रात को सोते समय करवट लेता हूं तो आजकल, आराम नहीं मिलता। कमर में कई बार दर्द होता है। यह सब समय की देन है जिसे सिर्फ भुगता जा सकता है। समय के आगे अच्छे-अच्छे और बड़े-बड़े सूरमा तक पस्त होकर चले गये। समय ने सबको हरा दिया, चाहें इसके लिए उसे कुछ भी करना पड़ा। जो बन पड़ा किया और जिस तरह बन पड़ा किया। किसी भी हद तक चाहें जाना पड़ा वह गया, लेकिन अहंकार, दंभ आदि का नाश करने का जैसे उसने व्रत ले रखा है। उसका चाबुक हर किसी पर पड़ता है और पंजा शक्तिशाली नहीं, महाशक्तिशाली है। इसके आगे भी यदि उसकी ताकत का बखान किया जाए वह कम है। उसकी शक्ति का अंदाजा लगाया नहीं जा सकता। इसका मतलब यह है कि समय से लड़ना बेमानी है। इंसान वक्त की ठोकरों से जूझता आगे बढ़ता जाता है, और फिर समय उससे कहता है लड़ते रहो, चलते रहो। दौड़-धूप की जाती है जब कोई मुकाम हासिल करना हो। हर किसी चीज को पकड़ा नहीं जा सकता। अधिक तेज चलती हवा काफी क्षति पहुंचा सकती है। कई बार नुक्सान इतना अधिक होता है कि हम टूट जाते हैं। तब अंधकार ही अंधकार नजर आता है। सूरज की एक किरण की रोशनी तब पता नहीं कितना उजाला फैला देती है, हम कह नहीं सकते। वह वक्त कोहरे सा धुंधला भी हो सकता है।विचारों को मैं इकट~ठा नहीं कर सकता था। मेरा हौंसला टूट रहा था। अब मैं अपने आप को लिखता हूं तो संतोष मिलता है। यह मन को उतना दुखी नहीं करता, समझाता रहता है। होना भी यह भी चाहिए कि जब आप का मन विचारों की लड़ाई लड़ रहा हो तब उसकी वेदना को अक्षरों में उकेर दीजिए, मन हल्का हो जाएगा। यह कुछ पल का सुकून होगा, लेकिन इसका भी महत्व होगा। मुझे किसी ने नहीं कहा कि मैं अपनी सच्चाई लिखूं। यह मेरी सच्चाई इसलिए है क्योंकि मन की सच्चाई है। विचारों की लड़ाई बाहर से शांत होता है, मगर अंदर की उथलपुथल बड़ी अजीब होती है। मेरे भीतर बहुत कुछ क्या, कुछ भी शांत नहीं है। कभी ऐसा हो जाता हूं, कभी वैसा। पता नहीं कैसा हो जाता हूं और क्यों हो जाता हूं? यह भी एक सच ही तो है। हम यह तो मानते हैं कि सच कभी छिपता नहीं। मैं जैसा सोचता हूं, वैसा लिखता हूं। मेरे आसपास माहौल कुछ अच्छा नहीं है, फिर भी मैं लिखने की आदत को छोड़ने वाला नहीं। एक यहीं तो मैं पूरी शांति महसूस करता हूं।
मुझे अब लोग उतने भले नहीं लगते। उनकी बातों का मुझे डर नहीं लगता। शायद वक्त के साथ नजरिया पहले सा नहीं रहा। लोगों की मुस्कराहट उतनी भली नहीं लगती। यकीन मानिए कैदी भी इंसान होते हैं। जमाने ने उनको मोड़ दिया या उन्होंने जमाने को मोड़ने की कोशिश की, यह मुझे मालूम नहीं, लेकिन उनकी रगें भी रक्त से भरी हैं जिसे बहने पर वे भी दर्द महसूस करते हैं। हां, रक्त बहाने वाले यहां कई हैं जो शायद उमz बीतने पर ही शांति से बैठें। उन्हें ईश्वर की मर्जी थी कि बुरे काम करो, बुरा भुगतो। यह ठीक नहीं है जब आप अच्छे काम कर भी बुरों की जमात में शरीक किये जायें। इसके पीछे समय का हाथ है। वह जो चाहेगा, वही होगा। तभी वह थमता नहीं, निरंतर बहता है।
आशांए धूमिल पड़ जाती हैं। ऐसा मुझे लग रहा है। मुझे एहसास हो रहा है कि मेरी जिंदगी इस कोने में ही बीत जाएगी। जेलर साहब का तबादला हो चुका। नये जेलर आये हैं। उन्हें मैं नहीं जानता। पहले जेलर ने मुझे एक आस बंधा दी थी, लेकिन ऊपर वाले को मंजूर नहीं, शायद बिल्कुल नहीं। वह यही चाहता है कि मैं दर्द से कराहता रहूं। इसी तरह तड़पता रहूं। बेबसी में दिन काटता रहूं और यादों में सिमट कर सुबकता रहूं। यह सब कितना दुख पहुंचाता है, बहुत, बहुत ही पीड़ायदायक है यह वक्त। बस से बाहर की चीजों पर आंसू बहाना पागलपन है। मैं पागल थोड़े ही हूं जो उन बातों पर व्यथित होता जाऊं जिनका निदान मेरे पास नहीं।
-harminder singh
एक कैदी की डायरी


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विचारणीय और भावपूर्ण आलेख.
ReplyDeleteक्या करे इंसान को कर्मो का लेखाजोखा भोगना तो है ही
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