बूढ़ी काकी कहती है-‘‘बुढ़ापा तो आना ही है। सच का सामना करने से भय कैसा? क्यों हम घबराते हैं आने वाले समय से जो सच्चाई है जिसे झुठलाना नामुमकिन है।’’.

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Monday, March 1, 2010

लंगूर वाला



मैं अपनी कापी में सवाल हल कर रहा था। तभी दादी ने कहा कि वह मेरे बालों में मालिश करेगी ताकि मेरा दिमाग चुस्त रहे। मैंने दादी से कहा कि पहले मालिश हो जाए बाद में सवाल हो जायेंगे। दादी ने बालों में तेल रगड़ना शुरु किया। इतने में रघु दौड़ता हुआ आया और बोला,‘सुना है आज गांव में लंगूर का खेल दिखाने वाला आ रहा है। जल्दी कर वह आता ही होगा।’ उसने मेरा हाथ पकड़कर मुझे उठा दिया।

  मैंने कहा,‘रुक तो सही, दादी से सिक्के ले लूं।’ बालों पर आधा-अधूरी मालिश ही हुई थी। दादी ने कहा,‘बेटा इतनी जल्दी काहे की, पहले एक काम तो पूरा हो जाने दे।’

  मैंने दादी से कहा कि बाद में हो जायेगा। कुछ सिक्के ले मैं रघु के साथ चल पड़ा।

  डुगडुगी की आवाज आनी शुरु हो गयी थी।

  मैंने कहा,‘लगता है वह आ गया। दौड़ लगानी पड़ेगी।’

  गांव के बीच बरगद के पेड़ के नीचे हम दोनों हांफते हुए पहुंचे। लंगूर वाला व्यक्ति डुगडुगी बजा लोगों को इकट~ठा कर रहा था। वह कहा रहा था,‘नाच देखो, नाच देखो। भाईयो ऐसा तमाशा पहले कभी देखा नहीं होगा आपने। आओ, सब आओ, लंगूर तमाशा शुरु करने वाला है।’

  तमाशा शुरु हो गया। हमने बीच-बीच में तालियां बजाईं। लंगूर उछलकर पेड़ पर चढ़ जाता और पूंछ से उलटा लटक जाता। वह अपनी पूंछ को हवा में घुमाकर हमें हैरान कर देता। बंदर का खेल हमने कई बार देखा था, मगर लंगूर का खेल देखना पहला अनुभव था। गीता भी वहीं मौजूद थी। वह रघु की छोटी बहन थी।

  खेल खत्म होने के बाद तमाशा दिखाने वाले ने जमीन पर एक कपड़ा फैला दिया और बोला,‘भाईयो, सब पेट की खातिर है। तमाशा हमारी रोजी-रोटी है। जो इच्छा हो गरीब के कपड़े पर डाल दो। भगवान आपका भला करेगा। यह जानवर आपको दुआ देगा।’

  मैंने सिक्का कपड़े पर फेंक दिया। रघु ने जेब टटोली। फिर उसने गीता से कहा,‘जा मां से एक सिक्का ले आ।’

  गीता दौड़ी चली गयी। काफी देर बाद भी वह नहीं लौटी तो रघु को चिंता हुई। उसने मुझे साथ लिया और अपने घर की ओर चल दिया। रास्ते में हमने देखा कि गीता आम के पेड़ के नीचे बैठी रो रही है। वह पके आम के छिलके से फिसल गयी थी। उसकी बांह में मोच आ गयी और टांग दर्द कर रही थी। रघु उसे गोद में उठाकर घर पहुंचा आया।

  तभी लंगूर वाला व्यक्ति आम के पेड़ के नीचे सुस्ताने बैठ गया। लंगूर उसने पेड़ के तने से बांध दिया। उसकी लाठी और उसपर बंधा थैला जो कपड़े का बना था, वहीं पास में रख लिया। हमें जब यकीन हो गया कि वह सो गया, तब रघु ने चुपके से लंगूर की रस्सी खोल दी और हम झाड़ियों के पीछे छिप गये।

  लंगूर उछलकर पेड़ पर जा बैठा। कुछ समय बाद उस व्यक्ति की आंख खुली। उसने इधर-उधर देखा। लंगूर कहीं नहीं था। उसके होश उड़ गये। तभी उसकी नजर पेड़ की शाखाओं पर पड़ी। लंगूर की पूंछ उसे लटकती नजर आ गयी। उसने आवाज देकर लंगूर को बुलाना चाहा। पर वह लाख जतन के बाद भी पेड़ से नहीं उतरा। हमारी हंसी छूट पड़ी। उस व्यक्ति को पक्का यकीन हो गया कि उसका लंगूर हमने ही खोला था। वह लाठी और थैला लेकर हमारी ओर दौड़ा। लेकिन हम उससे काफी तेज दौड़े। वह थक कर बैठ गया। हम भी रुककर उसे देखते रहे। जब कोई उपाय समझ न आया तो वह व्यक्ति बोला,‘बच्चों मुझे पता है तुमने मेरा लंगूर रस्सी से खोला है। मैं तुम्हें कुछ नहीं कहूंगा। उसे पेड़ से उतारने में मेरी मदद करोगे।’

  हमें उसपर दया आ गयी।

  करीब दो घंटे की मशक्कत के बाद लंगूर को हम तीनों ने पेड़ से उतार ही लिया। को्शिश केवल लंगूर वाले की थी। हम वहां भी सिर्फ तमाशा ही देख रहे थे। वह लंगूर की कभी पूंछ पकड़ता, कभी उसे ‘बच्चा’ कहकर नीचे आने को कहता। उस व्यक्ति ने हमारा बिना बात के ही धन्यवाद दिया।

  गीता दो दिन में स्वस्थ हो गयी। रघु ने बताया कि क्यों न हम तीनों पास के गांव में फिर तमाशा देखने चलें। उसने बताया कि वह लंगूर वाला अभी गांव-गांव घूम रहा है और खेल दिखा रहा है। दादी से कहकर मैं, गीता और रघु के साथ पास के गांव पैदल चल दिए। गांव कुल एक किलोमीटर की दूरी पर था।

  भीड़ जुटने लगी थी। लोगों के बीच में जगह बनाकर हम भी भीड़ में घुस गये। मैंने रघु का हाथ थामा था और रघु ने गीता का। कुछ ही पलों में हम सबसे आगे थे। लंगूर वाला हमें देखकर मुस्कराया और हम भी। थोड़ी देर में खेल समाप्त हुआ और तामझाम इकट~ठा कर वह जाने की तैयारी करने लगा।

  तभी मैंने उससे कहा,‘आपका लंगूर दुबला लगता है। कुछ खाने को देते नहीं क्या?’

  ‘इतने पैसों में अकेले इंसान का पेट नहीं भरता, फिर यह तो जानवर है।’ लंगूर वाला रुखी जुबान में बोला।

  मैं गंभीर हो गया। मैंने कहा,‘फिर गुजारा कैसे चलता है।’

  ‘गांव वाले जो कुछ देते हैं, उसे ही रख लेते हैं।’ वह बोला।

  रस्सी पकड़कर उसने लंगूर को खींचा। लंगूर अपने मालिक के पीछे-पीछे चल दिया।

  मैंने कहा,‘सुनो ओ लंगूर वाले।’ वह रुक गया। उसने पीछे मुड़कर देखा।

  मैंने आगे कहा,‘तुम्हारा लंगूर आम खाता है।’

  उसने कहा,‘हां, कोई भी फल खा लेता है। पर क्यों?’

  ‘हम तुम्हें ढेर सारे आम तोड़ कर देंगे। खुद भी खा लेना और अपने लंगूर को भी जी भर खिलाना।’ मैंने कहा।

  उसने हमारी तरफ ध्यान से देखा और मुस्कराता हुआ आगे चलने लगा।

  ‘हम सच कह रहे हैं लंगूर वाले भईया।’ रघु बोला।

  ‘आओ तो सही।’ मैंने कहा।

  रघु ने मुझे रास्ते में बताया था कि इस गांव में आम के कई बाग हैं जिनपर ढेरों आम लदे हैं। इन दिनों आम पक कर गिर रहे थे। एक बाग के किनारे पर हम खड़े हो गए। रघु ने पहले बाग का वहीं से मुआयना किया। फिर धीरे से पेड़ पर चढ़ गया। कुछ ही देर में उसने कई आम नीचे गिरा दिये। मेरे मुंह में पानी भर आया। गीता उन्हें इकट~ठा करने में जुट गयी। दो आम लंगूर को उठाकर दिये। तभी बाग वाले का लड़का डंडा लेकर वहां आ पहुंचा। रघु अभी पेड़ पर ही था।
  लड़का चिल्लाया,‘ठहरो, कौन आम चुरा रहा है?’

  आवाज सुनकर लंगूर वाला, मैं और गीता पास की झाड़ियों में छिप गये। रघु पेड़ पर चुपचाप चिपक गया। पर लंगूर उछलकर आम बीनने लगा। बाग वाले के लड़े ने लंगूर को भगाना चाहा। उसने लाठी दिखाई तो लंगूर ने गुस्से में अपनी पूंछ से उसकी लाठी छीन ली। वह लड़का वहां से डर कर भाग गया। फिर रघु ने कई पेड़ों के आम तोड़े। लंगूर वाले ने अपना थैला भर लिया। गीता ने अपने हाथों को बिल्कुल खाली नहीं रहने दिया। मैंने अपनी पैंट की जेबों में कई आम रख लिए।

  ‘आज का दिन मजेदार रहा।’ मैंने रघु से कहा।

  ‘आम के आम, गुठलियों के दाम।’ रघु मुस्कराया।

-harminder singh

3 comments:

  1. चलिये, बढ़िया आम पार्टी हो गई.:)


    ये रंग भरा त्यौहार, चलो हम होली खेलें
    प्रीत की बहे बयार, चलो हम होली खेलें.
    पाले जितने द्वेष, चलो उनको बिसरा दें,
    खुशी की हो बौछार,चलो हम होली खेलें.


    आप एवं आपके परिवार को होली मुबारक.

    -समीर लाल ’समीर’

    ReplyDelete
  2. वैसे समीर जी आम पार्टी मजेदार थी

    आपको भी होली की बधाई

    ReplyDelete
  3. लंगूरों की दोस्ती बड़े काम की ...
    आम के आम और गुठली के दाम ...हा हा हा ...

    ReplyDelete

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प्रताप महेन्द्र सिंह कहते हैं- ''लाचारी और विवशता के सिवाय कुछ नहीं है बुढ़ापा. यह ऐसा पड़ाव है जब मर्जी अपनी नहीं रहती। रुठ कर मनाने वाला कोई नहीं।'' एक पुरानी फिल्म के गीत के शब्द वे कहते हैं-‘‘इक दिन बिक जायेगा, माटी के मोल, जग में रह जायेंगे, प्यारे तेरे बोल।’’

...............कहानी
[kisna.jpg]
किशना- एक बूढ़े की कहानी
(भाग-1)..................(भाग-2)
ये भी कोई जिंदगी है
बृजघाट के घाट पर अनेकों साधु-संतों के आश्रम हैं। यहां बहुत से बूढ़े आपको किसी आस में बैठे मिल जायेंगे। इनकी आंखें थकी हुयी हैं, येजर्जर काया वाले हैं, किसी की प्रेरणा नहीं बने, हां, इन्हें लोग दया दृष्टि से जरुर देखते हैं

अपने याद आते हैं
राजाराम जी घर से दूर रह रहे हैं। उन्होंने कई साल पहले घर को अलविदा कह दिया है। लेकिन अपनों की दूरी अब कहीं न कहीं परेशान करती है, बिल्कुल भीतर से

कविता.../....हरमिन्दर सिंह .
कभी मोम पिघला था यहां
इस बहाने खुद से बातें हो जायेंगी
विदाई बड़ी दुखदायी
आखिर कितना भीगता हूं मैं
प्यास अभी मिटी नहीं
पता नहीं क्यों?
बेहाल बागवां

यही बुढापा है, सच्चाई है
विदा, अलविदा!
अब कहां गई?
अंतिम पल
खत्म जहां किनारा है
तन्हाई के प्याले
ये मेरी दुनिया है
वहां भी अकेली है वह
जन्म हुआ शिशु का
गरमी
जीवन और मरण
कोई दुखी न हो
यूं ही चलते-चलते
मैं दीवाली देखना चाहता हूं
दीवाली पर दिवाला
जा रहा हूं मैं, वापस न आने के लिए
बुढ़ापा सामने खड़ा पूछ रहा
मगर चुप हूं मैं
क्षोभ
बारिश को करीब से देखा मैंने
बुढ़ापा सामने खड़ा है, अपना लो
मन की पीड़ा
काली छाया

तब जन्म गीत का होता है -रेखा सिंह
भगवान मेरे, क्या जमाना आया है -शुभांगी
वृद्ध इंसान हूं मैं-शुभांगी
मां ऐसी ही होती है -ज्ञानेंद्र सिंह
खामोशी-लाचारी-ज्ञानेंद्र सिंह
उम्र के पड़ाव -बलराम गुर्जर
मैं गरीबों को सलाम करता हूं -फ़ुरखान शाह
दैनिक हिन्दुस्तान और वेबदुनिया में वृद्धग्राम
hindustan vradhgram ब्लॉग वार्ता :
कहीं आप बूढ़े तो नहीं हो रहे
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इन काँपते हाथों को बस थाम लो!
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