‘‘अपने सुनते नहीं, पराये अपने होते नहीं। यह दौर का खेल है। वक्त बीत जायेगा। मगर अब बीतने से क्या फायदा। कुछ नहीं, कुछ भी तो नहीं। यह सब उसका किया धरा है। ऊपर वाला पता नहीं क्या-क्या करता रहता है?’’ -राजाराम जी, उम्र 80 साल |
‘‘रह रहकर याद आती है उनकी। वे मुझे याद करते होंगे या नहीं, लेकिन मैं उन्हें नहीं भूल पाया हूं। दुखी होकर घर से निकला था मैं। निकला क्या हालात ही ऐसे बना दिये गये थे कि वहां रहना मेरे बस से बाहर था। अपनी औलाद के साथ कुछ पल बिताना चाहता था। वह समय मेरा छिन गया।’’ राजाराम भावुक हो जाते हैं।
लेकिन आगे कहते हैं,‘‘मैंने बुरा वक्त देखा है। 80 साल की उम्र को मैं कम नहीं समझता, बहुत ज्यादा बूढ़ा हो गया हूं मैं। बच्चों को बढ़ा होते देखा है मैंने। उम्मीदें बहुत थीं। सब चकनाचूर हो गयीं।’’ राजाराम का चेहरा थोड़ा गुस्सा भी जाहिर करता है और मन की टीस भी।
‘‘अपने सुनते नहीं, पराये अपने होते नहीं। यह दौर का खेल है। वक्त बीत जायेगा। मगर अब बीतने से क्या फायदा। कुछ नहीं, कुछ भी तो नहीं। यह सब उसका किया धरा है। ऊपर वाला पता नहीं क्या-क्या करता रहता है?’’
राजाराम अपने घर में बेइज्जत किये गये। उन्हें ताने दिये जाते थे, रोज-रोज के तानों से वे घुटन महसूस कर रहे थे। पेंशन मिलती है, गुजारा ठीक-ठीक चल रहा है। पत्नि की मौत के बाद टूट गये थे, अब जाकर थोड़े संभले हैं। पर यह भी कोई संभलना है।
रमेश उनका नौकर है। वह बचपन से उनके साथ रहा है। जब वे घर से निकले तो वह भी उनके साथ आ गया। बड़ा ईमानदार और नेक है। आसपड़ोस के लोग भी उसकी अच्छाई के बारे में बता देंगे। वह उनकी भी कुछ न कुछ मदद कर देता है।
राजाराम जी कहते हैं,‘‘कितनी जिंदगी बची है, पता नहीं। वैसे मन नहीं मानता। मरने से पहले एक बार बच्चों को जरुर देखूंगा।’’
थोड़ा रुक जाते हैं। फिर कहते हैं,‘‘अब क्या करें, बाप का मन कितना होता है। औलाद के साथ रहने को दिल कहता है। अपने बच्चे भूले नहीं जाते चाहें वे क्यों न हमें भूल जायें और कितने ही बुरे क्यों न हों।’’ भावुक हो गये राजाराम जी।
उन्होंने गर्दन झुकाकर अपने कमजोर हाथों से आंखों को मसला। उनकी उंगलियां कुछ गीली थीं।
-हरमिन्दर सिंह द्वारा
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