बूढ़ी काकी कहती है-‘‘बुढ़ापा तो आना ही है। सच का सामना करने से भय कैसा? क्यों हम घबराते हैं आने वाले समय से जो सच्चाई है जिसे झुठलाना नामुमकिन है।’’.

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Monday, May 19, 2008

ये भी कोई जिंदगी है

जमीन पर सोने वालों की भी भला कोई जिंदगी होती है। हजारों दुख होते हैं उन्हें, मगर बयां किस से करें? हजारों तकलीफों से जूझते हैं और जिंदगी की पटरी पर उनकी गाड़ी कभी सरपट नहीं दौड़ती, हिचकौले खाती है, कभी टकराती है, कभी गिर जाती है। एक दिन ऐसा आता है जब जिंदगी हार जाती है।

ऐसे लोगों में बच्चे, जवान और बूढ़े सभी होते हैं जिन्हें पता नहीं कि वे किस लिये जी रहे हैं। बस जीते हैं। कई बूढ़े अपने सफेद बालों को यह सोचकर शायद न कभी बहाते हों कि अब जिंदगी में क्या रखा है, दिन तो पूरे हो ही गये।
उन्हें जिंदगी का तजुर्बा होता है। ऐसे वृद्धों को कोई अच्छी निगाह से नहीं देखता, सब उन्हें गलत समझते हैं। उनके हालातों की तरफ कोई ध्यान नहीं देता। सड़क उनका घर, उनका सब कुछ होती है। वे कहीं भी गुजार सकते हैं। आखिर एक रात की ही तो बात है। अगले दिन कहीं ओर, किसी ओर जगह उनका आशियाना होगा, लेकिन वे बेफिक्र भी हैं।


यहीं गुजर जाती हैं जिंदगी

बृजघाट के घाट पर अनेकों साधु-संतों के आश्रम हैं। यहां बहुत से बूढ़े आपको किसी आस में बैठे मिल जायेंगे। इनकी आंखें थकी हुयी हैं, ये जर्जर काया वाले हैं, किसी की प्रेरणा नहीं बने, हां, इन्हें लोग दया दृष्टि से जरुर देखते हैं।


वृद्धों को मैंने कई बार प्लेटफार्म पर देखा है। वे बिना उद्देश्य के जिये जा रहे हैं। उनका जीवन किसी के लिये उपयोगी नहीं रहा। इनमें से बहुत से ऐसे हैं जो अपनों ने घर से बेघर किये हैं। वृद्धग्राम की शुरुआत में इसी साल के प्रारंभ में करने की सोच रहा था, लेकिन मैं काफी समय तक इन उम्रदराजों का अध्ययन करता रहा। मेरी ऐसे लोगों से लंबी मुलाकातें भी हुयीं।

कुछ ने बताया कि उन्हें पता नहीं कि वे कहां के रहने वाले हैं। जब से पैदा हुये, जमीन पर सोये हैं, रुखी-सूखी खायी है और मोहताजी में जिये हैं। कई ने बताया कि उनका भी एक परिवार था, वे भी कभी शान से रहते थे। औलाद धोखा दे गयी, क्या करें। उनके आंसुओं के कतरे मैंने अपने जेहन में संभाल के रखे हैं, धीरे-धीरे वृद्धग्राम पर बहा रहा हूं।

एक वृद्ध बृजघाट मिले थे।(हरिद्वार की तरह की यहां से भी गंगा गुजरती है और गंगा स्नान का प्रत्येक कार्तिक पूर्णिमा को यहां विशाल मेला लगता है। बृजघाट उत्तर प्रदेश में स्थित है।) उनका नाम दीनानाथ है. वे काफी दुखी थे। वे बृजघाट के तट पर रामभक्ति में लीन रहते हैं। अपनों ने उन्हें कई साल पहले पराया बना दिया। वे उदास मन से कहते हैं,‘‘बहुओं के आने के बाद घर का माहौल बदल गया। दोनों बेटे उनकी ओर की कहने लगे। बेटी है नहीं, पत्नि को स्वर्ग सिधारे कई वर्ष बीत गये। मैं ठहरा बूढ़ा क्या कर सकता हूं, उन्हें मेरी जरुरत नहीं लगी। सो निकाल दिया घर से।’’ इतना कहकर वे रोने लगते हैं।

दीनानाथ जी आगे कहते हैं,‘‘मैं यहां चला आया। यहां कुछ आश्रम हैं, श्रृद्धालु आते रहते हैं। कुछ न कुछ मिल ही जाता है। अब इस बुढ़ापे में और चाहिये ही क्या, आसरा और दो वक्त की रोटी।’’

वे अब अन्य तीर्थस्थलों को देखना चाहते हैं। कहते हैं कि आखिरी समय में जितना भगवान का नाम लिया जाये उतना कम है।

बृजघाट के घाट पर अनेकों साधु-संतों के आश्रम हैं। यहां बहुत से बूढ़े आपको किसी आस में बैठे मिल जायेंगे। इनकी आंखें थकी हुयी हैं, ये जर्जर काया वाले हैं, किसी की प्रेरणा नहीं बने, हां, इन्हें लोग दया दृष्टि से जरुर देखते हैं।

हरमिन्दर सिंह द्वारा

3 comments:

  1. बहुत अच्छा हे लगे रहे धन्यवाद

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  2. कभी कभी सोचता हूँ की इश्वर के कौन से पैमाने है ....वाकई इतने कष्ट है इस संसार मे की या तो आँख मीच ले इंसान या निष्ठुर हो जाए

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  3. अनुराग जी,
    इन कष्टों को पता नहीं क्यो उत्पन्न किया गया है। अब ये कष्ट उठाने हैं और बुढ़ापा आना है।
    उसका खेल निराला है। यह हैरानी भरा भी है कि वही पैदा करता है और किसी भी क्षण इतना निष्ठुर हो जाता है कि किसी को भी समाप्त कर देता है।
    ये नियम समझ के परे हैं। साधु-सन्यासी बनकर भी हम इससे बच नहीं सकते। बुढ़ापा तो आयेगा ही।

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कैदी की डायरी......................
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>>पल दो पल का जीवन.............>क्यों हम जीवन खो देते हैं?

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...ऐसे थे मुंशी जी

..शिक्षा के क्षेत्र में अतुलनीय काम था मुंशी जी का

...अपने अंतिम दिनों में
तब एहसास होगा कि बुढ़ापा क्या होता है?

सम्मान के हकदार

नेत्र सिंह

रामकली जी

दादी गौरजां

कल्याणी-एक प्रेम कहानी मेरा स्कूल बुढ़ापा

....भाग-1....भाग-2
सीधी बात नो बकवास

बहुत कुछ बदल गया, पर बदले नहीं लोग

गुरु ऐसे ही होते हैं
युवती से शादी का हश्र भुगत रहा है वृद्ध

बुढ़ापे के आंसू

बूढ़ा शरीर हुआ है इंसान नहीं

बुढ़ापा छुटकारा चाहता है

खोई यादों को वापिस लाने की चाह

बातों बातों में रिश्ते-नाते बुढ़ापा
ऐसा क्या है जीवन में?

अनदेखा अनजाना सा

कुछ समय का अनुभव

ठिठुरन और मैं

राज पिछले जन्म का
क्योंकि तुम खुश हो तो मैं खुश हूं

कहानी की शुरुआत फिर होगी

करीब हैं, पर दूर हैं

पापा की प्यारी बेटी

छली जाती हैं बेटियां

मां ऐसी ही होती है
एक उम्मीद के साथ जीता हूं मैं

कुछ नमी अभी बाकी है

अपनेपन की तलाश

टूटी बिखरी यादें

आखिरी पलों की कहानी

बुढ़ापे का मर्म



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>>मेरी बहन नेत्रा

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जानवर कितना भी चालाक क्यों न हो, इंसान उसे काबू में कर ही लेता है। रघु ने स्कूल से कहीं एक रस्सी तलाश कर ली. उसने रस्सी का एक फंदा बना लिया

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वृद्धों की सेवा में परमानंद -
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बुढ़ापे का सहारा

गरीबदास उन्हीं की श्रेणी में आते हैं जिन्हें अपने पराये कर देते हैं और थकी हड्डियों को सहारा देने के बजाय उल्टे उनसे सहारे की उम्मीद करते हैं
दो बूढ़ों का मिलन

दोनों बूढ़े हैं, फिर भी हौंसला रखते हैं आगे जीने का। वे एक सुर में कहते हैं,‘‘अगला लोक किसने देखा। जीना तो यहां ही है।’’
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इक दिन बिक जायेगा माटी के मोल
प्रताप महेन्द्र सिंह कहते हैं- ''लाचारी और विवशता के सिवाय कुछ नहीं है बुढ़ापा. यह ऐसा पड़ाव है जब मर्जी अपनी नहीं रहती। रुठ कर मनाने वाला कोई नहीं।'' एक पुरानी फिल्म के गीत के शब्द वे कहते हैं-‘‘इक दिन बिक जायेगा, माटी के मोल, जग में रह जायेंगे, प्यारे तेरे बोल।’’

...............कहानी
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किशना- एक बूढ़े की कहानी
(भाग-1)..................(भाग-2)
ये भी कोई जिंदगी है
बृजघाट के घाट पर अनेकों साधु-संतों के आश्रम हैं। यहां बहुत से बूढ़े आपको किसी आस में बैठे मिल जायेंगे। इनकी आंखें थकी हुयी हैं, येजर्जर काया वाले हैं, किसी की प्रेरणा नहीं बने, हां, इन्हें लोग दया दृष्टि से जरुर देखते हैं

अपने याद आते हैं
राजाराम जी घर से दूर रह रहे हैं। उन्होंने कई साल पहले घर को अलविदा कह दिया है। लेकिन अपनों की दूरी अब कहीं न कहीं परेशान करती है, बिल्कुल भीतर से

कविता.../....हरमिन्दर सिंह .
कभी मोम पिघला था यहां
इस बहाने खुद से बातें हो जायेंगी
विदाई बड़ी दुखदायी
आखिर कितना भीगता हूं मैं
प्यास अभी मिटी नहीं
पता नहीं क्यों?
बेहाल बागवां

यही बुढापा है, सच्चाई है
विदा, अलविदा!
अब कहां गई?
अंतिम पल
खत्म जहां किनारा है
तन्हाई के प्याले
ये मेरी दुनिया है
वहां भी अकेली है वह
जन्म हुआ शिशु का
गरमी
जीवन और मरण
कोई दुखी न हो
यूं ही चलते-चलते
मैं दीवाली देखना चाहता हूं
दीवाली पर दिवाला
जा रहा हूं मैं, वापस न आने के लिए
बुढ़ापा सामने खड़ा पूछ रहा
मगर चुप हूं मैं
क्षोभ
बारिश को करीब से देखा मैंने
बुढ़ापा सामने खड़ा है, अपना लो
मन की पीड़ा
काली छाया

तब जन्म गीत का होता है -रेखा सिंह
भगवान मेरे, क्या जमाना आया है -शुभांगी
वृद्ध इंसान हूं मैं-शुभांगी
मां ऐसी ही होती है -ज्ञानेंद्र सिंह
खामोशी-लाचारी-ज्ञानेंद्र सिंह
उम्र के पड़ाव -बलराम गुर्जर
मैं गरीबों को सलाम करता हूं -फ़ुरखान शाह
दैनिक हिन्दुस्तान और वेबदुनिया में वृद्धग्राम
hindustan vradhgram ब्लॉग वार्ता :
कहीं आप बूढ़े तो नहीं हो रहे
-Ravish kumar
NDTV

इन काँपते हाथों को बस थाम लो!
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