बूढ़ी काकी कहती है-‘‘बुढ़ापा तो आना ही है। सच का सामना करने से भय कैसा? क्यों हम घबराते हैं आने वाले समय से जो सच्चाई है जिसे झुठलाना नामुमकिन है।’’.

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Monday, August 24, 2009

जिंदगी हर बार हार जाती है









बूढ़ी काकी शांत है। उसे लगता है उसकी सांसें कमजोर पड़ने में समय रहा नहीं। वह कहती है,‘मैं कभी-कभी इस बात को गहराई से सोचती हूं कि हर बार जिंदगी हारती क्यों है?’

काकी ने मुझे भी सोच में डाल दिया। प्रश्न अगर गंभीर हो तो सोचना बहुत पड़ता है। काकी ने यह काम बहुत किया है। मैंने काकी से कहा,‘फिर तो जीवन की जीत कभी होगी ही नहीं। वह हर बार हारता ही रहेगा।’

काकी ने बोलना शुरु किया,‘मृत्यु से भला पार कैसे पायी जा सकती है। मौत अजेय है। उसका आगमन निश्चित है। हमें मालूम है, वह आयेगी और ऐसा होता ही है। जिंदगी और मौत की जंग कमाल की होती है। दोनों को पाला छूने की जल्दी होती है। एक तरफ रोशनी की चमक होती है, तो दूसरी ओर घना अंधेरा। अंधेरा मौत की चांदनी होता है जिसमें सब कुछ थमा सा और बिल्कुल शांत होता है। हम हमेशा रोशनी का हाथ थामना चाहेंगे। अंधेरे से हर किसी को डर लगता है।’

‘जब मैं छोटी थी, रात में घबराती थी। सहमना लड़की की आदत होती है और मैं छोटी बच्ची ही थी। मां सीने से चिपका कर कहती कि काहे का डर, वह कुछ होता नहीं। फिर भी मैं डरती थी। आज मैं अकेली हूं। तब भी अकेली थी। हम केवल बंधनों से घिरे होते हैं, मगर इंसान सदा अकेला ही रहता है, जीता है और मरता है। अंतिम क्षण कितना मजबूत धागा ही क्यों न हो, उसे टूटना ही होता है। क्योंकि यही सच है।’

मैंने काकी को बीच में रोक कर कहा,‘फिर अंधकार ही सच है।’

काकी बोली,‘देखो, अंधेरा मिटाने को प्रकाश का सहारा लिया जाता है। वह हमेशा से रहा है। ज्योति ने उसे केवल कम करने की कोशिश की है। फिर हम जानते हैं कि बाती एक दिन बुझती भी है। जिंदगी का उजाला छिनते देर नहीं लगती। आज पलक खुली है, सब दिख रहा है। कुछ पलों में सब बदल जायेगा। हम तब विदा ले चुके होंगे।’

‘मरने से पहले यादों की पूरी किताब इतनी तेजी से खुलती है कि हम केवल देखते रह जाते हैं। यह सब इतनी जल्दी हो जाता है कि सोच भी पशोपेश में पड़ जाती है। जिंदगी कितनी भी शानदार क्यों न रही हो, उसके सिमटने की बारी आती है। वह थके भी न, तब भी हार जाती है। या यों कहें कि जिंदगी जीत कर भी हार जाती है।’

‘जीवन को अधिकार कभी मिला नहीं कि वह विजेता बनेगा। उसका भाग्य उसके हाथ नहीं। वह केवल धोखा मालूम पड़ता है। इसे छल ही कहा जायेगा कि जो चीज हंसती है, कल उसकी कोई छाया तक न होगी। जिंदगी को समझना आसान नहीं। मैंने शब्दों का हेर-फेर किया। उन्हें तोड़ा-जोड़ा, लेकिन जीवन का हिसाब न लगा पाई। वाकई हम शून्य से आगे बढ़ ही नहीं पायेंगे। शून्य से शुरु और शून्य पर खत्म- कितनी मजेदार पहेली है न।’

मैंने हंसकर कहा,‘हां, सच है। शून्य से शून्य तक। बहुत कुछ, फिर भी कुछ नहीं।’

-harminder singh

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Sunday, August 23, 2009

जेल का संसार

जेल की रोटियां उतनी बुरी नहीं लगतीं। आदतें इंसान को क्या नहीं बना देतीं। आखिर मैं भी इंसान हूं। मैं दाल-रोटी को आसानी से खा सकता हूं। इतने दिनों से खाते-खाते आदत जो पड़ गयी है। दूसरों की डांट का मुझे बुरा नहीं लगता। गाली-गलौच में रहने की आदत भी हो गयी है।

जेल का संसार बाहर से एकदम शांत लगता है, लेकिन भीतर इसमें उथलपुथल भरी है। इसका कारण भी लोग हैं और निवारण भी। यह दुनिया बाहरी दुनिया से अलग जरुर है, लेकिन यहां लोग बसतें हैं जिनका मन धीरे-धीरे मर रहे होते हैं। कोई आप पर तरस नहीं खाता क्योंकि यह आपकी नियति बन चुकी है। भावनाएं किसी मोल की नहीं। भावनाओं की जहां कदर नहीं की जाती वहां इंसानियत की भी कोई कीमत नहीं।

इंसान अच्छे होते हैं, उनके विचार उन्हें बुरा और भला बनाते हैं। मैं अपनी छोटी उमz में दो दुनिया के नजारे देख चुका हूं। एक दुनिया घटती-बढ़ती, दौड़ती-चलती दिखाई देती है, दुख-सुख के साथ। वहां सवेरा चहकता हुआ होता है, एकदम आजाद। यहां सवेरा जरुर होता है, लेकिन उसकी छटा में ताजगी नहीं है। एक ऐसा सवेरा जो आजाद बिल्कुल नहीं। यह कैदखाने की अपनी सुबह होती है। यहां के पंछी कैद हैं और यहां रहकर लगता है, यहीं के होकर रह गए हैं। उड़ने की आकांक्षाओं के पंख कतरे जा चुके हैं। उन्हें जोड़ना मुश्किल लगता है। उदासी के सिवा कुछ नहीं है यहां। नीरसता हर कैदी की मित्र लगती है। चेहरे रौनक लिए नहीं हैं। शायद रौनक धूल की तरह सिमट गयी है। बुझे हुए चेहरों का देश लगती है जेलें। आंखों की थकावट समय-दर-समय बढ़ती जाती है। उनकी चपलता एकदम शांत हो गयी है।

वक्त को पकड़ने की हम कोशिश करते हैं। वह है कि सरपट दौड़े जाता है। इतनी तेज की कभी-कभी यह लगता है कि अरे, यह क्या हुआ? हम जानते हैं कि वक्त सिमटता जाता है और आगे बढ़ता जाता है। धीरे-धीरे और तेज-तेज, लेकिन समय का पहिया रुकता नहीं। मुझे मालूम है कि मेरी सुबह कभी आजाद होगी। मैं यह भी मानता हूं कि ऐसा केवल भविष्य में हो सकता है। वर्तमान मेरे साथ है, भूत तो कब का पीछे छूट गया। वह हर पल जो बीत गया अब हमारा उसपर हक जताने का आधार ही नहीं बनता। इस पल पर हम भरोसा कर सकते हैं जबकि भविष्य में कुछ भी हो सकता है, यह हमें मालूम नहीं।

-harminder singh

Thursday, August 20, 2009

मगर चुप हूं मैं

भीगी पलकों का गीलापन,
चुभती यादों के कांटे,
मगर चुप हूं मैं, चुप,

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गरम बूंदों को भरकर,
आकाश सूना लग रहा,
बेचारा पौधा सूख गया,

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सूखी रेत पिघल चुकी,
तिनका-तिनका बह गया,
मगर चुप हूं मैं, चुप।

-harminder singh

Monday, August 17, 2009

बारिश को करीब से देखा मैंने

बारिश को करीब से देखा मैंने,
बूंदों को इठलाते देखा मैंने,

इतरा रहा था कोई,
बूंदों को समेट कर,

प्यासी धरती को तृप्त होते देखा मैंने,
बारिश को करीब से देखा मैंने।

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बुलबुलों को फुदकते देखा मैंने,
गीली होती हरियाली को देखा मैंने,

फड़फड़ा रहा था कोई,
भीगता हुआ मचल कर,

चोंच से अमृत को भरते देखा मैंने,
बारिश को करीब से देखा मैंने।

-harminder singh

Sunday, August 16, 2009

बुढ़ापा कितना आजाद

बुढ़ापे की अवस्था दुश्वारियों से भरी है। हम आजादी की बात बड़े फक्र से करते हैं। बच्चों की आजादी, युवाओं की आजादी। बुढ़ापे के बारे में बिल्कुल सोचते ही नहीं। यह नहीं जानने की कोशिश करते कि हमारे बुजुर्ग किस तरह जी रहे हैं। यह जानने की कोशिश नहीं करते कि बूढ़ी हडिडयां कितना और थकेंगी। और तो और यह हमने महसूस नहीं किया कि बुढ़ापा कितना सब्र करता जा रहा है। हमने इसलिए ऐसा नहीं किया क्योंकि हम अपनी आजादी के विषय में ही डूबे हैं। उनकी फ़िक्र से लाभ क्या जिनकी जिंदगी जर्जरता में सिमटी है।

बूढ़े अपनी कहानी कहने से डरते हैं क्योंकि उनकी कोई सुनता नहीं। भला ‘बूढ़ी बातों’ को युवा क्यों सुनना चाहेंगे? युवाओं को लगता है कि उनमें सक्षमता है। उन्हें किसी के उपदेशों की जरुरत नहीं। उनके बाजुओं में इतनी ऊर्जा बहती है कि वे अपने बल देश बदलने का हौंसला रखते हैं। युवा वर्ग को नहीं अच्छा लगता जब उन्हें कोई टोके। फिर बुजुर्गों से बचने की कोशिश तो हर कोई करता है। उनकी बातें जो लोगों को पुरानी लगती हैं- पुरानी दुनिया के, पुराने ख्याल।

एक अलग दुनिया के वासी हो गये हैं दादा-दादी, नाना नानी। अकेले कोने में जगह दे दी गई है उन्हें। ‘धरती पर बोझ हैं’- ऐसा बहुत कुपुत्रों के मुख से निकलता है। उनकी पत्नियां तो बुजुर्गों को घर में न टिकने देने का वक्त लेकर आती हैं। मगर बूढ़ी आंखें धुंधली होकर भी अपनों से मोह की आस लिए हैं। उन्हें वह ताने बुरे नहीं लगते। उन्हें वह घूरती नजरें बर्दाश्त करने की आदत पड़ गयी। वे अब घुटन को खामोशी से सहन कर जाते हैं। उन्होंने आस खो दी चमकीले सवेरे की। हालात से समझौता कर अपनों के कैदखाने के जर्जर पंछी बनना उन्हें मंजूर है। उन्हें पता है उनका शरीर जबाव दे गया। वे पशोपेश में हैं कि अपनों से लड़ें या खुद से संघर्ष करें।

मामूली दुख से हम तिलमिला जाते हैं। पर बुढ़ापा तो अंतिम सांस तक जूझता है उस दर्द को जो जीवन उसे दे रहा है। आखिरी समय की त्रासदी है बुढ़ापा। वे खुशनसीब हैं जिनका ‘बुढ़ापा सुधर’ गया, लेकिन हडिडयों से चमड़ी को चिकपने से वे भी न बचा सके।

वृद्धाश्रम खुले हैं, संस्थायें चल रही हैं, पर बूढ़ों की सूनी जिंदगी में हरियाली नहीं आ रही। बुढ़ापा एक मजाक बना दिया गया है ऐसे स्थानों पर। धंधेबाज सिर्फ धंधा करना जानते हैं, चाहें सूखी हडिडयों को ही क्यों न निचोड़ा जाए। एक कैदखाने से निकलकर दूसरे में शिफ्ट करना- ऐसे हो चुके हैं वृद्धाश्रम।

किसी वृद्ध को परिवार वाले शोषित करते हैं, पड़ौस चुप है। किसी वृद्ध को प्यासा मार दिया जाता है, कोई कुछ नहीं कहता। दुत्कार, मार-पीट, जलालत और पता नहीं क्या-क्या किया जाता है बूढ़ों के साथ, सब चुप हैं। रोता है बुढ़ापा भीतर-भीतर बिना अपशब्द निकाले। हमारे बुजुर्ग इतना सहते हुए भी खामोश हैं क्योंकि वे विवश हैं।

आजादी की तलाश है हमारे बूढ़ों को। उन्हें भी खुलकर हंसने की ख्वाहिश है। वे भी चाहते हैं स्वतंत्र जीवन, लेकिन रिश्तों की बेड़ियों में बुढ़ापा जकड़ा है।

शायद हम कभी सोच सकें कि बुढ़ापा आजादी में प्राण त्यागेगा।

-harminder singh

Friday, August 14, 2009

कुछ उम्मीद जगी

















कभी-कभी मैं अपनों को भूल जाता हूं। इतना कि मुझे लगता है कि अब उनकी याद कभी नहीं सतायेगी। अजीब-सी प्रसन्नता का अहसास होता है। उसका मतलब क्या होता है? मैं नहीं जानता। दूसरों को, जो हमारे इतने करीब रहे हों, एक झटके में उनसे आंखें बचा लेना कई बार उलझन में पड़ने को विवश कर देता है। दुख और पीड़ा से बच निकलने का यह रास्ता मन को थोड़े पलों के लिए असीमित बोझ से जरुर बचा लेता है। मुझे खुद पर हंसी भी आती है। क्यों मैं स्वयं से जूझ रहा हूं या वक्त मेरे साथ खिलवाड़ कर रहा है?

अभी कुछ ही दिन हुए जेलर साहब ने मुझसे कहा था कि मेरी सजा कम करवाने की वे आगे सिफारिश करेंगे। उनका व्यवहार मेरे प्रति शुरु से ही अच्छा रहा है। उनका व्यक्तित्व एक बेहतर इंसान का लगा। उन्होंने मेरी वास्तविकता को जाना तथा समझा। ऐसा हर इंसान नहीं कर सकता, लेकिन उन्होंने किया। उनकी बातों से मुझमें फिर से आशा जगी है। मुझे उम्मीद है कि जल्द ही सबकुछ ठीक होगा। हम उम्मीद ही तो लगा सकते हैं और भगवान से दुआ मांग सकते हैं। ऐसा करने से हम अपनी घबराहट को कम कर सकते हैं। मेरी मानिए ऐसा होता है। भरोसा हमें तोड़ता नहीं, जोड़े रखता है।

मैं अब उतना हताश नहीं, लेकिन काश, कशमकश का कुछ कर पाता। खैर, उम्मीद जगी है तो आने वाले दिन आसान हो सकते हैं। वैसे, हमें उम्मीद का दामन नहीं छोड़ना चाहिए। हम किसी से उम्मीद इसलिए लगाते हैं ताकि वह टूटे नहीं। उम्मीद कांच की तरह भी होती है। जब टूटती है, तो अक्सर बिखर जाया करती है और तब कष्ट बहुत होता है। कुछ लोग उम्मीदों के टुकड़ों को जोड़ना जानते हैं। ये वे होते हैं जो कभी हारते नहीं। मैं न हारने के लिए अपने आप को समझा रहा हूं। मोह ने मुझे कहीं का नहीं छोड़ा। यादों का क्या करुं मैं? क्या करुं?

-harminder singh

एक कैदी की डायरी..1,2,3

Thursday, August 13, 2009

सच का सामना

‘‘उम्र गुजर गयी। शरीर पुराना हो गया। उत्साह समाप्त हो गया। नीरसता के इस माहौल में उजाले की तलाश है। मैं इतना जानती हूं कि काया मिटने वाली है। कांपती हुई देह को सुकून की तलाश है।’ काकी ने मेरी तरफ देखा।

बूढ़ी काकी ने आगे कहा,‘शरीर की चमक-दमक कितने दिनों की होती है। यह हम बखूबी जानते हैं। कुछ लोगों को उसपर गुमान भी होता है। लेकिन बुढ़ापा जो है, वह इसलिए बना है ताकि सच से सामना हो सके। ईश्वर चाहता है कि इंसान की आंखें खुद खुल जायें। वह हमें अनगिनत अवसर उपलब्ध कराता है। आखिर में उसे हस्तक्षेप करना पड़ता है, वह भी दुखी मन से। फिर इंसान को यकीन होता है कि वह सही नहीं था। वैसे हम गलत ही होते हैं, सिर्फ ईश्वर सही है।’

काकी की बातों में उलझ जाता हूं मैं। हैरानी होती है मुझे। मैंने काकी से पूछा,‘तो सच का सामना बुढ़ापे से बेहतर कहीं नहीं हो सकता?’

इसपर काकी बोली,‘देखो, पहले भी मैंने तुम्हें बताया था कि बुढ़ापा जीवन का सार होता है। जीवन भर में कष्टों भरी राहें मिलती हैं। हम उनसे दो-चार होते हैं। लेकिन बुढ़ापा उतना सरल नहीं, इसे निभाना पड़ता है। सच कहूं तो बुढ़ापा ढोया जाता है। जीवन के अंतिम छोर पर खड़े होते हैं हम। इंतजार होता है जग छोड़ने का। वृद्धावस्था वह समय है जब इंसान जीवन की असलियत से रुबरु होता है। उसे एहसास होता है कि वह कितना सफर तय कर चुका। उसे यह भी मालूम होता है कि सफर खत्म होने जा रहा है। पीछे बहुत कुछ छूटने जा रहा है। अपने भी और पराये भी। कुछ बातें रह जायेंगी जिन्हें हमसे लगाव रखने वाले शायद ही कभी भूल पायें। हम उन्हें कब तक याद रख पाते हैं यह हम नहीं जानते, लेकिन जीवन तक तो याद रखेंगे ही। वक्त कम था इसलिए सारी बातें नहीं की। अब वक्त तलाशा नहीं जा सकता, उसे एकत्रित नहीं किया जा सकता। जितना करना था, उतना किया। जितना चलना था, उतना सफर तय किया। बस आराम चाहिए इन बूढ़ी हडिड्यों को, कुछ पल का आराम।’

‘अनुभवों को सिमेट कर हमने इकट्ठा किया होता है। ये अनुभव जीवन में घटी घटनाओं पर आधारित होते हैं। बुढ़ापा इंसान से कहता है कि नई पीढ़ी को अनुभव बांटों ताकि वे कड़वे-मीठे का भेद जान सकें। बुढ़ापा चाहता है कि आने वाले कल के लोग वे सब न सहें जिन्हें उसने सहा है। वाकई बुढ़ापा फ़िक्र करता है सबकी। वह सलामती चाहता है हर किसी की। उसे दर्द होता है जब किसी अपने को चोट पहुंचती है। उसे चाहें किसी हाल में रहना पड़े, दुख सहना पड़े, वह हमेशा अपने बारे में नहीं सोचता। वह दूसरों का दर्द समेटने की ख्वाहिश रखता है। यह जिंदगी का सच है। हम सच का सामना असल में बुढ़ापे में ही करते हैं। जीवन की सच्चाई वृद्धावस्था में छिपी है। जो लोग बूढ़े नहीं हुए, उन्हें मालूम होना चाहिए कि बुढ़ापा अपने में इतना कुछ समेट चुका होता है कि वह संपूर्ण जीवन की बारीकियों का निचोड़ हो जाता है।’

बुढ़ापे पर बूढ़ी काकी के विचार मुझे सोचने पर विवश करते हैं। मैं उसकी बातें सुनकर एक बार नहीं अनेक बार गंभीर हुआ हूं। मैं जानता हूं कि काकी की बातों में जो सच्चाई छिपी है, उससे हम किनारा करने की कोशिश क्यों करते हैं। जबकि हम खुद जानते हैं कि सच का सामना एक दिन जरुर होना है। इसमें घबराहट नहीं होनी चाहिए, किसी तरह का डर नहीं होना चाहिए क्योंकि यह उतना बुरा नहीं जितना लोग समझते हैं। काकी की बातों से तो यही लगता है कि बुढ़ापे में भी अगर व्यक्ति चाहे तो समय आसानी से कट सकता है।

-harminder singh

Monday, August 10, 2009

अब्दुल

मैं खुद को कठोर हृदय मानता हूं। रिश्तों से दूर जाने की कोशिश कर रहा था, पर ऐसा हो न सका। क्यों ऐसा नहीं हुआ, यह मैं भी नहीं जानता। इतना जरुर जान गया कि रिश्ते इंसान को कमजोर नहीं दृढ़ बनाते हैं। एक आशा होती है जो जीवन में हताशा को कम कर देती है। उम्मीद कायम है तो कुछ कठिन नहीं। मैं हार कर जीतने की कोशिश में जुटा हूं। अपने जस्बातों को किनारे नहीं कर सकता। मुझे भरोसा है कि एक दिन मैं अपने परिवार से जरुर मिलूंगा।

मेरे साथी कैदी अब्दुल ने मुझे किस्मतवाला कहा था। उसके अनुसार वह तो दुनिया में एकदम अकेला है क्योंकि उसकी दुनिया कब की तबाह हो चुकी। अब्दुल का परिवार दंगों की आग में झुलस गया। पूरा घर फूंक दिया गया। जब वह लौटा तो जले खंडहरों और राख के सिवा कुछ न था। अब्दुल एक पल के लिए ठिठक गया था। आंखों के आगे अंधेरा उभर आया था। चेहरा लाल हो चला था। मुट्टिठयां भींच कर जमीन पर दे मारीं और कहा,‘या अल्लाह, क्या किया?’ दुख इतना था कि उससे काफी देर उठा न गया। वह गश खाकर वहीं गिर पड़ा। यह दर्द अपनों के बिछुड़ने का था, उनके सदा के लिए दूर जाने का था। मौत की हंसी, जिंदगी का मातम होती है।

अब्दुल ने खुद को संभाला, टूटने से बचाया। लेकिन बुरा वक्त जब किसी का पीछा करता है तो हाथ धोकर पीछे पड़ता है। कुछ लोगों ने उसे भी जिंदा जलाने की कोशिश की। उसने मुझे जले के निशान दिखाये। वह तब किसी तरह बच निकला, लेकिन दंगे फिर भड़के तो उसे हत्या के जुर्म में मेरी कोठरी में डाल दिया गया। उससे मैंने काफी कुछ सीखा। जिंदगी में टूटी चीजों को जोड़ना सीखा। हताशा से लड़ता एक आम इंसान बिल्कुल बेबस दिखाई देता है। अब्दुल के लिए भी काले दिन आये, लेकिन उसने बताया कि जूझना इंसान को पड़ता है ताकि और मजबूती आ सके। वह डिगा नहीं, सामना करता रहा दुखों का लेकिन दिल के गहरे जख्मों को मरहम लगाने की कोशिश उसके हौंसले ने की। इंसान हैं तो दृढ़ होना भी सीखना पड़ता है। वही सब तो कर रहा था अब्दुल।

मगर शायद मैं अब्दुल जितना भीतर से मजबूत नहीं। कमजोर हो गया हूं मैं, थक गया हूं। सोच-विचार कर हृदय व्यथित हो उठता है। व्यथा हौंसला पस्त करने के औजार की तरह काम करती है। मुझमें शक्ति का संचार नहीं हो रहा। गिरे पड़े सूखे पत्ते की तरह फड़फड़ाहट का अहसास हो रहा है। यह अशांति का, उथलपुथल का कारण है। संभलने की कोशिश उतनी कारगर साबित नहीं हो रही।

-harminder singh

एक कैदी की डायरी -1-------------एक कैदी की डायरी -२

Sunday, August 9, 2009

मन की पीड़ा

पीड़ा है मन की,
मन में ही रहे,
जख्म गहरें हैं,
नासूर बन रहे।

अश्रु नीर बह गये,
निर्झर धार जैसे बहे,
पीर घनेरी है मन में,
मन कुंठित सहे,
हृदय आवेग, क्षोभ स्फुटित है,
मन की शंका क्या कहे,
विवाद याद हैं ही,
स्मरण ज्वाला बन रहे,
भुलाता तो मन नहीं,
समर जो मन में बहे।

पीड़ा है मन की,
मन में ही रहे,
जख्म गहरें हैं,
नासूर बन रहे।

पतझड़ अब हो गया,
ठूंठ क्यों बचा रहे,
अग्नि में जल जाए,
जब पात ही न रहे,
शांति क्षुब्ध हो गयी,
अशांत सागर ही बहे,
भ्रमित स्वप्न जीवन का,
देख-देख जी रहे,
कटोरा अमृत का समझ,
लहू घूंट पी रहे।

पीड़ा है मन की,
मन में ही रहे,
जख्म गहरें हैं,
नासूर बन रहे।

-harminder singh

बुढ़ापे को सब्र कितना है

कौन कहता है बूढ़े कमजोर हैं? नहीं है ऐसा, बस हालातों ने उन्हें ऐसा बनाया है। उनकी स्थिति कभी खराब न हो, यदि बुढ़ापा उन्हें न घेरे। हम जानते हैं कि उनमें अनुभव भरा है, उनमें सीखों का भंडार है और वे ही नई पीढ़ी का उचित मार्गदर्शन कर सकते हैं। फिर क्यों हम उनसे किनारा करने की कोशिश करते हैं?

समस्या नौजवान पीढ़ी में है। समस्या संस्कारों में है, तभी व्यवहार बदल रहे हैं। जनरेशन गैप एक बहाना भर है। मेरे नाना और दादा मेरे लिए मित्र की तरह हैं। जितने वृद्धों से मेरी मुलाकात होती है, वे मुझसे और मैं उनसे घुलमिल जाता हूं। होना भी यही चाहिए। बूढ़े हमसे अलग नहीं हैं। उनके साथ हमें उतनी ही खुशी का अनुभव करना चाहिए जितना हम नौजवान आपस में करते हैं। फिर देखिये जीवन में आपको बदलाव के संकेत मिलते हैं कि नहीं।

बुजुर्गों से उनके जीवन के अनगिनत पहलुओं पर चर्चा बहुत कुछ सिखा सकती है। उन्होंने जीवन को काफी जी लिया। संसार छोड़ने से पहले हम उनके अनुभवों को जरुर जानें।

बुजुर्गों का हौंसला हमसे अधिक होता है। वे इतना सहते हैं, पर चुपचाप रहते हैं। यहीं आकर ज्ञान होता है कि बुढ़ापे को कितना सब्र है। बर्दाश्त करने की भी कोई हद होती है, लेकिन बुढ़ापा अंतिम समय तक बर्दाश्त ही तो करता है।

वृद्धों की आंखें सारा नजारा देखती हैं, बिना किसी से कुछ कहे। कहकर फायदा ही क्या? उधर नया खून कुलाचें मारता है। मालूम है कि बुढ़ापा राह देख रहा है, लेकिन खुली आंखें धुंधली नहीं और जानकर अनजान बन रही है जवानी।

दुख होता है जब बुढ़ापे को ठसक लगती है। उसे सबकी चिंता है, उसकी किसी को नहीं। वह आज भी अपनों के मोह में जकड़ा है। अपने उससे कब की दूरी बना चुके। मोह का खेल पुराना है। बच्चों को खुश देखकर वृद्ध खुश हैं। अपनों की खुशी ऐसी ही होती है।

प्रेम और इतना प्रेम छलकता है उनकी आंखों से। कुछ बूंदें इतराती-सी गिर पड़ती हैं आंचल में। प्रेम के मायने तब समझ आते हैं।

हर समय तैयार है बुढ़ापा अपनों के लिए। उन्हें मरते दम तक समृद्ध करने की कोशिश में, ताकि उन्हें दुख न हो। चाहें वह कितनी पीड़ा सह जाए।

जीवन कितना लंबा है, यह सोचने की जरुरत नहीं। जीवन में किया क्या जाए, महत्व यह रखता है। हमारे बड़े-बूढ़े थक कर भी हमारे साथ हैं, सिर्फ साथ नहीं हैं हम।

-harminder singh

कोई दुखी न हो
























चिलचिलाती धूप में,
नंगे पांव चल रहा हूं,

गर्म रेत की सतह पर,
धीरे-धीरे बढ़ रहा हूं,

मांगता हूं सूरज से,
यही कि वह उदास न हो,

कितनी पीड़ा हो मुझे,
इसका उसे अहसास न हो,

ऐसा ही हूं मैं,
ऐसा ही,

दुख सह लूंगा स्वयं,
कष्ट में कोई न हो।

-harminder singh

Friday, August 7, 2009

उसने कहा था

‘तुम मेरी प्रेरणा हो। तुम्हारी वजह से मेरा जीवन बदल गया। मैंने महसूस किया कि अगर तुम न होतीं तो मेरा क्या होता? –ऐसा उसने कहा था।’ इतना कहकर काकी चुप हो गई।

‘उसने कहा था कि मैं उसके जीवन की अभिलाषा हूं, जीने की आशा हूं। जबसे वह मुझसे मिली उसके अनुसार उसका संसार सुन्दर हो गया। वह मेरी सहेली थी, सबसे अच्छी सखा। मैं उसे कैसे भूल सकती हूं। नहीं, मैं ऐसा नहीं कर सकती क्योंकि कुछ लोग बहुत अलग होते हैं। इतने अलग कि उनसे प्रभावित हुए नहीं रहा जा सकता। मुझे भी ऐसे ही समझ लो।’

बूढ़ी काकी पुराने जीवन के पन्नों को उलट रही है। धीरे–धीरे उसके चेहरे पर खुशी की लकीरें फूट रही हैं। वह मुझे अपनी सच्ची सखा से रुबरु करा रही है।

मैंने काकी से कहा,‘आपने वाकई महसूस किया कि मित्र का होना जरुरी है। बिना उसके जीवन अधूरा है। मेरे पास ऐसा कोई नहीं जिसे मैं अपने हृदय का हाल बता सकूं। कभी–कभी लगता है जैसे जीवन नीरस हो गया। कभी–कभी लगता है जैसे मैं पीड़ा को छिपा कर दफन कर दूं, पर ऐसा हो नहीं सकता। मुझे खुद दफन होना होगा।’

बूढ़े लोगों की बातों को मैं ध्यान से समझता हूं। उनसे सीखें बिखरती हैं जिन्हें हमें चुनता रहना चाहिए। इन सबका मतलब होता है जिसके परिणाम आज नहीं, तो कल अवश्य मिलेंगे। भविष्य पर हक कोई जता नहीं सकता। हां, इंतजार किया जा सकता है। इसके लिए मैं तैयार हूं।

काकी आगे कहती है,‘उसने यह भी कहा कि हमारी मित्रता लंबी चलने वाली है। इतनी लंबी कि हमें खुद पता न लगे कि हम इतने घनिष्ठ अब ही हुए हैं, या पहले से थे। जन्मों तक नाता न तोड़ने का वादा हमारे मन को अजीब एहसास से भर गया। शायद कुछ रिश्ते ऐसे ही होते हैं जो व्यक्ति को व्यक्ति से हद तक जोड़ देते हैं। मेरा रिश्ता उसके साथ ऐसा ही था। वह घंटों मेरे साथ बातों में खोयी रहती। समय बीतता जाता, मगर बातें खत्म नहीं होतीं। खून के रिश्तों से अलग होता है दोस्ती का रिश्ता।’

‘वह चली गयी। मैं पीछे छूट गयी, यहां इसी जगह तुमसे बातें करने को। अकेली हूं, पर वह मेरे ख्यालों में उसी तरह बसी है। शायद हम इतने अधिक प्रेम में पड़ जाते हैं कि जिन्हें हम लगाव करते हैं, उन्हें भूल नहीं पाते। जिंदगी कहती है कि कुछ लोग इतनी आसानी से भूले नहीं जाते। यादों में रहकर हम उन्हें याद करते रहते हैं। इसी तरह वे हमसे बातें करते हैं, इसी तरह।’

लोग बूढ़े हो जाते हैं, विचार बूढ़े नहीं होते। यही कारण होता है कि बुढ़ापे में विचारों की उथलपुथल सामान्य नहीं होती। मन में कई बातें होती हैं जिन्हें किसी अपने से कहने की इच्छा होती है। यदि उसे हम पहले से जानते हैं तो सब आसान हो जाता है। और यदि सखा मिल जाए तो शुष्क शाखायें हरी होने में देर नहीं करतीं। ऐसा कुछ शेष नहीं रह जाता जो कहा न जाए। बातों की नदियां बह जाती हैं। दुख–दर्द मानो सिमट गये हैं– ऐसा अहसास होता है। उस समय संसार निर्जन, सूखा रेगिस्तान नहीं रह जाता। सूखे पत्ते फड़फड़ाहट नहीं करते, बल्कि उनकी शुष्कता तरंगित होती दिखती है। सुख की बीणा बजती है। उल्लास छा जाता है। फिर से लौट आते हैं वे पल जो किसी कोने में पड़े रह गये थे, यूं ही। जिन्हें कभी भुला दिया गया था, फिर याद न करने के लिए, वे सब छंट कर सजीव हो जाते हैं। मित्र की मित्रता निराली है। सुख का भागी, दुख का साथी। सब कुछ और बहुत कुछ है वह। मित्र का हाथ थामा है, कभी न छोड़ने के वादे के साथ।

-harminder singh


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* अनुभव अहम होते हैं

*बुढ़ापा भी सुन्दर होता है

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*बंधन मुक्ति मांगते हैं

*गलतियां सबक याद दिलाती हैं

*सीखने की भी चाह होती है

*रसहीनता का आभास

*जीवन का निष्कर्ष नहीं

Monday, August 3, 2009

खत्म हो रहा हूं मैं



इस जर्जर काया को और कितने दिन पहनूंगा। ईश्वर की मर्जी को टाला नहीं जा सकता। जीवन का मोल मैंने पहचान लिया, शायद बहुत देर हो गयी। रोशनी की जगमगाहट बिखर चुकी कब की। अब दिया बुझने को है, अब सांस थमने को है।

समय को पकड़ने की कोशिश में खुद को भूल गया। पर लगता है आज मैं ठहर गया। उड़ने की चाह होती है, मगर क्या करें, पंख अब इतराने से डरते हैं, फड़फड़ाने से डरते हैं।

इन हाथों को कांपने से मैं रोक नहीं पा रहा। सरकने की आदत नहीं, मजबूरी है। थकान होती है अब। सब नीरस–सा लगता है।

इंसान जो चाहता है, हासिल करने के लिए जद्दोजहद करता है। लेकिन न चाह खत्म होती है, न जद्दोजहद, सिर्फ इंसान खत्म हो जाता है।

मैं भी खत्म हो रहा हूं। बाकी हैं सासें अभी, बाकी हैं यादें अभी। बाकी हैं वो पल जो रह रहकर इठला रहे हैं। जमीन अपनी है, जिसपर आंख लगनी है, फिर कभी न खुलने के लिए।

-harminder singh


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हमारे प्रेरणास्रोत हमारे बुजुर्ग

...ऐसे थे मुंशी जी

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तब एहसास होगा कि बुढ़ापा क्या होता है?

सम्मान के हकदार

नेत्र सिंह

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....भाग-1....भाग-2
सीधी बात नो बकवास

बहुत कुछ बदल गया, पर बदले नहीं लोग

गुरु ऐसे ही होते हैं
युवती से शादी का हश्र भुगत रहा है वृद्ध

बुढ़ापे के आंसू

बूढ़ा शरीर हुआ है इंसान नहीं

बुढ़ापा छुटकारा चाहता है

खोई यादों को वापिस लाने की चाह

बातों बातों में रिश्ते-नाते बुढ़ापा
ऐसा क्या है जीवन में?

अनदेखा अनजाना सा

कुछ समय का अनुभव

ठिठुरन और मैं

राज पिछले जन्म का
क्योंकि तुम खुश हो तो मैं खुश हूं

कहानी की शुरुआत फिर होगी

करीब हैं, पर दूर हैं

पापा की प्यारी बेटी

छली जाती हैं बेटियां

मां ऐसी ही होती है
एक उम्मीद के साथ जीता हूं मैं

कुछ नमी अभी बाकी है

अपनेपन की तलाश

टूटी बिखरी यादें

आखिरी पलों की कहानी

बुढ़ापे का मर्म



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>>मेरी बहन नेत्रा

>>मैडम मौली
>>गर्मी की छुट्टियां

>>खराब समय

>>दुलारी मौसी

>>लंगूर वाला

>>गीता पड़ी बीमार
>>फंदे में बंदर

जानवर कितना भी चालाक क्यों न हो, इंसान उसे काबू में कर ही लेता है। रघु ने स्कूल से कहीं एक रस्सी तलाश कर ली. उसने रस्सी का एक फंदा बना लिया

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वृद्धग्राम पर पहली पोस्ट में मा. होराम सिंह का जिक्र
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वृद्धों की सेवा में परमानंद -
डा. रमाशंकर
‘अरुण’


बुढ़ापे का दर्द

दुख भी है बुढ़ापे का

सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य गिरीराज सिद्धू ने व्यक्त किया अपना दुख

बुढ़ापे का सहारा

गरीबदास उन्हीं की श्रेणी में आते हैं जिन्हें अपने पराये कर देते हैं और थकी हड्डियों को सहारा देने के बजाय उल्टे उनसे सहारे की उम्मीद करते हैं
दो बूढ़ों का मिलन

दोनों बूढ़े हैं, फिर भी हौंसला रखते हैं आगे जीने का। वे एक सुर में कहते हैं,‘‘अगला लोक किसने देखा। जीना तो यहां ही है।’’
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इक दिन बिक जायेगा माटी के मोल
प्रताप महेन्द्र सिंह कहते हैं- ''लाचारी और विवशता के सिवाय कुछ नहीं है बुढ़ापा. यह ऐसा पड़ाव है जब मर्जी अपनी नहीं रहती। रुठ कर मनाने वाला कोई नहीं।'' एक पुरानी फिल्म के गीत के शब्द वे कहते हैं-‘‘इक दिन बिक जायेगा, माटी के मोल, जग में रह जायेंगे, प्यारे तेरे बोल।’’

...............कहानी
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किशना- एक बूढ़े की कहानी
(भाग-1)..................(भाग-2)
ये भी कोई जिंदगी है
बृजघाट के घाट पर अनेकों साधु-संतों के आश्रम हैं। यहां बहुत से बूढ़े आपको किसी आस में बैठे मिल जायेंगे। इनकी आंखें थकी हुयी हैं, येजर्जर काया वाले हैं, किसी की प्रेरणा नहीं बने, हां, इन्हें लोग दया दृष्टि से जरुर देखते हैं

अपने याद आते हैं
राजाराम जी घर से दूर रह रहे हैं। उन्होंने कई साल पहले घर को अलविदा कह दिया है। लेकिन अपनों की दूरी अब कहीं न कहीं परेशान करती है, बिल्कुल भीतर से

कविता.../....हरमिन्दर सिंह .
कभी मोम पिघला था यहां
इस बहाने खुद से बातें हो जायेंगी
विदाई बड़ी दुखदायी
आखिर कितना भीगता हूं मैं
प्यास अभी मिटी नहीं
पता नहीं क्यों?
बेहाल बागवां

यही बुढापा है, सच्चाई है
विदा, अलविदा!
अब कहां गई?
अंतिम पल
खत्म जहां किनारा है
तन्हाई के प्याले
ये मेरी दुनिया है
वहां भी अकेली है वह
जन्म हुआ शिशु का
गरमी
जीवन और मरण
कोई दुखी न हो
यूं ही चलते-चलते
मैं दीवाली देखना चाहता हूं
दीवाली पर दिवाला
जा रहा हूं मैं, वापस न आने के लिए
बुढ़ापा सामने खड़ा पूछ रहा
मगर चुप हूं मैं
क्षोभ
बारिश को करीब से देखा मैंने
बुढ़ापा सामने खड़ा है, अपना लो
मन की पीड़ा
काली छाया

तब जन्म गीत का होता है -रेखा सिंह
भगवान मेरे, क्या जमाना आया है -शुभांगी
वृद्ध इंसान हूं मैं-शुभांगी
मां ऐसी ही होती है -ज्ञानेंद्र सिंह
खामोशी-लाचारी-ज्ञानेंद्र सिंह
उम्र के पड़ाव -बलराम गुर्जर
मैं गरीबों को सलाम करता हूं -फ़ुरखान शाह
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कहीं आप बूढ़े तो नहीं हो रहे
-Ravish kumar
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