धीरे-धीरे तीस बरस बीत गये। जो वस्तुयें नयी थीं कभी तीन दशक पहले आज पुरानी होने का अहसास कर रही थीं। उसकी जर्जर अवस्था को देखकर हृदय व्यथित हो रहा था। उन्हीं वस्तुओं में यदि आज किशना को रखा जाये तो कोई ज्यादति न होगी। किशना जर्जर और बूढ़ा हो गया था। उसकी खाल तक ढल चुकी थी। चेहरे पर झुर्रियां, पिचके गाल, जैसे कई दिन से नहाया नहो। ऐसा हो चला था किशना। वह उस पेड़ की तरह था, जिसकी जड़े तो हैं, पर उनमें नमीं नहीं।
उसका चेहरा भी भयावना हो गया था, जो बच्चों को भयभीत करने के लिये काफी है। हारा हुआ, अपमानित सा, चिथड़ों में लिपटा किशना, आज एक कोने में सूखे पत्ते की भांति पड़ा था। हाथों की अंगुलियां जो कभी खेत में हल चलाती थीं, आज इतनी कमजोर हो चुकी हैं कि ठीक से हिल भी सकें। पैरों को लाठी का सहारा चाहिये, जो बिन लाठी के नहीं सरकते।
किशन की बेटी अब नहीं रही थी। एक हादसे में चल बसी, पति और दो बच्चे छोड़ गयी।
‘‘बेटा, जरा पा....पानी....द....देना।’’
लड़खड़ाती आवाज में किशना बोला।
’’बुड्ढे को पानी दे छोटे।’’ बड़ा लड़का बोला।
किशना के आगे कुल्हड़ कर दिया गया। उसने धीरे-धीरे ऊपर देखा और हाथ बढ़ाया। छोटे ने कुल्हड़ को ठोकर मार दी। पानी बिखर गया। किशना असहाय सा सारा दृश्य देखता रहा। आखिर वह कर भी क्या सकता था। वृद्ध होने का फल जो भगुतना था। वह प्यास से व्याकुल था। उसने फर्श पर बिखरा पानी तक चाट लिया।
भोजन भी उसे पत्तल पर परोसा जाता था, वो भी बचा हुआ बासी, जो अच्छे-अच्छों को बीमार बना दे। पता नहीं किशना यह सब कैसे झेल रहा था। उसकी हालत गली के कुत्ते से भी बदतर हो चली थी।
उसने सदा दूसरों की सहायता की। अपने समय में उसने स्कूल खुलवाये, वृद्धाश्रम बनवाए और भी बहुत नेक काम किये। घरवालों ने उसे आज निकाल दिया।
किशना अपने वफादार नौकर दीनदयाल के साथ जैसे-तैसे भतीजे के यहां चल पड़ा। अभी कुछ ही दिन पूर्व किशना ने अपनी वसीयत अपने भतीजे और जमाई के नाम जो की थी। जमाई ने तो अपना रंग दिखा दिया। उधर भतीजा भी कम न निकला। उसने तो किशना को भिखारी का दर्जा दिया। जब किशना उसके दरवाजे पर पहुंचा तो उसने पहचानने से इंकार कर दिया और,‘‘ये ले चवन्नी और दफा हो जा यहां से’’ कहकर किशना को चवन्नी थमा दी। हाथ में सिक्का देख किशना को स्वयं पर ग्लानि हुयी।
‘‘आज समय मेरा नहीं है।’’
किशना ने अपने नौकर से कहा।
वास्तव में आज समय उसका नहीं था। वक्त की लगाम उसके हाथ से छूट चुकी थी। उसे पूछने वाला कोई नहीं था। खुद के बनवाए वृद्धाश्रम में भी उसे जगह नहीं मिली। आश्रय देने वाला आज स्वयं आश्रय के लिये तरस रहा था।
कैसा दृश्य था वह, जब फटे हाल किशना तपती दुपहरी में टूटे चप्पल पहने, सड़क पर चला जा रहा था। दीनदयाल उसके साथ था। किशना थक कर एक पेड़ के नीचे बैठ गया। उसने कुर्ते की जेब टटोली, उसमें कुछ रुपये थे। दीनदयाल को रुपये थमाते हुये वह बोला,‘‘मेरा अंत समय आ गया है। ये किसी मंदिर में चढ़ा देना।’’
दीनदयाल चला गया और सीधा शराब की दुकान पर पहुंचा। आज उसने भी नमक का असर दिखा दिया।
उधर किशना अपनों को याद कर तड़प रहा था। वह रोना चाहता था, दर्द इतना था कि रो भी न सका। आंखों की नमीं सूख चुकी थी।
व्यथित किशना ने सिर पेड़ से सटा लिया। पता ही नहीं चला कब आंख लग गयी। आंख ऐसी लगी, फिर कभी नहीं खुली।
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