बूढ़ी काकी कहती है-‘‘बुढ़ापा तो आना ही है। सच का सामना करने से भय कैसा? क्यों हम घबराते हैं आने वाले समय से जो सच्चाई है जिसे झुठलाना नामुमकिन है।’’.

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Friday, June 12, 2009

रसहीनता का आभास

काकी को लगता है कि उसने जीवन को भरपूर जिया। उसने मुश्किलों को झेला, दुनिया के असल रंगों को करीब से देखा। हर उस चीज को देखा जिनसे जीवन प्रभावित होता है। उसने यह पाया कि बिना मुसीबतों के हल किए आगे नहीं बढ़ा जाता। वक्त का दायरा आज ऐसा है, लेकिन कल बदल जाए, तब क्या हो? तमाम जिंदगी उलझे रहते हैं हम। उलझनें हैं कि मिटने का नाम नहीं लेतीं।

बूढ़ी काकी को देखता हूं तो लगता है जैसे जीवन का सार इन सिलवटों में सिमटा है। झुर्रियां काया को बेजान बनाती हैं, पर यह सब यूं ही नहीं हो गया। संघर्ष के परिणाम किसी को भी थका सकते हैं। जीवन की लंबी लगने वाली लड़ाई अब छोटी मालूम पड़ती है। उम्र ढलने पर योद्धा निहत्था हो जाता है। ऐसा उसकी मजबूरी है क्योंकि जीवन में वक्त की बहुत अहमियत है। समय गुजरने के करीब है और दिन ढलने वाला है। पंछी को अपने घर जाना है।

सभी रसों का स्वाद पाकर, बाद में रसहीनता का आभास होता है। काकी कहती है,‘‘जीवन सुखों और दुखों से भरा है। यहां रंगीनियां एक ओर हैं, उनकी छटा निराली है। यहां रोते-बिलखते-तड़पते लोगों का मेला भी है। स्वाद की अनेक वस्तुएं हैं और आनंद मनाने के साधन भी। सब कुछ तो है हमारे पास।’’

‘‘विभिन्न तरह के जायकों से संसार भरा है और उसमें गोता इंसान लगा रहा है। रस का पान करते-करते जीवन छोटा लगता है क्योंकि ज्यादातर लोग उसे ही आनंद का असली रुप समझ लेते हैं। यह उनकी भूल होती है।

सिलवटें इकट्ठा होने पर अहसास होता है कि इतने स्वाद होते हुए भी जीवन रसहीन है। नीरसता और हताशा का माहौल बहुत कुछ सोचने को विवश करता है। वक्त कई जायके दे जाता है- अनगिनत स्वादों से भरे।

जीवन का मखौल उड़ाने वाले प्राय: अंतिम समय पीछे मुड़कर देखते हैं। तब सारे आनंद विदा ले चुके होते हैं। वे कह चुके होते हैं-‘हमारा साथ यहीं तक था।’ देह को देखकर चौंकना स्वभाविक है। फिर थका-हारा व्यक्ति बीते दिनों की चमकीली रेत को सोचकर मायूस होता है क्योंकि आज उसके हाथ पर रेत को भी शर्म महसूस होती है।’’

मुझे लगने लगा कि काकी जीवन की सच्चाई को धीरे-धीरे ही सही, अपनी पोटली से बाहर निकाल रही है। जीवन यह कहता है कि वह तृप्ति की तलाश में यहां आया था, तलाश अधूरी रही, अतृप्त होकर जा रहा है।

-harminder singh

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सम्मान के हकदार

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कल्याणी-एक प्रेम कहानी मेरा स्कूल बुढ़ापा

....भाग-1....भाग-2
सीधी बात नो बकवास

बहुत कुछ बदल गया, पर बदले नहीं लोग

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युवती से शादी का हश्र भुगत रहा है वृद्ध

बुढ़ापे के आंसू

बूढ़ा शरीर हुआ है इंसान नहीं

बुढ़ापा छुटकारा चाहता है

खोई यादों को वापिस लाने की चाह

बातों बातों में रिश्ते-नाते बुढ़ापा
ऐसा क्या है जीवन में?

अनदेखा अनजाना सा

कुछ समय का अनुभव

ठिठुरन और मैं

राज पिछले जन्म का
क्योंकि तुम खुश हो तो मैं खुश हूं

कहानी की शुरुआत फिर होगी

करीब हैं, पर दूर हैं

पापा की प्यारी बेटी

छली जाती हैं बेटियां

मां ऐसी ही होती है
एक उम्मीद के साथ जीता हूं मैं

कुछ नमी अभी बाकी है

अपनेपन की तलाश

टूटी बिखरी यादें

आखिरी पलों की कहानी

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जानवर कितना भी चालाक क्यों न हो, इंसान उसे काबू में कर ही लेता है। रघु ने स्कूल से कहीं एक रस्सी तलाश कर ली. उसने रस्सी का एक फंदा बना लिया

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दो बूढ़ों का मिलन

दोनों बूढ़े हैं, फिर भी हौंसला रखते हैं आगे जीने का। वे एक सुर में कहते हैं,‘‘अगला लोक किसने देखा। जीना तो यहां ही है।’’
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इक दिन बिक जायेगा माटी के मोल
प्रताप महेन्द्र सिंह कहते हैं- ''लाचारी और विवशता के सिवाय कुछ नहीं है बुढ़ापा. यह ऐसा पड़ाव है जब मर्जी अपनी नहीं रहती। रुठ कर मनाने वाला कोई नहीं।'' एक पुरानी फिल्म के गीत के शब्द वे कहते हैं-‘‘इक दिन बिक जायेगा, माटी के मोल, जग में रह जायेंगे, प्यारे तेरे बोल।’’

...............कहानी
[kisna.jpg]
किशना- एक बूढ़े की कहानी
(भाग-1)..................(भाग-2)
ये भी कोई जिंदगी है
बृजघाट के घाट पर अनेकों साधु-संतों के आश्रम हैं। यहां बहुत से बूढ़े आपको किसी आस में बैठे मिल जायेंगे। इनकी आंखें थकी हुयी हैं, येजर्जर काया वाले हैं, किसी की प्रेरणा नहीं बने, हां, इन्हें लोग दया दृष्टि से जरुर देखते हैं

अपने याद आते हैं
राजाराम जी घर से दूर रह रहे हैं। उन्होंने कई साल पहले घर को अलविदा कह दिया है। लेकिन अपनों की दूरी अब कहीं न कहीं परेशान करती है, बिल्कुल भीतर से

कविता.../....हरमिन्दर सिंह .
कभी मोम पिघला था यहां
इस बहाने खुद से बातें हो जायेंगी
विदाई बड़ी दुखदायी
आखिर कितना भीगता हूं मैं
प्यास अभी मिटी नहीं
पता नहीं क्यों?
बेहाल बागवां

यही बुढापा है, सच्चाई है
विदा, अलविदा!
अब कहां गई?
अंतिम पल
खत्म जहां किनारा है
तन्हाई के प्याले
ये मेरी दुनिया है
वहां भी अकेली है वह
जन्म हुआ शिशु का
गरमी
जीवन और मरण
कोई दुखी न हो
यूं ही चलते-चलते
मैं दीवाली देखना चाहता हूं
दीवाली पर दिवाला
जा रहा हूं मैं, वापस न आने के लिए
बुढ़ापा सामने खड़ा पूछ रहा
मगर चुप हूं मैं
क्षोभ
बारिश को करीब से देखा मैंने
बुढ़ापा सामने खड़ा है, अपना लो
मन की पीड़ा
काली छाया

तब जन्म गीत का होता है -रेखा सिंह
भगवान मेरे, क्या जमाना आया है -शुभांगी
वृद्ध इंसान हूं मैं-शुभांगी
मां ऐसी ही होती है -ज्ञानेंद्र सिंह
खामोशी-लाचारी-ज्ञानेंद्र सिंह
उम्र के पड़ाव -बलराम गुर्जर
मैं गरीबों को सलाम करता हूं -फ़ुरखान शाह
दैनिक हिन्दुस्तान और वेबदुनिया में वृद्धग्राम
hindustan vradhgram ब्लॉग वार्ता :
कहीं आप बूढ़े तो नहीं हो रहे
-Ravish kumar
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