्म दिया और मृत्यु की अंतिम सांसें गिनने लगी।

‘‘किशना इस बच्ची को लेकर दूसरे गांव चले जाओ और इसका..........।’’
भाभी की डगमगाती आवाज सदा के लिये डूब गयी। वक्त के अभागे किशना के हाथों एक और चिता जली।

‘‘अनाथ बच्ची का भाग्य, ईश्वर की मर्जी थी।’’ लोग कहते हैं।



‘‘अरे, किशना।’’
पीछे से किसी ने पुकारा, मानो सोये किशना को जगा दिया हो।

किशना पीछे मुड़कर बोला,‘‘कौन, हरिया? कब आया तू?’’

‘‘अब ही आये हैं।’’

‘‘खाद और भैंस का चोकर तो लाया है ना।’’

‘‘हां भैया।’’ हरिया बोला।

किशना उठा और कुछ सोचने लगा। कुछ विराम के बाद बोला,‘‘हरिया, मैं शहर जाने की सोच रहा हूं। मुनिया पढ़-लिख जायेगी, बस।’’

‘‘विचार तो अच्छा है, मगर.........।’’
हरिया ने अपना वाक्य पूरा करना उचित न समझा।

कुछ रुककर किशना ने कहा,‘‘तू उसकी चिंता मत कर, मुनिया के लिये मैं दिन रात एक कर दूंगा। पर उसे लायक भर जरुर बनाउंगा। एक वो ही तो मेरा सहारा है।’’

मुनिया किशना की अपनी संतान नहीं है। वह उसे बहुत चाहता है। वह मुनिया को हर प्रकार का सुख देना और अच्छे नये कपड़े पहने देखना चाहता है। पर गरीबी तो उसे विरासत में मिली है, उससे कैसे बचे।

उसकी आकांक्षायें ऊंची जरुर हैं, उसका विश्वास है,’नामुमकिन नहीं।’ वह जीतोड़ मेहनत करेगा और मुनिया को पढ़ायेगा, चाहें इसके लिये कर्ज ही क्यों न लेना पड़े।

उसे वह दिन याद आते हैं जब सारे गांव में महामारी फैल गयी थी। लोग मर रहे थे। चारों तरफ मृत्यु नग्न-तांडव कर रही थी। किशना का परिवार भी इस कोप में विलीन हो चुका था। मां के बाद बाबूजी सब मृत्यु शैया पर चिता को समर्पित कर दिये गये। किशना की भाभी ने ऐसे नाजुक समय में एक बच्ची को जन्म दिया और मृत्यु की अंतिम सांसें गिनने लगी।

‘‘किशना इस बच्ची को लेकर दूसरे गांव चले जाओ और इसका..........।’’
भाभी की डगमगाती आवाज सदा के लिये डूब गयी। वक्त के अभागे किशना के हाथों एक और चिता जली।

‘‘अनाथ बच्ची का भाग्य, ईश्वर की मर्जी थी।’’ लोग कहते हैं।

‘‘इस बेचारी ने पैदा होते ही जननी मां तक की सूरत नहीं देखी, दूध क्या चखती।’’
किशना रुंधते गले से बोला।

गांव की वृद्धा ने व्यथित किशना को ढांढस बंधाते हुये कहा,‘‘बेटा अब तू ही इसका सहारा.........’’



" " " "



‘‘पिताजी, पिताजी, कहां खो गये, उठिये।’’
कुसुम की आवाज ने किशना को अतीत से परे कर दिया। किशना हड़बड़ाकर उठा और बोला,‘‘बेटी मुझे तेरा बचपन याद आ गया था। जब तू छोटी थी और आज........।’’


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इक दिन बिक जायेगा माटी के मोल
प्रताप महेन्द्र सिंह कहते हैं- ''लाचारी और विवशता के सिवाय कुछ नहीं है बुढ़ापा. यह ऐसा पड़ाव है जब मर्जी अपनी नहीं रहती। रुठ कर मनाने वाला कोई नहीं।'' एक पुरानी फिल्म के गीत के शब्द वे कहते हैं-‘‘इक दिन बिक जायेगा, माटी के मोल, जग में रह जायेंगे, प्यारे तेरे बोल।’’

...............कहानी
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किशना- एक बूढ़े की कहानी
(भाग-1)..................(भाग-2)
ये भी कोई जिंदगी है
बृजघाट के घाट पर अनेकों साधु-संतों के आश्रम हैं। यहां बहुत से बूढ़े आपको किसी आस में बैठे मिल जायेंगे। इनकी आंखें थकी हुयी हैं, येजर्जर काया वाले हैं, किसी की प्रेरणा नहीं बने, हां, इन्हें लोग दया दृष्टि से जरुर देखते हैं

अपने याद आते हैं
राजाराम जी घर से दूर रह रहे हैं। उन्होंने कई साल पहले घर को अलविदा कह दिया है। लेकिन अपनों की दूरी अब कहीं न कहीं परेशान करती है, बिल्कुल भीतर से

कविता.../....हरमिन्दर सिंह .
कभी मोम पिघला था यहां
इस बहाने खुद से बातें हो जायेंगी
विदाई बड़ी दुखदायी
आखिर कितना भीगता हूं मैं
प्यास अभी मिटी नहीं
पता नहीं क्यों?
बेहाल बागवां

यही बुढापा है, सच्चाई है
विदा, अलविदा!
अब कहां गई?
अंतिम पल
खत्म जहां किनारा है
तन्हाई के प्याले
ये मेरी दुनिया है
वहां भी अकेली है वह
जन्म हुआ शिशु का
गरमी
जीवन और मरण
कोई दुखी न हो
यूं ही चलते-चलते
मैं दीवाली देखना चाहता हूं
दीवाली पर दिवाला
जा रहा हूं मैं, वापस न आने के लिए
बुढ़ापा सामने खड़ा पूछ रहा
मगर चुप हूं मैं
क्षोभ
बारिश को करीब से देखा मैंने
बुढ़ापा सामने खड़ा है, अपना लो
मन की पीड़ा
काली छाया

तब जन्म गीत का होता है -रेखा सिंह
भगवान मेरे, क्या जमाना आया है -शुभांगी
वृद्ध इंसान हूं मैं-शुभांगी
मां ऐसी ही होती है -ज्ञानेंद्र सिंह
खामोशी-लाचारी-ज्ञानेंद्र सिंह
उम्र के पड़ाव -बलराम गुर्जर
मैं गरीबों को सलाम करता हूं -फ़ुरखान शाह
दैनिक हिन्दुस्तान और वेबदुनिया में वृद्धग्राम
hindustan vradhgram ब्लॉग वार्ता :
कहीं आप बूढ़े तो नहीं हो रहे
-Ravish kumar
NDTV

इन काँपते हाथों को बस थाम लो!
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