सादाब का चेहरा क्रोध से भर गया। दिल के जख्मों को फिर से कुरेदने पर दर्द बहुत होता है। उसकी चीखें गहरी बहुत होती हैं। इतनी गहरी कि पूरा शरीर थर्रा उठता है। सादाब ने अपने माथे को दोनों हाथों से पकड़ लिया और चेहरा नीचे झुका दिया। उसके घाव हरे हो गये थे।
वह चेहरे पर अजीब भाव लिये था। उसके आंसू तेजी से बहने लगे थे। अब वह रो रहा था। मैंने उसे सांत्वना देनी चाही, लेकिन उसने मेरा हाथ पीछे कर दिया। आंखें झुकी थीं, पलकें भीग चुकी थीं और उसके सुबकने की हल्की आवाज आती थी। कमीज की आस्तीन से वह बार-बार बहते पानी को पोंछता जाता। कमीज का वह हिस्सा काफी गीला हो चुका था। उसके चेहरे के साथ-साथ उसकी आंखें लाल हो गयी थीं। उसका दर्द बह कर बाहर बिखर गया था।
भगवान ने आंसू इसलिए ही बनाएं हैं ताकि हम अंदर-अंदर घुटे नहीं, ज्यादा व्यथा होने पर पिघलकर बाहर आ जाए। ईश्वर का शुक्रिया इसके लिए भी करना चाहिए। भारी मन को हल्का आंसुओं का बहना कर सकता है। पर उनका क्या जिनकी आंखों में नमीं ही न बची हो?
अंदर से तो मैं भी घुट रहा हूं। आंतरिक पीड़ा के ऐसे कितने अवसर आए होंगे जब मैं फूट-फूट कर रोया हूं। मानता हूं आंसू पीड़ा को क्षीण बिल्कुल नहीं करते, कम जरुर कर देते हैं। लेकिन बात तब हो जब पीड़ा खत्म ही हो जाए।
दुख के खात्मे के बाद सुख का कोई मतलब नहीं रहेगा। जहां सुख है, वहां दुख है। ये दोनों एक दूसरे के विपरीत होते हुए भी मिलकर चलते हैं। अंधेरा और उजाला एक दूसरे के बिना महत्वहीन हैं। उजाले की मुस्कराहट अंधकार को सिमटने पर विवश करती है।
मैं एक आम इंसान हूं जो सुख-दुख के पाटों के बीच पिस रहा है। खैर, जिंदगी में सुख क्षत-विक्षित हो गायब हो गया है। अब चारों और गिद्धों सी उदासी मंडराती है। मैं चुपचाप उसे देखता रहता हूं और कर भी क्या सकता हूं?
इंसान कमजोर होने पर दुबला लगने लगता है। उसकी ताकत कम होने लगती है। जब कष्टों का सैलाब भावनाओं से मिलकर बनता है तो शरीर की स्थिति अलग हो जाती है। बातों में वह ताजगी और रोचकता नहीं रह जाती। विचारों की मौत का सिलसिला शुरु होने लगता है। प्रारंभ में काफी उथलपुथल का दौर रहता है। मध्य में हालात बिगड़ जाते हैं और बाद में विचार शून्य समान हो जाते हैं।
--to be continued
-harminder singh
सुख दुःख के पाटों के बीच घिरे इंसान की कातरता व्यथित करती है ...मार्मिक ....!!
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