बूढ़ी काकी कहती है-‘‘बुढ़ापा तो आना ही है। सच का सामना करने से भय कैसा? क्यों हम घबराते हैं आने वाले समय से जो सच्चाई है जिसे झुठलाना नामुमकिन है।’’.

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Wednesday, November 18, 2009

खुशी का मरहम


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मैंने खुद को अनेक बार समझाया कि बहुत हो चुका। दूसरों को देखकर मैंने खुद को बदला है। सादाब ने मुझे समझाया और कहा,‘‘तुम मन को बीच में लाते हो। इसलिए हर बार हार जाते हो। तुम सोचते बहुत हो, इसलिए निराश हो जाते हो। मैं कई दिन उदास रहा, अब भी हूं। मगर इससे फायदा कुछ मिला नहीं, सो मुस्कराना पड़ा। कम से कम गम तो कम होंगे। दुखों से जितना बचने की कोशिश करोगे, वे उतना तुम्हें जकड़ेंगे। सही यह है कि उनपर खुशी का मरहम लगाओ।’’

उसकी बातों को मैंने ध्यान से सुना। उनका असर कितना होगा, यह मालूम नहीं। इतना कहना चाहूंगा कि कुछ फर्क तो होगा, शायद धीरे-धीरे ही सही।

लोगों का असर हम पर होता है। हम खुद को बदल भी देते हैं। लेकिन कहीं न कहीं उनकी तरह हो नहीं पाते। कुछ अंतर जरुर रहता है। यह इसलिए ताकि सब एक जैसे न हों। यदि ऐसा होता तो फर्क का मतलब क्या रह जायेगा?

मुझे साफ तौर पर याद नहीं लेकिन सादाब ने इतना बताया कि उसे धोखा दिया गया है। वह चोट खाया है। उसके इस समय के जिम्मेदार उसका कोई अपना है। लेकिन वह बाद में चुप हो गया था। उसका मन भीतर ही भीतर दुखी था। उसकी और मेरी बातें उतनी लंबी नहीं चलतीं। वह कम शब्दों में बहुत कुछ कह जाता है। ऐसा अक्सर बहुत कम लोग कर पाते हैं।

धोखा इंसान खाता है। उसकी परेशानी वह ही जान सकता है। विश्वास की अहमियत जीवन में बहुत है। रिश्तों की नींव ही भरोसे पर टिकी होती है। एक मामूली दरार रिश्तों को भरभराकर ढहने पर मजबूर कर देती है। तब इंसान केवल मूक-दर्शक की तरह तमाशा देखता है। ऐसी स्थिति में आखिर वह कर भी क्या सकता है? अपने नसीब को खोटा कह सकता है। भगवान को कोस सकता है। वक्त को गाली दे सकता है। कौन रोक सकता है भला उसे ऐसा करने से? कोई भी तो नहीं, कोई नहीं। यहां तक की वह खुद भी नहीं खुद को रोक सकता। मैंने पता नहीं धोखा खाया है, लेकिन कभी-कभी गुस्से में बहुत कुछ ऐसा बोल जाता हूं जिससे दूसरों को लगता है कि मैंने धोखा झेला है।

मेरी आंख लगने को हो रही है। मैं फिर भी लिखे जा रहा हूं। इसका कारण मेरे विचार हैं। लिखना नहीं चाहते हुए लिखता जा रहा हूं। यह अजीब है न कि मैं पहले नींद का इंतजार करता था। आजकल ऐसा होता नहीं।

कोई हमें अपने मित्र की तरह समझता और समझाता हो, तो हम कई प्रकार से सुकून में हैं। कम से कम कुछ पल उसके साथ बिताने को मिल जायेंगे।

जारी है.......

-harminder singh

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युवती से शादी का हश्र भुगत रहा है वृद्ध

बुढ़ापे के आंसू

बूढ़ा शरीर हुआ है इंसान नहीं

बुढ़ापा छुटकारा चाहता है

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जानवर कितना भी चालाक क्यों न हो, इंसान उसे काबू में कर ही लेता है। रघु ने स्कूल से कहीं एक रस्सी तलाश कर ली. उसने रस्सी का एक फंदा बना लिया

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गरीबदास उन्हीं की श्रेणी में आते हैं जिन्हें अपने पराये कर देते हैं और थकी हड्डियों को सहारा देने के बजाय उल्टे उनसे सहारे की उम्मीद करते हैं
दो बूढ़ों का मिलन

दोनों बूढ़े हैं, फिर भी हौंसला रखते हैं आगे जीने का। वे एक सुर में कहते हैं,‘‘अगला लोक किसने देखा। जीना तो यहां ही है।’’
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इक दिन बिक जायेगा माटी के मोल
प्रताप महेन्द्र सिंह कहते हैं- ''लाचारी और विवशता के सिवाय कुछ नहीं है बुढ़ापा. यह ऐसा पड़ाव है जब मर्जी अपनी नहीं रहती। रुठ कर मनाने वाला कोई नहीं।'' एक पुरानी फिल्म के गीत के शब्द वे कहते हैं-‘‘इक दिन बिक जायेगा, माटी के मोल, जग में रह जायेंगे, प्यारे तेरे बोल।’’

...............कहानी
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किशना- एक बूढ़े की कहानी
(भाग-1)..................(भाग-2)
ये भी कोई जिंदगी है
बृजघाट के घाट पर अनेकों साधु-संतों के आश्रम हैं। यहां बहुत से बूढ़े आपको किसी आस में बैठे मिल जायेंगे। इनकी आंखें थकी हुयी हैं, येजर्जर काया वाले हैं, किसी की प्रेरणा नहीं बने, हां, इन्हें लोग दया दृष्टि से जरुर देखते हैं

अपने याद आते हैं
राजाराम जी घर से दूर रह रहे हैं। उन्होंने कई साल पहले घर को अलविदा कह दिया है। लेकिन अपनों की दूरी अब कहीं न कहीं परेशान करती है, बिल्कुल भीतर से

कविता.../....हरमिन्दर सिंह .
कभी मोम पिघला था यहां
इस बहाने खुद से बातें हो जायेंगी
विदाई बड़ी दुखदायी
आखिर कितना भीगता हूं मैं
प्यास अभी मिटी नहीं
पता नहीं क्यों?
बेहाल बागवां

यही बुढापा है, सच्चाई है
विदा, अलविदा!
अब कहां गई?
अंतिम पल
खत्म जहां किनारा है
तन्हाई के प्याले
ये मेरी दुनिया है
वहां भी अकेली है वह
जन्म हुआ शिशु का
गरमी
जीवन और मरण
कोई दुखी न हो
यूं ही चलते-चलते
मैं दीवाली देखना चाहता हूं
दीवाली पर दिवाला
जा रहा हूं मैं, वापस न आने के लिए
बुढ़ापा सामने खड़ा पूछ रहा
मगर चुप हूं मैं
क्षोभ
बारिश को करीब से देखा मैंने
बुढ़ापा सामने खड़ा है, अपना लो
मन की पीड़ा
काली छाया

तब जन्म गीत का होता है -रेखा सिंह
भगवान मेरे, क्या जमाना आया है -शुभांगी
वृद्ध इंसान हूं मैं-शुभांगी
मां ऐसी ही होती है -ज्ञानेंद्र सिंह
खामोशी-लाचारी-ज्ञानेंद्र सिंह
उम्र के पड़ाव -बलराम गुर्जर
मैं गरीबों को सलाम करता हूं -फ़ुरखान शाह
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-Ravish kumar
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