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‘जिंदगी खत्म होते देर नहीं लगती।’ मैं काकी के सिराहाने बैठा कहने लगा।
काकी मुस्कराई और बोली,‘जीवन पानी का बुलबुला ही तो है। मामूली तिनके से टकराकर कब नष्ट हो जाये।’
‘जीवन की धारा को कोई समझ नहीं पाया। यह पहेली ऐसी है जो कभी न सुलझ पाये। इसके विषय में ऊपरी तौर पर विमर्श करने पर यह नहीं लगता कि इसमें रहस्य छिपे हैं। मगर जीवन इतना गहरा है कि उसकी गहराई के विषय में सोचना मुश्किल है। इंसान जीवन के पानी में गोते लगाता है, किनारे की तलाश करता है। इस छोर को पाने की कोशिश रहती है, कभी उस छोर तक पहुंचने की कल्पना करता है। न छोर मिलता, न किनारा। इंसान केवल गोते लगाता रह जाता है। जीवन संघर्ष में गुजर जाता है।’
मैंने काकी को झपकी लेते पहली बार देखा। उसकी आंखें बंद हो गयीं। मैंने काकी को जगाया। वह बोली,‘ये नींद भी थक कर आती है। जितना कठिन परिश्रम, उतनी बेहतर नींद। जीवन में उतार-चढ़ाव, कठिनाईयां, मुश्किल रास्ते आते हैं। हम एक के बाद एक बढ़ते हैं। संघर्ष की दास्तान मनुष्य लिखता है। पैरों को घिसकर बहुत कुछ आसान बनता है। शरीर को थकाकर पथरीली राहों में हरियाली उग जाती है। पसीने की खारी बूंदों की कीमत लहू के कतरे से की जा सकती है। उधड़ी शक्लों को पहचानने की जुर्रत जीवन में की है, तो सुन्दरता-शौर्यता को लेकर इंसान जीवन में चला है। रस संसार को रंगीन बनाते हैं। बिना रस के जीवन बेकार है। बुढ़ापे में सारे रस छिन चुके होते हैं- रसहीन जीवन के साथ अंतिम यात्रा की तैयारी। इतना कुछ पाकर भी महसूस होता है जैसे कटोरा खाली रह गया। जीवन का कटोरा भरता नहीं। हाथ पहले खाली था, अब भी खाली है और अलविदा भी खाली हाथ से कहा जायेगा। कपड़ों के दिखावे पर मत जाईये, न ही शरीर के। क्या तन सजावट करके हम अपना शरीर सजा सकते हैं? जितने समय वस्त्रों की जगमगाहट है, उतने वक्त शरीर भी जगमगायेगा। फिर नये वस्त्र धारण करते जायेंगे, लेकिन देह तो पुरानी की पुरानी रहेगी, उसका क्या? वही हडिड्यों का पिंजर जिसपर मांस उभर आया, वही ढांचा जिसपर मांस को खाल की परत छिपाती है।’’
‘‘मैं इतना कहती हूं कि इंसान भ्रम का जीवन न जिये। सच्चाई से दो-चार होने में बुराई नहीं। सामना एक दिन होता है। इसलिए मैंने तसल्ली पहले कर ली। अब इस नाजुक समय में इतनी परेशानी नहीं लगती। जिंदगी को जीना सीखना होगा। बुढ़ापे में हताशा होती है। व्यक्ति को समझना चाहिए कि वक्त को काटने का बहाना चाहिए। जीवन को बोझ समझकर खुद को व्यथित करना है। कोशिशें बचपन में ही होती हैं, यह सही नहीं। कोशिशें जीवन में की जाती हैं, यह सही नहीं। कोशिशें बुढ़ापे में भी होती हैं, यह गलत नहीं। बुढ़ापा बिल्कुल बोझिल नहीं। सफर कितना भी मुश्किल क्यों न हो, एक मुस्कराहट उसे आसान बना देती है। जिंदगी का यह अंतिम सफर अबतक के सफर का सार है। शायद अधिक कठिन भी। ऊपर से थकी देह, जो सरक कर चलती है, मगर हारता नहीं है तो हौंसला। हां, बुढ़ापा टिका है हौंसले पर, एक वादे पर कि जीवन अभी हारा नहीं, वह पीछे हटेगा नहीं।’’
-harminder singh
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