मैं एकांत में कुछ बुन रहा हूं,
शायद ये वक्त ने मुझे सिखलाया है,
खुद से जूझ रहा हूं,
शायद यह भी वक्त की वजह से है,
शरीर से कुछ कह नहीं सकता,
वह तो केवल सहना जानता है,
चलो इस बहाने खुद से कुछ बातें तो हो जायेंगी।
-harminder singh
वृद्धों का पहला ब्लॉग
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हमारे प्रेरणास्रोत | हमारे बुजुर्ग |
...ऐसे थे मुंशी जी ..शिक्षा के क्षेत्र में अतुलनीय काम था मुंशी जी का ...अपने अंतिम दिनों में | तब एहसास होगा कि बुढ़ापा क्या होता है? सम्मान के हकदार नेत्र सिंह रामकली जी दादी गौरजां |
>>मेरी बहन नेत्रा >>मैडम मौली | >>गर्मी की छुट्टियां >>खराब समय >>दुलारी मौसी >>लंगूर वाला >>गीता पड़ी बीमार | >>फंदे में बंदर जानवर कितना भी चालाक क्यों न हो, इंसान उसे काबू में कर ही लेता है। रघु ने स्कूल से कहीं एक रस्सी तलाश कर ली. उसने रस्सी का एक फंदा बना लिया |
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सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य गिरीराज सिद्धू ने व्यक्त किया अपना दुख बुढ़ापे का सहारा गरीबदास उन्हीं की श्रेणी में आते हैं जिन्हें अपने पराये कर देते हैं और थकी हड्डियों को सहारा देने के बजाय उल्टे उनसे सहारे की उम्मीद करते हैं |
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अपने याद आते हैं राजाराम जी घर से दूर रह रहे हैं। उन्होंने कई साल पहले घर को अलविदा कह दिया है। लेकिन अपनों की दूरी अब कहीं न कहीं परेशान करती है, बिल्कुल भीतर से |
दैनिक हिन्दुस्तान और वेबदुनिया में वृद्धग्राम |
ब्लॉग वार्ता : कहीं आप बूढ़े तो नहीं हो रहे -Ravish kumar NDTV | इन काँपते हाथों को बस थाम लो! -Ravindra Vyas WEBDUNIA.com |
स्व. मुंशी निर्मल सिंह जी ये वे हैं जिनकी प्रेरणा से हमने यह ब्लॉग तैयार किया है। इनका आशीर्वाद सदा हमारे ऊपर रहे। यह ब्लॉग उन लोगों को समर्पित है जो हमारे अपने हैं, लेकिन अब वे बूढ़े हो चुके हैं। उनका बुढ़ापा जीवन की उस सच्चाई को दर्शा रहा है जो कभी झुठलाई नहीं जा सकती। यह एक प्रयास भर है |
डायरी के पन्ने एक कैदी के जिसने अपनी तमाम जवानी कैदखाने में बिता दी। आज जब वह वृद्ध हो गया तो अपनी डायरी के पन्ने उलट रहा है। वृद्धग्राम कैदी के दर्द भरे पलों की यादों को एक-एक कर आपके सामने प्रस्तुत कर रहा है |
>>पहली पोस्ट ------------ >>क्रोध ------------ >>बदल गया बहुत कुछ ------------ >>इंसान और भगवान ------------ >>अपनेपन की तलाश ------------ >>मन कहता है ------------ >>सूनापन दुनिया है ------------ >>मामा की मौत ------------ >>मामा की चाल ------------ >>जिंदगियों का सौदा ------------ >>सादाब का मामा ------------ >>दर्द बहता है ------------ >>सादाब के अब्बा की मौत ------------ >>बर्दाश्त करने की हद ------------ >>पुलिस की बेरहमी ------------ >>सादाब की कहानी ------------ >>खुशी का मरहम ------------ >>रिश्तों की उलझन ------------ >>जेल का संसार ------------ >>कुछ उम्मीद जगी ------------ >>अब्दुल ------------ >>यकीन मानिए कैदी भी इंसान होते हैं ------------ >>विवशता के सिवा कुछ नहीं ------------ >>जीना पूरा नहीं, मरना अधूरा है ------------ >>कैदी से नींद कुछ कहती है ------------ >>तन्हाई कुछ कहती है ------------ >>हालातों के हाथ मजबूर ------------ >>मुरझाये चेहरों का सूखा हिस्सा ------------ >>जिंदगी कुछ भी नहीं, तेरी मेरी कहानी है ------------ >>स्वयं से लड़ना बहुत मुश्किल है ------------ >>वाकई जीना उतना आसान नहीं ------------ >>अहिस्ता-अहिस्ता जुड़ते हैं भाव |
>>लेख |
बस चाह थी सूखने की ------------------------------------------------------ नीड़ अब अपने नहीं ------------------------------------------------------ एक बूढ़ा नदी से आंख मिलाता है ------------------------------------------------------ आखिरी पलों की कहानी ------------------------------------------------------ उर्मिला के पिता चल बसे ------------------------------------------------------ अधूरी कहानी ------------------------------------------------------ शायद कुछ गुम गया है ------------------------------------------------------ टूटी बिखरी यादें ------------------------------------------------------ क्या अपने इतने सस्ते होते हैं? ------------------------------------------------------ पापा की प्यारी बेटी ------------------------------------------------------ धुंधले पड़ गये हैं शब्द ------------------------------------------------------ बुढ़ापे का मर्म ------------------------------------------------------ खत्म हो रहा हूं मैं ------------------------------------------------------ छली जाती हैं बेटियां ------------------------------------------------------ बुढ़ापे को सब्र कितना है ------------------------------------------------------ मां ऐसी ही होती है ------------------------------------------------------ बुढ़ापा कितना आजाद ------------------------------------------------------ गुरु ऐसे ही होते हैं ------------------------------------------------------ तो किसे अपना मानें? ------------------------------------------------------ मां का दिल ऐसा ही होता है ------------------------------------------------------ महिलाएं नहीं बदलेंगी ------------------------------------------------------ आखिरी पलों की कहानी ------------------------------------------------------ जवानी और बुढ़ापा ------------------------------------------------------ इतना पाकर भी खाली हाथ है ------------------------------------------------------ यादें संजोने की जरुरत ------------------------------------------------------ नैनहू नीर बहै तन खीना ------------------------------------------------------ धारावाहिक और महिलायें ------------------------------------------------------ बुढ़ापे का इश्क ------------------------------------------------------ बस समय का इंतजार है ------------------------------------------------------ बातों की खुशी ------------------------------------------------------ घर बाहर सभी जगह उपेक्षित बुढ़ापा ------------------------------------------------------ वृद्धाश्रम के अभागे |
बस्तर के जंगलों में नक्सलियों द्वारा निर्दोष पुलिस के जवानों के नरसंहार पर कवि की संवेदना व पीड़ा उभरकर सामने आई है |
ReplyDeleteबस्तर की कोयल रोई क्यों ?
अपने कोयल होने पर, अपनी कूह-कूह पर
बस्तर की कोयल होने पर
सनसनाते पेड़
झुरझुराती टहनियां
सरसराते पत्ते
घने, कुंआरे जंगल,
पेड़, वृक्ष, पत्तियां
टहनियां सब जड़ हैं,
सब शांत हैं, बेहद शर्मसार है |
बारूद की गंध से, नक्सली आतंक से
पेड़ों की आपस में बातचीत बंद है,
पत्तियां की फुस-फुसाहट भी शायद,
तड़तड़ाहट से बंदूकों की
चिड़ियों की चहचहाट
कौओं की कांव कांव,
मुर्गों की बांग,
शेर की पदचाप,
बंदरों की उछलकूद
हिरणों की कुलांचे,
कोयल की कूह-कूह
मौन-मौन और सब मौन है
निर्मम, अनजान, अजनबी आहट,
और अनचाहे सन्नाटे से !
आदि बालाओ का प्रेम नृत्य,
महुए से पकती, मस्त जिंदगी
लांदा पकाती, आदिवासी औरतें,
पवित्र मासूम प्रेम का घोटुल,
जंगल का भोलापन
मुस्कान, चेहरे की हरितिमा,
कहां है सब
केवल बारूद की गंध,
पेड़ पत्ती टहनियाँ
सब बारूद के,
बारूद से, बारूद के लिए
भारी मशीनों की घड़घड़ाहट,
भारी, वजनी कदमों की चरमराहट।
फिर बस्तर की कोयल रोई क्यों ?
बस एक बेहद खामोश धमाका,
पेड़ों पर फलो की तरह
लटके मानव मांस के लोथड़े
पत्तियों की जगह पुलिस की वर्दियाँ
टहनियों पर चमकते तमगे और मेडल
सस्ती जिंदगी, अनजानों पर न्यौछावर
मानवीय संवेदनाएं, बारूदी घुएं पर
वर्दी, टोपी, राईफल सब पेड़ों पर फंसी
ड्राईंग रूम में लगे शौर्य चिन्हों की तरह
निःसंग, निःशब्द बेहद संजीदा
दर्द से लिपटी मौत,
ना दोस्त ना दुश्मन
बस देश-सेवा की लगन।
विदा प्यारे बस्तर के खामोश जंगल, अलिवदा
आज फिर बस्तर की कोयल रोई,
अपने अजीज मासूमों की शहादत पर,
बस्तर के जंगल के शर्मसार होने पर
अपने कोयल होने पर,
अपनी कूह-कूह पर
बस्तर की कोयल होने पर
आज फिर बस्तर की कोयल रोई क्यों ?
अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त साहित्यकार, कवि संजीव ठाकुर की कलम से
vyatha baha di aapne bujurgon ki...
ReplyDeleteचन्द शब्दों में बढ़ती झुर्रियों की गहराई का एहसास करा दिया..
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