बूढ़ी काकी कहती है-‘‘बुढ़ापा तो आना ही है। सच का सामना करने से भय कैसा? क्यों हम घबराते हैं आने वाले समय से जो सच्चाई है जिसे झुठलाना नामुमकिन है।’’.

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Wednesday, August 27, 2008

‘नीड़ अब अपने नहीं’ 45प्लस इंडिया.com पर

वृद्धग्राम का लेख ‘नीड़ अब अपने नहीं’ उम्रदराजों की चर्चित साइट 45plusindia.com पर पढ़ सकते हैं।

इसका लिंक नीचे दे रहा हूं-

http://www.45plusindia.com/details.aspx?sid=8&id=369

महान शिक्षाविद श्योराज सिंह नहीं रहे



प्रमुख शिक्षाविद सरदार श्योराज सिंह का ह्रदय गति रूक जाने से निधन हो गया। वे 65 वर्ष के थे। उनकी मृत्यू के समाचार से पूरे प्रदेश के शिक्षा जगत में शोक छा गया। इस समाचार से कई कालेजों में छुटटी कर दी गयी और शोक सभा कर उन्हें श्रृद्धा सुमन अर्पित किये।

सरदार श्योराज सिंह जे. पी. नगर जिले के ग्राम नंगलिया बहादुरपुर में एक साधारण कृषक परिवार में पैदा हुए। उन्होंने संसाधनों के आभाव में उच्च शिक्षा प्राप्त की। क्षेत्र के ग्रामाचलों में शिक्षा का उचित प्रबंध न होने के कारण वे क्षेत्र की शिक्षा व्यवस्था के प्रति हमेशा चिन्तित रहते थे। इसी कारण इन्होंने मूढा खेड़ा गांव में एक स्कूल की स्थापना की। अल्प समय में ही सरदार जी के प्रयास से यह संस्था जनता इंण्टर कालेज के नाम से विख्यात हुई। आस-पास के गावों के ऐसे बच्चों को यहां विशेष लाभ पहुंचा जो मंडी धनौरा, अमरोहा या गजरौला आदि स्थानों पर पढने नहीं जा सकते थे। कालेज के संस्थापक और प्रधानाचार्य दोनों उत्तरदायित्वों को निभाते रहे। यह कालेज उनके कार्यकाल में अनुशासन तथा शिक्षा के क्षेत्र में प्रदेश के सर्वश्रेष्ठ कालेजों में गिना जाने लगा। यहां प्रवेश लेने वालों की भीड़ लग गयी। दूर दराज के छात्रों के लिये उन्होंने छात्रावास की व्यवस्था की जो सफलता के साथ चल रही है।

सरदार श्योराज सिंह की योग्यता को देखते हुए शिक्षा विभाग ने उन्हे माध्यमिक शिक्षक सेवा चयन आयोग का सदस्य बनाया गया। वहां भी वे सबसे कर्मठ और इमानदार शिक्षाविद के रूप में सेवायें देते रहे। उस समय जे. पी. नगर के साथ ही मुरादाबाद और रामपुर जनपदों के शिक्षा मंदिरों के हित में जो किया उसका शिक्षा जगत हमेशा ऋणी रहेगा। सरदार श्योराज सिंह ने विधिवत तीन वर्ष पूर्व प्रधानाचार्य के पद से सेवनिवृति प्राप्त की लेकिन वे एक दिन भी शिक्षा जगत की निस्वार्थ सेवाओं से विरत नहीं रहे। वे केवल मूंढा खेड़ा के कालेज की सेवा में ही नहीं बल्कि कई अन्य शिक्षण संस्थाओं को भी शिक्षा निर्देश देते रहे। अनेक शिक्षक और कालेज उनसे सलाह लेने आते थे। ऐसे लोगों का उन्होंने उचित मार्गर्शन कर शिक्षा जगत की भरपूर और निस्वार्थ सेवा की।

ग्राम कौराला के एक नव युवक स जगजीत सिंह की प्रार्थना पर उन्होंने एक इंटर कालेज और कन्या डिग्री कालेज के निमार्ण संचालक और शिक्षा व्यवस्था में अपनी योग्यता और प्रतिभा का भरपूर योगदान किया। ये दोनों संस्थायें आज क्षेत्र की सर्वश्रेष्ठ संस्थाओं में से है। यह सब स. श्योराज सिंह के दिशा निर्देश और परिश्रम का फल है।

विगत दिनों जुबीलेंट आरगेनोसिस लि0 नामक सबसे बड़ी औद्योगिक ईकाई की और से स. श्योराज सिंह को शिक्षा जगत की अभूतपूर्व की सेवाओं के लिये सम्मानित किया गया था। वे शिक्षा के क्षेत्र के अलावा कई धार्मिक और सामाजिक गतिविधियों में भी सक्रिय रहे। सरदार जी ने कभी भी अपनी सेवाओं के प्रचार प्रसार का प्रयास नहीं किया जैसा कि संप्रति हर क्षेत्र में हो रहा है। वे नाम के लिये नहीं बल्कि काम के लिये काम करते रहे। और यही उनकी महानता का कारण है। 24 अगस्त को काल के क्रूर हाथों ने उन्हें हमसे हमेशा के लिये छीन लिया। उस समय वे अपने पुत्र के पास गुड़गाव गये थे। 25 अगस्त को ब्रजघाट गंगा तट पर उनका अन्तिम संस्कार कर दिया गया।

संबंधित लिंक >>>
अनुशासन के तरफदार

-harminder singh

Friday, August 22, 2008

अधूरी कहानी

टूटी छत के नीचे बैठा सरधना कुछ बुदबुदा रहा था। जिस चारपाई पर वह था उसकी हालत भी उसकी उसी की हालत भी खस्ता थी। एकदम घिसी हुई सभी वस्तुएं एक परंपरा का बोध कराती थीं जिसके तहत कल्पनाशील चित्रकार कल्पना छोड़कर ऐसा दृश्य उकेरे जो वास्तविक लगे। सरधना की व्याख्या करने के लिये चारपाई के नजदीक लाठी मानों कुछ कह रही थी। शायद यही कि उसका और उसके मालिक का साथ पुराना है, सदियों का पुराना। लेकिन वक्त के दरवाजों की ध्वनि कर्कश हो चुकी है। कपाट कभी भी बन्द हो सकते हैं। सदा के लिये। समय के अन्तिम पड़ाव की और बढते कदमों को भला कौन रोक सकता है। खुद समय भी नहीं।

सरधना की बीमारी हर किसी की बीमारी है। जीवन की यह सच्चाई है। वह चुप है। बोले तो किससे। आसपास सब का सब निर्जन, शान्त, मूर्त रूप में। उस कोठरी में बरसों रहना पहले खलता था। अब आदत बन चुका है। परिवार से अलग एकान्त में रहता सरधना कुछ करने काबिल नहीं। उसके मुख पर मुस्कराहट की हल्की परछाई पड़ती है। फिर यकायक वह लाठी की तरफ हाथ बढाता है। पूरी उर्जा व्यय कर उठने की कोशिश करता है। वह बाहर की तेज धूप से बचने के लिये सिर पुराना गन्दा पर भद्दा सा कपड़ा ढक लेता है। पैरो में चप्पलें टूटी हालत में हैं। फिर चारपाई के नीचे रखा वह कटोरा उसके दूसरे हाथ में होता है। कुछ समय बाद सरधना सड़क के किनारे एक पेड़ के नीचे होता है। उसने सिर के कपड़े को उतार कर जमीन पर बिछा दिया और जिस पर वह बैठ गया। घण्टों बीत गये सरधना ऐसी ही मुद्रा में था मगर चुपचाप, धीरज बंधाए।

-by harminder singh

Sunday, August 17, 2008

बातें



क्या कहें,
हजार बातें हैं, कही नहीं जातीं,
बंदोबस्त पूरा है, खुलते हुये पत्तों की तरह,
ओढ़ लो चलो, बातों का कंबल,
खटर-पटर से दूर, ठहरे हुये रास्ते,
जा रही बातों की मंजिल,
टकटकी लगाये बैठा है कोई,
यूं ही नहीं बरसती हैं बातें।

अल्हड़, मस्ती में चूर, उम्मीदों से भरी हैं बातें,
खुली किताब के उड़ते हुये शब्द हैं बातें,
ये भी हैं बातें, वे भी हैं बातें,
क्या-क्या नहीं हैं बातें,
नई हैं बातें, पुरानी भी हैं,
इस रास्ते के मोड़ पर रुकीं,
उस मोड़ पर दौड़ती हैं बातें,
कभी शांत नहीं हैं बातें।

उम्मीदों की चुपड़ी हुई रोटी,
चावल से बनी खिचड़ी हैं बातें,
टोकरी पर चढ़ी धूल के कण,
हवा का शोर हैं बातें,
रुई की गरमाहट, तकिये का आराम,
सरपट दौड़ती गाड़ी, बिना टायर की साईकिल,
मस्त हाथी की चिंघाड़ हैं बातें।

खिलते फूल की खुशबू जो महक रही है,
गुंजन जो हो रही है,
रंग जो बह रहे हैं,
सब की तरह चहकती हैं बातें।

बचपन की यादें समेटे,
पड़ोसन की चुगली हैं बातें,
पेड़ की डाल की लचक हैं बातें,
मोम की मुलायम परत हैं बातें,
सूखे पत्ते की खड़खड़ाहट हैं बातें,
गूंगे की फरमाईश का मर्म हैं बातें।

कल का सपना,
आज का सवेरा,
बादलों का अंधेरा,
पक्षियों का बसेरा,
सब कुछ हैं बातें।

कवि की कल्पना का सूखा समुद्र,
यम की गली का चैराहा,
टेसू के फूल का सौंदर्य हैं बातें,
गधे की दुलत्ती भी हैं बातें,
नीम की छाल की तरह,
निंबोरी सी लाभदायक,
आंवले सी खट्टी,
शहद सी मीठी,
त्रिफले सी कड़वी हैं बातें।

निराली हैं,
चालाकों की चालाकी का औजार,
नेताओं की कुर्सी का मोह, और
स्वार्थ से परिपूर्ण हैं बातें,
चिडि़यों का शोर थमने के बाद
सांप की सरसराहट हैं बातें,
कलम की स्याही से लिखी इबारत,
पन्नों के मोड़, अक्षरों की वनावट की तरह हैं बातें।

बीमार भी करती हैं बातें,
ताजगी की तरह हैं बातें,
खुली की दहाड़ सी भी,
मच्छर की झूं-झूं सी भी,
पर्वत की ऊंचाई,
खाई की गहराई,
समेटे हुये हैं बातें।

पानी को रोकती चट्टानों सी चिकनी,
रेत की परत सी खुरदरी हैं बातें,
नेत्रों की खुली पलकों सी,
हिलतें ओठों सी,
फड़फड़ाती हैं बातें,
कुछ भी नहीं, लेकिन
बहुत कुछ कहती हैं बातें।

-by harminder singh

Wednesday, August 13, 2008

पापा की प्यारी बेटी


पापा, प्यार और बेटी काफी जुड़े हुये हैं। पिता को सबसे प्यारी अपनी बेटी होती है। सबसे छोटी बेटी कलेजे का टुकड़ा होती है उनकी नजर में। यह आमतौर पर देखने में आया है कि एक बाप अपनी बेटी को हद तक चाहता है। डोली विदा होती है, तो उसकी आंखें ज्यादा नम होती है। वह भीतर तक रोता है।

मां का विचार बदला हुआ होता है। उसके लिये बेटा लाडला है। मुझे लगता है यह लगाव दोनों माता-पिता में अलग-अलग होता है। पिता बेटी को आजादी देने का इच्छुक है, पर मां को जमाने की फिक्र है। कहती है-‘‘सयानी हो गयी, लोग क्या कहेंगे।’’

पिता के लिये पुत्री जैसे बड़ी ही न हुई हो, अभी छोटी ही है और सदा छोटी ही रहेगी। मां परेशान है और बेटी को ‘उपदेश’ देते नहीं थकती।

बेटी के प्रति मां का व्यवहार कई अवसरों पर भेदभाव वाला है। बेटा कुछ भी करे, करने दो। कहेगी-‘‘बेटे ऐसे ही होते हैं।’’ फिर कहेगी-‘‘ये जानें किस पर गई है। भाई को पढ़ने नहीं देती।’’

बेटी अपना दर्द पिता से अच्छी तरह बता सकती है। पिता उसकी बात ध्यान से समझता है।

फिर एक दिन ऐसा आता है जब चीजें पुरानी होने लगती हैं और लोग भी। तब लड़का पास नहीं होता। बेटी ही काम आती है। वह मां-बाप को दुखी देखकर दुखी होती है। उसका मन कोमल है, वह दोनों को एक नजर से प्रेम करती है।

-harminder singh

Friday, August 1, 2008

टूटी बिखरी यादें

टूटी बिखरी यादें भला जुड़ कैसी सकती हैं। यादें तो मोतियों की माला की तरह टूटकर बिखर गयी हैं। वक्त की कमी है, फिर भी समेट रहा हूं। मैं हताश हूं, लेकिन खुद को ऐसा होने से रोक रहा हूं। मैं इतना जानता हूं कि चलना मुझे है नहीं, रुककर क्या करुंगा, फिर भी चले जा रहा हूं। उस रास्ते रुककर नहीं देखा जहां मैं कभी ठिठोली करता था। वहा गली नहीं चला जहां उम्मीदों को पर लगे।

अपनापन तब था, अब अपने में बसा हूं। यहां सुबह ठंडी नहीं, नम नहीं, मगर उजाला तो है ही, बिना किसी काम का। मेरा मतलब न उजाले से रहा, न अंधेरे से। यादों को मिटाने की मुहिम छिड़ चुकी है। पता नहीं क्यों उलझ कर रहा गया हूं। वाकई उलझ गया हूं मैं। बीती बातें किनारे करने की अनंत कोशिशें की हैं। कुछ हासिल न हो सका। चिपकी हैं यादें। धुंधली पड़कर भी मेरे साथ खड़ी हैं यादें। भुलाये नहीं भूलती यादें। जी करता है माला को तोड़कर फेंक दूं। एक-एक कर बिखर जायेंगी यादें, लेकिन माला बिना मोतियों की है। जीवित हैं यादें और पुरानी होकर भी नयी हैं।

इकट्ठा करता-करता थकान महसूस हो रही है। बूढ़ी हड्डियां थक बड़ी जल्दी जाती हैं। वक्त को तेजी से बढ़ता हुआ देख भी भय लगता है। बहुत बदलाव है, नयापन छूट गया। पुराने पन्ने उड़ने को बेताब हैं। उन्हें सिमेटना मुश्किल है, जिल्द में जोड़ना मुश्किल है।

यादों की खुशबू बिखर गयी इधर-उधर, सब जगह। लेकिन महक आ रही है पुराने पलों से, मीठी-मीठी। खट्टे पल हैं, मीठे हैं और कड़वे भी। यहां चमक है, भीड़ है, उनमें मैं भी हूं।

तब जल्दी थी, होड़ भी। तेजी भी आगे बढ़ने की। होड़ कभी न खत्म होने वाली। बहुत आगे निकल गया। लालसा चंचल थी और चंचलता अठखेली जरुर करती है। शिखर को छूकर भी बहुत कुछ बाकी समझ रहा था। अचानक सच्चाई से सामना हुआ। झुठलाने की कोशिश की, नहीं झुठला सका। फिर अकेला हो गया एकदम अकेला। अब केवल मैं था और आज भी मैं ही हूं।

वे पल अनमोल थे लेकिन बिना मोल के। इक सपना था जो पीछे छूट गया जाने कब का। मलबे का ढेर पुराना हो गया। एक दिन साफ हो जायेगा। फिर कोई अनजाना मुसाफिर इमारत खड़ी करेगा और सिलसिला चलता रहेगा।

-by harminder singh
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घर से स्कूल
>>चाय में मक्खी............................>>भविष्य वाला साधु
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...ऐसे थे मुंशी जी

..शिक्षा के क्षेत्र में अतुलनीय काम था मुंशी जी का

...अपने अंतिम दिनों में
तब एहसास होगा कि बुढ़ापा क्या होता है?

सम्मान के हकदार

नेत्र सिंह

रामकली जी

दादी गौरजां

कल्याणी-एक प्रेम कहानी मेरा स्कूल बुढ़ापा

....भाग-1....भाग-2
सीधी बात नो बकवास

बहुत कुछ बदल गया, पर बदले नहीं लोग

गुरु ऐसे ही होते हैं
युवती से शादी का हश्र भुगत रहा है वृद्ध

बुढ़ापे के आंसू

बूढ़ा शरीर हुआ है इंसान नहीं

बुढ़ापा छुटकारा चाहता है

खोई यादों को वापिस लाने की चाह

बातों बातों में रिश्ते-नाते बुढ़ापा
ऐसा क्या है जीवन में?

अनदेखा अनजाना सा

कुछ समय का अनुभव

ठिठुरन और मैं

राज पिछले जन्म का
क्योंकि तुम खुश हो तो मैं खुश हूं

कहानी की शुरुआत फिर होगी

करीब हैं, पर दूर हैं

पापा की प्यारी बेटी

छली जाती हैं बेटियां

मां ऐसी ही होती है
एक उम्मीद के साथ जीता हूं मैं

कुछ नमी अभी बाकी है

अपनेपन की तलाश

टूटी बिखरी यादें

आखिरी पलों की कहानी

बुढ़ापे का मर्म



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>>मेरी बहन नेत्रा

>>मैडम मौली
>>गर्मी की छुट्टियां

>>खराब समय

>>दुलारी मौसी

>>लंगूर वाला

>>गीता पड़ी बीमार
>>फंदे में बंदर

जानवर कितना भी चालाक क्यों न हो, इंसान उसे काबू में कर ही लेता है। रघु ने स्कूल से कहीं एक रस्सी तलाश कर ली. उसने रस्सी का एक फंदा बना लिया

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वृद्धग्राम पर पहली पोस्ट में मा. होराम सिंह का जिक्र
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वृद्धों की सेवा में परमानंद -
डा. रमाशंकर
‘अरुण’


बुढ़ापे का दर्द

दुख भी है बुढ़ापे का

सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य गिरीराज सिद्धू ने व्यक्त किया अपना दुख

बुढ़ापे का सहारा

गरीबदास उन्हीं की श्रेणी में आते हैं जिन्हें अपने पराये कर देते हैं और थकी हड्डियों को सहारा देने के बजाय उल्टे उनसे सहारे की उम्मीद करते हैं
दो बूढ़ों का मिलन

दोनों बूढ़े हैं, फिर भी हौंसला रखते हैं आगे जीने का। वे एक सुर में कहते हैं,‘‘अगला लोक किसने देखा। जीना तो यहां ही है।’’
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इक दिन बिक जायेगा माटी के मोल
प्रताप महेन्द्र सिंह कहते हैं- ''लाचारी और विवशता के सिवाय कुछ नहीं है बुढ़ापा. यह ऐसा पड़ाव है जब मर्जी अपनी नहीं रहती। रुठ कर मनाने वाला कोई नहीं।'' एक पुरानी फिल्म के गीत के शब्द वे कहते हैं-‘‘इक दिन बिक जायेगा, माटी के मोल, जग में रह जायेंगे, प्यारे तेरे बोल।’’

...............कहानी
[kisna.jpg]
किशना- एक बूढ़े की कहानी
(भाग-1)..................(भाग-2)
ये भी कोई जिंदगी है
बृजघाट के घाट पर अनेकों साधु-संतों के आश्रम हैं। यहां बहुत से बूढ़े आपको किसी आस में बैठे मिल जायेंगे। इनकी आंखें थकी हुयी हैं, येजर्जर काया वाले हैं, किसी की प्रेरणा नहीं बने, हां, इन्हें लोग दया दृष्टि से जरुर देखते हैं

अपने याद आते हैं
राजाराम जी घर से दूर रह रहे हैं। उन्होंने कई साल पहले घर को अलविदा कह दिया है। लेकिन अपनों की दूरी अब कहीं न कहीं परेशान करती है, बिल्कुल भीतर से

कविता.../....हरमिन्दर सिंह .
कभी मोम पिघला था यहां
इस बहाने खुद से बातें हो जायेंगी
विदाई बड़ी दुखदायी
आखिर कितना भीगता हूं मैं
प्यास अभी मिटी नहीं
पता नहीं क्यों?
बेहाल बागवां

यही बुढापा है, सच्चाई है
विदा, अलविदा!
अब कहां गई?
अंतिम पल
खत्म जहां किनारा है
तन्हाई के प्याले
ये मेरी दुनिया है
वहां भी अकेली है वह
जन्म हुआ शिशु का
गरमी
जीवन और मरण
कोई दुखी न हो
यूं ही चलते-चलते
मैं दीवाली देखना चाहता हूं
दीवाली पर दिवाला
जा रहा हूं मैं, वापस न आने के लिए
बुढ़ापा सामने खड़ा पूछ रहा
मगर चुप हूं मैं
क्षोभ
बारिश को करीब से देखा मैंने
बुढ़ापा सामने खड़ा है, अपना लो
मन की पीड़ा
काली छाया

तब जन्म गीत का होता है -रेखा सिंह
भगवान मेरे, क्या जमाना आया है -शुभांगी
वृद्ध इंसान हूं मैं-शुभांगी
मां ऐसी ही होती है -ज्ञानेंद्र सिंह
खामोशी-लाचारी-ज्ञानेंद्र सिंह
उम्र के पड़ाव -बलराम गुर्जर
मैं गरीबों को सलाम करता हूं -फ़ुरखान शाह
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hindustan vradhgram ब्लॉग वार्ता :
कहीं आप बूढ़े तो नहीं हो रहे
-Ravish kumar
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इन काँपते हाथों को बस थाम लो!
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