बूढ़ी काकी कहती है-‘‘बुढ़ापा तो आना ही है। सच का सामना करने से भय कैसा? क्यों हम घबराते हैं आने वाले समय से जो सच्चाई है जिसे झुठलाना नामुमकिन है।’’.

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Monday, August 10, 2009

अब्दुल

मैं खुद को कठोर हृदय मानता हूं। रिश्तों से दूर जाने की कोशिश कर रहा था, पर ऐसा हो न सका। क्यों ऐसा नहीं हुआ, यह मैं भी नहीं जानता। इतना जरुर जान गया कि रिश्ते इंसान को कमजोर नहीं दृढ़ बनाते हैं। एक आशा होती है जो जीवन में हताशा को कम कर देती है। उम्मीद कायम है तो कुछ कठिन नहीं। मैं हार कर जीतने की कोशिश में जुटा हूं। अपने जस्बातों को किनारे नहीं कर सकता। मुझे भरोसा है कि एक दिन मैं अपने परिवार से जरुर मिलूंगा।

मेरे साथी कैदी अब्दुल ने मुझे किस्मतवाला कहा था। उसके अनुसार वह तो दुनिया में एकदम अकेला है क्योंकि उसकी दुनिया कब की तबाह हो चुकी। अब्दुल का परिवार दंगों की आग में झुलस गया। पूरा घर फूंक दिया गया। जब वह लौटा तो जले खंडहरों और राख के सिवा कुछ न था। अब्दुल एक पल के लिए ठिठक गया था। आंखों के आगे अंधेरा उभर आया था। चेहरा लाल हो चला था। मुट्टिठयां भींच कर जमीन पर दे मारीं और कहा,‘या अल्लाह, क्या किया?’ दुख इतना था कि उससे काफी देर उठा न गया। वह गश खाकर वहीं गिर पड़ा। यह दर्द अपनों के बिछुड़ने का था, उनके सदा के लिए दूर जाने का था। मौत की हंसी, जिंदगी का मातम होती है।

अब्दुल ने खुद को संभाला, टूटने से बचाया। लेकिन बुरा वक्त जब किसी का पीछा करता है तो हाथ धोकर पीछे पड़ता है। कुछ लोगों ने उसे भी जिंदा जलाने की कोशिश की। उसने मुझे जले के निशान दिखाये। वह तब किसी तरह बच निकला, लेकिन दंगे फिर भड़के तो उसे हत्या के जुर्म में मेरी कोठरी में डाल दिया गया। उससे मैंने काफी कुछ सीखा। जिंदगी में टूटी चीजों को जोड़ना सीखा। हताशा से लड़ता एक आम इंसान बिल्कुल बेबस दिखाई देता है। अब्दुल के लिए भी काले दिन आये, लेकिन उसने बताया कि जूझना इंसान को पड़ता है ताकि और मजबूती आ सके। वह डिगा नहीं, सामना करता रहा दुखों का लेकिन दिल के गहरे जख्मों को मरहम लगाने की कोशिश उसके हौंसले ने की। इंसान हैं तो दृढ़ होना भी सीखना पड़ता है। वही सब तो कर रहा था अब्दुल।

मगर शायद मैं अब्दुल जितना भीतर से मजबूत नहीं। कमजोर हो गया हूं मैं, थक गया हूं। सोच-विचार कर हृदय व्यथित हो उठता है। व्यथा हौंसला पस्त करने के औजार की तरह काम करती है। मुझमें शक्ति का संचार नहीं हो रहा। गिरे पड़े सूखे पत्ते की तरह फड़फड़ाहट का अहसास हो रहा है। यह अशांति का, उथलपुथल का कारण है। संभलने की कोशिश उतनी कारगर साबित नहीं हो रही।

-harminder singh

एक कैदी की डायरी -1-------------एक कैदी की डायरी -२

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कैदी की डायरी......................
>>सादाब की मां............................ >>मेरी मां
बूढ़ी काकी कहती है
>>पल दो पल का जीवन.............>क्यों हम जीवन खो देते हैं?

घर से स्कूल
>>चाय में मक्खी............................>>भविष्य वाला साधु
>>वापस स्कूल में...........................>>सपने का भय
हमारे प्रेरणास्रोत हमारे बुजुर्ग

...ऐसे थे मुंशी जी

..शिक्षा के क्षेत्र में अतुलनीय काम था मुंशी जी का

...अपने अंतिम दिनों में
तब एहसास होगा कि बुढ़ापा क्या होता है?

सम्मान के हकदार

नेत्र सिंह

रामकली जी

दादी गौरजां

कल्याणी-एक प्रेम कहानी मेरा स्कूल बुढ़ापा

....भाग-1....भाग-2
सीधी बात नो बकवास

बहुत कुछ बदल गया, पर बदले नहीं लोग

गुरु ऐसे ही होते हैं
युवती से शादी का हश्र भुगत रहा है वृद्ध

बुढ़ापे के आंसू

बूढ़ा शरीर हुआ है इंसान नहीं

बुढ़ापा छुटकारा चाहता है

खोई यादों को वापिस लाने की चाह

बातों बातों में रिश्ते-नाते बुढ़ापा
ऐसा क्या है जीवन में?

अनदेखा अनजाना सा

कुछ समय का अनुभव

ठिठुरन और मैं

राज पिछले जन्म का
क्योंकि तुम खुश हो तो मैं खुश हूं

कहानी की शुरुआत फिर होगी

करीब हैं, पर दूर हैं

पापा की प्यारी बेटी

छली जाती हैं बेटियां

मां ऐसी ही होती है
एक उम्मीद के साथ जीता हूं मैं

कुछ नमी अभी बाकी है

अपनेपन की तलाश

टूटी बिखरी यादें

आखिरी पलों की कहानी

बुढ़ापे का मर्म



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>>मेरी बहन नेत्रा

>>मैडम मौली
>>गर्मी की छुट्टियां

>>खराब समय

>>दुलारी मौसी

>>लंगूर वाला

>>गीता पड़ी बीमार
>>फंदे में बंदर

जानवर कितना भी चालाक क्यों न हो, इंसान उसे काबू में कर ही लेता है। रघु ने स्कूल से कहीं एक रस्सी तलाश कर ली. उसने रस्सी का एक फंदा बना लिया

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वृद्धग्राम पर पहली पोस्ट में मा. होराम सिंह का जिक्र
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वृद्धों की सेवा में परमानंद -
डा. रमाशंकर
‘अरुण’


बुढ़ापे का दर्द

दुख भी है बुढ़ापे का

सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य गिरीराज सिद्धू ने व्यक्त किया अपना दुख

बुढ़ापे का सहारा

गरीबदास उन्हीं की श्रेणी में आते हैं जिन्हें अपने पराये कर देते हैं और थकी हड्डियों को सहारा देने के बजाय उल्टे उनसे सहारे की उम्मीद करते हैं
दो बूढ़ों का मिलन

दोनों बूढ़े हैं, फिर भी हौंसला रखते हैं आगे जीने का। वे एक सुर में कहते हैं,‘‘अगला लोक किसने देखा। जीना तो यहां ही है।’’
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इक दिन बिक जायेगा माटी के मोल
प्रताप महेन्द्र सिंह कहते हैं- ''लाचारी और विवशता के सिवाय कुछ नहीं है बुढ़ापा. यह ऐसा पड़ाव है जब मर्जी अपनी नहीं रहती। रुठ कर मनाने वाला कोई नहीं।'' एक पुरानी फिल्म के गीत के शब्द वे कहते हैं-‘‘इक दिन बिक जायेगा, माटी के मोल, जग में रह जायेंगे, प्यारे तेरे बोल।’’

...............कहानी
[kisna.jpg]
किशना- एक बूढ़े की कहानी
(भाग-1)..................(भाग-2)
ये भी कोई जिंदगी है
बृजघाट के घाट पर अनेकों साधु-संतों के आश्रम हैं। यहां बहुत से बूढ़े आपको किसी आस में बैठे मिल जायेंगे। इनकी आंखें थकी हुयी हैं, येजर्जर काया वाले हैं, किसी की प्रेरणा नहीं बने, हां, इन्हें लोग दया दृष्टि से जरुर देखते हैं

अपने याद आते हैं
राजाराम जी घर से दूर रह रहे हैं। उन्होंने कई साल पहले घर को अलविदा कह दिया है। लेकिन अपनों की दूरी अब कहीं न कहीं परेशान करती है, बिल्कुल भीतर से

कविता.../....हरमिन्दर सिंह .
कभी मोम पिघला था यहां
इस बहाने खुद से बातें हो जायेंगी
विदाई बड़ी दुखदायी
आखिर कितना भीगता हूं मैं
प्यास अभी मिटी नहीं
पता नहीं क्यों?
बेहाल बागवां

यही बुढापा है, सच्चाई है
विदा, अलविदा!
अब कहां गई?
अंतिम पल
खत्म जहां किनारा है
तन्हाई के प्याले
ये मेरी दुनिया है
वहां भी अकेली है वह
जन्म हुआ शिशु का
गरमी
जीवन और मरण
कोई दुखी न हो
यूं ही चलते-चलते
मैं दीवाली देखना चाहता हूं
दीवाली पर दिवाला
जा रहा हूं मैं, वापस न आने के लिए
बुढ़ापा सामने खड़ा पूछ रहा
मगर चुप हूं मैं
क्षोभ
बारिश को करीब से देखा मैंने
बुढ़ापा सामने खड़ा है, अपना लो
मन की पीड़ा
काली छाया

तब जन्म गीत का होता है -रेखा सिंह
भगवान मेरे, क्या जमाना आया है -शुभांगी
वृद्ध इंसान हूं मैं-शुभांगी
मां ऐसी ही होती है -ज्ञानेंद्र सिंह
खामोशी-लाचारी-ज्ञानेंद्र सिंह
उम्र के पड़ाव -बलराम गुर्जर
मैं गरीबों को सलाम करता हूं -फ़ुरखान शाह
दैनिक हिन्दुस्तान और वेबदुनिया में वृद्धग्राम
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कहीं आप बूढ़े तो नहीं हो रहे
-Ravish kumar
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इन काँपते हाथों को बस थाम लो!
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