लौ जल रही हौले-हौले,
बाती धधक रही हौले-हौले,
पिघला मोम जैसे बहता पानी,
दर्शा रहा एक लय,
जम रहा इकट्ठा हो,
जिंदगी की तरह,
सुलगती बाती बची बाद में,
ढह गयी वह भी मोम में,
विलीन हुआ कुछ,
अवशेष बाकी हैं सिर्फ,
पहचान रहे हैं हम, कि
कभी मोम पिघला था यहां।
-harminder singh
ओह ..बहुत सुन्दर कविता...मोम पिघलता था....मन में कुछ पिघल सा गया
ReplyDelete..कभी मोम पिघला था यहां।
ReplyDelete..वाह!