बूढ़ी काकी कहती है-‘‘बुढ़ापा तो आना ही है। सच का सामना करने से भय कैसा? क्यों हम घबराते हैं आने वाले समय से जो सच्चाई है जिसे झुठलाना नामुमकिन है।’’.

LATEST on VRADHGRAM:

Tuesday, February 23, 2010

जिंदगियों का सौदा

[jail+diary.jpg]


सादाब को काफी गुस्सा आ गया था। उससे मैंने कहा कि अब उसे आराम करना चाहिए। उसकी कहानी तसल्ली से किसी दिन सुन लेंगे।

पता नहीं क्यों वह जैसे मुझे सबकुछ बताना चाह रहा था। उसने आगे बताना शुरु किया,‘‘मामा की छोटी बेटी शायना मुश्किल से छह साल की थी और बड़ी फरीदा नौ की। वह रात को देर से आता था। घर में जुआ खेलता। कई लोगों को साथ लाता। बेटियों से उनके लिए चाय-पानी मंगवाता और रात का खाना बनवाता। कहा न मानने पर उनके सामने ही बाल पकड़कर अपनी बेटियों को बेरहमी से पीटता। बच्चियां थीं, मासूम थीं, अंजान भी, इसलिए बाप की मर्जी को बेचारी आंसू पोंछते-पोंछते मान लेतीं। एक कसाई से कम नहीं था हमारा मामा।’’

‘‘शायना और फरीदा ने कभी मेरी अम्मी से यह नहीं बताया। अम्मी को अपने सगे भाई की असलियत पता नहीं थी। एक रोज मामा शाम को हमारे घर रोता हुआ आया। उसने कहा कि शायना का सुबह से पता नहीं चला। सारा मोहल्ला छान मारा वह मिली नहीं। इसपर अम्मी परेशान हो गयी। लड़कियों की उन्हें बहुत फिक्र रहती थी। शायना फिर कभी नहीं लौटी। मालूम पड़ा कि मामा ने उसे जुए में दांव पर लगाया था। दांव हार जाने पर शायना को उस खूसट जमील को सौंप दिया। जमील उस रात मामा के यहां से नागपुर जा रहा था जहां वह जूते बनाने की एक कंपनी में काम करता था। वहां शायना का क्या हुआ होगा मुझे पता नहीं। लेकिन मामा अच्छा नहीं कर रहा था। अब उसकी नियत यह थी कि किसी तरह फरीदा से भी छुटकारा पा ले।’’

‘‘वह फरीदा को मेला दिखाने ले गया। फरीदा अंजान थी। मेला एक बहाना था। फरीदा का कुछ हजार में पहले ही सौदा किया जा चुका था। सौदेबाज तैयार थे। भीड़ में फरीदा का हाथ छूट गया। उसे किसी ओर ने थामा। कुछ पलों में फरीदा की जिंदगी का फैसला हो चुका था। उसकी दुनिया उजड़ चुकी थी। वह बिक चुकी थी। और ऐसे लोगों के हाथ में थी जिनके लिए वह केवल मांस का लोथड़ा भर थी, कोई मामूली खरीदी हुई वस्तु जिसकी कीमत चुकायी जा चुकी थी।’’

सादाब का दर्द और गहरा होता जा रहा था। मैं उसकी पीड़ा समझ सकता था। एक व्यक्ति कितना गिर सकता है, मैंने सोचा नहीं था। कितना दुख होता है जब कोई आपका अपना आप पर भरोसा करे और अपने स्वार्थ के लिए आप उसे ऐसे लोगों के हवाले कर दें जो जिंदगियों का सौदा करते हैं। उनके यहां मरी हुई आत्माओं का बाजार सजता है जिनके खरीददार होते हैं। छी है ऐसे इंसानों पर जिनके लिए इंसान मंडी की सजावट से अधिक कुछ नहीं। मैं इसके आगे इसपर लिखना नहीं चाहूंगा।

लोगों की चमड़ी एक सी होती है, फर्क रंग का होता है। लोग एक से होते हैं, यहां भी फर्क रंग का होता है। रंग बदलते देर नहीं लगती। गिरगिट को ही देख लें। जिस जगह बैठा, वैसा उसका रंग हो जाता है।

इंसानों की कला जानवरों से कई गुना शक्तिशाली और अनोखी है। वह जितनी अजीब है, उतनी भयानक भी।

सादाब ने बताया कि उसका मामा अम्मी के सामने फूट-फूटकर रोया। मेले की झूठी कहानी गढ़ दी। उसकी अम्मी को मामा पर यकीन आ जाता था।

to be contd.......

-harminder singh

No comments:

Post a Comment

Blog Widget by LinkWithin
coming soon1
कैदी की डायरी......................
>>सादाब की मां............................ >>मेरी मां
बूढ़ी काकी कहती है
>>पल दो पल का जीवन.............>क्यों हम जीवन खो देते हैं?

घर से स्कूल
>>चाय में मक्खी............................>>भविष्य वाला साधु
>>वापस स्कूल में...........................>>सपने का भय
हमारे प्रेरणास्रोत हमारे बुजुर्ग

...ऐसे थे मुंशी जी

..शिक्षा के क्षेत्र में अतुलनीय काम था मुंशी जी का

...अपने अंतिम दिनों में
तब एहसास होगा कि बुढ़ापा क्या होता है?

सम्मान के हकदार

नेत्र सिंह

रामकली जी

दादी गौरजां

कल्याणी-एक प्रेम कहानी मेरा स्कूल बुढ़ापा

....भाग-1....भाग-2
सीधी बात नो बकवास

बहुत कुछ बदल गया, पर बदले नहीं लोग

गुरु ऐसे ही होते हैं
युवती से शादी का हश्र भुगत रहा है वृद्ध

बुढ़ापे के आंसू

बूढ़ा शरीर हुआ है इंसान नहीं

बुढ़ापा छुटकारा चाहता है

खोई यादों को वापिस लाने की चाह

बातों बातों में रिश्ते-नाते बुढ़ापा
ऐसा क्या है जीवन में?

अनदेखा अनजाना सा

कुछ समय का अनुभव

ठिठुरन और मैं

राज पिछले जन्म का
क्योंकि तुम खुश हो तो मैं खुश हूं

कहानी की शुरुआत फिर होगी

करीब हैं, पर दूर हैं

पापा की प्यारी बेटी

छली जाती हैं बेटियां

मां ऐसी ही होती है
एक उम्मीद के साथ जीता हूं मैं

कुछ नमी अभी बाकी है

अपनेपन की तलाश

टूटी बिखरी यादें

आखिरी पलों की कहानी

बुढ़ापे का मर्म



[ghar+se+school.png]
>>मेरी बहन नेत्रा

>>मैडम मौली
>>गर्मी की छुट्टियां

>>खराब समय

>>दुलारी मौसी

>>लंगूर वाला

>>गीता पड़ी बीमार
>>फंदे में बंदर

जानवर कितना भी चालाक क्यों न हो, इंसान उसे काबू में कर ही लेता है। रघु ने स्कूल से कहीं एक रस्सी तलाश कर ली. उसने रस्सी का एक फंदा बना लिया

[horam+singh.jpg]
वृद्धग्राम पर पहली पोस्ट में मा. होराम सिंह का जिक्र
[ARUN+DR.jpg]
वृद्धों की सेवा में परमानंद -
डा. रमाशंकर
‘अरुण’


बुढ़ापे का दर्द

दुख भी है बुढ़ापे का

सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य गिरीराज सिद्धू ने व्यक्त किया अपना दुख

बुढ़ापे का सहारा

गरीबदास उन्हीं की श्रेणी में आते हैं जिन्हें अपने पराये कर देते हैं और थकी हड्डियों को सहारा देने के बजाय उल्टे उनसे सहारे की उम्मीद करते हैं
दो बूढ़ों का मिलन

दोनों बूढ़े हैं, फिर भी हौंसला रखते हैं आगे जीने का। वे एक सुर में कहते हैं,‘‘अगला लोक किसने देखा। जीना तो यहां ही है।’’
[old.jpg]

इक दिन बिक जायेगा माटी के मोल
प्रताप महेन्द्र सिंह कहते हैं- ''लाचारी और विवशता के सिवाय कुछ नहीं है बुढ़ापा. यह ऐसा पड़ाव है जब मर्जी अपनी नहीं रहती। रुठ कर मनाने वाला कोई नहीं।'' एक पुरानी फिल्म के गीत के शब्द वे कहते हैं-‘‘इक दिन बिक जायेगा, माटी के मोल, जग में रह जायेंगे, प्यारे तेरे बोल।’’

...............कहानी
[kisna.jpg]
किशना- एक बूढ़े की कहानी
(भाग-1)..................(भाग-2)
ये भी कोई जिंदगी है
बृजघाट के घाट पर अनेकों साधु-संतों के आश्रम हैं। यहां बहुत से बूढ़े आपको किसी आस में बैठे मिल जायेंगे। इनकी आंखें थकी हुयी हैं, येजर्जर काया वाले हैं, किसी की प्रेरणा नहीं बने, हां, इन्हें लोग दया दृष्टि से जरुर देखते हैं

अपने याद आते हैं
राजाराम जी घर से दूर रह रहे हैं। उन्होंने कई साल पहले घर को अलविदा कह दिया है। लेकिन अपनों की दूरी अब कहीं न कहीं परेशान करती है, बिल्कुल भीतर से

कविता.../....हरमिन्दर सिंह .
कभी मोम पिघला था यहां
इस बहाने खुद से बातें हो जायेंगी
विदाई बड़ी दुखदायी
आखिर कितना भीगता हूं मैं
प्यास अभी मिटी नहीं
पता नहीं क्यों?
बेहाल बागवां

यही बुढापा है, सच्चाई है
विदा, अलविदा!
अब कहां गई?
अंतिम पल
खत्म जहां किनारा है
तन्हाई के प्याले
ये मेरी दुनिया है
वहां भी अकेली है वह
जन्म हुआ शिशु का
गरमी
जीवन और मरण
कोई दुखी न हो
यूं ही चलते-चलते
मैं दीवाली देखना चाहता हूं
दीवाली पर दिवाला
जा रहा हूं मैं, वापस न आने के लिए
बुढ़ापा सामने खड़ा पूछ रहा
मगर चुप हूं मैं
क्षोभ
बारिश को करीब से देखा मैंने
बुढ़ापा सामने खड़ा है, अपना लो
मन की पीड़ा
काली छाया

तब जन्म गीत का होता है -रेखा सिंह
भगवान मेरे, क्या जमाना आया है -शुभांगी
वृद्ध इंसान हूं मैं-शुभांगी
मां ऐसी ही होती है -ज्ञानेंद्र सिंह
खामोशी-लाचारी-ज्ञानेंद्र सिंह
उम्र के पड़ाव -बलराम गुर्जर
मैं गरीबों को सलाम करता हूं -फ़ुरखान शाह
दैनिक हिन्दुस्तान और वेबदुनिया में वृद्धग्राम
hindustan vradhgram ब्लॉग वार्ता :
कहीं आप बूढ़े तो नहीं हो रहे
-Ravish kumar
NDTV

इन काँपते हाथों को बस थाम लो!
-Ravindra Vyas WEBDUNIA.com