हमें क्या हो जाता है? हम नहीं जानते। हमें मालूम नहीं होता कि हम करने क्या जा रहे हैं। आज उदासी को फिर मैंने करीब से छुआ। आज फिर से कुछ टूटा।
मुझे लगता है, जैसे पहले जैसा कुछ रहा नहीं। शायद धीरे-धीरे बिखरता जा रहा है कुछ।
इंसानों के चेहरे कभी तो हमें बहुत अच्छे लगते हैं। और कभी-कभी हम उनसे दूर जाने की कोशिश करते हैं। शायद इसलिए कि दूर रहकर कुछ सुकून मिल जाए, लेकिन मैं हर बार वहीं लौट आता हूं।
मेरी समझ में नहीं आता कि हम इतनी जल्दी गुस्सा क्यों कर जाते हैं? मेरी समझ में यह भी नहीं आता कि हम इतनी जल्द रो क्यों जाते हैं? आंसू बहाते हैं, गुस्सा करते हैं, लेकिन फिर भी करीब रहते हैं।
जो लोग कभी हमारे लिए ‘स्पेशल’ रहे हों, हम आज ऐसे हो गये कि उनसे बात करने का मन नहीं करता। ऐसा क्या हो गया कि हम उनसे दूरी बनाते जा रहे हैं। शायद इसे समझने में वक्त लगे।
मैं नहीं समझता कि इससे कुछ लाभ हो। तो चुप रहने में ही भलाई है।
अगर हम उन्हें खुश नहीं रख सकते तो दुख क्यों दें।
विचारों का मेल कितना जरुरी है, यह मैं जान गया। इसमें उम्र का कोई मतलब नहीं रह जाता। कभी हम बात इस तरह करते हैं जैसे वर्षों से एक-दूसरे को जानते हों। और कभी ऐसे हो जाते हैं कि सदियां रुखेपन में बीत गयीं।
मैंने खुद को कह दिया कि जब हम एक-दूसरे को समझ नहीं पा रहे तो दूर जाने में ही फायदा है। लेकिन मन ही फिर रुकने को कह देता है। मैं विवश हूं, रुक जाता हूं।
दो समानांतर रेखाएं उतनी दूरी पर ही रहती हैं। वे कभी मिल नहीं पातीं। हां, एक-दूसरे की करीबी का एहसास जरुर उन्हें रहता है, लेकिन कह नहीं पातीं।
-harminder singh
Tuesday, January 26, 2010
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हमारे प्रेरणास्रोत | हमारे बुजुर्ग |
...ऐसे थे मुंशी जी ..शिक्षा के क्षेत्र में अतुलनीय काम था मुंशी जी का ...अपने अंतिम दिनों में | तब एहसास होगा कि बुढ़ापा क्या होता है? सम्मान के हकदार नेत्र सिंह रामकली जी दादी गौरजां |
>>मेरी बहन नेत्रा >>मैडम मौली | >>गर्मी की छुट्टियां >>खराब समय >>दुलारी मौसी >>लंगूर वाला >>गीता पड़ी बीमार | >>फंदे में बंदर जानवर कितना भी चालाक क्यों न हो, इंसान उसे काबू में कर ही लेता है। रघु ने स्कूल से कहीं एक रस्सी तलाश कर ली. उसने रस्सी का एक फंदा बना लिया |
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सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य गिरीराज सिद्धू ने व्यक्त किया अपना दुख बुढ़ापे का सहारा गरीबदास उन्हीं की श्रेणी में आते हैं जिन्हें अपने पराये कर देते हैं और थकी हड्डियों को सहारा देने के बजाय उल्टे उनसे सहारे की उम्मीद करते हैं |
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अपने याद आते हैं राजाराम जी घर से दूर रह रहे हैं। उन्होंने कई साल पहले घर को अलविदा कह दिया है। लेकिन अपनों की दूरी अब कहीं न कहीं परेशान करती है, बिल्कुल भीतर से |
दैनिक हिन्दुस्तान और वेबदुनिया में वृद्धग्राम |
ब्लॉग वार्ता : कहीं आप बूढ़े तो नहीं हो रहे -Ravish kumar NDTV | इन काँपते हाथों को बस थाम लो! -Ravindra Vyas WEBDUNIA.com |
विजय विश्व तिरंगा प्यारा ,झंडा ऊँचा रहे हमारा
ReplyDeleteगणतंत्र दिवस की शुभ कामनाए*
aapke blog par aa kar bahut hi acha lag...
ReplyDeleteaapka bhaut bhaut dhanyavaad bhaskar ji.
ReplyDeleterepublic day ki shubhkamnayei aapko aur sabhi ko.
सामानांतर रेखाएं मिलती नहीं कभी मगर साथ साथ हमेशा चलती हैं ...किसी के साथ चलने का एहसास ही कम नहीं ...वर्ना तो लोग साथ चलते भी साथ नहीं होते ....!!
ReplyDeleteजीवन का एहसास ही कुछ ऐसा है वाणी जी की लोग चलते हैं, लगते साथ हैं, लेकिन होते नहीं क्योंकि पास रहकर भी दूरी बन जाती है। शायद ऐसा अचानक हो जाता है।
ReplyDeleteकई बार देखा है जो एक दूसरे पर जान देते थे वो जान लेने पर आमादा हो गए हैं...रिश्तों कि शक्ल बदलते वक्त नहीं लगता है...और सामानांतर रेखाओं की ज़िन्दगी बहुत बोझिल होती है...निरुद्देश्य...ये वो रिश्ते हैं जिनकी कोई मंज़िल नहीं होती ये बस सालते ही रहते हैं...
ReplyDeleteमैं पहली बार आई हूँ आपके ब्लॉग पर ...अच्छा लिखते हैं आप..
man ki uljhan ka sateek varnan kiya hai apne.... apki khi her line apni se lg rhi hai......
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