रात भर वह मेरी आंखों में भरी रही, एक ख्वाब की तरह। वह ख्वाब मुझे हकीकत लग रहा था। मुझे उस समय कई किस्म के अहसास हुए। उनमें मैंने खुद को उलझा पाया। भला एहसासों में भी कोई उलझता होगा, लेकिन मैं उनके ताने-बाने में कहीं खो गया था। यह खुद को भूलने के बराबर लगता था।
सपनों की दुनिया मेरे लिए हमेशा अनोखी रही है। बचपन के सपने हैरान करते थे। आज भी वही होता है। फर्क इतना है कि तब मैं बच्चा था, आज बूढ़ा हूं। तब मैं डर कर जाग उठता था। मां से लिपट जाता। बाबूजी भी परेशान हो जाते। औलाद का प्रेम ऐसा ही होता है। मैं पसीने में नहा जाता। दिल की धड़कनें बढ़ जातीं। आज दिल तो है, लेकिन वह धड़कता उतना नहीं। शायद जब हम जिंदगी के आखिरी पायदान पर होते हैं तो धड़कने भी धीरे-धीरे सिमट रही होती हैं।
मैं कल्याणी के सपनों में इतना खोया था कि सोना ही भूल गया। तभी अलार्म बज उठा। सुबह के चार बज चुके थे। पास मेज पर रखी घड़ी को मामूली झिड़क दिया। अंधेरे में हाथ उसपर लगा तो वह नीचे गिर गयी। अलार्म फिर बज उठा।
‘ओह, तेरी.......।’ मैं खुद पर चिल्लाने को हुआ।
कल्याणी कुछ समय के लिए मानो गायब हो गयी थी। मगर आंखों से सपना टूटा नहीं था। जारी हो गया फिर से वह सब जो मेरे हृदय की धड़कन को बढ़ा रहा था।
मैं बिस्तर पर लेट गया। दृश्य तैरने लगा। मैं भी तैर रहा था। बड़ी-बड़ी आंखें मुझे देख शर्मा रही थीं। कभी पलकें खुलतीं, कभी बंद होतीं। बाल उड़कर बार-बार पलकों को ढक लेते। कल्याणी अपनी पतली उंगलियों से उन्हें हटाती। फिर दोहराती। फिर कहीं से हवा का झोंका आता, लटें बिखर जातीं। उसका चेहरा मुस्कराता रहता और होंठ खुलते, शायद कुछ कहने की तमन्ना की होगी। पढ़ने की कोशिश करता, अधर में रह जाता। अधरों की बनावट खूबसूरती लिये, समां को सुहाना बनाने को आतुर लग रही थी।
एक नजर का प्रेम जबरदस्त तरीके से फूटा। फड़फड़ाहट शरीर में अजीब सिरहन लाने लगी। नसों में कुछ दौड़ने लगा। रक्त हमेशा बहता है। फिर वह क्या था? प्रेम की परिभाषा से मैं अनजान समझ रहा था स्वयं को। प्यार के बादलों में घिरने पर बरसात मीठी होती है। उमड़-घुमड़ जारी होने पर जगमगाहट फैल जाए तो बुराई नहीं। हृदय में बिजली कौंधी,....... चुपके से सरसराहट,........ मामूली झटका,........हल्की हरारत। .........सुकून लगा, पर चैन छिन गया।
मैंने कल्याणी को देख खुद ही बोलना शुरु किया।
मैंने कहा,‘‘तुम मेरी आंखों में बसी हो। तुम्हें कभी भूलना नहीं चाहूंगा,.............. क्योंकि तुम्हें एक बार पाकर कौन खोना चाहेगा।.........जबसे तुम्हें देखा है, मन में तरंगें बह रही हैं। खुशी का समां मुझे झुमा रहा है। सिर्फ तुम्हें पाने की तमन्ना है।...........चाहें कुछ हो, तुम्हें अपने से दूर नहीं करना चाहता।............ऐसा क्या है तुम में जो मुझे खींचता है।..........और मैं खिंचा चला आता हूं। क्या प्रेम की डोरी ऐसी होती है?’’
‘‘तुम अलग हो, बहुत अलग। यकीन से कह सकता हूं कि तुमसा दूजा नहीं। मुझे तो ऐसा ही लग रहा है।..............यह मेरा हृदय ही जानता है कि वह तुम्हारी झलक पाने को कितना आतुर है। बस...............बस........सामने इसी तरह खड़ी रहो, मैं निहारता रहूं,..........सिर्फ निहारता रहूं। लगता है जैसे मैं तुम्हारा दास हो चुका। एक बार तुम्हें क्या देखा,........पूरा संसार बदल गया, मैं भी। जब दोबारा मिलोगी, तो न जाने क्या और बदलेगा। परिवर्तन के लिए मैं तैयार हूं।’’
-contd........
-harminder singh
कल्याणी....दोनों कड़ियाँ साथ पढ़ीं...अच्छी कहानी चल रही है..नायक के दिल का हाल बताती अच्छी प्रस्तुति....आगे का इंतज़ार है
ReplyDeletekahani ke patr ke dil ka haal apna sa lg rha hai...... keep writing
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