बूढ़ी काकी कहती है-‘‘बुढ़ापा तो आना ही है। सच का सामना करने से भय कैसा? क्यों हम घबराते हैं आने वाले समय से जो सच्चाई है जिसे झुठलाना नामुमकिन है।’’.

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Saturday, November 14, 2009

घर से स्कूल


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नेत्रा को मैंने कई बार कहा कि इतना पढ़ाई न किया करे। पर वह मेरी ओर ध्यान ही नहीं देती। उसे एक ही धुन सवार है,‘सबसे अधिक नंबर आने चाहिएं।’ हर बार वह क्लास में पहला स्थान प्राप्त करती है, तो बहुत खुश होती है।

  मैंने उसे समझाया,‘अभी चश्मे लगे हैं। बाद में बैठे रहना अंधी बनकर।’

  वह स्कूल से आते ही होमवर्क करने बैठ जाती है। बेचारी लगती है वह मुझे।

सुबह से लगातार कई घंटे अपना दिमाग थका देती है। उसमें दो-तीन घंटें और जोड़ देती है।

  मैंने उससे कहा,‘इतना पढ़ोगी तो पागल हो जाओगी।’

  ‘हो जाने दो।’ वह बोली। ‘बिना पढ़े से पागल भली।’

  उसकी बातों का मुझे बुरा नहीं लगता, लेकिन कभी-कभी झुंझला जाता हूं।

आखिर मैं उसका इकलौता भाई और वह मेरी इकलौती बहन जो ठहरी।

  ‘मेरा मानो, थोड़ा आराम कर लो। होमवर्क बाद में कर लेना।’ मैंने कहा।


मेरी बहन नेत्रा




  ‘भाई मैं ऐसा नहीं कर सकती।’ नेत्रा ने कहा। उसका ध्यान पेंसिल छीलने में था। ‘बिना होमवर्क करे मुझे चैन नहीं आता। काम खत्म करने के बाद फ़्री हो जाती हूं। फिर सहेलियों संग खेलना भी तो है।’

  ‘तुम नहीं समझोगी। मेरी तरह बनो। रिलैक्स वाला बंदा। उतना ही चलता हूं, जितनी जरुरत है।’ मैं बोला।

  ‘मुझे नहीं बनना रिलैक्स वाली बंदी।’ उसने किताब का अगला पन्ना पलटा। ‘तुम्हारी तरह एक क्लास में दो साल नहीं गुजारने मुझे। तुम ही रिलैक्स करो उसी क्लास में। चौथी के फेलियर। देखना आठवीं से पहले मैं तुम्हें पछाड़ दूंगी।’

  मेरी बोलती बंद हो गयी। नेत्रा ने मुझे मेरी औकात याद दिला दी। उसकी तरफ मैंने पीठ कर ली और कुछ सोचने लगा। नेत्रा तीसरी क्लास में है, मैं चौथी में। मुझे डर लग रहा है कि कहीं इस बार लुढ़क गया तो माता-पिता घर से ही न निकाल दें। उफ! तब क्या होगा? इसलिए मैंने अपना बस्ता खोला और गणित की किताब निकाली। गर्दन घुमाकर नेत्रा को देखा। काम में वह इतनी तल्लीन थी कि उसे पता नहीं लगा कि एक मधुमक्खी उसके सिर पर बैठी है। मैंने उसे बिना बताए, फुर्ती से किताब की सहायता ली और मधुमक्खी को उड़ा दिया। तभी नेत्रा चीख पड़ी।

  ‘क्या किया भैया? किताब क्यों मारी?’ वह झल्लाई।

  मैंने बताया कि मधुमक्खी उसके बालों पर थी। उसे यकीन नहीं हुआ।

  उसने चेहरा लाल कर कहा,‘झूठ बोलते हो। मुझे पढ़ने नहीं देना चाहते।’

  ‘ऐसा नहीं है नेत्रा। मैं तो मक्खी को हटा रहा था। धोखे से किताब लग गयी होगी।’ मैंने सफाई देनी चाहिए।
  वह फिर किताब में खो गयी। उसने मेरी तरफ ध्यान नहीं दिया। उसकी यह विशेषता मुझे अच्छी लगती है कि वह जब पढ़ रही होती है, तब ज्यादा बोलती नहीं। एक-आध बार झगड़ चुकी है, बस।

  उसकी सहेली पिंकी मुझसे चिढ़ती है। मैं कई बार पिंकी की लंबी चोटी खींच चुका हूं। उसी तरह स्मिता जो पिंकी और नेत्रा की सहेली, जो बिल्कुल काले रंग की है, जो चपटी नाक की है और जो लड़कों जैसे बाल रखती है, उसे मैं ‘सैम’ कहकर चिढ़ाता हूं।

  दरअसल ‘सैम’ एक पात्र है जो टी.वी. पर दिखता है। वह कभी लड़की का भेष बना लेता है, कभी बूढ़ा हो जाता है। उसका रंग और स्मिता का रंग तथा नाक एक-जैसे हैं। स्मिता एक बार नेत्रा के साथ घर के बाहर खड़ी थी। मैंने चुपके से उसपर पानी की बोतल उडेल दी और छिप गया। यह किस्से काफी पुराने हैं- यही कोई दो साल पहले के। उस दिन पिताजी ने मुझे दो चाटें लगा दिये थे। अगले दिन जब मैं स्कूल गया तो स्मिता ने मेरा गाल देखा और खिल्ली उड़ायी, बोली,‘गाल है कि टमाटर।’

  खैर, काफी देर हो चुकी थी। मेरा मन गणित के सवाल करते-करते ऊब गया था। इस विषय से मुझे पहली कक्षा से ही चिढ़ हो गयी थी। वास्तव में उस समय सवाल आकार में बड़े होने लगे थे। गणित की टीचर मुझे कभी भाये नहीं। इसमें बहुत हद तक सच्चाई है। पहाड़े, उफ! बड़ा सिरदर्द है।

  मेरी बहन ने मुझसे पूछा,‘तुम इतनी देर से गणित की किताब खोलकर बैठे हो। हल कुछ कर नहीं रहे।’

   ‘जब तुम चौथी क्लास में आओगी, पता लग जायेगा।’ मैं बोला। ‘तीसरी क्लास की भी कोई पढ़ाई है। छोटे-छोटे मामूली सवाल। चुटकियों का खेल है।’

  नेत्रा लिखाई करने लगी। टीचर ने मुझे पहाड़े याद करने के लिए दिये थे। क्लास में जब पहाड़े सुनाने की याद आती, मुझे सांप सूंघ जाता। दो का पहाड़ा याद करने में मुझे काफी मशक्कत करनी पड़ी थी।

  तभी नेत्रा मुझसे बोली,‘भाई, मुझसे पहाड़े सुन लो।’

  मैंने यूं ही कह दिया,‘चलो सुनाओ।’

  उसने पहले दो का पहाड़ा सुनाया। मैं हां-हां-हूं-हूं करता रहा। तीन का पहाड़ा सुनाया। मैंने फिर हां-हां-हूं-हूं किया। नेत्रा को लग रहा था मैं बड़े गौर से सुन रहा हूं। उसे पता नहीं था कि आज मैं क्लास में इसलिए बैंच पर खड़ा किया गया था क्योंकि मुझे तीन का पहाड़ा याद नहीं था। बहुत ग्लानि का अनुभव किया था मैंने। सारी क्लास मुझपर हंसी थी। यहां तक की विनय जो मेरा सबसे अच्छा मित्र है, भी अपनी हंसी न रोक पाया। दूसरी-तीसरी क्लास के बालकों को पांच तक पहाड़े याद होते हैं। मेरा चौथी क्लास में दूसरा साल है।

  ‘भाई पांच का पहाड़ा पहले सुन लो।’ नेत्रा बोली।

  ‘मुझे नींद आ रही है।’ मैं बोला। ‘तुम्हें मालूम नहीं, कितना काम कर चुका हूं।’

  ‘थोड़ी देर ही तो बात है।’ नेत्रा ने कहा।

  मैं तकिया लगाकर लेट गया। सोने का बहाना करने लगा। मुंह पर एक कपड़ा डाल लिया।

  नेत्रा ने मेरे पैर पर जोर से हाथ मारा और बड़बड़ाती हुई कमरे से बाहर चली गयी। उसके जाते ही मैं खुद से बोला,‘बला टली।’

  पहाड़े की किताब नेत्रा के बस्ते से निकाली और याद करने बैठ गया।

-harminder singh

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...ऐसे थे मुंशी जी

..शिक्षा के क्षेत्र में अतुलनीय काम था मुंशी जी का

...अपने अंतिम दिनों में
तब एहसास होगा कि बुढ़ापा क्या होता है?

सम्मान के हकदार

नेत्र सिंह

रामकली जी

दादी गौरजां

कल्याणी-एक प्रेम कहानी मेरा स्कूल बुढ़ापा

....भाग-1....भाग-2
सीधी बात नो बकवास

बहुत कुछ बदल गया, पर बदले नहीं लोग

गुरु ऐसे ही होते हैं
युवती से शादी का हश्र भुगत रहा है वृद्ध

बुढ़ापे के आंसू

बूढ़ा शरीर हुआ है इंसान नहीं

बुढ़ापा छुटकारा चाहता है

खोई यादों को वापिस लाने की चाह

बातों बातों में रिश्ते-नाते बुढ़ापा
ऐसा क्या है जीवन में?

अनदेखा अनजाना सा

कुछ समय का अनुभव

ठिठुरन और मैं

राज पिछले जन्म का
क्योंकि तुम खुश हो तो मैं खुश हूं

कहानी की शुरुआत फिर होगी

करीब हैं, पर दूर हैं

पापा की प्यारी बेटी

छली जाती हैं बेटियां

मां ऐसी ही होती है
एक उम्मीद के साथ जीता हूं मैं

कुछ नमी अभी बाकी है

अपनेपन की तलाश

टूटी बिखरी यादें

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जानवर कितना भी चालाक क्यों न हो, इंसान उसे काबू में कर ही लेता है। रघु ने स्कूल से कहीं एक रस्सी तलाश कर ली. उसने रस्सी का एक फंदा बना लिया

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गरीबदास उन्हीं की श्रेणी में आते हैं जिन्हें अपने पराये कर देते हैं और थकी हड्डियों को सहारा देने के बजाय उल्टे उनसे सहारे की उम्मीद करते हैं
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दोनों बूढ़े हैं, फिर भी हौंसला रखते हैं आगे जीने का। वे एक सुर में कहते हैं,‘‘अगला लोक किसने देखा। जीना तो यहां ही है।’’
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इक दिन बिक जायेगा माटी के मोल
प्रताप महेन्द्र सिंह कहते हैं- ''लाचारी और विवशता के सिवाय कुछ नहीं है बुढ़ापा. यह ऐसा पड़ाव है जब मर्जी अपनी नहीं रहती। रुठ कर मनाने वाला कोई नहीं।'' एक पुरानी फिल्म के गीत के शब्द वे कहते हैं-‘‘इक दिन बिक जायेगा, माटी के मोल, जग में रह जायेंगे, प्यारे तेरे बोल।’’

...............कहानी
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किशना- एक बूढ़े की कहानी
(भाग-1)..................(भाग-2)
ये भी कोई जिंदगी है
बृजघाट के घाट पर अनेकों साधु-संतों के आश्रम हैं। यहां बहुत से बूढ़े आपको किसी आस में बैठे मिल जायेंगे। इनकी आंखें थकी हुयी हैं, येजर्जर काया वाले हैं, किसी की प्रेरणा नहीं बने, हां, इन्हें लोग दया दृष्टि से जरुर देखते हैं

अपने याद आते हैं
राजाराम जी घर से दूर रह रहे हैं। उन्होंने कई साल पहले घर को अलविदा कह दिया है। लेकिन अपनों की दूरी अब कहीं न कहीं परेशान करती है, बिल्कुल भीतर से

कविता.../....हरमिन्दर सिंह .
कभी मोम पिघला था यहां
इस बहाने खुद से बातें हो जायेंगी
विदाई बड़ी दुखदायी
आखिर कितना भीगता हूं मैं
प्यास अभी मिटी नहीं
पता नहीं क्यों?
बेहाल बागवां

यही बुढापा है, सच्चाई है
विदा, अलविदा!
अब कहां गई?
अंतिम पल
खत्म जहां किनारा है
तन्हाई के प्याले
ये मेरी दुनिया है
वहां भी अकेली है वह
जन्म हुआ शिशु का
गरमी
जीवन और मरण
कोई दुखी न हो
यूं ही चलते-चलते
मैं दीवाली देखना चाहता हूं
दीवाली पर दिवाला
जा रहा हूं मैं, वापस न आने के लिए
बुढ़ापा सामने खड़ा पूछ रहा
मगर चुप हूं मैं
क्षोभ
बारिश को करीब से देखा मैंने
बुढ़ापा सामने खड़ा है, अपना लो
मन की पीड़ा
काली छाया

तब जन्म गीत का होता है -रेखा सिंह
भगवान मेरे, क्या जमाना आया है -शुभांगी
वृद्ध इंसान हूं मैं-शुभांगी
मां ऐसी ही होती है -ज्ञानेंद्र सिंह
खामोशी-लाचारी-ज्ञानेंद्र सिंह
उम्र के पड़ाव -बलराम गुर्जर
मैं गरीबों को सलाम करता हूं -फ़ुरखान शाह
दैनिक हिन्दुस्तान और वेबदुनिया में वृद्धग्राम
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कहीं आप बूढ़े तो नहीं हो रहे
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