बूढ़ी काकी कहती है-‘‘बुढ़ापा तो आना ही है। सच का सामना करने से भय कैसा? क्यों हम घबराते हैं आने वाले समय से जो सच्चाई है जिसे झुठलाना नामुमकिन है।’’.

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Friday, May 16, 2008

ऐसे थे मुंशी निर्मल सिंह

बुढ़ापे में जवान होने का साहस कौन कर सकता है, लेकिन मुंशी जी करते थे। वे अपने आप को अंतिम दिनों तक नौजवान समझते रहे। उनका शरीर ढल गया था, हाथों में जान बची नहीं थी, वे लाठी से सरकते थे, लेकिन गन्ने को चूसते हुये जवान ही लगते थे।

कमर का मुड़ाव इस ओर इशारा करता था कि अब दिन चलने के आ गये। एक ऐसी दुनिया में चलने के जहां से पता है, सब जानते हैं, कोई वापस आता नहीं। आती है उसकी याद और वे सब जो उसने यहां रहकर किया और कहा।

मुंशी निर्मल सिंह आर्यसमाजी थे। आर्यसमाज से बड़ा धर्म उनके सामने कोई था नहीं। बाद में सिख बनेवे। लाहौर में जाकर भाषण देते थे। सभाओं में उनके होने से रौनक रहती थी और अनुपस्थिति में वीरानी। वे कहते थे,‘‘आजकल हम बदल रहे हैं और बदल रहे हैं हमारे विचार। तो हम क्यों न इस बदलाव को अपनायें। तैयार हो जायें एक नये कल के सुनहरे उजाले के लिये जिसमें बहुत सी नयी मालूमातें करनी होंगी, क्या होता है और क्यों होता है।’’ शायद उन दिनों में वे अपने को एक ऐसा व्यक्ति मान कर चल रहे थे जो अपना तो शायद उतना नहीं, लेकिन दूसरों को काफी कुछ भला कर रहा है।


मुंशी निर्मल सिंह ऐसी ही थे

बुढ़ापे में भी तेज तरार्र और 97 वर्ष तक भी वे गन्ने चूसते थे

सभाओं की वे रौनक हुआ करते थे

दूसरों की सेवा करना धर्म समझते थे



दीपावली के दिन पैदा हुये थे, और होली के दिन संसार छोड़ गये। उस दिन रंग में वे भी रंग गये थे। लेकिन ये रंग तो न लाल था, ना हरा और न पीला। ये था एक ऐसा रंग जो भगवान के साथ उसके महलों में होली खेलने वालों को ही नसीब होता है



अखबार वाले उनके आगे पीछे रहते थे कि मुंशी जी कुछ लिख कर उन्हें भी देंगे। यह तब की बात है जब भारत आजादी के लिये संघर्ष कर रहा था। तब उर्दू के अखबार काफी संख्या में निकलते थे। वे उर्दू में लिखते थे। उनके भाषणों में बहुत कुछ धरती से जुड़ा रस छिपा होता है क्योंकि वे उस घर से आते थे जहां खेत-खलिहान लोगों के प्रिय थे और वे खेती प्रेम से करते थे।

एक बात वे कई बार कहते थे,‘‘अब तो लोग बिना टोपी और चादर के आ रहे हैं। ठंड में भी और गर्मी में भी। शायद वे भूल गये कि ये दोनों हमें उन दोनों से बचाते रहे हैं।’’

शब्दों की माला पहनकर वे आते थे और शब्दों का रस श्रोताओं के कानों में घोल जाते थे। साहित्य के वे पुजारी थे। आज भी उनके गांव में एक अलमारी का अवशेष मिल जायेगा जिसमें भिन्न भाषाओं की पुस्तकें जर्जर हालत में मिलेंगी। उनके परिवार के लोगों ने उस ओर कोई ध्यान नहीं दिया। उन्हें उर्दू, हिंदी, पंजाबी, अंग्रेजी, रुसी आदि भाषाओं का ज्ञान था। उनके पास रुस से कई पत्र-पत्रिकायें आते थे। उनकी एक रुसी पत्रिका मेरे पास मौजूद है।

उन्होंने अपने गांव में सबसे पहले पानी की प्याऊ बनवायी। पानी पिलाने के लिये वाकायदा एक तनख्वाह पर नौकर रखा हुआ था।

उनकी कई बातें आपको समय समय पर बताता रहूंगा।

हरमिन्दर सिंह द्वारा

7 comments:

  1. भाई, वृद्धों के लिए ब्लॉग शुरू करके आपने बहुत अच्छा कदम उठाया है. बधाई! इसकी कमी महसूस की जा रही थी.
    दादा निर्मलजी के बारे में जान कर बेहद अच्छा लगा. उनके बारे में और जानने की जिज्ञासा है.

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  2. आप जैसे लोग साथ होंगे तो यह पवित्र कार्य और आगे बढ़ेगा.

    विजयशंकर चतुर्वेदी जी,
    आपका बहुत धन्यवाद.

    ReplyDelete
  3. भाई, मेरी कोई औकात नहीं है. बस, एक मशविरा है कि इस ब्लॉग से कई लोगों को जोड़ दें. यानी लोग अपने-अपने बुजुर्गों के ताल्लुक से अपनी-अपनी बातें शेयर करेंगे. उन्हें इनवाईट करें- 'सेटिंग में जाकर 'परमीशन' में जायें. बस ख़याल ये रखें कि किसे इनवाईट करना चाहते हैं. क्योंकि ब्लॉग की दुनिया में चंद लोग ज्यादा अच्छे नहीं हैं.

    और एक ख़ास बात, वर्ड वेरीफिकेशन हटा दीजिये, हाँ, अगर जरूरी समझें तो 'कमेन्ट मोडरेशन' रख लीजिएगा.

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  4. भाई बहुत बहुत बधाई इस नई सोच और प्रयत्न के लिए ।
    बहुत खूब...अच्छा लगा यहां आकर। निर्मलजी के बारे में जानकर बहुत अच्छा लगा।

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  5. Ajit ji aap blog par aaye. Apka dhanyavad.

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  6. उन के अनुभवों से बहुत कुछ सीखने को मिलेगा हमें। इस ब्लॉग में रचनाएं आमंत्रित भी की जा सकती हैं।

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  7. bahut achaa blogg start kiyaa apneee,meri tarf se best wishes hai...ekk nivedan hai jo subscription mails ke dara hota hai vio bhi start kar dijeyee...kyoo ki jab mail inbox me atii hai tabi dyaan ataa haii.........

    ReplyDelete

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इक दिन बिक जायेगा माटी के मोल
प्रताप महेन्द्र सिंह कहते हैं- ''लाचारी और विवशता के सिवाय कुछ नहीं है बुढ़ापा. यह ऐसा पड़ाव है जब मर्जी अपनी नहीं रहती। रुठ कर मनाने वाला कोई नहीं।'' एक पुरानी फिल्म के गीत के शब्द वे कहते हैं-‘‘इक दिन बिक जायेगा, माटी के मोल, जग में रह जायेंगे, प्यारे तेरे बोल।’’

...............कहानी
[kisna.jpg]
किशना- एक बूढ़े की कहानी
(भाग-1)..................(भाग-2)
ये भी कोई जिंदगी है
बृजघाट के घाट पर अनेकों साधु-संतों के आश्रम हैं। यहां बहुत से बूढ़े आपको किसी आस में बैठे मिल जायेंगे। इनकी आंखें थकी हुयी हैं, येजर्जर काया वाले हैं, किसी की प्रेरणा नहीं बने, हां, इन्हें लोग दया दृष्टि से जरुर देखते हैं

अपने याद आते हैं
राजाराम जी घर से दूर रह रहे हैं। उन्होंने कई साल पहले घर को अलविदा कह दिया है। लेकिन अपनों की दूरी अब कहीं न कहीं परेशान करती है, बिल्कुल भीतर से

कविता.../....हरमिन्दर सिंह .
कभी मोम पिघला था यहां
इस बहाने खुद से बातें हो जायेंगी
विदाई बड़ी दुखदायी
आखिर कितना भीगता हूं मैं
प्यास अभी मिटी नहीं
पता नहीं क्यों?
बेहाल बागवां

यही बुढापा है, सच्चाई है
विदा, अलविदा!
अब कहां गई?
अंतिम पल
खत्म जहां किनारा है
तन्हाई के प्याले
ये मेरी दुनिया है
वहां भी अकेली है वह
जन्म हुआ शिशु का
गरमी
जीवन और मरण
कोई दुखी न हो
यूं ही चलते-चलते
मैं दीवाली देखना चाहता हूं
दीवाली पर दिवाला
जा रहा हूं मैं, वापस न आने के लिए
बुढ़ापा सामने खड़ा पूछ रहा
मगर चुप हूं मैं
क्षोभ
बारिश को करीब से देखा मैंने
बुढ़ापा सामने खड़ा है, अपना लो
मन की पीड़ा
काली छाया

तब जन्म गीत का होता है -रेखा सिंह
भगवान मेरे, क्या जमाना आया है -शुभांगी
वृद्ध इंसान हूं मैं-शुभांगी
मां ऐसी ही होती है -ज्ञानेंद्र सिंह
खामोशी-लाचारी-ज्ञानेंद्र सिंह
उम्र के पड़ाव -बलराम गुर्जर
मैं गरीबों को सलाम करता हूं -फ़ुरखान शाह
दैनिक हिन्दुस्तान और वेबदुनिया में वृद्धग्राम
hindustan vradhgram ब्लॉग वार्ता :
कहीं आप बूढ़े तो नहीं हो रहे
-Ravish kumar
NDTV

इन काँपते हाथों को बस थाम लो!
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