गीता बीमार हो गयी। उसे अस्पताल में भर्ती कराया गया। रघु के पेट में गड़बड़ जारी थी। उधर मैं भी दादी से पेट दर्द की शिकायत कर चुका था। लगता था, आमों का लालच इसका कारण था।
दादी ने मुझसे कहा,‘क्यों आम चुराये?’
‘मैंने कहां चोरी की।’ मैं बोला। ‘रघु पेड़ पर चढ़कर आम तोड़े जा रहा था। मैं इकट~ठा कर रहा था, बस।’
‘चोरी में तुम भी शामिल थे न।’
‘पर दादी। मैंने चोरी नहीं की।’
‘मैंने कब कहा, तुमने चोरी की।’
‘ओह, दादी छोड़ो। यह बताओ कि पेट का दर्द कैसे दूर हो?’
‘पहले अपनी गलती मानो।’ दादी बोली।
‘चलो, माफ कर दो। अगली बार ऐसा नहीं होगा।’ मैंने मुंह पिचकाकर कहा।
‘ठीक है, मैं तुम्हारे लिए एक औषधि बनाती हूं। उसे पीकर तुम स्वस्थ हो जाओगे। थोड़ी तीखी होगी, पर आंख बंद कर गटक जाना, समझे तुम।’ दादी ने कहा।
मैंने दादी का कहा अमल किया। औषधि जितनी तीखी थी, वह मैं ही जानता हूं। मैंने झट गुड़ का एक टुकड़ा खाया, तब जाकर मेरी हालत काबू में आयी।
मैं सीधा रघु के घर पहुंचा। वह दीवार से पीठ सटाये पहाड़े याद कर रहा था। मैंने उससे हालचाल पूछा।
वह बोला,‘अब ठीक हूं। तुम्हारे पेट का दर्द कैसा है?’
मैंने दादी की औषधि का जिक्र किया। यह सुनकर रघु की हंसी छूट पड़ी।
‘तीखी, वाह! कमाल हो गया।’ रघु ने कहा।
‘मैं सच कह रहा हूं। मुझे बाद में गुड़ खाना पड़ा।’ मैं बोला। ‘खैर, हंसना छोड़। यह बता कि गीता की तबीयत सुधरी की नहीं।’
‘सुधार हो रहा है। डाक्टर ने अभी कुछ दिन उसे अस्पताल में रहने को कहा है। मां उसके साथ है।’ रघु गंभीर था।
हम अस्पताल में पहुंचे। गीता हमें देखते ही उठने को हुई, पर नर्स ने उसे रोक लिया।
‘अब आम चुराने रघु के साथ मत जाना और हां, इतने आम मत खाना।’ मैंने मजाक किया।
गीता हल्का मुस्कराई।
रघु सांप-सीड़ी का खेल लाया था। हमने वहीं खेलना शुरु कर दिया। गीता लेटी हुई ही अपनी चाल बताती जाती। मैं गोटी आगे खिसकाता जाता। गीता ने हम दोनों को हरा दिया। कई बार मुझे हार का सामना करना पड़ा, मगर गीता हर बार जीत जाती। रघु ने गोटियां बदलने की असफल कोशिशें कीं, पर मैंने उसे देख लिया।
‘तुम बाज नहीं आओगे रघु।’ मैंने कहा। ‘चालाकी करते जरुर हो। जीतने से तो रहे।’
‘मैं नहीं जीत पा रहा, लेकिन गीता को तुम भी हरा नहीं पाओगे।’ रघु बोला।
खेल से ऊब जाने के बाद रघु बोला,‘चलो एक दूसरे से पहाड़े सुनते हैं।’
मै चौंका,‘पहाड़े।’
‘पहाड़ों से मुझे चिढ़ हैं। कोई और खेल खेलते हैं।’ मैं कहा।
‘फिर क्या गेंद-बल्ला अस्पताल में खेलोगे।’ रघु बोला।
काफी देर बहस के बाद हमने निश्चय किया कि गीता जिस खेल को कहेगी, वह खेला जायेगा। गीता ने कहा कि वह पहाड़ों का खेल खेलना चाहेगी। गीता की बात कैसे टाली जा सकती थी?
खेल के अनुसार जिसका नंबर आता वह किसी से भी कोई पहाड़ा पूछ सकता था, लेकिन केवल 15 तक। मुझे दो, तीन, दस और ग्यारह का पहाड़ा पक्का रटा था। पहाड़ों के इस खेल में मेरी पोल खुलती गयी। रघु की मां पास में बैठी हमें देख रही थी। मुझे एक भी पाइंट न मिल सका। उल्टा पास बैड पर पड़ा एक मरीज मुझ पर हंस रहा था। उसने कहा,‘क्या स्कूल के पीछे पढ़ते हो भाई, जो चार का पहाड़ा भी ढंग से याद नहीं।’ गीता भी हंसी न रोक पायी। देखा देखी वहां मौजूद सभी लोग ठहाका लगाकर मुझपर हंस पड़े। शर्म के मारे मैं मुंह नीचा कर बैठा रहा।
मैंने सोचा कि इससे अच्छा अस्पताल ही न आता। कम से कम उपहास तो न होता। मैं मन ही मन रघु को कोस रहा था और साथ ही गीता को जिसने पहाड़ों का खेल खेलने को कहा था। पहाड़े मेरे लिए पहाड़ चढ़ने के समान थे। मैं मन ही मन सोच रहा था कि किस दिन पहाड़ की चोटी पर झंडा फहराऊंगा, लेकिन चढ़ाई बहुत कठिन थी।
-harminder singh
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