बूढ़ी काकी कहती है-‘‘बुढ़ापा तो आना ही है। सच का सामना करने से भय कैसा? क्यों हम घबराते हैं आने वाले समय से जो सच्चाई है जिसे झुठलाना नामुमकिन है।’’.

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Friday, June 18, 2010

............तब एहसास होगा कि बुढ़ापा क्या होता है?



मेरे दादा जी उस उम्र के दौर से गुजर रहे हैं जहां चीजें अक्सर छूटने लगती हैं। छोटी शुभी ने उनके हाथों को देखकर हैरत से कहा,‘इनके हाथों की नसें किस तरह चमक रही हैं।’ ऐसा उसने गंभीरता से कहा था। उस छोटी बच्ची को भी एक वृद्ध की इस अवस्था को देखकर हैरानी हुई।

दरअसल बुढ़ापा अपने साथ संशय और हैरानी लाता है। इंसान खुद को ऐसे दौर में पाता हैं जहां से रुट बदलना नामुमकिन है। अब तो सिर्फ आगे जाना है। हां, पीछे मुड़कर देखा जा सकता है, लेकिन पुराने दिनों को जिया नहीं जा सकता।

शुभी की बात ने मुझे भी गंभीर कर दिया था। नसों ने त्वचा का दामन नहीं छोड़ा है। बस किसी तरह चिपकी हैं।

हम जब एक वृद्ध को देखते हैं तो पाते हैं कि जर्जरता किस कदर हावी हो सकती है। शरीर कितना  है बाकी।

हम जानते हैं कि हम भी कभी वृद्ध होंगे। हम भी होंगे अपने वृद्धजनों के दौर में। ...............तब एहसास होगा कि बुढ़ापा क्या होता है?



-harminder singh

Thursday, June 17, 2010

क्रोध

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मुझे गुस्सा आता है तो मैं उसे शांत करने की कोशिश करता हूं। बहुत सी चीजें आसान नहीं हो सकतीं और हम उनसे अछूते भी नहीं रह पाते। वे हमारे साथ जुड़कर चलती हैं। मैं अकेला नहीं हूं।

क्रोध किसी को भी सुकून नहीं पहुंचाता। कुछ लोगों के अंदर क्षमता होती है कि वह इसे सहन कर जायें। कुछ ऐसे होते हैं जिनकी मजबूरी बन जाता है गुस्सा पीना। कुछ ऐसे हैं जो अपने अंदर के उबाल को काबू नहीं कर पाते। इसका परिणाम बहुत बार उनके हित में नहीं होता।

हम स्वयं को बदलने की कोशिश करते हैं, लेकिन कर नहीं पाते। मैंने क्रोध को शांत करने की कला को सादाब से सीखा। उसने मुझसे कहा था कि वह पहले काफी गुस्सेवाला था। अब वह खुद को उसके वश में नहीं करता। वह कहता है कि उसने प्रण किया है कि वह गुस्सा नहीं करेगा। उसका मानना है कि क्रोध इंसान को बेहतर जीवन जीने से रोकता है।

हम इतना तो मानते हैं कि क्रोध हमारी बुद्धि को प्रभावित करता है। मैंने सादाब से कहा कि तुम इतने शांत कैसे हो सकते हो? वह केवल मुस्कराया। मैंने उसकी मुस्कान को ही उसका उत्तर मान लिया, मगर कुछ समय के लिए।

हमें कभी-कभी कुछ लोगों पर इतना भरोसा हो जाता है कि हम उनकी प्रत्येक बात को सच मान लेते हैं। सादाब पर मैं बहुत अधिक भरोसा करने लगा हूं। इस घनिष्ठता का मतलब तलाशने की कोशिश करना मैं समय बर्बाद करना ही समझता हूं।

अदृश्य डोर जो हमें जोड़े है वह और मजबूत हो रही है। जीवन मानो अब अधूरा उतना नहीं लगता।

सादाब ने कहा कि वह शांत नहीं है। उसका हृदय उथलपुथल कर रहा है। पर उसे पता है कि वह दिमाग से ज्यादा, दिल से कम सोचने लगा है। दिल की धड़कन कभी बढ़ती है, तो कम होकर भी इंसान को परेशान करती है। उसने जीना सीख लिया क्योंकि हालातों से सामना करने की उसे आदत हो गयी। जीवन के सूनेपन को वह छिपा नहीं रहा, बल्कि सूनापन खुद ढकता जा रहा है। मैंने उससे कहा कि मैं ऐसा कर रहा हूं, पर कई बार निराश हो जाता हूं कि मेरी स्थिति बहुत कमजोर इंसान सी हो जाती है।

गुस्सा आता है मुझे अपने पर। धिक्कार आती है। मन करता है कि बस.........।

मैं कहना नहीं चाहता, क्या फायदा? मेरे अंदर ज्वाला की धधक शायद उतनी नहीं। ऊफान का दौर शांत भी तो हो जाता है।

-to be contd....

-harminder singh

Wednesday, June 16, 2010

कभी मोम पिघला था यहां




लौ जल रही हौले-हौले,
बाती धधक रही हौले-हौले,

पिघला मोम जैसे बहता पानी,
दर्शा रहा एक लय,

जम रहा इकट्ठा हो,
जिंदगी की तरह,

सुलगती बाती बची बाद में,
ढह गयी वह भी मोम में,

विलीन हुआ कुछ,
अवशेष बाकी हैं सिर्फ,

पहचान रहे हैं हम, कि
कभी मोम पिघला था यहां।

-harminder singh

Tuesday, June 15, 2010

कल्याणी-एक प्रेम कहानी 2




रात भर वह मेरी आंखों में भरी रही, एक ख्वाब की तरह। वह ख्वाब मुझे हकीकत लग रहा था। मुझे उस समय कई किस्म के अहसास हुए। उनमें मैंने खुद को उलझा पाया। भला एहसासों में भी कोई उलझता होगा, लेकिन मैं उनके ताने-बाने में कहीं खो गया था। यह खुद को भूलने के बराबर लगता था।

सपनों की दुनिया मेरे लिए हमेशा अनोखी रही है। बचपन के सपने हैरान करते थे। आज भी वही होता है। फर्क इतना है कि तब मैं बच्चा था, आज बूढ़ा हूं। तब मैं डर कर जाग उठता था। मां से लिपट जाता। बाबूजी भी परेशान हो जाते। औलाद का प्रेम ऐसा ही होता है। मैं पसीने में नहा जाता। दिल की धड़कनें बढ़ जातीं। आज दिल तो है, लेकिन वह धड़कता उतना नहीं। शायद जब हम जिंदगी के आखिरी पायदान पर होते हैं तो धड़कने भी धीरे-धीरे सिमट रही होती हैं।

मैं कल्याणी के सपनों में इतना खोया था कि सोना ही भूल गया। तभी अलार्म बज उठा। सुबह के चार बज चुके थे। पास मेज पर रखी घड़ी को मामूली झिड़क दिया। अंधेरे में हाथ उसपर लगा तो वह नीचे गिर गयी। अलार्म फिर बज उठा।

‘ओह, तेरी.......।’ मैं खुद पर चिल्लाने को हुआ।

कल्याणी कुछ समय के लिए मानो गायब हो गयी थी। मगर आंखों से सपना टूटा नहीं था। जारी हो गया फिर से वह सब जो मेरे हृदय की धड़कन को बढ़ा रहा था।

मैं बिस्तर पर लेट गया। दृश्य तैरने लगा। मैं भी तैर रहा था। बड़ी-बड़ी आंखें मुझे देख शर्मा रही थीं। कभी पलकें खुलतीं, कभी बंद होतीं। बाल उड़कर बार-बार पलकों को ढक लेते। कल्याणी अपनी पतली उंगलियों से उन्हें हटाती। फिर दोहराती। फिर कहीं से हवा का झोंका आता, लटें बिखर जातीं। उसका चेहरा मुस्कराता रहता और होंठ खुलते, शायद कुछ कहने की तमन्ना की होगी। पढ़ने की कोशिश करता, अधर में रह जाता। अधरों की बनावट खूबसूरती लिये, समां को सुहाना बनाने को आतुर लग रही थी।

एक नजर का प्रेम जबरदस्त तरीके से फूटा। फड़फड़ाहट शरीर में अजीब सिरहन लाने लगी। नसों में कुछ दौड़ने लगा। रक्त हमेशा बहता है। फिर वह क्या था? प्रेम की परिभाषा से मैं अनजान समझ रहा था स्वयं को। प्यार के बादलों में घिरने पर बरसात मीठी होती है। उमड़-घुमड़ जारी होने पर जगमगाहट फैल जाए तो बुराई नहीं। हृदय में बिजली कौंधी,....... चुपके से सरसराहट,........ मामूली झटका,........हल्की हरारत। .........सुकून लगा, पर चैन छिन गया।

मैंने कल्याणी को देख खुद ही बोलना शुरु किया।

मैंने कहा,‘‘तुम मेरी आंखों में बसी हो। तुम्हें कभी भूलना नहीं चाहूंगा,.............. क्योंकि तुम्हें एक बार पाकर कौन खोना चाहेगा।.........जबसे तुम्हें देखा है, मन में तरंगें बह रही हैं। खुशी का समां मुझे झुमा रहा है। सिर्फ तुम्हें पाने की तमन्ना है।...........चाहें कुछ हो, तुम्हें अपने से दूर नहीं करना चाहता।............ऐसा क्या है तुम में जो मुझे खींचता है।..........और मैं खिंचा चला आता हूं। क्या प्रेम की डोरी ऐसी होती है?’’

‘‘तुम अलग हो, बहुत अलग। यकीन से कह सकता हूं कि तुमसा दूजा नहीं। मुझे तो ऐसा ही लग रहा है।..............यह मेरा हृदय ही जानता है कि वह तुम्हारी झलक पाने को कितना आतुर है। बस...............बस........सामने इसी तरह खड़ी रहो, मैं निहारता रहूं,..........सिर्फ निहारता रहूं। लगता है जैसे मैं तुम्हारा दास हो चुका। एक बार तुम्हें क्या देखा,........पूरा संसार बदल गया, मैं भी। जब दोबारा मिलोगी, तो न जाने क्या और बदलेगा। परिवर्तन के लिए मैं तैयार हूं।’’

-contd........

-harminder singh

Monday, June 14, 2010

बदल गया बहुत कुछ

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जिस दिन न अधिक खुशी हो, न अधिक दुख वह मेरे लिए मिलाजुला है। वैसे आज कई मायने में मैं खुश था क्योंकि मुझे लगा कि सादाब की अम्मी और बहन उससे मिलने आयेंगे। वह लगभग पूरे दिन चुप बैठा रहा। उसकी आदत को देखकर मैं कभी-कभी नहीं कई बार हैरत में पड़ जाता हूं। वह मुझे अनोखा लगता है, पर वह उतना अजीब भी तो नहीं।

मुस्कराने का मायना उसने मुझे बताया। वह शायद मुझे प्रभावित करता है। मैं उसके हौंसले की कद्र करता हूं। वह इतना थक कर भी जीवन से हारा नहीं। मैं यदि उसकी जगह होता तो कब का टुकड़े-टुकड़े हो गया होता। उसने ऐसा नहीं किया।

मैं अब कई बार चहक उठता हूं। मुझे यह बुरा नहीं लगता। हां, पहले ऐसा लगता था। वक्त ने बहुत कुछ तब्दील कर दिया, खुद भी बदल गया। बीती बातें उतनी हृदय को चुभती नहीं। क्या यह सब सादाब की वजह से है? शायद ऐसा हो।

जब से उससे मुलाकात हुई है, मैं पहले के कुछ नीरस तरीकों को छोड़ चुका.  मैं चुप रहने को महत्व देता था, अब ऐसा नहीं है। हंसना तो दूर किसी और की मुस्कराहट को भी शत्रु समझता था। लोगों से दूर रहने की कोशिश करता था।

आजकल मेरी सोच में परिवर्तन हो रहा है। मैं बदलता जा रहा हूं। दुनिया को खुशनुमा समझने की बात को मैं नकारता आया था, पर अब नहीं।

मेरा संसार सलाखों के पीछे जरुर है, मैं उसे उसी जगह सुन्दर बनाना चाहता हूं। सादाब मुझे मिल गया है। फिक्र को गंभीरता से न लेने की आदत को मैं अपनाने की कोशिश कर रहा हूं।
contd....

-harminder singh

Sunday, June 13, 2010

.............क्योंकि तुम खुश हो तो मैं खुश हूं



राम कल बहुत गुस्से में था। उसने अंजलि को पता नहीं क्या-क्या कह दिया। उसने कहा:

"एक आखिरी कमेंट सुनती जाओ अपने फ़्रेंड्स के बारे में। रियलेटी यह है कि तुम्हारा कोई अच्छा दोस्त है ही नहीं। दरअसल तुम्हारे में ऐसी कोई खासियत ही नहीं है जो कोई तुम्हारा दोस्त बन सके। जिस दिन तुमने ये जो थोड़ा बहुत पढ़ती हो बंद कर दिया- then you will be completely out from your friend circle. न तुम किसी के साथ एडजस्ट कर सकती हो और न कोई तुम्हारे साथ।

तुम पहले भी अकेली थीं और अब भी अकेली हो........और अगर तुम ऐसी ही रहीं तो शायद पूरी जिंदगी अकेली ही रहो। जिस उम्र में तुम हो मैं उससे गुजर चुका हूं। रियलेटी को एक्सैप्ट करना सीखो.........वैसे रियलेटी उतनी बुरी भी नहीं है।

मैं जानता हूं कि तुम्हें काफी बुरा लग रहा होगा। तुम्हें लगता है, मैं तुम्हारे बारे में बुरा सोच सकता हूं। कभी नहीं होगा ऐसा और न ऐसा कभी हो सकता है। तुम्हें एक न एक दिन सच्चाई को मानना ही होगा।

............लेकिन................लेकिन दिल छोटा मत करो, क्योंकि दुनिया के किसी कोने में एक ऐसा शख्स है जो हमेशा तुम्हारे साथ है, और रहेगा, हमेशा।

मेरे लिए तुम हमेशा ‘स्पेशल’ रहोगी, और मैं स्पेशल लोगों को दुखी नहीं देख सकता, कभी नहीं।

प्लीज कभी दुखी मत होना,..............क्योंकि तुम खुश हो तो मैं खुश हूं।"

-harminder singh

Saturday, June 12, 2010

एक उम्मीद के साथ जीता हूं मैं




ये उम्मीद जो है न, बहुत अजीब चीज है। इसने मुझे जीने का हौंसला दिया है। ......मैं थका था जरुर कभी, लेकिन उम्मीद लगाता हूं कि एक दिन सब अच्छा होगा और.........और आज तक उम्मीद ही तो लगाये हैं मेरे जैसे इंसान। शायद उनके जीने की वजह ये ही है।

मुझे मालूम है कि एक पल जीवन का कितना कठिन होता है इस उम्र में। मामूली जख्म भी काफी दर्द दे जाता है। पता नहीं क्यों दर्द को सहने की आदत सी जो पड़ गयी है। शायद यही बुढ़ापा होता है- सहना और सहते जाना।

मैंने कभी नहीं चाहा कि किसी को कष्ट पहुंचे। सबसे प्रेम करता रहा जीवन भर और........और आज जब मैं अकेला हूं, कोई मेरे पास नहीं फटकता। ऐसा क्यों होता है? क्यों अपने वक्त के साथ पराये हो जाते हैं? क्यों कोई जर्जर काया वालों को नहीं पूछता? क्यों हर कोई बचने की कोशिश करता है? क्यों?.............इस क्यों का सवाल मुझे आजतक नहीं मिल सका।

एक जिंदगी और हजार बातें। ठहर कर चलने की आदत। एक मु्ट्ठी और रेत के हजार कण। कैसा महसूस होता है जब रेत धीरे-धीरे हाथ से फिसल जाती है। रेशे-रेशे की चमक आज फीकी मालूम पड़ती है। जायके की मत पूछिये, वह तो रहा ही नहीं।

.........लेकिन एक चीज अभी बाकी है, जो बाकी ही रहेगी। ........उम्मीद अभी बाकी है। मैं जी रहा हूं इसी उम्मीद के साथ कि एक दिन सब ठीक होगा।.........शायद बुढ़ापा भी एक दिन जी खोल कर हंसेगा........उस दिन न दिवाली होगी, न ईद, न होली..........बस जश्न होगा, अनगिनत रंगों की चमक का, लेकिन उसके लिए खुदा के घर का इंतजार है।

-harminder singh

Wednesday, June 9, 2010

ऐसा क्या है जीवन में?

मैं कभी-कभी हैरत में पड़ जाता हूं। ऐसा क्या है जीवन में जो उसे चलाता है? पता नहीं क्या है जिससे यह जीवन चलता है? .........पर हम खुश हैं कि जीवन चलता है।

‘‘कुछ कहते नहीं बन रहा ..........वो क्या चीज है जो चलाती है जीवन को ..........’’- शारदा अरोरा जी  का यह कमेंट आज सुबह से ही मेरे जहन में घूम रहा है।  कुछ नमी अभी बाकी है  इस शीर्षक पर शारदा जी ने यह कमेंट किया था। इसका अर्थ बहुत गहरा है और शायद उसे विस्तार देना इतना आसान नहीं। हां, कई तरह से हम उसपर विचार जरुर कर सकते हैं।

जीवन की पहेली जितनी सुलझाने की कोशिश करते हैं, उतनी उलझती जाती है। मैं खुद को उलझा हुआ पाता हूं।

सवालों के ढेर पहले से ही इतने हैं कि उनका उत्तर देते ही नहीं बनता। जीवन हम जीते हैं जिसका सवाल हम हल नहीं कर पा रहे। यही तो जीवन का रहस्य है।

एक उलझी हुई कहानी जो जारी है। बस इतना कह सकता हूं कि कुछ तो है ऐसा जिससे यह जीवन चलता है।

-harminder singh

Tuesday, June 8, 2010

फंदे में बंदर


गांव के प्राइमरी स्कूल में एक मास्टर साहब छुटिट्यों में बच्चों को पढ़ाते थे। लोग उन्हें दलपत मास्टर के नाम से पुकारते थे। उनका स्वभाव दूसरे शिक्षकों की तरह बिल्कुल नहीं था। उन्होंने आजतक किसी बच्चे पर हाथ नहीं उठाया था। गांव के सभी बच्चे और बड़े उनका बहुत सम्मान करते थे। दादी ने मुझसे कहा कि मैं जितने दिन गांव में हूं, उतने दिन उनसे कुछ पढ़ लूं। मैंने रघु से पूछा, उसने हां कर दिया।

  मास्टर जी से मेरी काफी पटने लगी। रघु की बहन गीता भी किताबें लेकर वहां पहुंच जाती।

एक दिन बादल घिर आये और तेज बारिश शुरु हो गयी। मैंने रघु से कहा,‘‘शायद आज मास्टर जी स्कूल न पहुंचें। इसलिए हम आज पढ़ने नहीं जा रहे।’’

  मास्टर जी के पास एक पुरानी साईकिल थी जिससे वे स्कूल आते थें कच्चे रास्ते थे, बरसात में टूट-फूट जाते और उनमें पानी भर जाता, कीचड़ हो जाता।

  रघु कहां मानने वाला था। वह बोला,‘‘मैं स्कूल जा रहा हूं। तुम्हें आना है तो आओ।’’ उसने छाता सिर पर किया और चलने को हुआ। मुझे भी उसके साथ चलना पड़ा। वह गाना-गुनगुनाता आगे बढ़ रहा था। किताबों को हमने पोलीथिन की थैली में रखा था ताकि पानी उन्हें नुक्सान न पहुंचा सके।

  गाना पुरानी फिल्म का था। मैं भी उसके साथ शुरु हो गया। बोल थे,‘‘सुहाना सफर और ये मौसम..........।’’

  तभी रघु ने मेरे कान में कहा,‘‘सामने देख।’’

  हम रुक गये। बरसात तेज होने लगी थी। पानी घुटनों तक आने को आतुर था।

  सामने जो नजारा था, उसे देखकर हमारी आंखें खुली रह गयीं।

  मैंने कहा,‘‘अरे! ये तो मास्टर दलपत हैं। इन्हें क्या हुआ?’’

  मास्टर साहब कीचड़ में साइकिल सहित गिरे थे। उनका चश्मा दूर जाकर गिरा। बिना चश्मे के उन्हें चमकता नहीं था। वे उसे तलाश कर रहे थे। हम दौड़कर उनके पास पहुंचे और चश्मा उन्हें पकड़ा दिया। चश्मा लगाकर उन्होंने ऊपर देखा और कहा,‘‘तुम इतनी बरसात में भी पढ़ने आये हो।’’

  ‘‘जब आप हमें पढ़ाने के लिए अपनी परवाह नहीं करते। हम आपके शिष्य ठहरे।’’ रघु बोला।

  दलपत जी हमारे संग स्कूल आ गये। इतने में बारिश थम गयी। हमने उनके कपड़े हैंडपंप पर धुलवा दिये। मैं घर जाकर कुछ कपड़े ले आया। मास्टर जी ने उन्हें पहन लिया।

  सूरज चमकने लगा था। कपड़े धूप में सूख रहे थे कि तभी एक बंदर वहां कहीं से आ गया। मुझे डर था कहीं वह कपड़ों को उठा न ले जाए। हुआ वही जिसका डर था। बंदर कपड़े उठाकर ले गया। वह उछलकर शहतूत के पेड़ पर चढ़ गया। रघु ने काफी कोशिश की, लेकिन वह नहीं उतरा। उल्टे गुस्से में उसने मास्टर जी के कपड़े अपने पैने दांतों से फाड़ने शुरु कर दिए। मास्टर जी चिल्लाते रह गए, पर बंदर पर कुछ असर न हुआ। धीरे-धीरे कपड़ों के फटे टुकड़े नीचे गिरते रहे।

  इतने में प्रीतम किताबें लेकर पढ़ने आ गया। उसके पास गुलेल थी। रघु ने उससे घर जाकर गुलेल लाने को कहा। बंदर अभी तक पेड़ पर चढ़ा था। मुझे गुस्सा आ रहा था। मैंने रघु से कहा,‘‘इसे छोड़ना मत रघु। इस पेड़ से बाकी पेड़ बहुत दूरी पर हैं। बंदर उतनी लंबी छलांग लगा नहीं सकता और नीचे हम खड़े हैं, आ नहीं सकता। फंस गया बच्चू, इसकी खैर नहीं।’’ मैं पूरे ताव में आ चुका था।

  जानवर कितना भी चालाक क्यों न हो, इंसान उसे काबू में कर ही लेता है। रघु ने स्कूल से कहीं एक रस्सी तलाश कर ली। प्रीतम अभी आया नहीं था। रघु ने रस्सी का एक फंदा बना लिया। वह बिना डरे पेड़ पर चढ़ गया। फंदा उसके हाथ में था। बंदर उसे घुड़की देकर नीचे गिराने की जुगत में था। पर रघु ने पेड़ से एक टहनी तोड़ उसे डराना चाहा। वह उछलकर ऊपर शाखाओं की तरफ कूदा। तभी प्रीतम गुलेल ले आया। रघु बोला,‘‘अभी इसकी जरुरत नहीं है। देखते जाओ मैं क्या करता हूं।’’

  रघु ने रस्सी का फंदा ऊपर शाखाओं में उछाला। फंदा टहनियों में उलझ गया। रघु ने फिर कोशिश की। बंदर जैसे ही फंदे से बचने को उछला उसका एक पैर फंदे में फंस गया। रघु ने रस्सी को खींचा, तो फंदा पैर में कसता चला गया। रस्सी को नीचे गिरा दिया गया और रघु पेड़ से उतर गया।

  फिर रघु बोला,‘‘अब होगा कमाल। बंदर होगा बेहाल।’’

  रस्सी काफी लंबी थी इसलिए उसका छोर हैंडपंप से बांध दिया गया। रघु ने सबको छिपने को कहा। किसी को आसपास न पाकर बंदर पेड़ से उतर गया। पर यह क्या फंदा उसके पैर में था। वह जितना जोर लगाता, फंदा कसता जाता। चूंकि रस्सी हैंडपंप से बंधी थी, इस कारण बंदर उसके चारों ओर गोल-गोल चक्कर काटने लगा। उधर रस्सी हैंडपंप से लिपटती जा रही थी और बंदर उसके करीब आता जा रहा था। हम सब उस दृश्य को देखकर ठाठे मार हंस रहे थे।

  रघु ने प्रीतम से कहा,‘‘ला गुलेल। खेल शुरु करते हैं।’’

  रघु ने गुलेल से बंदर पर निशाना लगाना शुरु किया। जैसे ही गुलेल का कंकड़ बंदर को लगता, वह उछल जाता।

  ‘‘मार निशाना।’’ मैंने कहा। ‘‘ये भी क्या याद करेगा।’’

  ‘‘जिंदगी भर इसे यह सजा याद रहेगी, भूल नहीं पायेगा।’’ प्रीतम उत्साहित होकर बोला।

  बंदर पर गुलेल से चोटों का प्रहार जारी था। इस घटना से बंदर-बुद्धि का पता चल गया था। उसने अपने हाथों से बिल्कुल कोशिश नहीं कि फंदे को जरा-सा भी खोलने की। सिर्फ पैर से उसे खींच कर कसता रहा।

  इस उछलकूद का आनंद ले ही रहे थे कि तीन बंदर वहां आ धमके। वे साथी बंदर के आसपास शोर करने लगे। तभी बंदरों का समूह आ गया। मास्टर जी शायद स्थिति को भांप गये थे। वे हमें लेकर स्कूल की कक्षा में छिप गये।  दरवाजा अंदर से लगाकर हम खिड़की से सारा दृश्य देखने लगे। बंदर रस्सी को खींचने की कोशिश करते, कुछ उछलकर चीख मचाते।

  मैंने खिड़की से बाहर हाथ निकाल रखा था कि अचानक कहीं से मेरा हाथ किसी ने जोर से खींचा। मेरी चीख निकल गयी। सामने एक मोटा बंदर था जिसकी शक्ल देखकर मेरे प्राण निकल गये। वह मेरा हाथ पकड़कर खींचने लगा जैसे मुझसे रस्सी खोलने को कह रहा हो। तभी रघु ने गुलेल से उसके सिर पर निशाना मारा। बंदर ने मेरा हाथ छोड़ दिया और वह चीं-चीं करता भाग गया। मैंने चैन की सांस ली।

  करीब एक घंटा बीत जाने के बाद सभी बंदर अपने बंधे साथी को छोड़कर वहां से चले गये। मास्टर जी ने कहा,‘‘बहुत हो चुका। बेचारा काफी दुखी है। रघु जाओ उसे खोल दो।’’

  रघु ने बंदर को आजाद कर दिया। रस्सी से खुलते ही वह सरपट दौड़ा।

  गांव में जब यह बात पता लगी तो सभी हंसते-हंसते लोटपोट हो गए। गीता तो कुरसी से पीछे पलट गयी। उसकी बांह में फिर मोच आ गयी, लेकिन अबकी बार मामूली थी।


-harminder singh

-अगले कहानी: चाय में मक्खी

इंसान और भगवान

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इंसान झंझावातों से बचना चाहता है। पर वह ऐसा कर नहीं पाता क्योंकि वह इंसान है, भगवान नहीं। भगवान को हम पर दया नहीं आती या हमारा उसपर से भरोसा उठ गया है। खैर.......जो भी तो मैं उसे भूलना नहीं चाहता। मेरा भरोसा कम नहीं हो सकता। मेरे लिए यह बहुत बड़ी बात है कि मेरा उससे नाता है। वैसे हम सबका उससे जुड़ाव है। जब कोई साथ नहीं होता, तब वह होता है। हर पल उसकी हमपर निगाह रहती है। वह हमारा कितना ख्याल रखता है। हम हैं कि उसका नाम लेने से बचने की कोशिश करते हैं। पर वह बुरा नहीं मानता। कितना भला है वह, बिल्कुल उसे बुरा नहीं लगता, चाहें कोई उसके बारे में किसी तरह की भी सोच क्यों न रखता हो।

मैं सुबह-शाम भगवान को याद करता हूं। मैं उससे सबकी शांति की दुआ मांगता हूं। मैं अपने परिवार, साथियों और विरोधियों के लिए भी सब ठीक होने की ईश्वर से फरमाईश करता हूं। अपने लिए कहता हूं कि मैं जल्द अपने परिवार, बच्चों को देख सकूं। ईश्वर मुझे शक्ति प्रदान करे कि मैं हालातों के हाथों मजबूर होने के बजाय उनसे कड़ा मुकाबला करुं बिना हताश हुए।

मांगने को हम बहुत भगवान से मांग सकते हैं। उसके दर पर देर हैं, अंधेर नहीं। यह हम अच्छी तरह जानते हैं। उसकी चौखट हर जगह है। वहां से कोई भी खाली हाथ नहीं लौटता। वह किसी भी समय अपनी झोली से हमारी गोद भर सकता है। सच्चे अर्थों में वह महान है। बिना उसकी मर्जी के एक पत्ता तक हिलता नहीं- यह भी हम कहते हैं। उसकी ताकत से इंसान अंजान नहीं है, पर वह अपनी शक्ति का बेमतलब परिचय देता रहता है। यहीं से वह भगवान की नजरों में बहुत छोटा सा बन जाता है।

contd...

-harminder singh

Monday, June 7, 2010

कहानी की शुरुआत फिर होगी

कहानी की शुरुआत होती है। .......और जल्द ही वह सिमट भी जाती है। कुछ लोग मिल जाते हैं और कम समय में हमारे लिए ‘स्पेशल’ भी हो जाते हैं। फिर कहानी मोड़ लेती है क्योंकि कुछ नये लोग उसमें दाखिल हो जाते हैं। फिर कहा जाता है-‘‘यह कहानी ही तो थी। ऐसी अनोखी, जहां से शुरु, वहीं खत्म हो गयी।’’

अब उम्मीद है कि कुछ नया होगा। नये पात्रों का उदय होगा। पुरानी बातें शायद फिर न दोहराई जाएं क्योंकि आज उनका महत्व नहीं रहेगा। उन खुश्नुमा पलों की शायद याद आये, कभी जब दो अनजान लोग मिलकर हंसे थे एक साथ। आज दरार में फासला इतना बढ़ चुका कि नजरें चुराने का मन करता है।

कुछ कुंठाएं पता नहीं कैसे विकसित हो गयीं। मन को पक्का करने की कोशिशें जारी हैं। ......लेकिन मन कहां मानने वाला है।.......फिर से भावनाओं में बहना चाहता है। उस ‘स्पेशल’ इंसान से ढेर सारी बातें करना चाहता है। मगर वह रुक जाता है यही सोचकर कि कहानी को यहीं विराम दिया जाए।

अब नये सवेरे की तलाश है जब फिर से किसी के लिए कोई ‘स्पेशल’ होगा। पुरानी गलतियों से सबक जो हासिल हुआ है उसका पालन किया जायेगा। .......लेकिन जो एक बार ‘अहम’ हो गया, इतना आसान नहीं उससे दूर जाना। फिर क्या इंसान पुरानी कहानी को संवारने की कोशिश करेगा। शायद हां.......पर वह एक बार सोचेगा कि काफी देर हो चुकी। उन पलों को सिर्फ यादें ताजा रखेंगी।

काश! ऐसा न होता। हमसे कोई न छूटता। लेकिन परिस्थितियां हमारे बस में नहीं होतीं। टूटकर बहुत कुछ बिखर गया, अब एहसास होता है। टुकड़े बिखरे जरुर हैं लेकिन उस ‘स्पेशल’ इंसान का चेहरा उनमें अभी भी वैसा ही चमक रहा है, जगमगाता हुआ, हंसता हुआ।

कल कुछ था, आज कुछ। सच मानो, वक्त ही ऐसा था। दूर हो गया कोई किसी से, बिना बोले, बिना कहे, फिर से न मिलने के वादे के साथ।

उम्मीद है वह खुश रहे हमेशा। इसी तरह चहकता रहे सदा।

दुनिया के किसी कोने में कोई शख्स ऐसा भी है जो मुस्करा कर उस ‘स्पेशल’ इंसान से कहेगा-‘‘मैं खुश हूं, क्योंकि तुम खुश हो।’’

-harminder singh

Sunday, June 6, 2010

अपनेपन की तलाश

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मेरी कहानी बहुत पहले शुरु हुई थी। उसमें मेरा अनुभव है जिसे शब्दों के धागों से बांधकर मैंने कोरे पन्नों पर उकेरा है। मेरे साथ इस सफर में कई लोग जुड़े, मगर अब्दुल और सादाब से मुझे बेहद लगाव है। अब्दुल तो कब का चला गया, सादाब पता नहीं कितने दिन और मेरे साथ रहेगा। उसकी मां से मैं मिलना चाहता हूं। मुझे काफी अच्छा लगेगा।

जब हम दुनिया से दूर होते हैं, तब हमें अपनेपन की तलाश रहती है। कुछ लोग इस बीच ऐसे ही मिल जाते हैं। उनसे ढेर सारी बातें होती हैं। बातें इतनी की वक्त कब गुजर गया पता ही नहीं चलता। उनमें अपनापन ढूंढने की जरुरत महसूस नहीं होती क्योंकि हम उन्हें अपना पहले ही मान चुके होते हैं। उनकी एक पल की मुस्कराहट जानें कितने जनमों की थकान दूर कर देती है। उनकी मुस्कराहट हमारे मन को हरा कर जाती है। उनकी एक मुस्कराहट हमारी ऊर्जा को कई गुना बढ़ा जाती है। उनकी हल्की मुस्कराहट जीवन जीने का तरीका बदल जाती है। उनकी मुस्कराहट हमें सुकून पहुंचाती है।

हमारी दुनिया बदल जाती है और हम अलग संसार के मीठे पलों में जीना शुरु कर देते हैं। हम उन लोगों को अपना मान कर उन्हें अपना हाल सुनाते हैं। हम विश्वास करने लग जाते हैं कि हमारी दुनिया का वे भी एक हिस्सा हैं। उनकी जिंदगी के उतार-चढ़ावों को महसूस करते हैं। उनके गमों की झोली का भार हम उन्हें बांटकर कम कर लेते हैं।

जीने का मतलब समझ आने लगता है। ऐसा बहुत कुछ हमारे मन को लगता है जिससे हम एक तरह की संतुष्टि का अनुभव करते हैं। दिल की बातों को उनसे छिपाने का साहस नहीं होता। लगभग विचारों के एक समागम का प्रारंभ हो रहा होता है जिससे दो अजनबियों के बीच की दूरियां सिमट रही होती हैं। हम अनजान होकर भी अनजान नहीं होते। इससे वास्ता हमारे जीवन को है। तन्हाईयों को कम कर वक्त में कई पल की खुशियां खालीपन को भी सिमेती हैं। अपनापन क्या होता है यह तब पता लगता है। अपनों का सुख कैसा होता है, इसका एहसास भी तभी होता है।

मुझे अपने नहीं मिले क्योंकि मैं एक वीरान, नीरस और उधड़े हुए संसार में रहने वाला एक कैदी हूं, जिसे लोग हत्यारा कहते हैं। यादों का बसेरा धीरे-धीरे बिखर रहा है जिसके तिनके इधर-उधर छिटक कर टूटे फर्श पर फैल गये हैं। स्मृतियों का मौसम पतझड़ में बदल गया है। उनका धुंधलापन समय की देन है। समय की ताकत अद~भुत है। कितना संभल कर इंसान क्यों न चले समय का मामूली थपेड़ा उसे हिला कर रख देता है।

contd....

-harminder singh

Saturday, June 5, 2010

दूसरों का साथ

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मैंने बूढ़ी काकी से पूछा,‘‘हमें दूसरों की जरुरत क्यों पड़ती है?’’

काकी बोली,‘‘देखने में सवाल कितना सरल है। उत्तर तलाशने की जरुरत है जो उतना सरल नहीं। कुंए का तल छूने वाले कम होते हैं जबकि पानी कोई भी पी सकता है। मैंने हमेशा गहराई से विचार किया है।’’

कुछ समय बाद काकी ने कहा,‘‘हौंसला देते हैं हमें दूसरे। सहारा देते हैं हमें दूसरे। ........और जीवन जुड़कर जिया जाता है, न कि अकेले। अकेले रहकर नीरसता की बाहों में सिमटने से बेहतर है, लोगों के बीच रहना। हम नीरस क्यों रहें? अकेले क्यों रहें? अब जब कोई साथ न हो तो खुद से ही दोस्ती कर लेनी चाहिए। शायद कुछ लाभ मिले। मगर जीवन कहता है कि जब लोग आसपास हैं तो उनके साथ जिया जाये।’’

‘‘मैं आज अकेली हूं। कल ऐसा नहीं था। अपने माता-पिता के घर से विदाई के बाद तुम्हारे काका और मेरा साथ था। एक परिवार से दूसरे परिवार का सफर नई जिंदगी की शुरुआत थी। अब मैं अकेली हूं, लेकिन तुमसे बातें कर शायद खालीपन को दूर करने की कोशिश करती हूं।’’

‘‘इंसान मुस्कराते हुए अच्छे लगते हैं। तुम्हारे साथ मैं मुस्करा सकती हूं चाहें समय कम ही सही। मुझे काफी हौंसला मिला क्योंकि मैं इस उम्र के आखिरी पड़ाव में बिल्कुल निराश हो गयी थी। बूढ़ों को समझते कम लोग हैं, तुमने समझा। बूढ़ों से दूर होते हैं सब, तुम नहीं हुए। हमारे जैसों के लिए यही काफी है कि कोई दो शब्द कहता है, हम भी कहते हैं। कोई हमारी सुनता है, हम उसकी सुनते हैं। यह इंसानी रिश्ते की व्याख्या स्वत: ही कर देता है।’’

‘‘बोझ और तसल्ली दोनों जीवन में होते हैं। बोझ कम करने या खत्म होने पर तसल्ली का अहसास होता है। इसका कारण और निवारण लोग ही हैं। इंसान को भगवान ने अकेले जीवन व्यतीत करने के लिए नहीं कहा। उसे लोगों के बीच रहकर जिंदगी का स्वाद मिलता है। रुखे हो जाते हैं अकेलेपन में लोग। दुनियादारी यही कहती है:

"बिता लो जीवन पूरा,
 रह न जाए कोई बात अधूरी,
 सिमट न जाएं हम खुद में,
 इसलिए साथ है जरुरी’’

‘‘तुम जानते हो कि अपनों का अपनापन हृदय को कितनी तसल्ली देता है। वे अपने ही होते हैं जो हर पल हमारा हाथ थामे रहते हैं। वे जब भी हमारे पास हैं, हमारे साथ हैं जब लड़खड़ाते हैं हम। गिरते हैं तो सहारा भी अपने ही बनते हैं।’’ काकी ने कहा।

मैंने सोचा कि इंसान इंसान बिना निर्जन है। वैसे ही जैसे बिन पत्तों के पेड़। हमें ठूंठ नहीं बनना जो खड़ा तो सीधा है, पर वह जीवन के सुनहरेपन की वादियों के मोड़ों से नहीं गुजरा।

एक पीड़ा जो अंतहीन है उसका असर कम होना चाहिए ताकि जीवन उपहास न करे। मैला जीवन किसने बताया। लोगों की हंसी इसे साफ कर देगी और उनका साथ भी। दुख होंगे कम। आंख होगी नम। यह नमी हर्ष की होगी।

-harminder singh

Friday, June 4, 2010

कुछ नमी अभी बाकी है

उस ठूंठ को मैं देख रहा हूं। वह मेरे सामने है। उसकी काया मेरी तरह है। फर्क इतना है कि वह जीवन से हार गया, मेरी जंग जारी है।

पता है पहले वह हरा-भरा था। चिड़ियां चहचहाती थीं उसपर। कितना आंनद था। कितना सुहानापन था।

आज वह सूना है। कोई पास नहीं, लेकिन देखो न फिर भी वह खड़ा है। यह जीवन की दास्तान है- कभी शुरु हुई थी, अब खत्म हो रही है।

रुखापन सिमटा हुआ मेरे साथ चल रहा है। विवशता का आदि होना पड़ता है। समय ही ऐसा है।

अगर कोई चौराहा है, तो सभी रास्ते एक से हैं। वही वीरान राहे हैं जहां हमेशा सूखी हरियाली शरण लिए रहती है। एहसास होता है कि कुछ नमी अभी बाकी है।



-harminder singh

Thursday, June 3, 2010

अपनेपन की तलाश

वरुण के दादा अपने पोते को बहुत चाहते हैं। वे उसके पास कुछ पल बिताने की इच्छा रखते हैं। पोता दादा की भावनाओं की कद्र नहीं करता क्योंकि वह बुढ़ापे के बहते प्रेम को आंक नहीं सकता।

वरुण के माता-पिता नौकरी करते हैं। उनके पास समय नहीं। दोनों सुबह जाकर देर रात घर लौटते हैं। तब तक वरुण सो चुका होता है। उसकी उम्र यही कोई 14-15 साल है। वह सुबह स्कूल जाता है। लौटने के बाद ट्यूशन। फिर शाम को दोस्तों संग थोड़ा समय बिताता है। उसके बाद पढ़ाई-लिखाई कर जल्दी सो जाता है। तभी पढ़ाई में वह औसत है।

बेचारे दादा जी घर में इधर से उधर टहलते रहते हैं।

रविवार के दिन पूरा परिवार साथ होता है। लेकिन उस दिन वरुण को मम्मी-पापा कार से कहीं घुमाने ले जाते हैं। मां कहती है वरुण से,‘‘बेटा कहां जाना चाहोगे।’’ वरुण के दादाजी से कोई कुछ नहीं कहता। वे रविवार को भी अकेले रह जाते हैं।

शायद वे एक ऊबी हुई वस्तु की तरह हो चुके हैं जिसे कोई पसंद नहीं करता। वरुण मौल में घूमता है। ढेर सारी शापिंग होती है। खुशियों के सामान समेटे जाते हैं। घर में दादा जी मायूसी में लिपटे बाट जोह रहे होते हैं।

यह घर हर सुख-सुविधा से भरा है। दा्दा जी बच्चों से खुश हैं। बच्चे उन्हें दुखी नहीं करते। जिस चीज की जरुरत पड़ती है, उपलब्ध हो जाती है। अभी कुछ दिन पहले उनकी आंखें चैक करवाई गईं। मामूली खांसी होने पर डाक्टर के पास ले जाते हैं।

‘‘कमी किस बात की है, सब कुछ तो है आपके पास।’’ मैंने उनसे पूछा।

उनका उत्तर था,‘‘बेटा, बच्चे इतने करीब रहकर भी, कितने दूर हैं।’’ यह कहकर उनके आंसु निकल आये।

मैंने उनका हाथ थामा और उन्हें भावनात्मक तसल्ली देने की कोशिश की। उन्होंने मेरी तरफ देखा। हल्की मुस्कान थी चेहरे के साथ आंखों में, क्योंकि कोई था उनके साथ, जो अपना न सही, पर पराया होते हुए भी अपना लग रहा था।

-harminder singh
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coming soon1
कैदी की डायरी......................
>>सादाब की मां............................ >>मेरी मां
बूढ़ी काकी कहती है
>>पल दो पल का जीवन.............>क्यों हम जीवन खो देते हैं?

घर से स्कूल
>>चाय में मक्खी............................>>भविष्य वाला साधु
>>वापस स्कूल में...........................>>सपने का भय
हमारे प्रेरणास्रोत हमारे बुजुर्ग

...ऐसे थे मुंशी जी

..शिक्षा के क्षेत्र में अतुलनीय काम था मुंशी जी का

...अपने अंतिम दिनों में
तब एहसास होगा कि बुढ़ापा क्या होता है?

सम्मान के हकदार

नेत्र सिंह

रामकली जी

दादी गौरजां

कल्याणी-एक प्रेम कहानी मेरा स्कूल बुढ़ापा

....भाग-1....भाग-2
सीधी बात नो बकवास

बहुत कुछ बदल गया, पर बदले नहीं लोग

गुरु ऐसे ही होते हैं
युवती से शादी का हश्र भुगत रहा है वृद्ध

बुढ़ापे के आंसू

बूढ़ा शरीर हुआ है इंसान नहीं

बुढ़ापा छुटकारा चाहता है

खोई यादों को वापिस लाने की चाह

बातों बातों में रिश्ते-नाते बुढ़ापा
ऐसा क्या है जीवन में?

अनदेखा अनजाना सा

कुछ समय का अनुभव

ठिठुरन और मैं

राज पिछले जन्म का
क्योंकि तुम खुश हो तो मैं खुश हूं

कहानी की शुरुआत फिर होगी

करीब हैं, पर दूर हैं

पापा की प्यारी बेटी

छली जाती हैं बेटियां

मां ऐसी ही होती है
एक उम्मीद के साथ जीता हूं मैं

कुछ नमी अभी बाकी है

अपनेपन की तलाश

टूटी बिखरी यादें

आखिरी पलों की कहानी

बुढ़ापे का मर्म



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>>मेरी बहन नेत्रा

>>मैडम मौली
>>गर्मी की छुट्टियां

>>खराब समय

>>दुलारी मौसी

>>लंगूर वाला

>>गीता पड़ी बीमार
>>फंदे में बंदर

जानवर कितना भी चालाक क्यों न हो, इंसान उसे काबू में कर ही लेता है। रघु ने स्कूल से कहीं एक रस्सी तलाश कर ली. उसने रस्सी का एक फंदा बना लिया

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वृद्धग्राम पर पहली पोस्ट में मा. होराम सिंह का जिक्र
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वृद्धों की सेवा में परमानंद -
डा. रमाशंकर
‘अरुण’


बुढ़ापे का दर्द

दुख भी है बुढ़ापे का

सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य गिरीराज सिद्धू ने व्यक्त किया अपना दुख

बुढ़ापे का सहारा

गरीबदास उन्हीं की श्रेणी में आते हैं जिन्हें अपने पराये कर देते हैं और थकी हड्डियों को सहारा देने के बजाय उल्टे उनसे सहारे की उम्मीद करते हैं
दो बूढ़ों का मिलन

दोनों बूढ़े हैं, फिर भी हौंसला रखते हैं आगे जीने का। वे एक सुर में कहते हैं,‘‘अगला लोक किसने देखा। जीना तो यहां ही है।’’
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इक दिन बिक जायेगा माटी के मोल
प्रताप महेन्द्र सिंह कहते हैं- ''लाचारी और विवशता के सिवाय कुछ नहीं है बुढ़ापा. यह ऐसा पड़ाव है जब मर्जी अपनी नहीं रहती। रुठ कर मनाने वाला कोई नहीं।'' एक पुरानी फिल्म के गीत के शब्द वे कहते हैं-‘‘इक दिन बिक जायेगा, माटी के मोल, जग में रह जायेंगे, प्यारे तेरे बोल।’’

...............कहानी
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किशना- एक बूढ़े की कहानी
(भाग-1)..................(भाग-2)
ये भी कोई जिंदगी है
बृजघाट के घाट पर अनेकों साधु-संतों के आश्रम हैं। यहां बहुत से बूढ़े आपको किसी आस में बैठे मिल जायेंगे। इनकी आंखें थकी हुयी हैं, येजर्जर काया वाले हैं, किसी की प्रेरणा नहीं बने, हां, इन्हें लोग दया दृष्टि से जरुर देखते हैं

अपने याद आते हैं
राजाराम जी घर से दूर रह रहे हैं। उन्होंने कई साल पहले घर को अलविदा कह दिया है। लेकिन अपनों की दूरी अब कहीं न कहीं परेशान करती है, बिल्कुल भीतर से

कविता.../....हरमिन्दर सिंह .
कभी मोम पिघला था यहां
इस बहाने खुद से बातें हो जायेंगी
विदाई बड़ी दुखदायी
आखिर कितना भीगता हूं मैं
प्यास अभी मिटी नहीं
पता नहीं क्यों?
बेहाल बागवां

यही बुढापा है, सच्चाई है
विदा, अलविदा!
अब कहां गई?
अंतिम पल
खत्म जहां किनारा है
तन्हाई के प्याले
ये मेरी दुनिया है
वहां भी अकेली है वह
जन्म हुआ शिशु का
गरमी
जीवन और मरण
कोई दुखी न हो
यूं ही चलते-चलते
मैं दीवाली देखना चाहता हूं
दीवाली पर दिवाला
जा रहा हूं मैं, वापस न आने के लिए
बुढ़ापा सामने खड़ा पूछ रहा
मगर चुप हूं मैं
क्षोभ
बारिश को करीब से देखा मैंने
बुढ़ापा सामने खड़ा है, अपना लो
मन की पीड़ा
काली छाया

तब जन्म गीत का होता है -रेखा सिंह
भगवान मेरे, क्या जमाना आया है -शुभांगी
वृद्ध इंसान हूं मैं-शुभांगी
मां ऐसी ही होती है -ज्ञानेंद्र सिंह
खामोशी-लाचारी-ज्ञानेंद्र सिंह
उम्र के पड़ाव -बलराम गुर्जर
मैं गरीबों को सलाम करता हूं -फ़ुरखान शाह
दैनिक हिन्दुस्तान और वेबदुनिया में वृद्धग्राम
hindustan vradhgram ब्लॉग वार्ता :
कहीं आप बूढ़े तो नहीं हो रहे
-Ravish kumar
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इन काँपते हाथों को बस थाम लो!
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