उछलती हुई अभिलाषायें हमें बहुत कुछ बता देती हैं। उनका इशारा कई बार हमारी समझ से बाहर होता है। जवानी बुढ़ापे से पहले खूब हंसती-खेलती है। अंतिम दिनों की त्रासदी से पहले का यह जश्न अजीब नहीं होता। यह सच्चाई है कि जवानी कुलांचे मारती है और कहती है,‘मेरा क्या कहना? बस मैं ही मैं हूं।’
उधर बुढ़ापा जवानी को देखकर हल्की मुस्कान लाता है। कहता है,‘मैं तुम्हारा ही इंतजार कर रहा हूं।’ पर बुढ़ापे की आवाज जवानी के कानों तक पहुंच नहीं पाती।
एक ओर जोश है, तो दूसरी तरफ निराशा से सना शरीर। दमकती आंखें और फड़फड़ाती बाती में बहुत फर्क होता है। खेल का योद्धा तीव्रता को हांकता हुआ आगे बढ़ता है। अनगिनत दास और दासियों का राजा। हुंकार भरता हुआ, मानो समय उसने मुट्ठी में कर लिया हो। भ्रम, बहुत बड़ा भ्रम उसके मस्तिष्क को जकड़े हुए है। आंखों की पट्टी नजर को धुंधला करती है। पर योद्धा तो हवा से बातें करता है। एक वेग जो थमता नहीं। वाह, अद्भुत शक्ती का परिचय।
उधर थकी आंखें पल-पल की कीमत जानने वाली। अब अंतिम पल का इंतजार है और आखिरी उड़ान की तैयारी। पेड़ पहले छायादार था, वक्त की मार न झेल पाया। सूखे ठूंठ की जर्जरता उसकी आखिरी निशानी है। जश्न कब के अलविदा कह चुके। नदियों का पानी कब का सूख चुका। सब सूना-सा लगता है। जीवन का अंतिम छोर बस सिमटने को है। कांपती अंगुलियां खिलखिला नहीं सकतीं, सिर्फ सिरे को स्पर्श कर सकती हैं।
विदाई की रस्म नहीं, बस चुपचाप जाना है। कभी ये था, कभी वो, किस्सा पुराना है। मंजिल नयी थी कभी, अब सिर्फ अफसाना है। बुढ़ापा सिलटों की गहराई को जानता है। जवानी अभी उनमें नहीं नहायी है। कमाल है, जौहर दिख चुका जाने कब का। जिंदगी ठगी हुई लगती है। वीरान गलियों का थका-हारा मुसाफिर रोशनी खो चुका है। जालों की अंगड़ायियां रह रहकर चिपकती हैं।
जवानी अंजान है, बुढ़ापा बेजान। शोर मचा था, अब थमा है। यात्रा की तैयारी है, अब किससे यारी है। बिछड़ने की बारी है, मगर मंद मुस्कान के साथ। स्मरण उन पलों का जो अनमोल थे, आज उनका कोई मोल नहीं। जीवन चला तो था खुशी-खुशी, अब जा रहा है दुखी-दुखी।
-harminder singh
Thursday, June 18, 2009
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| हमारे प्रेरणास्रोत | हमारे बुजुर्ग |
..शिक्षा के क्षेत्र में अतुलनीय काम था मुंशी जी का ...अपने अंतिम दिनों में | तब एहसास होगा कि बुढ़ापा क्या होता है? सम्मान के हकदार नेत्र सिंह रामकली जी दादी गौरजां |
![]() >>मेरी बहन नेत्रा >>मैडम मौली | >>गर्मी की छुट्टियां >>खराब समय >>दुलारी मौसी >>लंगूर वाला >>गीता पड़ी बीमार | >>फंदे में बंदर जानवर कितना भी चालाक क्यों न हो, इंसान उसे काबू में कर ही लेता है। रघु ने स्कूल से कहीं एक रस्सी तलाश कर ली. उसने रस्सी का एक फंदा बना लिया |
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सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य गिरीराज सिद्धू ने व्यक्त किया अपना दुख बुढ़ापे का सहारा गरीबदास उन्हीं की श्रेणी में आते हैं जिन्हें अपने पराये कर देते हैं और थकी हड्डियों को सहारा देने के बजाय उल्टे उनसे सहारे की उम्मीद करते हैं |
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अपने याद आते हैं राजाराम जी घर से दूर रह रहे हैं। उन्होंने कई साल पहले घर को अलविदा कह दिया है। लेकिन अपनों की दूरी अब कहीं न कहीं परेशान करती है, बिल्कुल भीतर से |
| दैनिक हिन्दुस्तान और वेबदुनिया में वृद्धग्राम |
![]() | ब्लॉग वार्ता : कहीं आप बूढ़े तो नहीं हो रहे -Ravish kumar NDTV | इन काँपते हाथों को बस थाम लो! -Ravindra Vyas WEBDUNIA.com |


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अच्छा लेखन, अच्छी अभिव्यक्ति। सराहनीय। यौवन की चाह भी पढें...मेरे ब्लाग का विजिट करें।
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