टूटी बिखरी यादें भला जुड़ कैसी सकती हैं। यादें तो मोतियों की माला की तरह टूटकर बिखर गयी हैं। वक्त की कमी है, फिर भी समेट रहा हूं। मैं हताश हूं, लेकिन खुद को ऐसा होने से रोक रहा हूं। मैं इतना जानता हूं कि चलना मुझे है नहीं, रुककर क्या करुंगा, फिर भी चले जा रहा हूं। उस रास्ते रुककर नहीं देखा जहां मैं कभी ठिठोली करता था। वहा गली नहीं चला जहां उम्मीदों को पर लगे।
अपनापन तब था, अब अपने में बसा हूं। यहां सुबह ठंडी नहीं, नम नहीं, मगर उजाला तो है ही, बिना किसी काम का। मेरा मतलब न उजाले से रहा, न अंधेरे से। यादों को मिटाने की मुहिम छिड़ चुकी है। पता नहीं क्यों उलझ कर रहा गया हूं। वाकई उलझ गया हूं मैं। बीती बातें किनारे करने की अनंत कोशिशें की हैं। कुछ हासिल न हो सका। चिपकी हैं यादें। धुंधली पड़कर भी मेरे साथ खड़ी हैं यादें। भुलाये नहीं भूलती यादें। जी करता है माला को तोड़कर फेंक दूं। एक-एक कर बिखर जायेंगी यादें, लेकिन माला बिना मोतियों की है। जीवित हैं यादें और पुरानी होकर भी नयी हैं।
इकट्ठा करता-करता थकान महसूस हो रही है। बूढ़ी हड्डियां थक बड़ी जल्दी जाती हैं। वक्त को तेजी से बढ़ता हुआ देख भी भय लगता है। बहुत बदलाव है, नयापन छूट गया। पुराने पन्ने उड़ने को बेताब हैं। उन्हें सिमेटना मुश्किल है, जिल्द में जोड़ना मुश्किल है।
यादों की खुशबू बिखर गयी इधर-उधर, सब जगह। लेकिन महक आ रही है पुराने पलों से, मीठी-मीठी। खट्टे पल हैं, मीठे हैं और कड़वे भी। यहां चमक है, भीड़ है, उनमें मैं भी हूं।
तब जल्दी थी, होड़ भी। तेजी भी आगे बढ़ने की। होड़ कभी न खत्म होने वाली। बहुत आगे निकल गया। लालसा चंचल थी और चंचलता अठखेली जरुर करती है। शिखर को छूकर भी बहुत कुछ बाकी समझ रहा था। अचानक सच्चाई से सामना हुआ। झुठलाने की कोशिश की, नहीं झुठला सका। फिर अकेला हो गया एकदम अकेला। अब केवल मैं था और आज भी मैं ही हूं।
वे पल अनमोल थे लेकिन बिना मोल के। इक सपना था जो पीछे छूट गया जाने कब का। मलबे का ढेर पुराना हो गया। एक दिन साफ हो जायेगा। फिर कोई अनजाना मुसाफिर इमारत खड़ी करेगा और सिलसिला चलता रहेगा।
-by harminder singh
Friday, August 1, 2008
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हमारे प्रेरणास्रोत | हमारे बुजुर्ग |
...ऐसे थे मुंशी जी ..शिक्षा के क्षेत्र में अतुलनीय काम था मुंशी जी का ...अपने अंतिम दिनों में | तब एहसास होगा कि बुढ़ापा क्या होता है? सम्मान के हकदार नेत्र सिंह रामकली जी दादी गौरजां |
>>मेरी बहन नेत्रा >>मैडम मौली | >>गर्मी की छुट्टियां >>खराब समय >>दुलारी मौसी >>लंगूर वाला >>गीता पड़ी बीमार | >>फंदे में बंदर जानवर कितना भी चालाक क्यों न हो, इंसान उसे काबू में कर ही लेता है। रघु ने स्कूल से कहीं एक रस्सी तलाश कर ली. उसने रस्सी का एक फंदा बना लिया |
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सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य गिरीराज सिद्धू ने व्यक्त किया अपना दुख बुढ़ापे का सहारा गरीबदास उन्हीं की श्रेणी में आते हैं जिन्हें अपने पराये कर देते हैं और थकी हड्डियों को सहारा देने के बजाय उल्टे उनसे सहारे की उम्मीद करते हैं |
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अपने याद आते हैं राजाराम जी घर से दूर रह रहे हैं। उन्होंने कई साल पहले घर को अलविदा कह दिया है। लेकिन अपनों की दूरी अब कहीं न कहीं परेशान करती है, बिल्कुल भीतर से |
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ब्लॉग वार्ता : कहीं आप बूढ़े तो नहीं हो रहे -Ravish kumar NDTV | इन काँपते हाथों को बस थाम लो! -Ravindra Vyas WEBDUNIA.com |
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