हम कई लड़के इकट्ठे होकर कई बार उलजलूल योजनायें बना चुके थे। सफलता एक बार भी हाथ नहीं लगी। लेकिन हाथ-पैर को हिला-डुलाने में कई बार तकलीफें महसूस अवश्य कीं। खैर, अबकी बार किसी जानवर पर सैर करने का प्लान मेरे सहपाठियों ने तैयार कर लिया। योजना मंडली में केवल चार ही बंदे रह गये थे, क्योंकि बाकी ‘रिस्क’ लेना नहीं चाहते थे। उनका कहना था,‘‘अभी और जीना है।’’ हमने भी साफ कह दिया था,‘‘अगर सही सलामत रहे तो फिर मिलेंगे।’’ वैसे इतना खतरनाक काम हम करने नहीं जा रहे थे।
अंत में कुत्ते के नाम पर सबने सहमति जता दी। कुत्ते की सवारी करने का प्लान बहुत महंगा साबित होने वाला था। गधे के बारे में सोचा था, लेकिन एक दोस्त ने ऐसी कहानी सुनाई की हमारे रोंगटे खड़े हो गये। वह और उसका एक मित्र मोहल्ले के बाहर चरने वाले एक छोटे-से गधे के बच्चे को उल्लू बनाकर उसकी पीठ पर बैठना चाहते थे। जब तक उन्हें उसकी दुल्लती का ज्ञान नहीं था। दोपहर के समय तपती गरमी में अकेले गधे के पास भी पहुंच गये। साथ में एक हल्की कुर्सी भी थी, ताकि आसानी से सवार हुआ जा सके। एक पीठ पर बैठ गया, गधा शांत खड़ा था। दोनों बड़े खुश थे। तभी गधे की मां कहीं से आ गयी। बच्चा अपनी मां को देखकर दौड़ने लगा। एक मित्र जोकि गधे पर सवार था डर गया। दूसरा मित्र गधे की पूंछ पकड़ कर उसे रोकने लगा। गधा रुक गया, लड़के ने जैसे ही पूंछ छोड़ी, गधे ने इतनी तेज अपनी पिछली लात से प्रहार किया कि वह लड़का कई दिन तक घर से बाहर नहीं निकला। लात उसके जबड़े पर लगी थी। वहां कुछ दांत जरुर बिखरे थे। गधे के ऊपर बैठा लड़का सैर न कर सका। आज भी वह क्षण उसे याद आता है। ‘‘शायद मैंने सवारी गलत चुनी थी।’’ वह अपना मुंह खोल टूटे दांतों की ओर इशारा करते हुए कहता है।
मोहल्ले में सभी मित्र आ गये। मैंने उन्हें एक कुत्ते के बारे में बताया था। उसे प्यार से ‘टाइगर’ कहते थे। वह सीधा-सादा था, लेकिन ‘टाइगर’ बिल्कुल नहीं। पास ही एक बाग पड़ता था। वहां से रास्ता होकर सड़क तक जाता था। वह रास्ता खाली रहता। टाइगर को एक रोटी का टुकड़ा देकर वहां आसानी से ले जाया जा सकता था। हमने वही किया। पहले मैंने अपनी बहादुरी का परिचय देने का फैसला किया। मैं टाइगर के ऊपर सवारी के लिए तैयार था। अपने को जकड़ कर रस्सी से बांध लिया। कुत्ते के आगे मेरा मित्र रोटी का टुकड़ा लिए भागा। टाइगर ने दौड़ना शुरु किया। मैं वजन में हल्का था। मैं सवार था एक कुत्ते पर। पर यह क्या, मेरा संतुलन बिगड़ गया। मेरे पैर रस्सी से कस कर बंधे थे। टाइगर आगे-आगे दौड़ रहा था, मैं उसके पीछे घिसट रहा था। मेरी कमर घर्षण से तप चुकी थी। काफी देर बाद मेरे मित्रों ने टाइगर पर काबू पाया। सवारी करने की यह योजना भी फ्लाप हो गयी।
अगले दिन स्कूल में मित्रों ने योजना बनाई की क्यों न गधे की ही सवारी की जाये। अपने मित्र की सुनी कहानी और कुछ लागों के गधों के साथ घटे खटटे अनुभवों से मैंने इस योजना से हाथ खींच लिया। मेरे तीन मित्र इसपर अड़े हुए थे। मैंने कह दिया कि गधे की लात का वार बड़ा खतरनाक होता है, बच के रहना। शाम को मोहल्ले के मैदान में एक गधा उन्हें मिल गया। दो जने उसपर सवार हो गये, तीसरा मेरे पास खड़ा था। उन्हें मजबूती से रस्सी से बांध दिया गया ताकि गिर न सकें। मैंने एक डंडे से उसे हांक दिया। गधे पर सवार मित्रों ने कहा,‘‘अबकी बार जरा तेज से डंडा मारना।’’ मैंने पूरे जोश में आकर गधे की टांगों पर डंडा जमा दिया। गधे की चीख निकल गयी। ढेंचू-ढेंचू कर गधे ने दौड़ लगा दी। हमें पता नहीं चला कि गधा फिर उन्हें लेकर कहां गया। काफी इंतजार कर हम घर लौट गये।
अगली सुबह वे दोनों मित्र स्कूल नहीं आये। पता चला कि अस्पताल में भर्ती हैं। ‘‘हो गया वही जिसका डर था।’’ मैंने कहा। उन दोनों के हाथ उठ नहीं रहे थे, टांगों पर भी सफेद पट्टी बंधी थी। उनकी कथा कारुणिक थी। उन्होंने एक ही बात को कहा,‘‘पता नहीं कहां-कहां घसीटे गये। अगर बंधे न होते तो बच जाते।’’
आज भी जब उन्हें कहीं कोई गधा मिलता है, वे उसके आगे हाथ जोड़कर निकल जाते हैं।
-हरमिंदर singh
Monday, June 8, 2009
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| हमारे प्रेरणास्रोत | हमारे बुजुर्ग |
..शिक्षा के क्षेत्र में अतुलनीय काम था मुंशी जी का ...अपने अंतिम दिनों में | तब एहसास होगा कि बुढ़ापा क्या होता है? सम्मान के हकदार नेत्र सिंह रामकली जी दादी गौरजां |
![]() >>मेरी बहन नेत्रा >>मैडम मौली | >>गर्मी की छुट्टियां >>खराब समय >>दुलारी मौसी >>लंगूर वाला >>गीता पड़ी बीमार | >>फंदे में बंदर जानवर कितना भी चालाक क्यों न हो, इंसान उसे काबू में कर ही लेता है। रघु ने स्कूल से कहीं एक रस्सी तलाश कर ली. उसने रस्सी का एक फंदा बना लिया |
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सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य गिरीराज सिद्धू ने व्यक्त किया अपना दुख बुढ़ापे का सहारा गरीबदास उन्हीं की श्रेणी में आते हैं जिन्हें अपने पराये कर देते हैं और थकी हड्डियों को सहारा देने के बजाय उल्टे उनसे सहारे की उम्मीद करते हैं |
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अपने याद आते हैं राजाराम जी घर से दूर रह रहे हैं। उन्होंने कई साल पहले घर को अलविदा कह दिया है। लेकिन अपनों की दूरी अब कहीं न कहीं परेशान करती है, बिल्कुल भीतर से |
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