मां अभी बाजार से आयी नहीं थीं। बता गयी थीं कि चाबी पड़ोस में रहने वाली सावित्री को दे कर जाऊंगी। खाना बनाकर गयी थीं, सिर्फ मुझे दूध गरम करना था। पुष्पा आंटी भी उनके साथ बाजार गयी होंगी। उन्हें घंटों घूमने की आदत है। वे सब्जी घरीदे हुए मोल-भाव इतना करती हैं कि सब्जी वाला पक जाता है। भीड़ होती है तो एक-आध सब्जी यूं ही चुपके से उठकर थैले में रख लेती हैं। मैंने अपनी मां से कई बार कहा कि वे पुष्पा के साथ न जाया करें। वह किसी दिन उन्हें भी बाजार के भाव पिटवा देगी। मगर मां को मेरी बात सुननी ही नहीं है। बस मैं उनका कहना मानता रहूं।
मैंने स्कूल की ड्रेस निकाल कर रिमोट अपने हाथ में ले लिया। नेत्रा बैठकर प्रोजेक्ट तैयार करने लगी। मैंने उसे फिर टोका, बोला,‘‘अभी स्कूल से आयी है। अरे, छुट्टियां लंबी हैं, टी.वी. देखते हैं साथ बैठकर।’’
‘‘मैं दूसरे कमरे में जा रही हूं। आप टी.वी. देखो। फिर स्कूल खुलने से दो दिन पहले होमवर्क करते हुए इधर-उधर दौंड़ना।’’ नेत्रा ने कहा।
‘‘मैं आज मौज करुंगा। कल से टाइम-टेबल बनाकर पढ़ाई शुरु होगी।’’ मैंने कहा।
‘‘ऐसा शायद कभी हो।’’
‘‘क्यों?’’
‘‘शायद आप कहते ही रह जाओ और छुटि~टयां बीत जाएं।’’
‘‘नहीं, ये सच नहीं है।’’
‘‘तो, फिर सच क्या है भैया?’’
‘‘सच यह है कि मैं पहले वाला स्टूडेंट नहीं रहा। बदल गया हूं।’’
‘‘हां, तुम्हारी लाल नाक से तो यही लगता है।’’
‘‘ज्यादा मत बोलो नेत्रा।’’
‘‘ठीक ही कह रही हूं प्यारे भैया।’’
‘‘नेत्रा।’’ मैं चिल्लाया।
‘‘भैया।’’ नेत्रा आंखें घुमाते हुए बोली।
‘‘तुम सिर पर चढ़ती जा रही हो। तुम्हें पता होना चाहिए कि तुम्हारा बड़ा भाई हूं। भाई का सम्मान करना सीखो।’’
‘‘ओह, मैं भूल गयी थी। पर तुम्हारी नाक.......।’’ नेत्रा मुझे चिढ़ाती हुई दूसरे कमरे में दौड़ गयी। मैं सोफे पर खिसयाया सा बैठा रहा।
‘‘मां ने इसे बिगाड़ कर रखा है। पिताजी कुछ कहते नहीं।’’ मैंने खुद से कहा।
‘‘भैया दूध गरम कर दो।’’ नेत्रा की आवाज आयी।
तभी मैं रसोई की ओर दौड़ा। मां आ गयी और दूध गरम नहीं हुआ तो खैर नहीं। टी.वी. को आन छोड़ आया। उधर दूध गरम हो रहा था, इधर मैं रिमोट लेकर टी.वी. का आनंद ले रहा था।
नेत्रा फिर चिल्लायी,‘‘भैया टी.वी. मत देखते रह जाना। कहीं दूध उबल न जाए।’’
मैंने उसकी कही अनसुनी कर दी। कुछ ही देर में मां आ गयी। मैं तब भी टी.वी. पर नजरें गढ़ाये था। मानो खो गया था मैं कहीं।
‘‘नालायक, एक भी काम ढंग से नहीं करता।’’ मां मेरे कान पर चिल्लायी।
मां ने पीछे से मेरा कान पकड़ कर कहा,‘‘तू कब सुधरेगा। दूध आखिर उबाल की दिया। यहां बैठकर टी.वी. देख रहे हैं साहब।’’
टी.वी. शो का आनंद मां की डांट ने पल भर में स्वाह कर दिया। मुझे बिखरा दूध पोछे से साफ करना पड़ा। लगातार तीन दिन से मेरे दिन खराब थे।
उसी वक्त मेरी दादी आ गयीं। नेत्रा ने उनसे कहा,‘‘देखो, भैया रोज कोई न कोई ऊटपटांग हरकत कर रहे हैं। आज दूध उबाल बैठे।’’
‘‘बच्चा है।’’ दादी ने मुस्कराकर कहा।
मां बोली,‘‘आप नहीं जानती अम्मा, इसकी नासमझी भरी हरकतों में तंग आ चुकी।’’ मां ने मेरी नाक की तरफ देखा और बोलीं,‘‘यह देखो, फिर किसी टीचर से मार खा कर आया है।’’
‘‘कोई बात नहीं जानकी। बच्चे ज्यादा दिन ऐसे नहीं करते।’’ दादी ने मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए कहा।
‘‘मैं इसे गांव ले जाऊंगी। तू एक महीने आराम से रहना।’’ दादी बोली। ‘‘क्यों बेटा चलेगा न।’’
मैं दादी से लिपट गया। दादी मुझे बहुत लगाव करती थीं। नेत्रा से उन्होंने ज्यादा बात नहीं की। इसका कारण यह भी रहा कि मां ने नेत्रा को कभी खुद से अलग नहीं होने दिया और मुझे दादी के साथ गांव जाने से मना नहीं किया।
शाम को विनय हमारे घर आया। उसने मुझे अपना नया बल्ला दिखाया। मेरी आंखें बड़ी हो गयीं। मैंने विनय से कहा,‘‘कितने का है?’’
विनय बोला,‘‘पैसों की फिक्र मत कर। मामा आये थे। मैंने जिद की, दिलवा दिया। वैसे उतना सस्ता भी नहीं है। चल खेलने चलते हैं।’’
मैंने गेंद को बल्ले से उछालना शुरु किया।
‘‘बल्ला काफी अच्छा है। वजन काफी कम है।’’ मैं बोला।
‘‘आंटी से मुझे भी पिटवायेगा क्या?’’ विनय ने कहा।
‘‘रुक, कुछ गेदें और उछाल कर देखूं।’’ मैंने कहा।
अचानक गेंद बल्ले से छिटक कर मेज पर रखे कांच के फूलदान से जा टकराई।
मेरे मुंह से निकल पड़ा,‘‘मर गए।’’
फूलदान फर्श पर गिरकर टुकड़े-टुकड़े हो गया। विनय मेरी मां के गुस्से को जानता था। वह तुरंत बल्ला मुझसे छीनकर वहां से रफूचक्कर हो गया। मैंने तेजी से टुकड़ों को इकट्ठा किया और एक पोलीथिन में भरकर खिड़की से बाहर फेंक दिया। मैं निश्चिंत था कि किसी को पता नहीं चला कि फूलदान का क्या हुआ? तभी मां दौड़ी आयी और मुझसे पूछा,‘‘कांच टूटने की आवाज कहां से आयी थी? और विनय दौड़कर घर से बाहर क्यों भागा?’’
मैं चुप्पी साध गया। तभी मां को कांच के टुकड़े मेज पर गिरे दिख गये। जल्दी में मैं मेज साफ करनी भूल गया था। मां का पारा गर्म हो गया।
‘‘फूलदान कहां है?’’ मां चिल्लाई।
‘‘टूट गया।’’ मैं मरी आवाज में बोला।
‘‘ओह! क्या किया तूने?’’
‘‘धोखे से.........हो गया।’’
‘‘धोखा, तुझे उसकी कीमत पता थी? कितना महंगा था वह। कहता है, धोखा हो गया।’’ मां का गुस्सा बढ़ता जा रहा था। उनके हाथ में झाड़ू थी। उन्होंने मेरे दो-तीन झाड़ू जड़ दीं। मैं रोने लगा।
शोर सुनकर दादी आ गयीं। मेरे पास आकर खड़ी हो गयीं और बोली,‘‘जानकी कांच ही तो टूटा है। बेटे से कीमती था क्या?’’
मां ने कहा,‘‘अम्मा, इसने जानकर तोड़ा है। इसे आज मैं कड़ी सजा देकर रहंूगी।’’
‘‘बच्चों से चीजें नहीं टूटेंगी तो क्या हम तोड़ेंगे। अरे, बच्चे छोटी-छोटी गलतियां कर देते हैं। उन्हें नजरअंदाज करना सीखो। मारपीट से क्या फायदा? समझाकर देखो तो सही।’’ दादी बोली।
‘‘समझा ही रही हूं। पूरी जिंदगी कहीं समझाती न रह जाऊं इसे। समझाने से सुधर गया होता, तो आज कांच न टूटता अम्मा।’’ मां बोली। ‘‘जब देखो, तब नुक्सान ही करता रहता है। क्या भगवान आसमान से आकर इसे समझाए?’’
मुझे दादी पुचकार रही थी। मैं अभी तक आंसू बहा रहा था। मुझे दुख इस बात का हो रहा था कि मैं ही क्यों नुक्सान की जड़ बन रहा हूं। शायद मेरी किस्मत मेरा साथ नहीं दे रही। लगता है मैं बद-किस्मती हो गया था, लेकिन कुछ समय के लिए। दादी मुझे गांव ले गयीं। किताबों को मैं साथ नहीं ले जाना चाह रहा था, मगर मां के कहने को टालना नामुमकिन था। मैं सोच रहा था कि मां मुझे अपने से दूर रखकर सुकून से रह सकेगी और पिताजी भी।
गांव में तीन दिन बीत गये, पता ही नहीं चला। मां का दोपहर फोन आया, बोलीं,‘‘तेरी याद आ रही है।’’ मां की आवाज भर्रायी थी। मैं मां को कठोर हृदय समझता था, लेकिन मां के हृदय की वेदना समझने में युग बीत जाएं, वह भी कम हैं। जितने दिन मैं गांव में रहा, मां मुझे रोज फोन करतीं। शायद मां का प्यार ऐसा ही होता है।
-harminder singh
अगले अंक में पढ़िये:
दुलारी मौंसी
हरमिंदर जी आपका किस्सा ऐसा लगा जैसे अपने ही घर की दिनचर्या पढ़ रहा हूँ ! मगर एक बात कहूँ, ममत्व और बचपने की शरारत का जहां अपना अलग महत्व है, वही कुछ-कुछ यह भी सत्य है कि कभी -कभी बेटा नलायक भी इसी तरह बनता है !
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