
‘बहुत पीड़ा होगी तुम्हें। शायद बहुत पछतावा भी। तुम पापी हो। पाप तो हो चुका। ईश्वर पर दोष देने से कोई लाभ होने वाला नहीं क्योंकि उसे धोखा दिया नहीं जा सकता। सभी इंसान स्वार्थी हैं, तुम भी। आवेश तन कर खड़ा हो गया तो उसके हो लिए। कैसी मानसिकता है तुम्हारी? मुझे तुम पर दया नहीं आयेगी। भला हत्यारे पर दया किस मोल की? तुम जैसे इंसान दूसरों की रोशनी छीनकर उन्हें अंधेरे में रहने को मजबूर करते हो। अंधेरा काला होता है। सबको भय लगता है जब जीवन का एक किनारा सिकुड़ जाए। तुम्हें दब कर जीना होगा, घुट कर जीना होगा। यह इंसाफ ही तो होगा। फल भुगतने की बारी सबकी आती है- कुछ देर से, कुछ जल्दी हलाल होते हैं। तुम्हारी तड़पन देखने लायक होगी। समझ चुके हो शायद अपने वक्त की कहानी का अंजाम। घिसट-घिसट कर जीवन चलेगा। इसकी रगड़ तुम्हें अंदर तक छील देगी और दर्द इतना अधिक होगा कि रो भी न सकोगे। पीड़ा का अहसास खुद करने पर वास्तविकता का पता चलता है। पीड़ा को करीब से देखे स्वत: ही कराह उठोगे। भीतर छिपे शैतान को अपना दर्द दूर करने के लिए अब पुकारो। क्यों, असहाय हो गए न। लोग अक्सर भूल कर जाते हैं कि उनका किया सब सही है। तुमने यही किया- भगवान खुद को मान बैठे। एक स्त्री को विधवा बनाया। उसके बच्चों से उनका प्यारा पिता छीन लिया और पत्नि से उसका पति। क्या मिला, आखिर हासिल क्या हुआ? ओरों को भी तड़पाया स्वयं भी कष्टों को समेटा। यह भुगतना पड़ेगा। अपने जब दूर हो जाते हैं तब कष्ट इतना भारी होता है कि दुख समेटे नहीं सिमटता। इसे दुखों के पहाड़ से बड़ा कहते हैं। जिंदगी छीनना आसान है, उसे निभाना कठिन। तुमने खुद को ऐसे हालातों का मोहताज बना दिया कि अब सिवाय दुखों के कुछ नहीं। जियोगे, जरुर जियोगे, तुम्हें जीना पड़ेगा। भला तुम्हारे जैसा इंसान इतनी आसानी से मर कैसे सकता है? देखोगे वह जो पहले नहीं देखा, सहोगे वह जो नहीं सहा। हर जगह गमों का जाला होगा जो जकड़ कर रखेगा तुम्हें। उजाला ढूंढते फिरोगे, हाथ नहीं आयेगा। सवेरे की तलाश अधूरी रहेगी। उजड़े दिनों की शुरुआत हो चुकी। तैयार रहो, काले बादल कब आ जायें। यह होना ही चाहिए। बुराई का नाश किसी भी कीमत पर होना चाहिए। यदि ऐसा नहीं होगा तो बुराई सिर उठायेगी, चटकारा लेकर अच्छाई का उपहास करेगी। बुरों को उनके किए के परिणामों को तुरंत दिया जाये जिससे ऐसे दुष्टों का संहार हो सके। जीवन को तुम्हारे जैसे लोग खराब बना देते हैं। केवल आवेश को हल समझते हैं। तड़पो और तड़पो। जियो, अब पता लग जाएगा कि किसी को मारकर कैसे जिया जाता है। सच से कब तक भागते रहोगे। दौड़ कितनी भी लंबी क्यों न हो वह अंजाम तक जरुर पहुंचती है। तुम दौड़े हो, बहुत चले हो। अब पिंजरे में हो। जैसे एक पंछी कभी जिसकी उन्मुक्तता उसे कुछ भी करने की इजाजत देती थी, आज उसके दिन बदल गये हैं। वह दया का पात्र बनकर रह गया है। कोठरी में बंद एक निर्जीव सी वस्तु जिसकी चीखें अभी उतनी नहीं, आगे और बढ़ेंगी। पंखों की फड़फड़ाहट किसी काम की नहीं।’
‘आज वक्त ने तुम्हें भिखारी सा बना दिया है। कुछ क्या, कुछ भी तो नहीं है तुम्हारे पास। कटोर फैलाते हो कोई भीख तक नहीं देता। भिखारी, बेसहारा, मोहताज कहीं के। सूखी टहनियांे को अपना दुखड़ा रो सकते हो। वे हरी थीं, तभी सुनती थीं। जमाना तुमसे बचने की कोशिश कर रहा है। एक हत्यारे से मेल कौन करना चाहेगा? कौन दो शब्द कहना चाहेगा? कौन यह चाहेगा कि इसे हम कभी जानते थे? कौन तुमसे बात करेगा? कोई नहीं। शांत, मृत दीवारों से मित्रता नहीं की जाती। क्या करोगे? दीवारों से सिर पटक कर कुछ हासिल नहीं होगा। माथे को लहूलुहान करके देखो, पीड़ा कितनी होगी। खून का एक कतरा बहने पर कष्ट कितना होता है यह जानोगे। हृदय की हालत क्या होती है, यह भी जानोगे। पर तुम क्यों जानोगे, तुम्हें दूसरे का दर्द मालूम ही नहीं। मुझे घृणा है तुमसे, तुम्हारे इरादों से।’
लेकिन नींद अब उतना दिक्कत नहीं करती। उसे वास्तविकता का मैं अहसास करा चुका। लेकिन उसे अभी भी संशय है। शायद जिसका हल न उसके पास है, न मेरे।
-harminder singh
Bahut khoob kaha hai harminder singh ji ne.
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