बूढ़ी काकी कहती है-‘‘बुढ़ापा तो आना ही है। सच का सामना करने से भय कैसा? क्यों हम घबराते हैं आने वाले समय से जो सच्चाई है जिसे झुठलाना नामुमकिन है।’’.

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Saturday, May 17, 2008

दादी गौरजां

उनका युग अपना था। अंग्रेज अफसर भी उनसे घबराते थे। आवाज का रौब देखते ही बनता था। मर्दाना अंदाज था उनका। दादी गौरजां की बात ही निराली थी।

अपने भ्राता मुंशी निर्मल सिंह की ही भांति वे भी एक लाठी रखती थीं। मजाल है कि कोई कुछ कह दे। तुंरत जबाव देने की उनकी आदत के सब कायल थे। उनके चेहरे पर मुस्कराहट के भाव बहुत ही कम लोगों को नसीब हुये थे। चेहरा लाल सुर्ख था और चाल बिना थकी। उम्र का अंतिम पड़ाव था, लेकिन गांव वाले आज भी कहते हैं,‘‘उनके जैसी महिला मिलना मुश्किल है। वे जितनी बाहर से सख्त थीं, अंदर से मोम की बनी थीं। उनका दिल एक इंसान का दिल था। वे बहुत कुछ थीं।’’


ऐसी थीं दादी गौरजां

मिजाज सख्त था, लेकिन अंतर्मन मोम की तरह

अंदाज मर्दाना था और दूसरों के प्रति सेवाभाव भी

महिलाओं को वे हिदायत देती थीं कि हाथ-चक्की से आटा पीसो। इससे प्रसव के दौरान कठिनाई नहीं होगी।


वे कहा करती थीं-

‘‘हमें इस की चिंता नहीं कि वे(महिलायें) क्या कर रही हैं, हमें चिंता इस बात की है कि ये(पुरुष) क्या कर रहे हैं। अपनी घरवालियों को काम पर भेज निश्चिंत होने का ख्बाव छोड़ना होगा। स्त्री भी खाली नहीं बैठेगी, लेकिन खेती-किसानी में पुरुष से अधिक काम नहीं करेगी।’’





गांव में उन दिनों जब एक परिवार को रोटी के लाले पड़े तो पूरे गांव में ही थीं जो उनकी मदद किया करती थीं। दूसरों का दर्द उनका अपना दर्द था। नारियल का रस बड़ा मीठा होता है, देखने में सख्त जरुर लगता है।

गौरजां की यह खूबी रही कि वे जब तक रहीं गांव की महिलाओं को अनुशासन और साफ-सफाई का पाठ सिखा गयीं। गांव की बड़ी-बूढि़यां आज भी उन्हें उसी तरह याद करती हैं।

रेल का सफर वे बिना टिकट के करती थीं, चाहें कितना ही लंबा क्यों न हो। मजाल है कि कोई अंग्रेज अफसर उनसे कुछ कह सके। वे अधिकतर खड़ी-खड़ी सफर किया करती थीं, क्योंकि वे जानती थीं कि जिन्होंने टिकट लिया है उन्हें पहले बैठने का हक है।

मर्दों को उन्होंने कई बार डाटा भी कि वे अपनी महिलाओं को खेत पर अधिक देर तक काम न करवायें। वे कहती थीं,‘‘हमें इस की चिंता नहीं कि वे(महिलायें) क्या कर रही हैं, हमें चिंता इस बात की है कि ये(पुरुष) क्या कर रहे हैं। अपनी घरवालियों को काम पर भेज निश्चिंत होने का ख्बाव छोड़ना होगा। स्त्री भी खाली नहीं बैठेंगी, लेकिन खेती-किसानी में पुरुष से अधिक काम नहीं करेगी।’’

महिलाओं को एक बात और कहतीं,‘‘ तुम घर का चौका-बरतन तो करती हो। बार(फर्श जिसपर गोबर का लेप होता है) को ऐसा रखो की उस पर मक्खियां न बैठें और रड़का(झाड़ू की तरह कुछ लकडि़यों से बना) से सफाई करते रहा करो, इससे बीमारियां घर में कम चलेंगी। डाक्टर के पास कम जाना पड़ेगा। तुम भी चैन से बैठोगे, पैसे भी बर्बाद न होंगे।’’

उन्होंने 80 वर्ष की उम्र को परे कर अपना कार्य जारी रखा था। वे सुबह उठकर पशुओं को सानी(पशुओं का भोजन) करती थीं। बीच बीच में उन्हें देखती भी रहती थीं कहीं कोई पशु भूखा तो नहीं है या प्यास तो नहीं।

महिलाओं को वे हिदायत देती थीं कि हाथ-चक्की से आटा पीसो। इससे प्रसव के दौरान कठिनाई नहीं होगी। उनका मत था कि इस प्रकार से महिलाओं के संपूर्ण शरीर का व्यायाम हो जाता है जिसे वे ‘प्राकृतिक कसरत’ कहा करती थीं।

बहुओं को वे कहतीं,‘‘उनके कपड़े साफ रखो ताकि बालक साफ रहें।’’

लेकिन भगवान का खेल अजब होता है। वह कभी-कभी उन्हें दुख देता है, जिन्होंने लोगों को रहने का सलीखा सिखाया, उन्हें ज्ञान दिया। दादी गौरजां अपने अंतिम दिनों में लकवे से पीडि़त हो गयीं। वे चारपाई पर ही लगभग एक माह तक पड़ी रहीं, यूं ही बेबस और लाचार। उठने की कोशिश करतीं, आंखों से बातें करतीं, कभी-कभी एक-आद कतरा आंसू का भी बह निकलता।

उस दिन गांव में पहले की तरह रौनक नहीं थी। खेत पर आज लोग गये ही नहीं थे। मुंशी निर्मल सिंह की लाठी अपनी बहन के यहां एक कोने में टिकी थी। उस दिन मुंशी जी की आंखों में आसूं थे। उनके पुत्र मुंशी भोला सिंह आज काफी वृद्ध हो चुके हैं, जिक्र करते हैं,‘‘मुंशी जी(निर्मल सिंह) किसी ने रोते हुये देखे नहीं थे, चेहरे पर शिकन तक नहीं आती थी। उस दिन वे अपनी बहन की चारपाई के एक पाहे के पास बैठकर रो रहे थे।’’

दादी गौरजां के अंतिम दर्शन को अनेकों गांवों के लोग जुटे थे।

आज उन्हें गांव में आदर से याद किया जाता है। यह वह गांव है जिसके लोग अमेरिका, इंग्लैंड समेत कई देशों में बसे हैं। यह वह गांव हैं जहां वर्षों से दलितों को अपने साथ बिठाया जाता है, उन्हें आदर दिया जाता है। यह वह गांव है जहां एकता की मधुर हवा बहती है, महिलायें पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलती हैं।

हरमिन्दर सिंह द्वारा

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दीवाली पर दिवाला
जा रहा हूं मैं, वापस न आने के लिए
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मगर चुप हूं मैं
क्षोभ
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मन की पीड़ा
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