Sunday, July 26, 2009
रिश्तों की उलझन
रिश्ते इंसान को तोड़ते भी हैं और जोड़ते भी हैं। मैं आज खुश नहीं हूं क्योंकि मेरी पत्नि, बच्चे हैं। एक जुड़ाव–सा है उनके साथ। ना संबंध होते, न दुख होता और न याद होती। तड़प के साथ क्षोभ जुड़ा होता है जिसका अनुभव आज मैं कर रहा हूं। हर इंसान की ख्वाहिश होती है कि वह खुलकर जिये और इतना जिये कि जिंदगी कम पड़ जाए। ऐसा होता है, मगर उलझनों के साथ जुड़े वक्त को समेटना उतना आसान नहीं। कमजोर, और कमजोर बनाते हैं रिश्ते। यह अकेलेपन का अहसास कर मुझे पता लगा। सूनापन किसी कोने में थका–मांदा, चेहरा लटकाये पूछ रहा है कि महाशय को क्या हुआ? सन्नाटा क्यों पसरा है बिना मतलब का?
मैं किसी से प्यार नहीं करता। प्रेम शब्द मेरे लिए कोई अर्थवाला नहीं रह गया क्योंकि मैंने सच्चाई जान ली है। ऐसे लोगों से मुझे घृणा हो रही है जो संबंधों के दायरे में जीते हैं। मूर्ख हैं वे लोग और उनके वादे। असमंजस में मैं भी हूं, लेकिन हकीकत से उनका सामना अभी हुआ नहीं है। मेरा अपना मत जरुर है पर पशोपेश आड़े आ रहा है। आखिर मतलब क्या रह जाता है उलझन का। सुलझ चुके विचारों को फिर से उलझाने की कोशिश स्वत: ही होती जा रही है। धुंध छंटने देने की कल्पना मन में की है। कोहरा घना हो तब भी कल्पनाएं विचरती हैं। यहां ऐसा ही कुछ हो रहा है।
रिश्तों की डोर टूटने को बेताब है। मुझे यकीन हो चला है कि इन्होंने मुझे कमजोर किया है। समय दर समय मेरी टांग पकड़ कर खींची है। हां, मुझे गिरने नहीं दिया, संभाला भी है। तो गिरने से बचाते हैं रिश्ते। नहीं, नहीं, मैं अपना ध्यान बंटा रहा हूं। मैं ऐसी माला नहीं पहन सकता जिसकी डोर कमजोर हो, कभी भी टूट कर बिखर जाए। यह अनोखा कार्य नहीं कि इंसान किसी न किसी से जुड़ता है। जुड़ाव जीवन का हिस्सा है, भाव इसके साथी हैं। लेकिन अकेला चलने में क्या बुराई है। शायद कुछ नहीं, कुछ भी तो नहीं।
ऐसे संबंधों का लाभ भी हो जो कभी टूटे नहीं। पर ऐसा होता नहीं। रिश्ते दुखी भी करते हैं और हृदय को विचलित भी। मैं अब आदत डाल चुका कि मेरा कोई अपना नहीं, सगा नहीं। अकेला हूं, मैं, बस मैं ही हूं। बच्चों को भूलने की दृढ़ इच्छा मुझे अधिक व्याकुलता में नहीं डालती। समय तो बदलेगा– किसी को इतनी आसानी से थोड़े ही भूला जा सकता है। यदि कोई कलेजे का टुकड़ा हो, जिसपर आप स्वयं को न्यौछावर कर सकते हों, संसार का सबसे प्यारा हो, उसे स्मरण में न फटकने देना बहुत मुश्किल काम है। हम ऐसा कम ही कर पाते हैं। हर काम सरल भी तो नहीं।
मेरी बिटिया बड़ी प्यारी थी। उसका चेहरा किस तरह भूलूं। अभी रिश्तों की माला को बिखेर रहा था, अचानक जोड़ने की बात करने लगा। यहीं आकर इंसान हार जाता है, कमजोर हो जाता है। सच है कि रिश्ते इंसान को बेबस कर देते हैं। वाकई बेबस से भी बेबस हो गया हूं मैं। मेरी नियति है वियोग के आंसू पीना, सो पी रहा हूं। मेरी नियति है चैन से नहीं जीना, जो नहीं जी रहा हूं। दीवारों को अपना मानता हूं, पर वे कुछ बोलती नहीं।
लाजो मेरी पत्नि जिससे मैंने सात जन्मों तक साथ निभाने का वादा किया था। ऐसा ही कुछ उसने भी कहा था। हमारा बंधन प्यारा था और अटूट भी। मुझे कभी एहसास नहीं हुआ कि दूरियां इतनी दुश्वारियां लाती हैं। आज जब सब मेरी आंखों के सामने बिखर रहा है तो मैं रो रहा हूं। मेरा हृदय करुणा से भर उठता है। वियोग का दर्द खुद को कचोटता है कि व्यक्ति की दशा किसी मृत के समान हो जाती है। बहुत पीड़ादायक है यह समय, लेकिन इसका मंथर गति से चलना कष्टों को और बढ़ा रहा है। लाजो ने मुझसे कहा था कि बच्चे मुझे भूल नहीं पाये हैं। तब मैं फूट–फूट कर रोया था। हमारे बीच सलाखों की दीवार थी। उसने मेरे हाथों को जकड़ लिया और अपने माथे से लगाकर कहने लगी,‘यह सब क्यों हो रहा है? ईश्वर तरस नहीं खाता क्या? हम गरीबों की कोई सुनता कहां है?’
ठीक कह रही थी वह। गरीब होना संसार का सबसे बड़ा अपराध है। कहां नहीं गई वह, सारा खेल पैसों का है। पुलिसवालों ने उसे दुत्कार लगाई। काफी कुछ सहना पड़ा उसे। वह दिल की अच्छी है। पर बहुत समय से वह मुझे मिलने क्यों नहीं आई? शंका होती है मुझे..........कहीं कुछ ऐसा–वैसा.........नहीं.............नहीं। भला ऐसा कैसे हो सकता है? मेरा मन नहीं मानता। समय पुराना हुआ तो क्या हुआ, मेरा लगाव उतना ही है।
-जारी है........
-harminder singh
एक कैदी की डायरी -1
Friday, July 24, 2009
एक कैदी की डायरी
दिन निकलता है और छिप जाता है। ऐसा रोज होता है। यह समय कभी न खत्म होने वाला है। मैं खुद को अजीब सी उलझन में पाता हूं। मैंने उसे क्यों मार दिया? यह पछतावे का वक्त भी है। उस समय शायद मैं होश में नहीं था। मैं खुद पर काबू नहीं रख पाया। अब वक्त मुझे काटने को दौड़ता है। क्या करुं, कुछ समझ नहीं आता।
अपराध की सजा होती है। मैं वही भुगत रहा हूं। एक कोठरी जो चार दीवारों से बनी है, उसका और मेरा साथ बढ़ता जा रहा है। कई साल बीत गये, वह चटका फर्श मुझसे कुछ नहीं बोला और दीवारें कभी हंसती नहीं।
समय ने बातों को छोटा कर दिया। शायद सिमट सा गया है बहुत कुछ, मैं भी। हां, मैं भी अब चुपचाप रहता हूं। मेरे साथ इस कोठरी में कई आये और गये। नयापन सुनहरे रंग के साथ आने की कोशिश कर रहा था, मैंने उससे जी चुराया। मैं ही तो था जो अपने बुरे वक्त को लाया। मैं ही तो था जो अब खामोशी से जीने को मजबूर हुआ। लहरों की फरमाइशें अनगिनत होती हैं, उनके थपेड़े कठोर, फिर उनसे बचकर अपनी कश्ती को दूर ले जाना चाहता था, पर ऐसा कर न सका। इसे विडंबना कहें तो बुरा नहीं।
मंगा ने एक बार मुझसे पूछा था कि मुझे अपने परिवार की याद नहीं आती। मैं उस समय काफी देर के लिए चुप्पी साध गया था। जब मंगा की सजा पूरी हो गयी, तब मैंने उससे घंटों बातें की। सब बोलता गया मैं, रोता गया मैं। न जाने कितनों को मैंने अपने दिल का हाल इस तरह बताया है। उसकी आंखें भी खुश नहीं थीं, जबकि वह आजाद था और खुली हवा में सांस लेने की उसकी तमन्ना पूरी होने जा रही थी। वह इतना मुझसे घुलमिल गया था, मुझे पता ही नहीं चला। मंगा मेरी तरह ही दुखी था। शायद उससे मेरा दुख देखा नहीं गया और वह सही मायने में मेरा दुख बांट रहा था। क्षोभ एक कोने से उठा था, दूसरा कोना उसे न चाहते हुए भी अपना समझ कर समेट रहा था। इस तरह मन हल्का और भारी होने की प्रक्रिया में दो व्यक्तियों को संतुष्टी अवश्य मिल रही थी। मैं उसे यह सब, घर–परिवार, बाल–बच्चे कुछ बताने वाला नहीं था। अचानक में मैं उसे अपनी कहानी बता बैठा। मेरे साथ यही होता आया है। अपना मन भारी है तो किसी अंजाने को अपना मान लेता हूं, मगर उसे ही जो मुझे समझता है।
कोई मुझसे मिलने आता नहीं। पहले–पहल पत्नि आती थी– ऐसा करीब दो साल तक हुआ। शायद उसका मन मुझसे उचट गया। बच्चे कितने बड़े हो गये होंगे, मैं यह भी नहीं जानता। बिटिया तो दो–तीन दरजे पहुंच गयी होगी और मोनू......। बड़ा शरारती था वह। अब भी उधम मचाता होगा। गुडि़या की चोटी खेंचता होगा। लाजो खुश होती होगी उन्हें देखकर। मेरी याद आती होगी उसे। फिर वह मुझसे मिलने क्यों नहीं आयी? क्या हुआ उसे? सब ठीक तो है।
खैर, जब मुझसे सब रुठ रहे हैं, तो रुठने दो। शायद बुरे वक्त के साथी कुछ ही होते हैं। एक अपराधी, हत्यारे की पत्नि कहलाना कौन चाहता है और बाप का नाम.......। नहीं, नहीं मैं नहीं चाहता ऐसा हो मेरे पीछे छूटे परिवार के साथ। वे मुझे न मानें, मैं उन्हें भूल नहीं पाऊंगा, कभी नहीं। जो उन्हें अच्छा लग रहा है करें, पर दुखी न हों, बदनामी का दाग न हो उनके सिर।
-जारी है........
-harminder singh
अपराध की सजा होती है। मैं वही भुगत रहा हूं। एक कोठरी जो चार दीवारों से बनी है, उसका और मेरा साथ बढ़ता जा रहा है। कई साल बीत गये, वह चटका फर्श मुझसे कुछ नहीं बोला और दीवारें कभी हंसती नहीं।
समय ने बातों को छोटा कर दिया। शायद सिमट सा गया है बहुत कुछ, मैं भी। हां, मैं भी अब चुपचाप रहता हूं। मेरे साथ इस कोठरी में कई आये और गये। नयापन सुनहरे रंग के साथ आने की कोशिश कर रहा था, मैंने उससे जी चुराया। मैं ही तो था जो अपने बुरे वक्त को लाया। मैं ही तो था जो अब खामोशी से जीने को मजबूर हुआ। लहरों की फरमाइशें अनगिनत होती हैं, उनके थपेड़े कठोर, फिर उनसे बचकर अपनी कश्ती को दूर ले जाना चाहता था, पर ऐसा कर न सका। इसे विडंबना कहें तो बुरा नहीं।
मंगा ने एक बार मुझसे पूछा था कि मुझे अपने परिवार की याद नहीं आती। मैं उस समय काफी देर के लिए चुप्पी साध गया था। जब मंगा की सजा पूरी हो गयी, तब मैंने उससे घंटों बातें की। सब बोलता गया मैं, रोता गया मैं। न जाने कितनों को मैंने अपने दिल का हाल इस तरह बताया है। उसकी आंखें भी खुश नहीं थीं, जबकि वह आजाद था और खुली हवा में सांस लेने की उसकी तमन्ना पूरी होने जा रही थी। वह इतना मुझसे घुलमिल गया था, मुझे पता ही नहीं चला। मंगा मेरी तरह ही दुखी था। शायद उससे मेरा दुख देखा नहीं गया और वह सही मायने में मेरा दुख बांट रहा था। क्षोभ एक कोने से उठा था, दूसरा कोना उसे न चाहते हुए भी अपना समझ कर समेट रहा था। इस तरह मन हल्का और भारी होने की प्रक्रिया में दो व्यक्तियों को संतुष्टी अवश्य मिल रही थी। मैं उसे यह सब, घर–परिवार, बाल–बच्चे कुछ बताने वाला नहीं था। अचानक में मैं उसे अपनी कहानी बता बैठा। मेरे साथ यही होता आया है। अपना मन भारी है तो किसी अंजाने को अपना मान लेता हूं, मगर उसे ही जो मुझे समझता है।
कोई मुझसे मिलने आता नहीं। पहले–पहल पत्नि आती थी– ऐसा करीब दो साल तक हुआ। शायद उसका मन मुझसे उचट गया। बच्चे कितने बड़े हो गये होंगे, मैं यह भी नहीं जानता। बिटिया तो दो–तीन दरजे पहुंच गयी होगी और मोनू......। बड़ा शरारती था वह। अब भी उधम मचाता होगा। गुडि़या की चोटी खेंचता होगा। लाजो खुश होती होगी उन्हें देखकर। मेरी याद आती होगी उसे। फिर वह मुझसे मिलने क्यों नहीं आयी? क्या हुआ उसे? सब ठीक तो है।
खैर, जब मुझसे सब रुठ रहे हैं, तो रुठने दो। शायद बुरे वक्त के साथी कुछ ही होते हैं। एक अपराधी, हत्यारे की पत्नि कहलाना कौन चाहता है और बाप का नाम.......। नहीं, नहीं मैं नहीं चाहता ऐसा हो मेरे पीछे छूटे परिवार के साथ। वे मुझे न मानें, मैं उन्हें भूल नहीं पाऊंगा, कभी नहीं। जो उन्हें अच्छा लग रहा है करें, पर दुखी न हों, बदनामी का दाग न हो उनके सिर।
-जारी है........
-harminder singh
Wednesday, July 22, 2009
जुबीलेंट ने सम्मानित किया 34 वृद्धों को
जुबीलेंट भरतिया फाउंडेशन एवं जुबीलेंट आरगेनोसिस लि. के संयुक्त तत्वाधान में एक सादे समारोह में 34 वरिष्ठ नागरिकों को सम्मानित किया गया। समारोह की अध्यक्षता पूर्व प्रधानाचार्य होराम सिंह ने की। सीडीओ आर.एस. यादव मुख्य अतिथि थे।
संचालन कर रहे जयप्रकाश शर्मा और डा. कृपाल सिंह ने पूरी व्यवस्था को हाथ में लेकर बोलने वालों को थोड़ा-थोड़ा समय दिया। इनमें गन्ना समिति के पूर्व चेयरमेन चौ. शिवराज सिंह ने कहा,‘जुबीलेंट प्रबंधकों से मेरा अनुरोध है कि यदि वे अपनी फैक्टरी के प्रदूषण को नियंत्रित कर लें तो हमारे जैसे बुजुर्गों की सेहत स्वत: ठीक रहेगी।’ उनके इस कथन पर जहां उपस्थित जनसमूह के चेहरों से खुशी झलक उठी। वहीं फैक्टरी के वरिष्ठ अधिकारी विनोद त्रिवेदी हक्के-बक्के रह गये। चौधरी ने आगे कहा कि वायुमंडल और जल शुद्ध रहेगा तो बुजुर्ग भी स्वस्थ रहेंगे।
कई और बुर्जुगों ने भी विचार व्यक्त किये। उन्होंने इस प्रकार के कार्यक्रम भविष्य में जारी रखने का सुझाव दिया और जुबीलेंट का आभार व्यक्त किया।
सेंट मैरी कान्वेंट की प्रधानाचार्य सिस्टर जेन ने बुर्जुगों से आशीर्वाद मांगा तथा उनके स्वास्थ्य की मंगल कामना की। उन्होंने सुझाव दिया कि इस तरह के कार्यक्रमों में नवयुवकों को भी बुलाया जाना चाहिए ताकि वृद्धजनों से कुछ सीख सकें और दोनों के बीच प्रेम और सदभाव का वातावरण उत्पन्न हो।
मुख्य अतिथि आर0एस. यादव ने जहां वृद्धों को नवयुवकों को ऊर्जा प्रदान करने का स्रोत बताया वहीं उन्होंने वृद्धों से युवकों के काम में दखल न देने का उपदेश भी दिया। उन्होंने मौजूद वरिष्ठ नागरिकों को नसीहत दी कि यदि वे अपना अंतिम समय सम्मान के साथ जीना चाहतें हैं तो युवकों के काम में कोई दखल न दें। आप यह न समझें कि वे बिल्कुल मूर्ख हैं तथा आपके बिना उनका काम नहीं चल सकता। आर.एस. यादव ने जोर देकर कहा कि वे यह भी न सोचें कि उनकी संतान उनकी मोहताज है। युवा उनसे अधिक जानते हैं। उन्होंने विस्तार से उदाहरण दिया कि एक चार साल का बच्चा भी उनसे ज्यादा ज्ञान रखता है। वह एक वीडीओ गेम खेल सकता है जिसे आप बिल्कुल भी नहीं जानते। मुख्य विकास अधिकारी ने एक और उदाहरण दिया कि एक बार किसी किसी बात पर उनके पिता भी उनके छोटे भाई को किसी बात पर डांटने लगे तो उन्हें बर्दाश्त नहीं हुई और पिताजी पर बिगड़ गये। सीडीओ के अनुसार किसी भी बुजुर्ग को यह अधिकार नहीं कि वह अपने बेटे की किसी गलती पर उसे डांटे। बल्कि वृद्धों को तो छोटों को रोकने का भी अधिकार नहीं होना चाहिए। सीडीओ के कथन को सभी बुजुर्ग ध्यान से उत्सुकता के साथ चुपचाप सुनते रहे।
सीडीओ स्वयं को कहीं जल्दी पहुंचने को लेकर केवल पांच मिनट ही बोलने को कहकर माइक तक आये थे, लेकिन शायद वरिष्ठ जनों को उनकी औकात बताने की कसम खाकर ही यहां आये थे। वे बोलते गये। उन्होंने वृद्धों को सूखे पत्ते कहकर उन्हें बेकार की वस्तु सिद्ध किया और कहा,‘सूखे पत्ते शोर बहुत करते हैं।’ उनका संकेत वृद्धों की ओर था। उन्होंने एक महिला वक्ता को संकेत करते हुए कहा कि उनकी भांति वे भी लिखने का शौक रखते हैं। उन्होंने 'सूखे पत्ते' शीर्षक से एक कहानी भी लिखी थी। श्री यादव ने कहानी का सारांश बताया जिसमें अपने साथ चल रही एक महिला ने अपने ससुर को इंगित करके कहा था कि सूखे पत्ते शोर बहुत करते हैं। उस समय वे सूखे पत्तों पर चल रहे थे।
वास्तव में सीडीओ वृद्धों का जितना उपहास कर सकते थे उन्होंने किया। हालांकि कार्यक्रम के आयोजकों द्वारा उनके करकमलों से 34 वृद्धों को शाल और अभिनंदन पत्र दिलवाये। श्री यादव ने वृद्धों के चरण स्पर्श भी किये। वे उनसे ऊर्जा मांगने में भी नहीं शर्माये।
वृद्ध अभिनंदन समारोह की अध्यक्षता मा. होराम सिंह, मुख्य अतिथि आरएस यादव तथा संचालन जयप्रकाश शर्मा और मास्टर कृपाल सिंह ने किया।
मुंशी भोला सिंह, चौ0 महेन्द्र सिंह मलिक, वैद डूंमर वन गोस्वामी समेत 34 वयोवृद्धों का अभिनंदन कर उन्हें एक-एक शाल और अभिनंदन-पत्र मिष्ठान सहित प्रदान किया गया।
-साभार गजरौला टाइम्स
photo by mohit
संचालन कर रहे जयप्रकाश शर्मा और डा. कृपाल सिंह ने पूरी व्यवस्था को हाथ में लेकर बोलने वालों को थोड़ा-थोड़ा समय दिया। इनमें गन्ना समिति के पूर्व चेयरमेन चौ. शिवराज सिंह ने कहा,‘जुबीलेंट प्रबंधकों से मेरा अनुरोध है कि यदि वे अपनी फैक्टरी के प्रदूषण को नियंत्रित कर लें तो हमारे जैसे बुजुर्गों की सेहत स्वत: ठीक रहेगी।’ उनके इस कथन पर जहां उपस्थित जनसमूह के चेहरों से खुशी झलक उठी। वहीं फैक्टरी के वरिष्ठ अधिकारी विनोद त्रिवेदी हक्के-बक्के रह गये। चौधरी ने आगे कहा कि वायुमंडल और जल शुद्ध रहेगा तो बुजुर्ग भी स्वस्थ रहेंगे।
कई और बुर्जुगों ने भी विचार व्यक्त किये। उन्होंने इस प्रकार के कार्यक्रम भविष्य में जारी रखने का सुझाव दिया और जुबीलेंट का आभार व्यक्त किया।
सेंट मैरी कान्वेंट की प्रधानाचार्य सिस्टर जेन ने बुर्जुगों से आशीर्वाद मांगा तथा उनके स्वास्थ्य की मंगल कामना की। उन्होंने सुझाव दिया कि इस तरह के कार्यक्रमों में नवयुवकों को भी बुलाया जाना चाहिए ताकि वृद्धजनों से कुछ सीख सकें और दोनों के बीच प्रेम और सदभाव का वातावरण उत्पन्न हो।
मुख्य अतिथि आर0एस. यादव ने जहां वृद्धों को नवयुवकों को ऊर्जा प्रदान करने का स्रोत बताया वहीं उन्होंने वृद्धों से युवकों के काम में दखल न देने का उपदेश भी दिया। उन्होंने मौजूद वरिष्ठ नागरिकों को नसीहत दी कि यदि वे अपना अंतिम समय सम्मान के साथ जीना चाहतें हैं तो युवकों के काम में कोई दखल न दें। आप यह न समझें कि वे बिल्कुल मूर्ख हैं तथा आपके बिना उनका काम नहीं चल सकता। आर.एस. यादव ने जोर देकर कहा कि वे यह भी न सोचें कि उनकी संतान उनकी मोहताज है। युवा उनसे अधिक जानते हैं। उन्होंने विस्तार से उदाहरण दिया कि एक चार साल का बच्चा भी उनसे ज्यादा ज्ञान रखता है। वह एक वीडीओ गेम खेल सकता है जिसे आप बिल्कुल भी नहीं जानते। मुख्य विकास अधिकारी ने एक और उदाहरण दिया कि एक बार किसी किसी बात पर उनके पिता भी उनके छोटे भाई को किसी बात पर डांटने लगे तो उन्हें बर्दाश्त नहीं हुई और पिताजी पर बिगड़ गये। सीडीओ के अनुसार किसी भी बुजुर्ग को यह अधिकार नहीं कि वह अपने बेटे की किसी गलती पर उसे डांटे। बल्कि वृद्धों को तो छोटों को रोकने का भी अधिकार नहीं होना चाहिए। सीडीओ के कथन को सभी बुजुर्ग ध्यान से उत्सुकता के साथ चुपचाप सुनते रहे।
सीडीओ स्वयं को कहीं जल्दी पहुंचने को लेकर केवल पांच मिनट ही बोलने को कहकर माइक तक आये थे, लेकिन शायद वरिष्ठ जनों को उनकी औकात बताने की कसम खाकर ही यहां आये थे। वे बोलते गये। उन्होंने वृद्धों को सूखे पत्ते कहकर उन्हें बेकार की वस्तु सिद्ध किया और कहा,‘सूखे पत्ते शोर बहुत करते हैं।’ उनका संकेत वृद्धों की ओर था। उन्होंने एक महिला वक्ता को संकेत करते हुए कहा कि उनकी भांति वे भी लिखने का शौक रखते हैं। उन्होंने 'सूखे पत्ते' शीर्षक से एक कहानी भी लिखी थी। श्री यादव ने कहानी का सारांश बताया जिसमें अपने साथ चल रही एक महिला ने अपने ससुर को इंगित करके कहा था कि सूखे पत्ते शोर बहुत करते हैं। उस समय वे सूखे पत्तों पर चल रहे थे।
वास्तव में सीडीओ वृद्धों का जितना उपहास कर सकते थे उन्होंने किया। हालांकि कार्यक्रम के आयोजकों द्वारा उनके करकमलों से 34 वृद्धों को शाल और अभिनंदन पत्र दिलवाये। श्री यादव ने वृद्धों के चरण स्पर्श भी किये। वे उनसे ऊर्जा मांगने में भी नहीं शर्माये।
वृद्ध अभिनंदन समारोह की अध्यक्षता मा. होराम सिंह, मुख्य अतिथि आरएस यादव तथा संचालन जयप्रकाश शर्मा और मास्टर कृपाल सिंह ने किया।
मुंशी भोला सिंह, चौ0 महेन्द्र सिंह मलिक, वैद डूंमर वन गोस्वामी समेत 34 वयोवृद्धों का अभिनंदन कर उन्हें एक-एक शाल और अभिनंदन-पत्र मिष्ठान सहित प्रदान किया गया।
-साभार गजरौला टाइम्स
photo by mohit
Tuesday, July 21, 2009
जीवन और मरण
तन्हाई में जीना है
और मर जाना है।
जीवन-मरण का
यह खेल पुराना है।
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मृत्यु की हंसी,
यम का बुलावा है।
किया जो, हुआ जो,
क्यों पछतावा है।
.....................................
....................................
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कराह उठता हूं,
कुंठित मन मेरा है।
दुख की नैया पर,
काले मेघों का घेरा है।
-हरमिन्दर सिंह
और मर जाना है।
जीवन-मरण का
यह खेल पुराना है।
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मृत्यु की हंसी,
यम का बुलावा है।
किया जो, हुआ जो,
क्यों पछतावा है।
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कराह उठता हूं,
कुंठित मन मेरा है।
दुख की नैया पर,
काले मेघों का घेरा है।
-हरमिन्दर सिंह
Monday, July 20, 2009
क्षोभ
विषाद गहरा होता जा रहा,
शुष्क गीत गा रहा,
आलस्य से नहा रहा,
नीरसता जगा रहा,
हाय! यह वियोग है।
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तम सा गहरा,
सलिल सा ठहरा,
पर नीर है बहता,
पाषाण है कहता,
तन से सहता,
हाय! यह क्षोभ है।
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-Harminder Singh
शुष्क गीत गा रहा,
आलस्य से नहा रहा,
नीरसता जगा रहा,
हाय! यह वियोग है।
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तम सा गहरा,
सलिल सा ठहरा,
पर नीर है बहता,
पाषाण है कहता,
तन से सहता,
हाय! यह क्षोभ है।
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-Harminder Singh
Wednesday, July 8, 2009
मकड़ी के जाले सी जिंदगी
‘जिंदगी में बहुत परेशानियां हैं। हर मोड़ नयी उलझनें हैं, फिर भी जिंदगी रुकती नहीं।’ मैंने बूढ़ी काकी से कहा।
काकी कुछ पल की चुप्पी के बाद बोली,‘उलझनों और परेशानियों का मेल है जिंदगी। मकड़ी के जाले सी उलझी हूई, जीत-हार का मैदान है जिंदगी। यहां पासे फेंके जाते हैं, पासे पलट भी जाते हैं। उदास और खिले चेहरों का समागम, भावनाओं की बिक्री का खुला बाजार, मोल-भाव और कई खरीददार।’
‘सूखी रेत, चिलचिलाती धूप में दहक उठती है, उसपर सरपट दौड़ती जिंदगी। सवाल हजार हैं, उत्तर ढूंढती। कहीं चकराने की नौबत भी, होशियारी से कदम बढ़ाती हुई। तेजी में और तेज होती हुई खिलखिलाती हुई निकल भागने को बेताब है जिंदगी। हम अपना अक्स तलाश करने की तमाम कोशिशें करते हैं, लेकिन सिफर नतीजा शायद बेमतलब का रह जाता है। मामूली थपेड़े जब बार-बार कश्ती को डुबोने की ताक में रहते हैं, तो सवार हड़बड़ा जाता है और डूबने का डर बना रहता है। गहरे समुद्र को तैर करने वाले हौंसले वाले होते हैं। हम सीखते बहुत हैं, इसलिए जीवन को नया मुकाम देने की बात करते हैं।’ काकी ने इतना कहकर अपनी बात खत्म की।
मैं जीवन जी रहा हूं, लेकिन यह सब निश्चित समय के लिए ही है। उसके बाद न हम होंगे, न तुम। यह जीवन का सच है। उलझ कर भी सुलझा हुआ लगता है जीवन, जबकि यह दोनों तरह न होते हुए भी, अनोखा है।
काकी गंभीर स्वर में कहती है,‘निरालापन गतिशीलता के लिए चाहिए। जीवन का सिद्धांत कहता है कि थमो नहीं, चलते रहो। निराशा को धुंधला करने की जुगत में रहो। जिंदगी मुस्कराती हुई अच्छी लगती है, न कि निराशा से मुंह छिपाये हुए। हार-जीत को एक समझ कर आगे बढ़ने में हमारी भलाई है। ऐसा करने से हम जीवन को अपनाते हैं और वह हमें। कितना सुकून मिलता है तब।’
‘बालों की उलझी लटाओं को संवारने में समय लगता है। हम कहते हैं जिंदगी उलझी है। लटाएं सुलझ जाती हैं, लेकिन कई बाल साथ छोड़ जाते हैं। जीवन की पहेली को सुलझाते रहते हैं। यह विस्तृत है। कई मौकों पर उलझन बढ़ती जाती है। तब जीवन जाले सा उलझ जाता है। जिंदगी का दस्तूर है कि सफर में बाधाओं को पछाड़ते जाओ। नये आयाम बनाते जाओ। तभी जीवन सुलझने की कोशिश करेगा।’
-harminder singh
posts related to बूढ़ी काकी :
*अब यादों का सहारा है
* अनुभव अहम होते हैं
*बुढ़ापा भी सुन्दर होता है
*उन्मुक्त होने की चाह
*बंधन मुक्ति मांगते हैं
*गलतियां सबक याद दिलाती हैं
*सीखने की भी चाह होती है
*रसहीनता का आभास
*जीवन का निष्कर्ष नहीं
काकी कुछ पल की चुप्पी के बाद बोली,‘उलझनों और परेशानियों का मेल है जिंदगी। मकड़ी के जाले सी उलझी हूई, जीत-हार का मैदान है जिंदगी। यहां पासे फेंके जाते हैं, पासे पलट भी जाते हैं। उदास और खिले चेहरों का समागम, भावनाओं की बिक्री का खुला बाजार, मोल-भाव और कई खरीददार।’
‘सूखी रेत, चिलचिलाती धूप में दहक उठती है, उसपर सरपट दौड़ती जिंदगी। सवाल हजार हैं, उत्तर ढूंढती। कहीं चकराने की नौबत भी, होशियारी से कदम बढ़ाती हुई। तेजी में और तेज होती हुई खिलखिलाती हुई निकल भागने को बेताब है जिंदगी। हम अपना अक्स तलाश करने की तमाम कोशिशें करते हैं, लेकिन सिफर नतीजा शायद बेमतलब का रह जाता है। मामूली थपेड़े जब बार-बार कश्ती को डुबोने की ताक में रहते हैं, तो सवार हड़बड़ा जाता है और डूबने का डर बना रहता है। गहरे समुद्र को तैर करने वाले हौंसले वाले होते हैं। हम सीखते बहुत हैं, इसलिए जीवन को नया मुकाम देने की बात करते हैं।’ काकी ने इतना कहकर अपनी बात खत्म की।
मैं जीवन जी रहा हूं, लेकिन यह सब निश्चित समय के लिए ही है। उसके बाद न हम होंगे, न तुम। यह जीवन का सच है। उलझ कर भी सुलझा हुआ लगता है जीवन, जबकि यह दोनों तरह न होते हुए भी, अनोखा है।
काकी गंभीर स्वर में कहती है,‘निरालापन गतिशीलता के लिए चाहिए। जीवन का सिद्धांत कहता है कि थमो नहीं, चलते रहो। निराशा को धुंधला करने की जुगत में रहो। जिंदगी मुस्कराती हुई अच्छी लगती है, न कि निराशा से मुंह छिपाये हुए। हार-जीत को एक समझ कर आगे बढ़ने में हमारी भलाई है। ऐसा करने से हम जीवन को अपनाते हैं और वह हमें। कितना सुकून मिलता है तब।’
‘बालों की उलझी लटाओं को संवारने में समय लगता है। हम कहते हैं जिंदगी उलझी है। लटाएं सुलझ जाती हैं, लेकिन कई बाल साथ छोड़ जाते हैं। जीवन की पहेली को सुलझाते रहते हैं। यह विस्तृत है। कई मौकों पर उलझन बढ़ती जाती है। तब जीवन जाले सा उलझ जाता है। जिंदगी का दस्तूर है कि सफर में बाधाओं को पछाड़ते जाओ। नये आयाम बनाते जाओ। तभी जीवन सुलझने की कोशिश करेगा।’
-harminder singh
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*गलतियां सबक याद दिलाती हैं
*सीखने की भी चाह होती है
*रसहीनता का आभास
*जीवन का निष्कर्ष नहीं
Monday, July 6, 2009
जा रहा हूं मैं, वापस न आने के लिए
जा रहा हूं मैं,
वापस न आने के लिए,
रहूंगा नहीं मैं,
रह जायेंगी सिर्फ यादें,
जा रहा हूं मैं,
उन लम्हों को छोड़कर,
जो मैंने जिये,
जिंदगी पूर्ण मानकर।
-harminder singh
वापस न आने के लिए,
रहूंगा नहीं मैं,
रह जायेंगी सिर्फ यादें,
जा रहा हूं मैं,
उन लम्हों को छोड़कर,
जो मैंने जिये,
जिंदगी पूर्ण मानकर।
-harminder singh
Sunday, July 5, 2009
अब बेवदुनिया ने सराहा वृद्धग्राम
रवीश कुमार ने दैनिक हिन्दुस्तान में वृद्धग्राम ब्लॉग को सराहा था। अब बेवदुनिया.काम के साप्ताहिक कोलम में ravinder vyas ने वृद्धग्राम के बारे में लिखा है। लेख का शीर्षक है-‘इन काँपते हाथों को बस थाम लो!’। वृद्धग्राम उन सबका आभारी है जिन्होंने इसे इतना सराहा और यहां आकर कुछ देर बुढ़ापे को करीब से जानने की कोशिश की। एक बार फिर सभी का आभार।
बेवदुनिया पर लेख पढ़ने के लिए नीचे दिये लिंक पर क्लिक करें:
http://hindi.webdunia.com/samayik/article/article/0907/02/1090702092_1.htm
Friday, July 3, 2009
बुढ़ापा सामने खड़ा पूछ रहा
आजकल यहां,
वीरान सवेरे हैं,
छटपटाता हूं मैं,
तिड़के अंधेरे हैं,
सुबह की लाली नहीं,
शाम घनेरी है,
बूंदों की भाप उड़ी,
आवाज सिर्फ मेरी है,
ढूंढ रहा किसे?
रास्ता तपा हुआ,
सरक रहा जीवन,
मंद-मंद नपा हुआ,
सब्र आदत बना,
साथ छूट रहा,
बुढ़ापा सामने खड़ा,
मुझसे पूछ रहा।
-harminder singh
posts related to बूढ़ी काकी :
*अब यादों का सहारा है
* अनुभव अहम होते हैं
*बुढ़ापा भी सुन्दर होता है
*उन्मुक्त होने की चाह
*बंधन मुक्ति मांगते हैं
*गलतियां सबक याद दिलाती हैं
*सीखने की भी चाह होती है
*रसहीनता का आभास
*जीवन का निष्कर्ष नहीं
वीरान सवेरे हैं,
छटपटाता हूं मैं,
तिड़के अंधेरे हैं,
सुबह की लाली नहीं,
शाम घनेरी है,
बूंदों की भाप उड़ी,
आवाज सिर्फ मेरी है,
ढूंढ रहा किसे?
रास्ता तपा हुआ,
सरक रहा जीवन,
मंद-मंद नपा हुआ,
सब्र आदत बना,
साथ छूट रहा,
बुढ़ापा सामने खड़ा,
मुझसे पूछ रहा।
-harminder singh
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*बुढ़ापा भी सुन्दर होता है
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*गलतियां सबक याद दिलाती हैं
*सीखने की भी चाह होती है
*रसहीनता का आभास
*जीवन का निष्कर्ष नहीं
उम्मीदों की मचान
उम्मीदों की मचान,
मैंने बांध ली है,
पर टूटकर कुछ गिरा,
उम्मीद का एक टुकड़ा,
नेत्र सजल हुए,
धारा अविरल बही,
जल-कण संचित करुं,
उम्मीद ही न रही।
-harminder singh
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*बुढ़ापा भी सुन्दर होता है
*उन्मुक्त होने की चाह
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*जीवन का निष्कर्ष नहीं
मैंने बांध ली है,
पर टूटकर कुछ गिरा,
उम्मीद का एक टुकड़ा,
नेत्र सजल हुए,
धारा अविरल बही,
जल-कण संचित करुं,
उम्मीद ही न रही।
-harminder singh
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* अनुभव अहम होते हैं
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*उन्मुक्त होने की चाह
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*गलतियां सबक याद दिलाती हैं
*सीखने की भी चाह होती है
*रसहीनता का आभास
*जीवन का निष्कर्ष नहीं
Thursday, July 2, 2009
अब यादों का सहारा है
काकी का चेहरा झुर्रियों से भरा है। वह अपने पिचके गालों को अब कभी भरे हुए नहीं देख सकती। वह कहती है,‘जो दिन बीत गये, लौट नहीं सकते। हां, बीती बातों को अक्सर याद किया जाता है। खट्टी-मीठी यादों का सहारा काफी होता है वक्त काटने के लिए। मैंने कभी सोचा नहीं था कि बुढ़ापा ऐसा होता है। भविष्य का पता नहीं है, तभी जवानी कुलांचे मारती है। उस समय इंसान पूरे वेग में होता है। जबकि उम्र ढल जाने पर सबकुछ बदल जाता है। चेहरे पुराने पड़ जाते हैं, निगाह में धुंधलापन समा जाता है और अपने पराये हो जाते हैं। पिछली बार हम कब खुलकर हंसे थे, शायद यह भी याद नहीं रहता क्योंकि दिमाग की ताकत उम्र को पहचानती है।’
‘पल कितने अनमोल थे जब हम आसमान से बातें करते थे। आसमान तब भी हमारे सिर पर था, आज भी है। फर्क इतना हो गया कि तब बातें होती थीं, अब लीना होना है। भूल से जो हुआ उसके लिए माफी मांगती हूं। आगे ऐसा न हो, यह मेरी कामना है। तुमने खुद इतना माना कि तुम भूत को भूल नहीं सकते, भविष्य में झांक नहीं सकते। वर्तमान में जीते हो, जी रहे हो। इंसान पुरानी बातों को स्मरण कर प्राय: सोच में पड़ जाते हैं। उन्हें लगता है कि वे बातें उनके जीवन को जकड़े हुए हैं। जबकि वे इससे अंजान हैं कि वे यादों को पकड़े हैं, उन्हें भूल नहीं पा रहे। खराब यादों को याद करने से कोई फायदा नहीं, उल्टे इससे नुक्सान की गुंजाइश अधिक रहती है। कोई व्यक्ति अपनी क्षति चाहता नहीं।’
काकी खुद यादों में खोयी रहती है। उसने मुझे अपना जीवन-अनुभव बताया है और बता रही है। सोचता हूं कि हमारे बुजुर्ग किस तरह हर चीज को सहेज कर रखते हैं, ताकि हमें उनसे रुबरु करा सकें। ‘बुढ़ापे का सहारा यादों में कटता है’-ऐसा बूढ़ी काकी ने बताया है। वह बहुत कुछ बताना चाहती है। उसकी बातें सच्चाई की तह-दर-तह प्रस्तुति हैं।
काकी कहती है,‘यादों को समेटने का वक्त आ गया है। बुढ़ापा चाहता है कि जिंदगी थमने से पहले यादों को फिर जीवित कर लो। शायद कुछ पल का सुकून मिल जाए। शायद कुछ पल पुराना जीवन जीकर थोड़ा हैरान खुद को किया जाए। कितना अच्छा हो, कितना मजेदार हो, कितना शानदार हो वह वक्त। मैं यादों की पोटली समय-समय पर खोलती रहती हूं ताकि उन्हें बिखेर कर फिर से समेट सकूं। यह वाकई जीवन को नये रंग से भर देता है।’
-harminder singh
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*जीवन का निष्कर्ष नहीं
‘पल कितने अनमोल थे जब हम आसमान से बातें करते थे। आसमान तब भी हमारे सिर पर था, आज भी है। फर्क इतना हो गया कि तब बातें होती थीं, अब लीना होना है। भूल से जो हुआ उसके लिए माफी मांगती हूं। आगे ऐसा न हो, यह मेरी कामना है। तुमने खुद इतना माना कि तुम भूत को भूल नहीं सकते, भविष्य में झांक नहीं सकते। वर्तमान में जीते हो, जी रहे हो। इंसान पुरानी बातों को स्मरण कर प्राय: सोच में पड़ जाते हैं। उन्हें लगता है कि वे बातें उनके जीवन को जकड़े हुए हैं। जबकि वे इससे अंजान हैं कि वे यादों को पकड़े हैं, उन्हें भूल नहीं पा रहे। खराब यादों को याद करने से कोई फायदा नहीं, उल्टे इससे नुक्सान की गुंजाइश अधिक रहती है। कोई व्यक्ति अपनी क्षति चाहता नहीं।’
काकी खुद यादों में खोयी रहती है। उसने मुझे अपना जीवन-अनुभव बताया है और बता रही है। सोचता हूं कि हमारे बुजुर्ग किस तरह हर चीज को सहेज कर रखते हैं, ताकि हमें उनसे रुबरु करा सकें। ‘बुढ़ापे का सहारा यादों में कटता है’-ऐसा बूढ़ी काकी ने बताया है। वह बहुत कुछ बताना चाहती है। उसकी बातें सच्चाई की तह-दर-तह प्रस्तुति हैं।
काकी कहती है,‘यादों को समेटने का वक्त आ गया है। बुढ़ापा चाहता है कि जिंदगी थमने से पहले यादों को फिर जीवित कर लो। शायद कुछ पल का सुकून मिल जाए। शायद कुछ पल पुराना जीवन जीकर थोड़ा हैरान खुद को किया जाए। कितना अच्छा हो, कितना मजेदार हो, कितना शानदार हो वह वक्त। मैं यादों की पोटली समय-समय पर खोलती रहती हूं ताकि उन्हें बिखेर कर फिर से समेट सकूं। यह वाकई जीवन को नये रंग से भर देता है।’
-harminder singh
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हमारे प्रेरणास्रोत | हमारे बुजुर्ग |
...ऐसे थे मुंशी जी ..शिक्षा के क्षेत्र में अतुलनीय काम था मुंशी जी का ...अपने अंतिम दिनों में | तब एहसास होगा कि बुढ़ापा क्या होता है? सम्मान के हकदार नेत्र सिंह रामकली जी दादी गौरजां |
>>मेरी बहन नेत्रा >>मैडम मौली | >>गर्मी की छुट्टियां >>खराब समय >>दुलारी मौसी >>लंगूर वाला >>गीता पड़ी बीमार | >>फंदे में बंदर जानवर कितना भी चालाक क्यों न हो, इंसान उसे काबू में कर ही लेता है। रघु ने स्कूल से कहीं एक रस्सी तलाश कर ली. उसने रस्सी का एक फंदा बना लिया |
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अपने याद आते हैं राजाराम जी घर से दूर रह रहे हैं। उन्होंने कई साल पहले घर को अलविदा कह दिया है। लेकिन अपनों की दूरी अब कहीं न कहीं परेशान करती है, बिल्कुल भीतर से |
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ब्लॉग वार्ता : कहीं आप बूढ़े तो नहीं हो रहे -Ravish kumar NDTV | इन काँपते हाथों को बस थाम लो! -Ravindra Vyas WEBDUNIA.com |