बूढ़ी काकी कहती है-‘‘बुढ़ापा तो आना ही है। सच का सामना करने से भय कैसा? क्यों हम घबराते हैं आने वाले समय से जो सच्चाई है जिसे झुठलाना नामुमकिन है।’’.

LATEST on VRADHGRAM:

Saturday, April 24, 2010

मामा की मौत

[jail+diary.jpg]


सादाब ने बताया कि जब वह घर लौटा तो उसके होश उड़ गये। रुखसार ने सबसे पहले अम्मी को संभाला। हाथ-पैर खोले तथा पानी पिलाया। रुखसार और जीनत दोनों अम्मी से लिपटकर बहुत रोयीं। सादाब इतने गुस्से में था कि मामा को ढूंढने निकल पड़ा। रुखसार ने उसे रोकना चाहा, पर वह रुका नहीं।

सादाब को क्रोध इसका अधिक था कि उसका मामा बिल्कुल बदला नहीं था। कुछ पैसों के लिए अपने ईमान को खराब कर गया। उसके लिए पैसा ही सबकुछ है। कितना गिरा हुआ इंसान है वह? तमाम विचार सादाब को और उत्तेजित करते रहे। तिराहे की एक पान की दुकान पर आकर वह रुका। उसने देखा सामने सड़क पर एक आदमी गठरी लेकर जा रहा है। सादाब उसके पीछे-पीछे चल पड़ा।

सड़क किनारे रोशनी नहीं थी, रात हो चुकी थी। चंद्रमा की चांदनी उतनी साफ नहीं थी। वह आदमी सादाब को अपने मामा की तरह लग रहा था। सादाब ने कदमों को तेज किया। वह आदमी शायद भांप गया था। उसकी चाल भी तेज हो गई। अचानक वह दौड़ने लगा।

सादाब चिल्लाया,‘मामा रुक जाओ।’

सादाब भी दौड़ पड़ा। सादाब को पक्का यकीन हो गया था कि वह मामा ही था। वह व्यक्ति नजदीक के रेलवे स्टेशन की ओर भागने लगा। सादाब ने तेज दौड़कर उसे पीछे से पकड़ लिया। उसने गठरी सादाब के मुंह पर मारी और भागने लगा। लेकिन सादाब उसका पीछा कहां छोड़ने वाला था। वह कंधे पर गठरी टांग मामा के पीछे दौड़ा।

मामा पटरियां-पटरियां दौड़ रहा था, सादाब उसके पीछे। जैसे-जैसे कदम तेज हो रहे थे, थकान बढ़ती जा रही थी और सांस तेज। मामा को ठोकर लगी। वह गिर पड़ा। उसका चेहरा पत्थरों पर लगने से बुरी तरह छिल गया। सादाब ने मामा को उठाना मुनासिब न समझा। गठरी को किनारे रख दिया। उसे कहीं से एक लोहे का सरिया हाथ लगा।

क्रोध की सीमा जब पार हो जाती है तो इंसान एक अलग रुप में नजर आता है। सादाब के साथ भी कुछ ऐसा ही हो रहा था। उसने मामा पर सरिये से प्रहार शुरु कर दिया। मामा अपने भांजे से दया की भीख मांगता रहा। अपने पापों को कुबूल करता रहा। अपनी बेटियों की दुर्गति की जिम्मेदारी भी उसने ली। लेकिन सादाब उस जड़ को ही खत्म करने का इरादा किये था।

मामा चीखता रहा पर सादाब रुका नहीं। लोगों की भीड़ जमा हो गयी। जबतक पुलिस आई तबतक मामा अंतिम हिचकी ले चुका था।

कुछ समय पहले की दौड़ निर्णायक मोड़ पर आकर समाप्त हो गयी। एक चलता पुर्जा अब लाश में तब्दील हो चुका था। न वह बोल सकता था, न सुन सकता था, न देख सकता था जबकि उसके चारों ओर जो भीड़ जमा थी, वह यह सब कर सकती थी, तभी वह शांत था और लोग अशांत।

मामा के पापों की कहानी उसी के साथ समाप्त हो गयी। सादाब को हत्या के जुर्म में जेल में डाल दिया गया।

’वे कहते थे कि मैंने एक निर्दोष की हत्या की है। जबकि मैं जानता हूं कि मेरा मामा कितना नीच था। उसे न मारा जाता तो वह कई पाप और करता। जिसने पत्नि, सगी बेटियों, बहन को दुख दिया हो, वह जीने के काबिल नहीं।’ यह कहकर सादाब चुप हो गया।

मेरा मन कर रहा था कि मैं उसे सांत्वना दूं, लेकिन मैं रुक गया।

हम दूसरों को देखकर कई बार खुद दुख महसूस करने लगते हैं। इंसान होेने और न होने में यही फर्क है। हमारा संसार जैसा भी रहा हो दूसरों के संसार को संवारने की कोशिश मेरे जैसे लोग करते हैं। मुझे एहसास हुआ कि दर्द को सीने में दफन करना उतना आसान नहीं। कभी न कभी वह उभर ही आता है। परेशान आदमी फिर दिल को खोलकर रख देता है। मेरी कहानी का सच आना बाकी है। मैं फिलहाल चुप हूं। मैं नहीं चाहता कि मेरे जख्मों को हवा लगे। दुखती रग पर हाथ जाने से सब डरते हैं। मुझे थोड़ी खुशी इसकी है कि कोई तो मिला जो वास्तविकता को बता गया मुझपर भरोसा कर।

to be continued..........

-harminder singh

Monday, April 19, 2010

बुढ़ापे के आंसू



वे आजकल हंसते नहीं। ऐसा करना उन्हें पता नहीं क्यों भाता नहीं। वे सोचते हैं कुछ, कभी-कभी आंसू भी बहा देते हैं। वे उस अवस्था में जी रहे हैं जहां जीवन की रुसवाई इंसान को कचोटती है। लेकिन वह फिर भी जी रहा है। वे बूढ़े हैं, एक वृद्ध इंसान जो जीवन के अंतिम पड़ाव की ओर उन्मुख हो रहा है। उस जीवन के सच को जानने के लिए उसके लड़खड़ाते पैर दौड़ने को बेताब हैं।

वृद्धग्राम को एक मेल प्राप्त हुआ है जिसमें एक छात्रा ने बुढ़ापे पर कुछ लिखा है। आप भी पढ़ लीजिये:

 
in old age,
flowers shed colour,
but human shed tears,
isn't strange to hear........

nobody so near
nobody to care
nobody to cheer my tear
nobody to hear
nobody to share
nobody to clear my fear
nobody is here..........

-priyanshi dudeja, moradabad, uttar pradesh


वाकई बुढ़ापे में इंसान अजीब किस्म का हो जाता है। कितना अकेला हो जाता है एक इंसान जबकि वह इंसानों के संसार में ही तो जी रहा होता है।

-harminder singh

Monday, April 12, 2010

खुशी बिखेरता जीवन

[boodhi+kaki+kehete+hai_vradhgram.jpg]

‘खुशी जीवन का हिस्सा है। यह अहम है।’ मैंने काकी से कहा।

बूढ़ी काकी हर बात को बहुत ध्यान से सुनती है। मैं भी उसकी बातों पर उतना ही गंभीर हो जाता हूं। काकी ने कुछ पल बाद कहा,‘हमारा जीवन हंसी-खुशी को पाकर सुकून महसूस करता है। हम उन लोगों संग खुद को भूल जाते हैं जो अपनी हंसी बिखेर हमें तृप्त करते हैं। शायद जिंदगी का सबसे अनमोल उपहार है हंसी। अगर हंसी-खुशी न होती तो जीवन नीरस होता।’

‘धरती पर बसा जीवन किसी न किसी बहाने तृप्त होना चाहता है। मैं भी तृप्ती की कामना करती हूं, तुम भी। खुशी एक एहसास है, एक खूबसूरत अनुभव। यह हमारे भीतर तक प्रवेश करता है। हमारा अंग-अंग इससे प्रभावित होता है। हम खुद को ताजा पाते हैं। नयी ऊर्जा का संचार होता और जीवन में बहार आ जाती है। कलियां खिलने लगती हैं, महक से हम पुलकित हो उठते हैं। वातावरण का रंग बदल जाता है। मन का दर्द छिप जाता है।’

‘फिर तो बुढ़ापा भी खुश होता होगा?’ मैंने काकी से पूछा।

‘क्यों नहीं?’ काकी बोली।

‘बुढ़ापा भी तो इस संसार का हिस्सा है। वृद्धों के पास केवल दुखों का ही पिटारा नहीं। उनकी कमजोर आंखें भी खुशी के आंसू छलकाती हैं। वे भी खुशी का अनुभव करते हैं। हर किसी के लिए हर किसी चीज के मायने अलग-अलग हैं। जीवन को चलने का रास्ता चाहिए, खुशी को फैलने का।’

‘मेरा अपना अनुभव कहता है कि इंसान दूसरों के कार्यों में यदि सहयोग दे तो उसका जीवन सफल हो जायेगा। कष्टों का निर्धारण कर्म करते हैं और इंसान अंत समय तक कर्म करता है। सही मायने में कर्मों का फल मिलता है। हमें यह लगता है कि हम अपनी खुशी बढ़ा रहे हैं। और जब हम दूसरों की खुशी छीनकर अपने घर में सजाने की कोशिश करते हैं तब हम भविष्य की पोथी में खुद सुराख कर रहे होते हैं।’

‘जो कार्य हमें आंतरिक शांति का एहसास कराते हैं उनसे हमें कई प्रकार के अनुभव होते हैं। खुशी उनमें से एक होती है। दुखी इंसान की हालत कितनी दयनीय होती है, यह हम जानते हैं। लंबे समय के दुख के बाद इंसान सुख की अनुभूति करता है। वह उसके लिए खुशी का समय होता है। यह कोई ऐसी वस्तु नहीं तो बाजार में मिल जाए। यह केवल सद कार्यों से मिलती है या फिर जीवन के सफर में उसे अलग-अलग मौकों पर हासिल किया जा सकता है। बुढ़ापा खुद को खुश देखना चाहता है। जबकि वह शायद उतना प्रसन्न रह पाये, लेकिन उम्मीद तो लगाता ही है।’

-harminder singh

Friday, April 9, 2010

मैं गरीबों को सलाम करता हूं

 मैं गरीबों को सलाम करता हूं
मेरे संगी-साथी, रिश्तेदार,
अधिकारीगण, नेता, बिजनेसमैन,
जो बघारते हैं अपनी झूठी शान,
उनसे कम कलाम करता हूं।
मैं गरीबों को सलाम करता हूं।

    







     आते हैं जो मेरे दर पर,
     मिलते हैं अक्सर राहों पर,
     कांधे पर है जिनके झोली,
     उनका भी अहतराम करता हूं।
     मैं गरीबों को सलाम करता हूं।

वो कृषि मजदूर,
जो होते हैं हकीकत में मजबूर,
मालिकों से पाते हैं जो तिरस्कार,
उनका सम्मान सरेआम करता हूं।
मैं गरीबों को सलाम करता हूं।

     जुड़े हैं जो देश के उत्थान से,
     निर्धन, बेबस, लाचार,
     दलित, पीड़ित, लाचार,
     उनके संग मिलके काम करता हूं।
     मैं गरीबों को सलाम करता हूं।

कुछ लोग जो हैं बेघर, बेसहारा,
विधवाएं, अपमानित वृद्ध, बालक,
फिरते हैं जो ठोकरें खाते,
उनकी पीड़ा आम करता हूं।
मैं गरीबों को सलाम करता हूं।

     पिटते हैं निर्दोष जो कानून से,
     झेलते हैं जो निर्धनता की मार,
     सहते हैं जो मौन सख्त यातना,
     उनको शत~-शत~ प्रणाम करता हूं।
     मैं गरीबों को सलाम करता हूं।

-furkan shah

Friday, April 2, 2010

कुछ समय का अनुभव

मेरे एक मित्र ने मुझे बताया था कि उसका वजन काफी बढ़ चुका है। मैंने उसे सलाह दी कि वह रोज लंबी दौड़ लगाया करे। मैंने उसे यह भी बताया कि सबसे बेहतरीन व्यायाम दौड़ को ही बताया गया है। वह राजी हो गया, लेकिन अगले ही पल उसने अपना दिमाग दौड़ाया। उसने कहा कि सुबह उठना उसके लिए टेड़ी खीर के बराबर है। काफी समझाने के बाद मुझे लगा कि वह सुबह पांच बजे मेरे घर आ जायेगा और हम दोनों दौड़ के लिए चलेंगे। घड़ी में अलार्म लगा मैं सो गया। ठीक पांच बजे अलार्म बजा भी, लेकिन मैंने उसे बंद कर दिया। सोचा बाद में उठ जाऊंगा। न मेरा मित्र आया और न हम दौड़ के लिए जा सके। इसी तरह तीन दिन हो गए। रात में प्लान कुछ होता और सुबह होते ही सब फुर्र।

  हम योजनाएं बना तो लेते हैं लेकिन अमल करने की जब बारी आती है तब हम ऐसा करने में असमर्थ रहते हैं। हम इंसानों में ज्यादातर की यह खासियत है।

  कई दिन के बाद वह मित्र शाम के समय आया। दोनों पहले एक दूसरे को देखकर मुस्कराये, फिर नयी योजना के बारे में चर्चा की। इस बार उसने कहा कि शाम के समय बैडमिंटन खेला जाए तो बेहतर व्यायाम हो जायेगा। सुबह उठने का झंझट लगभग खत्म।

  चूंकि नींद से हम दोनों को बेहद प्यार है (सभी को होता होगा)। बैडमिंटन खेलने के लिए जगह चाहिए थी। एक जगह मिली लेकिन वह स्थान ऊबड़खाबड़ था। उसे समतल करने की जरुरत थी। हमने मिट्टी डलवायी और उस स्थान को समतल बनाने के लिए खुद ही जुट गए। एक घंटा फावड़ा चलाने के बाद मालूम पड़ गया कि वाकई श्रम क्या होता है? वैसे पसीने की खारी बूंदों का कुछ तो मतलब होता होगा। जब आपके हाथों में छाले पड़ कर फूट जायें और आप जुटे रहें, तो कैसा महसूस होता होगा? रात को करवट बदलते हों तो कितनी मशक्कत करनी पड़ती होगी। कई अनुभव एक साथ दे गया वह एक घंटा।

  लगभग तीन दिन लगे हमें उस जमीन को समतल बनाने में। लेकिन एक बात जरुर बताना चाहूंगा कि नींद बड़ी अच्छी आयी।

  कुछ दिनों में हम सोच रहे हैं कि वहां नियमित खेलना प्रारंभ किया जाये। मैंने सुना है कि ऐसे खेल से पूरे शरीर का व्यायाम हो जाता है। दौड़ना अपनी जगह है और बाकी खेल अपनी जगह।

-harminder singh
Blog Widget by LinkWithin
coming soon1
कैदी की डायरी......................
>>सादाब की मां............................ >>मेरी मां
बूढ़ी काकी कहती है
>>पल दो पल का जीवन.............>क्यों हम जीवन खो देते हैं?

घर से स्कूल
>>चाय में मक्खी............................>>भविष्य वाला साधु
>>वापस स्कूल में...........................>>सपने का भय
हमारे प्रेरणास्रोत हमारे बुजुर्ग

...ऐसे थे मुंशी जी

..शिक्षा के क्षेत्र में अतुलनीय काम था मुंशी जी का

...अपने अंतिम दिनों में
तब एहसास होगा कि बुढ़ापा क्या होता है?

सम्मान के हकदार

नेत्र सिंह

रामकली जी

दादी गौरजां

कल्याणी-एक प्रेम कहानी मेरा स्कूल बुढ़ापा

....भाग-1....भाग-2
सीधी बात नो बकवास

बहुत कुछ बदल गया, पर बदले नहीं लोग

गुरु ऐसे ही होते हैं
युवती से शादी का हश्र भुगत रहा है वृद्ध

बुढ़ापे के आंसू

बूढ़ा शरीर हुआ है इंसान नहीं

बुढ़ापा छुटकारा चाहता है

खोई यादों को वापिस लाने की चाह

बातों बातों में रिश्ते-नाते बुढ़ापा
ऐसा क्या है जीवन में?

अनदेखा अनजाना सा

कुछ समय का अनुभव

ठिठुरन और मैं

राज पिछले जन्म का
क्योंकि तुम खुश हो तो मैं खुश हूं

कहानी की शुरुआत फिर होगी

करीब हैं, पर दूर हैं

पापा की प्यारी बेटी

छली जाती हैं बेटियां

मां ऐसी ही होती है
एक उम्मीद के साथ जीता हूं मैं

कुछ नमी अभी बाकी है

अपनेपन की तलाश

टूटी बिखरी यादें

आखिरी पलों की कहानी

बुढ़ापे का मर्म



[ghar+se+school.png]
>>मेरी बहन नेत्रा

>>मैडम मौली
>>गर्मी की छुट्टियां

>>खराब समय

>>दुलारी मौसी

>>लंगूर वाला

>>गीता पड़ी बीमार
>>फंदे में बंदर

जानवर कितना भी चालाक क्यों न हो, इंसान उसे काबू में कर ही लेता है। रघु ने स्कूल से कहीं एक रस्सी तलाश कर ली. उसने रस्सी का एक फंदा बना लिया

[horam+singh.jpg]
वृद्धग्राम पर पहली पोस्ट में मा. होराम सिंह का जिक्र
[ARUN+DR.jpg]
वृद्धों की सेवा में परमानंद -
डा. रमाशंकर
‘अरुण’


बुढ़ापे का दर्द

दुख भी है बुढ़ापे का

सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य गिरीराज सिद्धू ने व्यक्त किया अपना दुख

बुढ़ापे का सहारा

गरीबदास उन्हीं की श्रेणी में आते हैं जिन्हें अपने पराये कर देते हैं और थकी हड्डियों को सहारा देने के बजाय उल्टे उनसे सहारे की उम्मीद करते हैं
दो बूढ़ों का मिलन

दोनों बूढ़े हैं, फिर भी हौंसला रखते हैं आगे जीने का। वे एक सुर में कहते हैं,‘‘अगला लोक किसने देखा। जीना तो यहां ही है।’’
[old.jpg]

इक दिन बिक जायेगा माटी के मोल
प्रताप महेन्द्र सिंह कहते हैं- ''लाचारी और विवशता के सिवाय कुछ नहीं है बुढ़ापा. यह ऐसा पड़ाव है जब मर्जी अपनी नहीं रहती। रुठ कर मनाने वाला कोई नहीं।'' एक पुरानी फिल्म के गीत के शब्द वे कहते हैं-‘‘इक दिन बिक जायेगा, माटी के मोल, जग में रह जायेंगे, प्यारे तेरे बोल।’’

...............कहानी
[kisna.jpg]
किशना- एक बूढ़े की कहानी
(भाग-1)..................(भाग-2)
ये भी कोई जिंदगी है
बृजघाट के घाट पर अनेकों साधु-संतों के आश्रम हैं। यहां बहुत से बूढ़े आपको किसी आस में बैठे मिल जायेंगे। इनकी आंखें थकी हुयी हैं, येजर्जर काया वाले हैं, किसी की प्रेरणा नहीं बने, हां, इन्हें लोग दया दृष्टि से जरुर देखते हैं

अपने याद आते हैं
राजाराम जी घर से दूर रह रहे हैं। उन्होंने कई साल पहले घर को अलविदा कह दिया है। लेकिन अपनों की दूरी अब कहीं न कहीं परेशान करती है, बिल्कुल भीतर से

कविता.../....हरमिन्दर सिंह .
कभी मोम पिघला था यहां
इस बहाने खुद से बातें हो जायेंगी
विदाई बड़ी दुखदायी
आखिर कितना भीगता हूं मैं
प्यास अभी मिटी नहीं
पता नहीं क्यों?
बेहाल बागवां

यही बुढापा है, सच्चाई है
विदा, अलविदा!
अब कहां गई?
अंतिम पल
खत्म जहां किनारा है
तन्हाई के प्याले
ये मेरी दुनिया है
वहां भी अकेली है वह
जन्म हुआ शिशु का
गरमी
जीवन और मरण
कोई दुखी न हो
यूं ही चलते-चलते
मैं दीवाली देखना चाहता हूं
दीवाली पर दिवाला
जा रहा हूं मैं, वापस न आने के लिए
बुढ़ापा सामने खड़ा पूछ रहा
मगर चुप हूं मैं
क्षोभ
बारिश को करीब से देखा मैंने
बुढ़ापा सामने खड़ा है, अपना लो
मन की पीड़ा
काली छाया

तब जन्म गीत का होता है -रेखा सिंह
भगवान मेरे, क्या जमाना आया है -शुभांगी
वृद्ध इंसान हूं मैं-शुभांगी
मां ऐसी ही होती है -ज्ञानेंद्र सिंह
खामोशी-लाचारी-ज्ञानेंद्र सिंह
उम्र के पड़ाव -बलराम गुर्जर
मैं गरीबों को सलाम करता हूं -फ़ुरखान शाह
दैनिक हिन्दुस्तान और वेबदुनिया में वृद्धग्राम
hindustan vradhgram ब्लॉग वार्ता :
कहीं आप बूढ़े तो नहीं हो रहे
-Ravish kumar
NDTV

इन काँपते हाथों को बस थाम लो!
-Ravindra Vyas WEBDUNIA.com