सुबह का मौसम बड़ा शान्त होता है। टहलने वालों के लिये अतिलाभकारी। सड़के भी खाली होती है तो कोई परेशानी भी नहीं। धूल धक्कड़ ठहरा हुआ होता, बिना कोई हलचल मचाये। अच्छी सेहत चाहने वालों को यह मौका गंवाना नहीं चाहिये।
इन दिनों मौसम गर्म है। मौसम के बदलाव के साथ तापमान आर्द्र या शुष्क होता रहता है। चार बजे का जागना शायद कोई बुरा भी नहीं है। इसमें एक शर्त को जोड़ा जा सकता है कि आपने आठ या छः घण्टे की नींद ली हो। वैसे लम्बे दिन जारी है। दिन में दोपहर के समय एक-आद घण्टा आराम करना या नींद लेना बेकार बात नहीं है।
चार बजे उठने को जाने कितने जमाने से श्रेष्ठ माना जाता है। भगवान का भजन इस समय याद किया जाये तो क्या कहने। लेकिन बहुत से लोगों के पास समय होते हुए भी समय नहीं है। दरअसल हम उलझे हुऐ हैं और यह उलझन कुछ-कुछ तरक्की की और इशारा करती है। मगर तरक्की में भी तेजी की जरूरत होती है जिसे अच्छे स्वास्थ्य से पाया जा सकता है। हम ही इसमें शामिल है। यह हमारे ही लिये है।
यह एक समस्या है कि हम आरामतलब भी ज्यादा हो गये है। पेटू भी हैं ही। वैसे आदत डालने में थोड़ी बुराई है। कुछ आदतें बुरी हैं, तो एक अच्छी आदत कपड़ों की तरह कस के लपेट लो, बदलाव आना ही है। क्या पता इससे कुछ बुरी आदतों का दम घुट जाये।
मै दूध का धुला खुद को कैसे कह सकता हूं। अलार्म मैने चार बजे का लगाया तो कई बार उठा पांच बजे। अलार्म बेचारा यूं ही बजता रहा। शायद नीदें बहुत गहरी रहीं होंगी। लगातार चार या पांच दिन की सुबह की हल्की दौड़। फिर तीन चार दिन का आराम, वही पुराना सुस्त ढर्रा, बिना फायदे वाला। फिर कुछ दिन का टहलना, फिर नहीं। यह क्रम अजीब लगता है। हम अपने आप को बदलना नहीं चहाते। कई मामलों में हम सब ढीठ होते हैं।
दूसरों को नसीहतें देने का सबसे बड़ा ठेका जैसे हमने ले रखा है। ‘‘अरे! भई आप ऐसा क्यों नही करते? वैसा क्यों नहीं करते? यह बढिया है? और न जाने क्या-क्या। नसीहतें दर नसीहतें पर खुद को बदलने की तैयारी कब करेगें खुद भी नहीं जानते।
एक बात साफ है कि मैंने भोर काल में स्वयं में हुऐ परिर्वतनों को महसूस किया है। दिन भर की सुस्ती को कई गुना कम किया है। अपनी मानसिकता में बदलाव का अनुभव करने का मौका मेंने गंवाया नहीं। महीने में लगभग बीस दिन सुबह की ठण्डी हवा के झोकों से रूबरू हुआ हूं, यह वाकई मजेदार रहा।
वही पुरानी कहावत,‘उम्मीद पर दुनिया कायम है’, अपने लिये कहता हूं। शायद इस लेख को लिखने के बाद तीसों दिन सुबह की ताजगी का आनंद लूं।
अब बारी आती है कारण गिनाने की। देर से उठने के सबके अपने-अपने कारण। रात को देर से सोये। बिजली नहीं थी। मच्छरों का हमला। रात जागकर गुजारी। प्रश्न उठा कि सोये कब थे? उत्तर-‘पता नहीं चला कब आंख लग गयी।’
मेरा अपना कारण -दिनभर पी. सी. के साथ झगड़ा। रात दस से बारह इंटरनेट पर कई अखबारों को पढ़ा। प्रश्न उठा अखबार तो दिन में भी पढे जा सकते हैं? उत्तर-‘दिन में सब पढते हैं।’ दरअसल समय नहीं मिल पाता।
खैर छोडि़ये प्रश्न उत्तर का खेल। हम कई बुजुर्गों से जवान होते हुए भी पीछे हैं। मैने कई उम्रराज सुबह टहलते देखे हैं। पूर्व बेसिक शिक्षा अधिकारी नेत्र पाल सिंह से अभी तक दो बार सुबह के समय मुलाकात हुई। वैसे वे अक्सर मिलते ही रहते हैं। मैंने उनसे पूछा,‘‘आप इसी तरह रोज घूमने आते हैं।’’ उनका जबाव छोटा था,‘‘कभी इस राह निकल जाता हूं, कभी उस रास्ते।’’ उनकी बूढ़ी हड्डियां आज भी जवानी का एहसास कराती हैं। शायद उनसे मैं कुछ प्रेरणा ले सकूं।
मैं जिस समय टहलने निकलता हूं, उस समय मोहल्ले की मस्जिद के मुल्ला अजान लगा रहे होते हैं। कुछ दूरी पर चैराहे के पास बने मंदिर में घंटियों की गूंज सुकून पहुंचाती है। सुन्दर भक्ति संगीत बज रहा होता है। थोड़े कदम बढ़ाता हूं जो गुरुद्वारे में गुरुवाणी पढ़ी जा रही होती है। मन वाह! करने को करता है। मैं तो इसे कुछ मिनटों का धार्मिक पयर्टन कहता हूं। बाहें फैलाने का मन करता है, शांति, आनंद कितना है जिसे समेटा जा सके।
-by HARMINDER SINGH
Saturday, June 20, 2009
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हमारे प्रेरणास्रोत | हमारे बुजुर्ग |
...ऐसे थे मुंशी जी ..शिक्षा के क्षेत्र में अतुलनीय काम था मुंशी जी का ...अपने अंतिम दिनों में | तब एहसास होगा कि बुढ़ापा क्या होता है? सम्मान के हकदार नेत्र सिंह रामकली जी दादी गौरजां |
>>मेरी बहन नेत्रा >>मैडम मौली | >>गर्मी की छुट्टियां >>खराब समय >>दुलारी मौसी >>लंगूर वाला >>गीता पड़ी बीमार | >>फंदे में बंदर जानवर कितना भी चालाक क्यों न हो, इंसान उसे काबू में कर ही लेता है। रघु ने स्कूल से कहीं एक रस्सी तलाश कर ली. उसने रस्सी का एक फंदा बना लिया |
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सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य गिरीराज सिद्धू ने व्यक्त किया अपना दुख बुढ़ापे का सहारा गरीबदास उन्हीं की श्रेणी में आते हैं जिन्हें अपने पराये कर देते हैं और थकी हड्डियों को सहारा देने के बजाय उल्टे उनसे सहारे की उम्मीद करते हैं |
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अपने याद आते हैं राजाराम जी घर से दूर रह रहे हैं। उन्होंने कई साल पहले घर को अलविदा कह दिया है। लेकिन अपनों की दूरी अब कहीं न कहीं परेशान करती है, बिल्कुल भीतर से |
दैनिक हिन्दुस्तान और वेबदुनिया में वृद्धग्राम |
ब्लॉग वार्ता : कहीं आप बूढ़े तो नहीं हो रहे -Ravish kumar NDTV | इन काँपते हाथों को बस थाम लो! -Ravindra Vyas WEBDUNIA.com |
जीवन के एक परम सत्य से जूझने का अवसर देता है आपका ब्लॉग।
ReplyDelete-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
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