समंदर गहरा है और पानी खारा। यहां मछलियां नहीं मचलतीं क्योंकि वक्त ने इसे अभिशापित कर दिया। मुझे मालूम नहीं मैं कितना हंसा हूं, लेकिन इस समुद्र में नहाया नहीं। लगता है स्नान का समय करीब है क्योंकि मुझे इसका एहसास हो रहा है।
मेरी मर्जी आजतक नहीं चली। किसी ने सुनी नहीं मेरी। हालात पहले भी वही थे, आज भी वैसे ही हैं। फर्क पड़ा है तो उन्हें झेलने की क्षमता का। नहीं झेल पा रहा इस दर्द को मैं। यह दर्द जितना अपनों ने दिया है, लगभग उतना ही दर्द खुद का शरीर दे रहा है।
चाहता हूं जल्द विदाई हो। आखिर बुढ़ापे में विवशता के सिवा मुझे मिला क्या? अंगुलियों की उभरी हुई नसों को देखता हूं तो पीड़ा होती है। खुद से कहता हूं कि अच्छा होता मैं जन्म ही न लेता। न होती यह दशा, न दर्द का साथ होता, न अपनों की झिड़क, न परायों सा व्यवहार।
क्या जीवन का सिला मिला। कुछ भी तो नहीं। मैं वाकई डर कर सिमट जाता हूं। कई दिनों से पता नहीं क्यों भयभीत सा रहने लगा हूं। अंधेरा पहले भी डराता था, अब खुद से डर जाता हूं।
‘जल्द आओ मुझे मुक्ति दो इस शरीर से’ - यही दुआ मनाता हूं। दुआ करता हूं भगवान से कि मुझे माफी दो किये पापों की जिनका प्रायश्चित मैं न कर सका। शायद बुढ़ापा इसलिए ही है ताकि इंसान को प्रायश्चित का मौका मिल सके।
जितना स्वाद जवानी ने लिया उतना कष्ट बुढ़ापे में भोगना पड़ता है। ऐसा मैंने कई जगह सुना है। अच्छे कर्म हम कितने ही क्यों न करते हों, गलतियों की गुंजाइश रह ही जाती है।
-harminder singh
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