बूढ़ी काकी कहती है-‘‘बुढ़ापा तो आना ही है। सच का सामना करने से भय कैसा? क्यों हम घबराते हैं आने वाले समय से जो सच्चाई है जिसे झुठलाना नामुमकिन है।’’.

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Thursday, May 22, 2008

किशना- एक बूढ़े की कहानी (भाग-2)

किशना अब बहुत धनवान हो चुका था। अपना बंगला, गाड़ी, सब कुछ तो था उसके पास। सबसे बड़ी बात यह कि उसकी बेटी अब डाक्टर बन गयी थी। उसकी मेहनत रंग लायी। उसका शहर आने का लक्ष्य पूरा हो गया था।

धीरे-धीरे तीस बरस बीत गये। जो वस्तुयें नयी थीं कभी तीन दशक पहले आज पुरानी होने का अहसास कर रही थीं। उसकी जर्जर अवस्था को देखकर हृदय व्यथित हो रहा था। उन्हीं वस्तुओं में यदि आज किशना को रखा जाये तो कोई ज्यादति न होगी। किशना जर्जर और बूढ़ा हो गया था। उसकी खाल तक ढल चुकी थी। चेहरे पर झुर्रियां, पिचके गाल, जैसे कई दिन से नहाया नहो। ऐसा हो चला था किशना। वह उस पेड़ की तरह था, जिसकी जड़े तो हैं, पर उनमें नमीं नहीं।

किशना- एक बूढ़े की कहानी (भाग-2)
लेखक : हरमिन्दर सिंह
चित्रांकन- हरमिन्दर सिंह

‘‘आज समय मेरा नहीं है।’’
किशना ने अपने नौकर से कहा।

वास्तव में आज समय उसका नहीं था। वक्त की लगाम उसके हाथ से छूट चुकी थी। उसे पूछने वाला कोई नहीं था। खुद के बनवाए वृद्धाश्रम में भी उसे जगह नहीं मिली। आश्रय देने वाला आज स्वयं आश्रय के लिये तरस रहा था।


उसका चेहरा भी भयावना हो गया था, जो बच्चों को भयभीत करने के लिये काफी है। हारा हुआ, अपमानित सा, चिथड़ों में लिपटा किशना, आज एक कोने में सूखे पत्ते की भांति पड़ा था। हाथों की अंगुलियां जो कभी खेत में हल चलाती थीं, आज इतनी कमजोर हो चुकी हैं कि ठीक से हिल भी सकें। पैरों को लाठी का सहारा चाहिये, जो बिन लाठी के नहीं सरकते।

किशन की बेटी अब नहीं रही थी। एक हादसे में चल बसी, पति और दो बच्चे छोड़ गयी।

‘‘बेटा, जरा पा....पानी....द....देना।’’
लड़खड़ाती आवाज में किशना बोला।

’’बुड्ढे को पानी दे छोटे।’’ बड़ा लड़का बोला।

किशना के आगे कुल्हड़ कर दिया गया। उसने धीरे-धीरे ऊपर देखा और हाथ बढ़ाया। छोटे ने कुल्हड़ को ठोकर मार दी। पानी बिखर गया। किशना असहाय सा सारा दृश्य देखता रहा। आखिर वह कर भी क्या सकता था। वृद्ध होने का फल जो भगुतना था। वह प्यास से व्याकुल था। उसने फर्श पर बिखरा पानी तक चाट लिया।

भोजन भी उसे पत्तल पर परोसा जाता था, वो भी बचा हुआ बासी, जो अच्छे-अच्छों को बीमार बना दे। पता नहीं किशना यह सब कैसे झेल रहा था। उसकी हालत गली के कुत्ते से भी बदतर हो चली थी।

उसने सदा दूसरों की सहायता की। अपने समय में उसने स्कूल खुलवाये, वृद्धाश्रम बनवाए और भी बहुत नेक काम किये। घरवालों ने उसे आज निकाल दिया।

किशना अपने वफादार नौकर दीनदयाल के साथ जैसे-तैसे भतीजे के यहां चल पड़ा। अभी कुछ ही दिन पूर्व किशना ने अपनी वसीयत अपने भतीजे और जमाई के नाम जो की थी। जमाई ने तो अपना रंग दिखा दिया। उधर भतीजा भी कम न निकला। उसने तो किशना को भिखारी का दर्जा दिया। जब किशना उसके दरवाजे पर पहुंचा तो उसने पहचानने से इंकार कर दिया और,‘‘ये ले चवन्नी और दफा हो जा यहां से’’ कहकर किशना को चवन्नी थमा दी। हाथ में सिक्का देख किशना को स्वयं पर ग्लानि हुयी।

‘‘आज समय मेरा नहीं है।’’
किशना ने अपने नौकर से कहा।

वास्तव में आज समय उसका नहीं था। वक्त की लगाम उसके हाथ से छूट चुकी थी। उसे पूछने वाला कोई नहीं था। खुद के बनवाए वृद्धाश्रम में भी उसे जगह नहीं मिली। आश्रय देने वाला आज स्वयं आश्रय के लिये तरस रहा था।

कैसा दृश्य था वह, जब फटे हाल किशना तपती दुपहरी में टूटे चप्पल पहने, सड़क पर चला जा रहा था। दीनदयाल उसके साथ था। किशना थक कर एक पेड़ के नीचे बैठ गया। उसने कुर्ते की जेब टटोली, उसमें कुछ रुपये थे। दीनदयाल को रुपये थमाते हुये वह बोला,‘‘मेरा अंत समय आ गया है। ये किसी मंदिर में चढ़ा देना।’’

दीनदयाल चला गया और सीधा शराब की दुकान पर पहुंचा। आज उसने भी नमक का असर दिखा दिया।

उधर किशना अपनों को याद कर तड़प रहा था। वह रोना चाहता था, दर्द इतना था कि रो भी न सका। आंखों की नमीं सूख चुकी थी।

व्यथित किशना ने सिर पेड़ से सटा लिया। पता ही नहीं चला कब आंख लग गयी। आंख ऐसी लगी, फिर कभी नहीं खुली।

देखें कहानी का पहला भाग>>>>

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प्रताप महेन्द्र सिंह कहते हैं- ''लाचारी और विवशता के सिवाय कुछ नहीं है बुढ़ापा. यह ऐसा पड़ाव है जब मर्जी अपनी नहीं रहती। रुठ कर मनाने वाला कोई नहीं।'' एक पुरानी फिल्म के गीत के शब्द वे कहते हैं-‘‘इक दिन बिक जायेगा, माटी के मोल, जग में रह जायेंगे, प्यारे तेरे बोल।’’

...............कहानी
[kisna.jpg]
किशना- एक बूढ़े की कहानी
(भाग-1)..................(भाग-2)
ये भी कोई जिंदगी है
बृजघाट के घाट पर अनेकों साधु-संतों के आश्रम हैं। यहां बहुत से बूढ़े आपको किसी आस में बैठे मिल जायेंगे। इनकी आंखें थकी हुयी हैं, येजर्जर काया वाले हैं, किसी की प्रेरणा नहीं बने, हां, इन्हें लोग दया दृष्टि से जरुर देखते हैं

अपने याद आते हैं
राजाराम जी घर से दूर रह रहे हैं। उन्होंने कई साल पहले घर को अलविदा कह दिया है। लेकिन अपनों की दूरी अब कहीं न कहीं परेशान करती है, बिल्कुल भीतर से

कविता.../....हरमिन्दर सिंह .
कभी मोम पिघला था यहां
इस बहाने खुद से बातें हो जायेंगी
विदाई बड़ी दुखदायी
आखिर कितना भीगता हूं मैं
प्यास अभी मिटी नहीं
पता नहीं क्यों?
बेहाल बागवां

यही बुढापा है, सच्चाई है
विदा, अलविदा!
अब कहां गई?
अंतिम पल
खत्म जहां किनारा है
तन्हाई के प्याले
ये मेरी दुनिया है
वहां भी अकेली है वह
जन्म हुआ शिशु का
गरमी
जीवन और मरण
कोई दुखी न हो
यूं ही चलते-चलते
मैं दीवाली देखना चाहता हूं
दीवाली पर दिवाला
जा रहा हूं मैं, वापस न आने के लिए
बुढ़ापा सामने खड़ा पूछ रहा
मगर चुप हूं मैं
क्षोभ
बारिश को करीब से देखा मैंने
बुढ़ापा सामने खड़ा है, अपना लो
मन की पीड़ा
काली छाया

तब जन्म गीत का होता है -रेखा सिंह
भगवान मेरे, क्या जमाना आया है -शुभांगी
वृद्ध इंसान हूं मैं-शुभांगी
मां ऐसी ही होती है -ज्ञानेंद्र सिंह
खामोशी-लाचारी-ज्ञानेंद्र सिंह
उम्र के पड़ाव -बलराम गुर्जर
मैं गरीबों को सलाम करता हूं -फ़ुरखान शाह
दैनिक हिन्दुस्तान और वेबदुनिया में वृद्धग्राम
hindustan vradhgram ब्लॉग वार्ता :
कहीं आप बूढ़े तो नहीं हो रहे
-Ravish kumar
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