बूढ़ी काकी कहती है-‘‘बुढ़ापा तो आना ही है। सच का सामना करने से भय कैसा? क्यों हम घबराते हैं आने वाले समय से जो सच्चाई है जिसे झुठलाना नामुमकिन है।’’.

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Thursday, September 17, 2009

यकीन मानिए कैदी भी इंसान होते हैं

रात को सोते समय करवट लेता हूं तो आजकल, आराम नहीं मिलता। कमर में कई बार दर्द होता है। यह सब समय की देन है जिसे सिर्फ भुगता जा सकता है। समय के आगे अच्छे-अच्छे और बड़े-बड़े सूरमा तक पस्त होकर चले गये। समय ने सबको हरा दिया, चाहें इसके लिए उसे कुछ भी करना पड़ा। जो बन पड़ा किया और जिस तरह बन पड़ा किया। किसी भी हद तक चाहें जाना पड़ा वह गया, लेकिन अहंकार, दंभ आदि का नाश करने का जैसे उसने व्रत ले रखा है। उसका चाबुक हर किसी पर पड़ता है और पंजा शक्तिशाली नहीं, महाशक्तिशाली है। इसके आगे भी यदि उसकी ताकत का बखान किया जाए वह कम है। उसकी शक्ति का अंदाजा लगाया नहीं जा सकता। इसका मतलब यह है कि समय से लड़ना बेमानी है। इंसान वक्त की ठोकरों से जूझता आगे बढ़ता जाता है, और फिर समय उससे कहता है लड़ते रहो, चलते रहो। दौड़-धूप की जाती है जब कोई मुकाम हासिल करना हो। हर किसी चीज को पकड़ा नहीं जा सकता। अधिक तेज चलती हवा काफी क्षति पहुंचा सकती है। कई बार नुक्सान इतना अधिक होता है कि हम टूट जाते हैं। तब अंधकार ही अंधकार नजर आता है। सूरज की एक किरण की रोशनी तब पता नहीं कितना उजाला फैला देती है, हम कह नहीं सकते। वह वक्त कोहरे सा धुंधला भी हो सकता है।

विचारों को मैं इकट~ठा नहीं कर सकता था। मेरा हौंसला टूट रहा था। अब मैं अपने आप को लिखता हूं तो संतोष मिलता है। यह मन को उतना दुखी नहीं करता, समझाता रहता है। होना भी यह भी चाहिए कि जब आप का मन विचारों की लड़ाई लड़ रहा हो तब उसकी वेदना को अक्षरों में उकेर दीजिए, मन हल्का हो जाएगा। यह कुछ पल का सुकून होगा, लेकिन इसका भी महत्व होगा। मुझे किसी ने नहीं कहा कि मैं अपनी सच्चाई लिखूं। यह मेरी सच्चाई इसलिए है क्योंकि मन की सच्चाई है। विचारों की लड़ाई बाहर से शांत होता है, मगर अंदर की उथलपुथल बड़ी अजीब होती है। मेरे भीतर बहुत कुछ क्या, कुछ भी शांत नहीं है। कभी ऐसा हो जाता हूं, कभी वैसा। पता नहीं कैसा हो जाता हूं और क्यों हो जाता हूं? यह भी एक सच ही तो है। हम यह तो मानते हैं कि सच कभी छिपता नहीं। मैं जैसा सोचता हूं, वैसा लिखता हूं। मेरे आसपास माहौल कुछ अच्छा नहीं है, फिर भी मैं लिखने की आदत को छोड़ने वाला नहीं। एक यहीं तो मैं पूरी शांति महसूस करता हूं।

मुझे अब लोग उतने भले नहीं लगते। उनकी बातों का मुझे डर नहीं लगता। शायद वक्त के साथ नजरिया पहले सा नहीं रहा। लोगों की मुस्कराहट उतनी भली नहीं लगती। यकीन मानिए कैदी भी इंसान होते हैं। जमाने ने उनको मोड़ दिया या उन्होंने जमाने को मोड़ने की कोशिश की, यह मुझे मालूम नहीं, लेकिन उनकी रगें भी रक्त से भरी हैं जिसे बहने पर वे भी दर्द महसूस करते हैं। हां, रक्त बहाने वाले यहां कई हैं जो शायद उमz बीतने पर ही शांति से बैठें। उन्हें ईश्वर की मर्जी थी कि बुरे काम करो, बुरा भुगतो। यह ठीक नहीं है जब आप अच्छे काम कर भी बुरों की जमात में शरीक किये जायें। इसके पीछे समय का हाथ है। वह जो चाहेगा, वही होगा। तभी वह थमता नहीं, निरंतर बहता है।

आशांए धूमिल पड़ जाती हैं। ऐसा मुझे लग रहा है। मुझे एहसास हो रहा है कि मेरी जिंदगी इस कोने में ही बीत जाएगी। जेलर साहब का तबादला हो चुका। नये जेलर आये हैं। उन्हें मैं नहीं जानता। पहले जेलर ने मुझे एक आस बंधा दी थी, लेकिन ऊपर वाले को मंजूर नहीं, शायद बिल्कुल नहीं। वह यही चाहता है कि मैं दर्द से कराहता रहूं। इसी तरह तड़पता रहूं। बेबसी में दिन काटता रहूं और यादों में सिमट कर सुबकता रहूं। यह सब कितना दुख पहुंचाता है, बहुत, बहुत ही पीड़ायदायक है यह वक्त। बस से बाहर की चीजों पर आंसू बहाना पागलपन है। मैं पागल थोड़े ही हूं जो उन बातों पर व्यथित होता जाऊं जिनका निदान मेरे पास नहीं।

-harminder singh

एक कैदी की डायरी

2 comments:

  1. विचारणीय और भावपूर्ण आलेख.

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  2. क्या करे इंसान को कर्मो का लेखाजोखा भोगना तो है ही

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coming soon1
कैदी की डायरी......................
>>सादाब की मां............................ >>मेरी मां
बूढ़ी काकी कहती है
>>पल दो पल का जीवन.............>क्यों हम जीवन खो देते हैं?

घर से स्कूल
>>चाय में मक्खी............................>>भविष्य वाला साधु
>>वापस स्कूल में...........................>>सपने का भय
हमारे प्रेरणास्रोत हमारे बुजुर्ग

...ऐसे थे मुंशी जी

..शिक्षा के क्षेत्र में अतुलनीय काम था मुंशी जी का

...अपने अंतिम दिनों में
तब एहसास होगा कि बुढ़ापा क्या होता है?

सम्मान के हकदार

नेत्र सिंह

रामकली जी

दादी गौरजां

कल्याणी-एक प्रेम कहानी मेरा स्कूल बुढ़ापा

....भाग-1....भाग-2
सीधी बात नो बकवास

बहुत कुछ बदल गया, पर बदले नहीं लोग

गुरु ऐसे ही होते हैं
युवती से शादी का हश्र भुगत रहा है वृद्ध

बुढ़ापे के आंसू

बूढ़ा शरीर हुआ है इंसान नहीं

बुढ़ापा छुटकारा चाहता है

खोई यादों को वापिस लाने की चाह

बातों बातों में रिश्ते-नाते बुढ़ापा
ऐसा क्या है जीवन में?

अनदेखा अनजाना सा

कुछ समय का अनुभव

ठिठुरन और मैं

राज पिछले जन्म का
क्योंकि तुम खुश हो तो मैं खुश हूं

कहानी की शुरुआत फिर होगी

करीब हैं, पर दूर हैं

पापा की प्यारी बेटी

छली जाती हैं बेटियां

मां ऐसी ही होती है
एक उम्मीद के साथ जीता हूं मैं

कुछ नमी अभी बाकी है

अपनेपन की तलाश

टूटी बिखरी यादें

आखिरी पलों की कहानी

बुढ़ापे का मर्म



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>>मेरी बहन नेत्रा

>>मैडम मौली
>>गर्मी की छुट्टियां

>>खराब समय

>>दुलारी मौसी

>>लंगूर वाला

>>गीता पड़ी बीमार
>>फंदे में बंदर

जानवर कितना भी चालाक क्यों न हो, इंसान उसे काबू में कर ही लेता है। रघु ने स्कूल से कहीं एक रस्सी तलाश कर ली. उसने रस्सी का एक फंदा बना लिया

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वृद्धग्राम पर पहली पोस्ट में मा. होराम सिंह का जिक्र
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वृद्धों की सेवा में परमानंद -
डा. रमाशंकर
‘अरुण’


बुढ़ापे का दर्द

दुख भी है बुढ़ापे का

सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य गिरीराज सिद्धू ने व्यक्त किया अपना दुख

बुढ़ापे का सहारा

गरीबदास उन्हीं की श्रेणी में आते हैं जिन्हें अपने पराये कर देते हैं और थकी हड्डियों को सहारा देने के बजाय उल्टे उनसे सहारे की उम्मीद करते हैं
दो बूढ़ों का मिलन

दोनों बूढ़े हैं, फिर भी हौंसला रखते हैं आगे जीने का। वे एक सुर में कहते हैं,‘‘अगला लोक किसने देखा। जीना तो यहां ही है।’’
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इक दिन बिक जायेगा माटी के मोल
प्रताप महेन्द्र सिंह कहते हैं- ''लाचारी और विवशता के सिवाय कुछ नहीं है बुढ़ापा. यह ऐसा पड़ाव है जब मर्जी अपनी नहीं रहती। रुठ कर मनाने वाला कोई नहीं।'' एक पुरानी फिल्म के गीत के शब्द वे कहते हैं-‘‘इक दिन बिक जायेगा, माटी के मोल, जग में रह जायेंगे, प्यारे तेरे बोल।’’

...............कहानी
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किशना- एक बूढ़े की कहानी
(भाग-1)..................(भाग-2)
ये भी कोई जिंदगी है
बृजघाट के घाट पर अनेकों साधु-संतों के आश्रम हैं। यहां बहुत से बूढ़े आपको किसी आस में बैठे मिल जायेंगे। इनकी आंखें थकी हुयी हैं, येजर्जर काया वाले हैं, किसी की प्रेरणा नहीं बने, हां, इन्हें लोग दया दृष्टि से जरुर देखते हैं

अपने याद आते हैं
राजाराम जी घर से दूर रह रहे हैं। उन्होंने कई साल पहले घर को अलविदा कह दिया है। लेकिन अपनों की दूरी अब कहीं न कहीं परेशान करती है, बिल्कुल भीतर से

कविता.../....हरमिन्दर सिंह .
कभी मोम पिघला था यहां
इस बहाने खुद से बातें हो जायेंगी
विदाई बड़ी दुखदायी
आखिर कितना भीगता हूं मैं
प्यास अभी मिटी नहीं
पता नहीं क्यों?
बेहाल बागवां

यही बुढापा है, सच्चाई है
विदा, अलविदा!
अब कहां गई?
अंतिम पल
खत्म जहां किनारा है
तन्हाई के प्याले
ये मेरी दुनिया है
वहां भी अकेली है वह
जन्म हुआ शिशु का
गरमी
जीवन और मरण
कोई दुखी न हो
यूं ही चलते-चलते
मैं दीवाली देखना चाहता हूं
दीवाली पर दिवाला
जा रहा हूं मैं, वापस न आने के लिए
बुढ़ापा सामने खड़ा पूछ रहा
मगर चुप हूं मैं
क्षोभ
बारिश को करीब से देखा मैंने
बुढ़ापा सामने खड़ा है, अपना लो
मन की पीड़ा
काली छाया

तब जन्म गीत का होता है -रेखा सिंह
भगवान मेरे, क्या जमाना आया है -शुभांगी
वृद्ध इंसान हूं मैं-शुभांगी
मां ऐसी ही होती है -ज्ञानेंद्र सिंह
खामोशी-लाचारी-ज्ञानेंद्र सिंह
उम्र के पड़ाव -बलराम गुर्जर
मैं गरीबों को सलाम करता हूं -फ़ुरखान शाह
दैनिक हिन्दुस्तान और वेबदुनिया में वृद्धग्राम
hindustan vradhgram ब्लॉग वार्ता :
कहीं आप बूढ़े तो नहीं हो रहे
-Ravish kumar
NDTV

इन काँपते हाथों को बस थाम लो!
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