बूढ़ी काकी कहती है-‘‘बुढ़ापा तो आना ही है। सच का सामना करने से भय कैसा? क्यों हम घबराते हैं आने वाले समय से जो सच्चाई है जिसे झुठलाना नामुमकिन है।’’.

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Monday, November 30, 2009

विदाई बड़ी दुखदायी








पिता की आंखें भर आयीं,
रीत है कैसी आयी,
डोली उठ रही बेटी की,
मां भी आंसू में नहायी,
.........................................
विदाई बड़ी दुखदायी......

जी भर रोने दो,
बेटी है मेरी,
तू रहे सदा खुश,
किस्मत है तेरी,
पल-पल निहारे भाई,
मुन्नी हुई पराई,
.........................................
विदाई बड़ी दुखदायी......

यादों में सिमटेगी,
मिलन घड़ी है आयी,
पिया घर जा रही,
जोड़ी राम ने बनायी,
याद बाबुल अंगना की,
लाल चुनर उढाई,
.........................................
विदाई बड़ी दुखदायी......


-harminder singh

Friday, November 27, 2009

फिर लुट रहा छोटा किसान







गन्ना आंदोलन चला रहे किसान संगठन और उनका सहयोगी रालोद किसानों को लाभ के बजाय क्षति ही पहुंचा रहे हैं। इससे लघु और सीमांत किसान बुरी तरह प्रभावित हो रहे हैं। छोटी जोत वाले किसान 70 फीसदी से भी ज्यादा हैं। उन्हें नवंबर में अपना कुछ खेत खाली करना मजबूरी होता है। कुछ तो रबी की बुवाई और कुछ सरदी के लिए कपड़े और दूसरी जरुरत की चीजों को उसे पैसा चाहिए। साथ ही पशुओं को चारे की समस्या भी छोटे किसानों के सामने होती है। इन सारी समस्याओं का एक ही समाधान उसके पास होता है। वह जल्दी चले क्रेशर या मिलों पर अपना गन्ना डाले। मिलों को आंदोलनरत बड़े किसान चलने नहीं दे रहे। जिससे क्रेशर और कोल्हुओं पर गन्ना आशा से अधिक पहुंच रहा है। इससे क्रेशर वालों ने जहां सीजन के शुरु में गन्ना दो सौ रुपये खरीदना शुरु किया था उन्होंने घटाते-घटाते डेढ़ सौ रुपये पर ला दिया। फिर भी गन्ना उन्हें मिल रहा है। उधर आंदोलनकारी किसान नेताओं को देखिये वे 195 रुपये पर भी मिलों को गन्ना नहीं देने दे रहे। छोटा किसान लुट रहा है। वह हर बार इसी तरह लुटता है। किसान नेता यदि समय से मिलों को चल जाने देते तो पूरा गन्ना न मिलने से मिलों को मूल्य बढ़ाना पड़ता। हो सकता है अभी तक वह दो सौ रुपये तक पहुंच जाता। इस बार गन्ना कम है। ऐसे में उसका उचित मूल्य स्वत: ही मिल जाता। जब मिल चलते तो क्रेशरों को भी मूल्य बढ़ाना पड़ता अन्यथा उन्हें गन्ना ही नहीं मिलता। मिल चलने में देरी कराकर आंदोलनकारी छोटे किसानों का ही गला घोंट रहे हैं। बड़े किसान तो आराम से बाद में भी महंगे मूल्य में अपना गन्ना बेच लेंगे। उन्हें गेहूं बोने को भी खाद उपलब्ध हो रहा है। बेचारे छोटे किसान को वह भी नसीब नहीं। कई समितियां पर तो छोटे किसानों को यदि खाद मिल भी रहा है तो उन्हें मनमानी दवाईयां और बीज खरीदने को बाध्य होना पड़ रहा है। ऐसे में वह मजबूरी में या तो ब्लैक से खाद ले रहा है अथवा बिना खाद के ही गेहूं बोने को मजबूर है। किसानों के हितों की लड़ाई लड़ने वाले किसान नेता और राष्ट्रीय लोकदल के नेताओं को गरीब किसान से कोई सरोकार नहीं उन्हें तो अपनी नेतागीरी चमकाने का बहाना चाहिए। गन्ने पर हो हल्ला मचाने वालों को खाद की समस्या दिखाई नहीं दे रही जिससे आम किसान परेशान है। उसके खेत बुवाई को तैयार हैं और वह बेचारा सुबह से शाम तक भूखा प्यासा खाद मिलने की उम्मीद में रात को खाली हाथ वापस लौटता है।

  आंदोलनकारी नेताओं को चाहिए कि वे गन्ना मूल्य से पहले खाद दिलाने की लड़ाई लड़ें। चीनी संकट से खाद्य संकट खतरनाक है। समय रहते खाद समस्या नहीं सुलझी तो देश में खाद्य समस्या उत्पन्न हो जायेगी।

-harminder singh

Wednesday, November 25, 2009

आखिर कितना भीगता हूं मैं

टूटते सपनों को बिखर जाने दो,
चुनने की फर्सत कहां है?
रंगीन स्याही को फर्श से लिपट जाने दो,
परत ही से स्पर्श किया है,
छिटक गया कुछ, टुकड़ों में बंटा है,
कहीं ख्वाब थे, कहीं बूंदें स्याही की,
डुबोकर देखना है खुद को,
आखिर कितना भीगता हूं मैं।

-harminder singh

Tuesday, November 24, 2009

प्यास अभी मिटी नहीं

अहिस्ता-अहिस्ता,
जाने दो मुझे,
भुलाने दो मुझे,
लम्हे जो मैंने जिए,
जब मैं हंसा,
ठिठोली की,
थे कुछ अपने,
आज अपनापन नहीं,
मैं अकेला हूं,
घेरे है मुझे कोई,
क्या बताऊं? कैसा हूं?

जानता हूं,
यहीं रहना है सब,
नहीं जायेगा साथ मेरे,
फिर क्यों उतावला हुआ?
इतना जोड़ा,
किस लिए?
दिन बादल घेर चुके,
कोहरा ठहर रहा,
धुंध जालों में लिपटी,
चुभ रही सांसों में,
थक गयी आस,
थक चुका मैं।

ओढ़ लूं कंबल सफेद,
रोने वाले कितने हैं,
काश! होता कोई अपना,
तो आज जीभर रोता,
बूंद-बूंद तिड़कती,
टुकड़े-टुकड़े मेरा मन,
रहने दो जीवन को,
प्यास अभी मिटी नहीं।

-harminder singh

Monday, November 23, 2009

कहीं फूटती कोपलें मिल जाएं


मैंने बूढ़ी काकी से कहा,‘‘मैं कहीं खो गया हूं। शायद कोई स्वप्न चल रहा है।’’

काकी बोली,‘‘जिंदगी एक सपना ही तो है। ऐसा सपना जो पता नहीं कब टूट जाए। तब डोर भी छूट जायेगी। वह जीवन की डोर कहलाती है।’’

‘‘तमाम जिंदगी हम कहीं खाये रहते हैं। अक्सर ऐसा होता है कि खोने की वजहें इंसान होते हैं। पर कई बार अनजाने में यह सब हो जाता है। मस्तिष्क पर सारा खेल निर्भर करता है। हमारा दिमाग और हृदय खोने की वजह होते हैं। विचारों का अनगिनत ठहराव इंसान को दुविधा में डाल देता है। विचारों को एक कोने में इकट्टठा करने के बजाय हम उनसे जूझते हुए अधिक नजर आते हैं। यह एक आपसी लड़ाई की शक्ल ले लेता है। चुनौती आसान नहीं होती, पर उससे पार पाने के तरीके की तलाश स्वयं एक चुनौती से कम नहीं।’’

‘‘मस्तिष्क इतना कुछ घटने के बाद ठगा-सा महसूस करता है। इसे उसकी विवशता भी कहा जा सकता है। अत: वह खो जाता है, तो इंसान खुद को भूल जाता है। यह किसी कल्पना से कम नहीं होता, पर कल्पनाएं जब मजबूती से प्रकट हो जाती हैं तो वास्तविकता का टीला भी कठोरता प्राप्त कर लेता है जिसका धराशायी होना नामुमकिन-सा लगता है। यह भाग्य के कारण उपजा नहीं होता।’’

काकी आगे कहती है,‘‘खोई हुई चीजें अक्सर ढूंढी जाती हैं। ऐसा हमारे साथ भी होता है। इंसान खुद को खुद में खोजने की कोशिश करता है। लेकिन ऐसा करने वाले कम होते हैं क्योंकि भ्रम में जीने वालों की तादाद का कोई ठिकाना भी तो नहीं। भ्रम पैदा हालातों के कारण होता है। हालात इंसान स्वयं पैदा करता है। हुआ न अजीब- इंसान और हालात।’’

‘‘सपनों की नगरी बस जाने पर स्थिति बेहतर लगती है। ऐसा लगता है जैसे सारी खुशियां एक दामन में सिमट गयी हैं। सपनों के बिखरने पर जीवन किसी हादसे से कम नहीं रह जाता। उन वादियों में फूल खिलने बंद हो जाते हैं जहां कभी खुशबुंए महका करती थीं। डरावने सच की शक्ल देखकर अच्छे-अच्छे सहम जाते हैं। हमारे जैसे जर्जर काया वाले प्राणी टूटे हुए सपने के बाद की हकीकत का जायका ले रहे हैं। खोये हम भी थे कभी। शायद जिंदगी अब भी कुछ तलाश रही है। क्योंकि तलाश जारी है। बुढ़ापा गुमसुम है, थका-सा है, फिर भी तलाश जारी है इसी उम्मीद के साथ कि कहीं किसी कोने में फूटती कोपलें मिल जाएं।’’

-harminder singh

Sunday, November 22, 2009

खामोशी-लाचारी

कुछ दिन पहले-

दो समुदायों के बीच मजहब को लेकर झड़प हुई।
प्रत्येक ने अपने धर्म को दूसरे से श्रेष्ठ बताया।

मजहब को लेकर लड़ पड़े दोनों समुदाय आपस में।
मंदिर टूटे, मस्जिद गिरी, भगवान दोनों से रुठे।

एक ने भोग लगाया भगवान को, दूसरे ने अल्लाह को पुकारा।
आपस में लड़े लोग, तलवारें निकलीं, गोलियां चलीं।

औरतों की आवरु लुटी, मासूमों की चीखें निकलीं।
किसी का सुहाग लुटा, कोई घर से बेघर हुआ।

कुछ घरों के चिराग बुझे, कुछ को जेलों में भरा गया।
लोग सड़कों पर उतरे, जुलूस निकला, नारे हुये।

शहर में दंगे हुये, गाडि़यां टूटीं, ट्रेनें जलीं।
नेताओं का दौरा हुआ, पुलिस का पहरा लगा।

सरकारी कमेटियां बनीं, राजनीति होने लगी।


कुछ दिन बाद-

शहर में उग्रवादियों ने हमला किया।
भीड़ वाली गली में बम फटा, शोर से दिल थमा।

सैकड़ों मरे, हजारों घायल, कुछ लापता हुये।
मासूमों का साया छिना, कुछ गोदे सूनी हुयीं।

लोग घरों में सिमटे, शहर खामोशी में डूबा।
आज न जुलूस निकला, न नारे हुये, न विरोध।

हर चेहरे पर लाचारी, अब न किसी से शिकवा रहा।
मजहब के नाम पर विवाद टला।

फिर नेताओं का दौरा हुआ, पुलिस का पहरा लगा।
सरकारी कमेटियां बनीं, राजनीति होने लगी।

हादसा ये नहीं कि हादसा हो गया।
हादसा ये है कि सब खामोश हैं।

-ज्ञान प्रकाश सिंह नेगी ‘ज्ञानेन्द्र’
टेवा एपीआई इंडिया लि.

Saturday, November 21, 2009

मैडम मौली



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मैडम मौली की बड़ी-बड़ी आंखों को देखकर सभी घबराते थे। उनकी आवाज की आहट भर से ही पूरी क्लास में शांति छा जाती। मुझे, सच कूहूं, सबसे अधिक भय मैडम मौली से लगता था। उनका हैयर-स्टाइल समय-समय पर बदलता रहता। उनके माथे की बड़ी बिंदिया का रंग रोज बदलता था। साथ ही वे घड़ियों की शौकीन थीं। लेकिन कंगन या गहना पहनती नहीं थीं।

  उन्होंने ब्लैक-बोर्ड पर एक सवाल किया। मैं अगली सीट पर बैठा था। वे मेरे ठीक सामने खड़ी थीं। उन्होंने मेरी तरफ उंगली दिखाई और कहा,‘‘तुम, यह सवाल हल करो।’’ मैं एकदम घबरा गया।

  मैं हल करुं तो कैसे? सवाल मुझे आता ही नहीं। मैडम मौली ने मुझे घूरा। मैं सोचने का बहाना करने लगा। वह बोलीं,‘‘क्या सोच रहे हो। सवाल करो।’’

  मैं नीचे मुंह कर खड़ा रहा।

  ‘‘इधर आओ।’’ मैडम मौली ने कहा।

  उन्होंने मुझसे आगे कहा,‘‘मैं कुछ मदद करुं।’’

  मैं कुछ नहीं बोला। मैं सोच में पड़ गया कि आखिर मैडम इतनी नम्र कैसे हो गयीं?
 
  बच्चों में खुसर-पुसर शरु हो गयी थी।

  तभी मैडम मौली ने कठोर शब्दों में कहा,‘‘चुप, किसी की आवाज आई तो खैर नहीं।’’ क्लास में सन्नाटा छा गया।

  मैं कांप रहा था। मुझे डर था कहीं मेरे चांटा न लग जाए। मेरी इज्जत न उतर जाए।

  ‘‘तुम।’’ मैडम मौली ने मेरी तरफ देखकर कहा। ‘‘सीट पर जाकर खड़े हो जाओ।’’

  ‘‘विनय इधर आकर सवाल करो।’’ मैडम मौली ने कहा। विनय ने सवाल को झट से कर दिया। उसके बाद मैडम ने मुझसे कहा,‘‘देखो कितना आसान था। समझ गए तुम।’’

  मैंने ‘हां’ में सिर हिला दिया। मगर मेरी समझ में सवाल बिल्कुल नहीं आया था। मैंने जल्दी से सवाल कोपी में हल सहित उतार लिया।

  मैडम मौली ने एक-एक बच्चे को पहाड़े सुनाने के लिए खड़ा किया। मेरी बारी आ गयी थी।

  ‘‘तेरह का पहाड़ा सुनाओ।’’ मैडम मौली ने कहा। मैं फिर मुंह नीचे कर खड़ा था।

  ‘‘यह तुम्हारा दूसरा साल है न।’’ उन्होंने कहा। ‘‘होमवर्क दिया गया था, किया नहीं।’’

  मैं भीतर-भीतर घबरा रहा था कि कहीं मैडम मौली मुझे कड़ी सजा न दें। जिसका डर था वही हुआ। उन्होंने मेरा कान पकड़ लिया और मुझे क्लास के बाहर खड़ा कर कहा,‘‘छुट्टे से पहले क्लास में मत आना। इंटरवेल में भी बाहर इसी तरह खड़े रहकर पहाड़े याद करोगे।’’

  मुंह पर किताब लगाये मैं दीवार से सटा खड़ा रहा। मेरी टांगे जबाव दे गयीं। नेत्रा ने मुझे देख लिया था।

  घर पहुंचकर नेत्रा ने माता-पिता को बताया दिया। मैंने सफाई देने की कोशिश की।
 
  मां ने कहा,‘‘पढ़ाई करते तो क्लास के अंदर बैठते।’’ पिताजी बोले,‘‘यह लड़का दिन-ब-दिन नालायक होता जा रहा है। बस टी.वी. और खेल में ध्यान है साहब का।’’

  नेत्रा कहां पीछे रहने वाली थी। वह बोली,‘‘मुझे भईया पढ़ने को मना करते हैं। कल मेरे सिर पर किताब भी मारी थी।’’

  ‘‘ये नहीं सुधरेगा।’’ पिताजी बोले। ‘‘अबकी बार भी उसी क्लास में रहेगा। पढ़ता नहीं, ठाठ देखो कैसे हैं।’’

  ‘‘मैं कहती हूं, इसे होस्टल में भर्ती करवा दो। अक्ल ठिकाने आ जाएगी।’’ मां गुस्से में बोली।

  मैंने अपने कान बंद करने चाहे, मगर मैं ऐसा कर न सका। मैंने मन ही मन सोचा कि आगे से शिकायत का मौका नहीं दूंगा। बहुत हो गयी डांट।

-harminder singh

Friday, November 20, 2009

जीवन से इतना प्यार है



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‘‘जीवन से इतना प्यार क्यों करते हैं। क्या इसलिए मरने से लोग डरते हैं?’’

इतना कहकर काकी अपने कंबल को शरीर पर ओढ़ने लगी। उसने कहना प्रारंभ किया,‘हम इस जीवन से इतना मोह कर बैठते हैं कि मन नहीं करता इसे छोड़ कर जाने का। मोह का खेल है सब। जिंदगी ने इंसान को कितना दिया है। लेकिन वक्त आने पर यह रुठेगी जरुर। यह मालूम होते हुए भी हम खुद को छोड़ने से डरते हैं। ये बातें इतनी उलझी हैं कि सिलवटें इनकी कहानी बयान करने में असमर्थ हैं। ऐसे सवाल हमेशा रह जाते हैं जब जिंदगी के विषय में बातें की जाती हैं। पेचीदा और पेचीदा हो जाता है।’

‘भूल कर जाते हैं हम। यह अक्सर अंत समय पता चल पाता है कि इंसान गलतियां कब कर बैठा। यह भी आखिर में एहसास होता है कि क्या पीछे छूट गया और कितना हाथ लगा। रंगीन जीवन सुन्दरता से भरा होता है। अनगिनत साधन, कोई कमी नहीं। बस यहीं रस पड़ जाता है। इसे जीवन का रस कहा जाता है। यह इतना स्वाद से भरा है कि हम इसकी मिठास में बहुत कुछ याद नहीं करते। हमें जीवन में लोग मिलते हैं। संबंध बनते हैं, भरोसे की बातें होती हैं और न जाने क्या-क्या। मोह का जन्म संबंधों के साथ शुरु होता है। जुड़ाव जीवन का हिस्सा है।’

मैंने काकी से कहा,‘मोह करना भ्रम की स्थिति पैदा तो नहीं करता।’

इसपर बूढ़ी काकी बोली,‘देखो, जब रिश्ते बने हैं, मोह जरुर उपजा होगा। इंसान के लिए यह जरुरी नहीं कि वह किस स्थिति में लोगों से जुड़ाव रखे, बल्कि वह कई बार मोह के झोंके को अचानक अपने करीब पाता है। जब दो या उससे अधिक जीवित लोग संबंधों के दायरे में जीते हैं, तो उनमें यह बात स्वत: ही घर कर जाती है कि उनका जीवन खुद के लिए तथा दूसरों के लिए कितना अनमोल है। उन्हें जीवन से मोह हो जाता है। उसे छोड़ कर जाने की इच्छा नहीं होती।’

‘कई बार ऐसा होता है कि इंसान बुढ़ापे में एकांत में अपनों का स्मरण कर कराहता है। उस समय उसका प्रेम जाग उठता है। शायद पहले से कहीं अधिक। उसे हालांकि यह पता होता है कि जो वह कर रहा है उसके मायने सांस रुकने पर खत्म हो जायेंगे। फिर भी वह प्यार करता है। शायद भ्रम में हम जीते हैं।’



-harminder singh

Thursday, November 19, 2009

सादाब की कहानी

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सुबह काफी समय तक मैं सोया रहा। नींद पूरी हो गयी। पता नहीं चला कब आंख लग गई। कलम और डायरी को सादाब ने मेरे पास से उठाकर कोने में रख दिया। वह मेरा कितना ख्याल रखता है। उसने बताया कि मुझे चादर उसने उढ़ाई थी। मैं उसे एकटक निहारता रहा। वह अधिक कुछ बोला नहीं। जितना बोलता है, कीमत का बोलता है। कहते हैं न-‘सबका तरीका अपना होता है।’

भगवान हर किसी का ख्याल रखता है। यह हम अच्छी तरह जानते हैं। इंसान इंसानियत को लेकर पैदा हुआ है। हमारे भी कई कर्तव्य हैं जिनकी पूर्ति हमें करनी होती है। मुझे मालूम नहीं कि मेरा जीवन कितना है, लेकिन जितना है उतने समय बहुत कुछ करने की मेरी तमन्ना है। लोगों को समझाना चाहता हूं कि इंसानियत कितनी अहम है, हम भी और हमारा जीवन भी। वह हर चीज अहम है जो संसार में बसती है। इंसान भी संसार में बरसते हैं। फिर क्यों इंसान ने इंसान को कष्ट पहुंचाया है?

कई प्रश्न जटिल होते हैं। उन्हें सुलझाया नहीं जाता। सादाब ने बताया कि वह आज मुझे बहुत कुछ बताने वाला है। उसने कहा,‘‘शायद किस्मत को मोड़ना कठिन है। मैं किस्मत के हाथों परास्त हुआ हूं। मेरे अब्बा तो बचपन में गुजर गये थे। अम्मी को घर का चौका-बरतन ही पता था। वह बाहर की दुनिया को उतने करीब से नहीं जानती थी। हमारे घर की दीवारें पहले ही कमजोर थीं, अब्बा की मौत से स्थिति और खराब हो गयी। परदानशीं औरतों के लिए बाहर का माहौल अटपटा होता है। अम्मी कई मायनों में अंजान थी। हम तीन भाई-बहन हैं। सबसे बड़ी रुखसार केवल दस साल की थी। उससे छोटी जीनत आठ साल की और मैं पांच साल का। दोनों बहनें मुझे बहुत प्यार करती थीं। एक भाई की खुशी बहन की खुशी होती है।

‘‘स्कूल में केवल मेरा दाखिला कराया गया था। उस दिन अब्बा बहुत खुश नजर आ रहे थे।  उन्हें लग रहा था जैसे कोई बड़ा सपना साकार होने जा रहा था। सपने बड़े ही होते हैं, जब उम्मीदें बड़ी हों। एक पिता को अपनी औलाद से बहुत उम्मीद होती है। उम्मीद पूरी होने पर तसल्ली होती है।’’ इतना कहकर सादाब कुछ पल के लिए चुप हो गया। उसकी आंखें गीली थीं।

सादाब को याद है कि उसके पिता ने उससे काफी कुछ कहा था।

वह कहता है,‘‘जब मैं छोटा था तब मेरे अब्बा ने मुझे कई अच्छी बातें बताई थीं। उन्हें मैं भूलना नहीं चाहता क्योंकि जिंदगी उनसे प्रभावित होती है और ऐसी चीजों का प्रभाव हर बार अच्छा ही होता है। मेरा ताल्लुक सदा ऐसे लोगों से रहा जिनके विचार टूटे हुए नहीं थे। वे ऐसे लोग थे जिनके सपने ऊंचे जरुर थे, मगर इरादे कमजोर बिल्कुल नहीं। वे आज कामयाबी को अपने नीचे रखते हैं। मेरे अब्बा ने कहा था कि हम एक बार जीते हैं, एक बार मरते हैं। इसलिए इतने काम कर जाएं कि लोग हमें याद रखें। ऐसा मेरे दादा ने मेरे पिता से कहा था।’’

मेरा बेटा मेरे पास होता तो शायद उससे भी मैं यही कहता। बेटी को भी उतना ही हौंसला देता। खैर, वे मेरे पास नहीं। मैं फिर भावुक हो रहा हूं। ये भावुकता भी इंसान को मजबूर कर देती है। मैं मजबूरी को समझ रहा हूं। मजबूरी मुझे समझने में असमर्थ जान पड़ती है।

जारी है.......

-harminder singh

Wednesday, November 18, 2009

खुशी का मरहम


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मैंने खुद को अनेक बार समझाया कि बहुत हो चुका। दूसरों को देखकर मैंने खुद को बदला है। सादाब ने मुझे समझाया और कहा,‘‘तुम मन को बीच में लाते हो। इसलिए हर बार हार जाते हो। तुम सोचते बहुत हो, इसलिए निराश हो जाते हो। मैं कई दिन उदास रहा, अब भी हूं। मगर इससे फायदा कुछ मिला नहीं, सो मुस्कराना पड़ा। कम से कम गम तो कम होंगे। दुखों से जितना बचने की कोशिश करोगे, वे उतना तुम्हें जकड़ेंगे। सही यह है कि उनपर खुशी का मरहम लगाओ।’’

उसकी बातों को मैंने ध्यान से सुना। उनका असर कितना होगा, यह मालूम नहीं। इतना कहना चाहूंगा कि कुछ फर्क तो होगा, शायद धीरे-धीरे ही सही।

लोगों का असर हम पर होता है। हम खुद को बदल भी देते हैं। लेकिन कहीं न कहीं उनकी तरह हो नहीं पाते। कुछ अंतर जरुर रहता है। यह इसलिए ताकि सब एक जैसे न हों। यदि ऐसा होता तो फर्क का मतलब क्या रह जायेगा?

मुझे साफ तौर पर याद नहीं लेकिन सादाब ने इतना बताया कि उसे धोखा दिया गया है। वह चोट खाया है। उसके इस समय के जिम्मेदार उसका कोई अपना है। लेकिन वह बाद में चुप हो गया था। उसका मन भीतर ही भीतर दुखी था। उसकी और मेरी बातें उतनी लंबी नहीं चलतीं। वह कम शब्दों में बहुत कुछ कह जाता है। ऐसा अक्सर बहुत कम लोग कर पाते हैं।

धोखा इंसान खाता है। उसकी परेशानी वह ही जान सकता है। विश्वास की अहमियत जीवन में बहुत है। रिश्तों की नींव ही भरोसे पर टिकी होती है। एक मामूली दरार रिश्तों को भरभराकर ढहने पर मजबूर कर देती है। तब इंसान केवल मूक-दर्शक की तरह तमाशा देखता है। ऐसी स्थिति में आखिर वह कर भी क्या सकता है? अपने नसीब को खोटा कह सकता है। भगवान को कोस सकता है। वक्त को गाली दे सकता है। कौन रोक सकता है भला उसे ऐसा करने से? कोई भी तो नहीं, कोई नहीं। यहां तक की वह खुद भी नहीं खुद को रोक सकता। मैंने पता नहीं धोखा खाया है, लेकिन कभी-कभी गुस्से में बहुत कुछ ऐसा बोल जाता हूं जिससे दूसरों को लगता है कि मैंने धोखा झेला है।

मेरी आंख लगने को हो रही है। मैं फिर भी लिखे जा रहा हूं। इसका कारण मेरे विचार हैं। लिखना नहीं चाहते हुए लिखता जा रहा हूं। यह अजीब है न कि मैं पहले नींद का इंतजार करता था। आजकल ऐसा होता नहीं।

कोई हमें अपने मित्र की तरह समझता और समझाता हो, तो हम कई प्रकार से सुकून में हैं। कम से कम कुछ पल उसके साथ बिताने को मिल जायेंगे।

जारी है.......

-harminder singh

Tuesday, November 17, 2009

प्रेम कितना मीठा है

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‘‘प्यार तो बहुत लोग करते हैं, लेकिन कुछ लोग शायद दूसरों को इस कदर चाहते हैं कि प्यार भी छोटा पड़ जाए। और यह सब इतना अचानक हो जाता है कि पता ही नहीं चलता। हमें पता नहीं चलता कि हमारे लिए कब वे खास हो गए। और इतना खास कि हम उन्हें कई जन्मों तक भी न भलें। वाकई कितना अजीब है प्रेम।’’

बूढ़ी काकी की आंखें इतना कहकर भर आयी थीं, पर वह मुस्करा रही थी। बूंदें खुशी की थीं। बुढ़ापा करुणा से भर उठा था। नीर आंखों में बहकर शुष्क, झुर्रिदार दरारों को गीला करने की कोशिश में जस्बे के साथ ऐसी यात्रा पर निकले थे जिसकी शुरुआत हुई थी, लेकिन अंत का फैसला भाग्य पर टिका था।

काकी ने बताया कि उसे किसी से प्रेम हो गया था। वह भी किसी के सपनों में खोई थी कभी। उसके जीवन में भी वह समय आया था जब उसकी नींदें करवट लेते गुजरीं। उसने जाना कि प्रेम कितना मीठा होता है। काकी को अहसास हो गया था कि तब जीवन कितना मीठा होता है। वह मानो जीवन की मिठास में कहीं खो गयी थी। डूब गयी थी एक नारी किसी के प्रेम में। उसकी सखियों ने उसे ‘पगली’ कहना शुरु कर दिया था।

काकी ने अपनी कांपती अंगुलियों से आंखों को हल्का मला, कुछ धुंध छंटती हुई उसने महसूस की।

वह बोली,‘‘बूंदों का क्या, उनका काम तो गिरना है। प्रेम कितना अनोखा है। निरंतर बहता है, सिर्फ बहता है। उसकी महक जीवन को आनंदित करती है। ऐसा लगता है जीवन उल्लास से भर गया है। पता नहीं हवा कैसी चलने लगती है। झोंके रंगीन लगते हैं। मिजाज बदल जाता है। फूलों से बातें करने का मन करता है।’’

मैंने कहा,‘‘यह अद्भुत है। जीवन अद्भुत है। प्रेम जीवन में उपजता है। और जीवन प्रेम से उपजता है। प्यार जीवन से लगाव करना सिखाता है। इंसान को इंसान से जुड़ना सिखाता है। दिल को दिल से मिलाता है। बहुत विशाल, सीमा का जिसकी अंत नहीं।’’

काकी ने मुझसे कहा,‘‘ऐसा लगता है तुमने भी किसी से प्रेम किया है। यह वास्तविकता है कि ऐसी बातें तभी उचरती हैं। सूखी डाली की हरियाली को कभी देखा है? सूखने पर डाली नीरस हो जाती है। प्रेम के स्पर्श से उसमें भी कोंपलें सूखी डाली की हरियाली को कभी देखा है? सूखने पर डाली नीरस हो जाती है। प्रेम के स्पर्श से उसमें भी कोंपलें फूट पड़ती हैं। किसी को चाह कर देखो तो असलियत जान जाओगे।’’

मैंने जाना कि प्रेम बिना जीवन अधूरा है। दूसरों की चाह हमें जीने की चाह जगाती है। नई आशा के साथ हम जीते हैं, लेकिन जीवन से प्यार कर बैठते हैं, शायद पहले से अधिक।

-harminder singh

Saturday, November 14, 2009

घर से स्कूल


[netra_sisiter.jpg]

नेत्रा को मैंने कई बार कहा कि इतना पढ़ाई न किया करे। पर वह मेरी ओर ध्यान ही नहीं देती। उसे एक ही धुन सवार है,‘सबसे अधिक नंबर आने चाहिएं।’ हर बार वह क्लास में पहला स्थान प्राप्त करती है, तो बहुत खुश होती है।

  मैंने उसे समझाया,‘अभी चश्मे लगे हैं। बाद में बैठे रहना अंधी बनकर।’

  वह स्कूल से आते ही होमवर्क करने बैठ जाती है। बेचारी लगती है वह मुझे।

सुबह से लगातार कई घंटे अपना दिमाग थका देती है। उसमें दो-तीन घंटें और जोड़ देती है।

  मैंने उससे कहा,‘इतना पढ़ोगी तो पागल हो जाओगी।’

  ‘हो जाने दो।’ वह बोली। ‘बिना पढ़े से पागल भली।’

  उसकी बातों का मुझे बुरा नहीं लगता, लेकिन कभी-कभी झुंझला जाता हूं।

आखिर मैं उसका इकलौता भाई और वह मेरी इकलौती बहन जो ठहरी।

  ‘मेरा मानो, थोड़ा आराम कर लो। होमवर्क बाद में कर लेना।’ मैंने कहा।


मेरी बहन नेत्रा




  ‘भाई मैं ऐसा नहीं कर सकती।’ नेत्रा ने कहा। उसका ध्यान पेंसिल छीलने में था। ‘बिना होमवर्क करे मुझे चैन नहीं आता। काम खत्म करने के बाद फ़्री हो जाती हूं। फिर सहेलियों संग खेलना भी तो है।’

  ‘तुम नहीं समझोगी। मेरी तरह बनो। रिलैक्स वाला बंदा। उतना ही चलता हूं, जितनी जरुरत है।’ मैं बोला।

  ‘मुझे नहीं बनना रिलैक्स वाली बंदी।’ उसने किताब का अगला पन्ना पलटा। ‘तुम्हारी तरह एक क्लास में दो साल नहीं गुजारने मुझे। तुम ही रिलैक्स करो उसी क्लास में। चौथी के फेलियर। देखना आठवीं से पहले मैं तुम्हें पछाड़ दूंगी।’

  मेरी बोलती बंद हो गयी। नेत्रा ने मुझे मेरी औकात याद दिला दी। उसकी तरफ मैंने पीठ कर ली और कुछ सोचने लगा। नेत्रा तीसरी क्लास में है, मैं चौथी में। मुझे डर लग रहा है कि कहीं इस बार लुढ़क गया तो माता-पिता घर से ही न निकाल दें। उफ! तब क्या होगा? इसलिए मैंने अपना बस्ता खोला और गणित की किताब निकाली। गर्दन घुमाकर नेत्रा को देखा। काम में वह इतनी तल्लीन थी कि उसे पता नहीं लगा कि एक मधुमक्खी उसके सिर पर बैठी है। मैंने उसे बिना बताए, फुर्ती से किताब की सहायता ली और मधुमक्खी को उड़ा दिया। तभी नेत्रा चीख पड़ी।

  ‘क्या किया भैया? किताब क्यों मारी?’ वह झल्लाई।

  मैंने बताया कि मधुमक्खी उसके बालों पर थी। उसे यकीन नहीं हुआ।

  उसने चेहरा लाल कर कहा,‘झूठ बोलते हो। मुझे पढ़ने नहीं देना चाहते।’

  ‘ऐसा नहीं है नेत्रा। मैं तो मक्खी को हटा रहा था। धोखे से किताब लग गयी होगी।’ मैंने सफाई देनी चाहिए।
  वह फिर किताब में खो गयी। उसने मेरी तरफ ध्यान नहीं दिया। उसकी यह विशेषता मुझे अच्छी लगती है कि वह जब पढ़ रही होती है, तब ज्यादा बोलती नहीं। एक-आध बार झगड़ चुकी है, बस।

  उसकी सहेली पिंकी मुझसे चिढ़ती है। मैं कई बार पिंकी की लंबी चोटी खींच चुका हूं। उसी तरह स्मिता जो पिंकी और नेत्रा की सहेली, जो बिल्कुल काले रंग की है, जो चपटी नाक की है और जो लड़कों जैसे बाल रखती है, उसे मैं ‘सैम’ कहकर चिढ़ाता हूं।

  दरअसल ‘सैम’ एक पात्र है जो टी.वी. पर दिखता है। वह कभी लड़की का भेष बना लेता है, कभी बूढ़ा हो जाता है। उसका रंग और स्मिता का रंग तथा नाक एक-जैसे हैं। स्मिता एक बार नेत्रा के साथ घर के बाहर खड़ी थी। मैंने चुपके से उसपर पानी की बोतल उडेल दी और छिप गया। यह किस्से काफी पुराने हैं- यही कोई दो साल पहले के। उस दिन पिताजी ने मुझे दो चाटें लगा दिये थे। अगले दिन जब मैं स्कूल गया तो स्मिता ने मेरा गाल देखा और खिल्ली उड़ायी, बोली,‘गाल है कि टमाटर।’

  खैर, काफी देर हो चुकी थी। मेरा मन गणित के सवाल करते-करते ऊब गया था। इस विषय से मुझे पहली कक्षा से ही चिढ़ हो गयी थी। वास्तव में उस समय सवाल आकार में बड़े होने लगे थे। गणित की टीचर मुझे कभी भाये नहीं। इसमें बहुत हद तक सच्चाई है। पहाड़े, उफ! बड़ा सिरदर्द है।

  मेरी बहन ने मुझसे पूछा,‘तुम इतनी देर से गणित की किताब खोलकर बैठे हो। हल कुछ कर नहीं रहे।’

   ‘जब तुम चौथी क्लास में आओगी, पता लग जायेगा।’ मैं बोला। ‘तीसरी क्लास की भी कोई पढ़ाई है। छोटे-छोटे मामूली सवाल। चुटकियों का खेल है।’

  नेत्रा लिखाई करने लगी। टीचर ने मुझे पहाड़े याद करने के लिए दिये थे। क्लास में जब पहाड़े सुनाने की याद आती, मुझे सांप सूंघ जाता। दो का पहाड़ा याद करने में मुझे काफी मशक्कत करनी पड़ी थी।

  तभी नेत्रा मुझसे बोली,‘भाई, मुझसे पहाड़े सुन लो।’

  मैंने यूं ही कह दिया,‘चलो सुनाओ।’

  उसने पहले दो का पहाड़ा सुनाया। मैं हां-हां-हूं-हूं करता रहा। तीन का पहाड़ा सुनाया। मैंने फिर हां-हां-हूं-हूं किया। नेत्रा को लग रहा था मैं बड़े गौर से सुन रहा हूं। उसे पता नहीं था कि आज मैं क्लास में इसलिए बैंच पर खड़ा किया गया था क्योंकि मुझे तीन का पहाड़ा याद नहीं था। बहुत ग्लानि का अनुभव किया था मैंने। सारी क्लास मुझपर हंसी थी। यहां तक की विनय जो मेरा सबसे अच्छा मित्र है, भी अपनी हंसी न रोक पाया। दूसरी-तीसरी क्लास के बालकों को पांच तक पहाड़े याद होते हैं। मेरा चौथी क्लास में दूसरा साल है।

  ‘भाई पांच का पहाड़ा पहले सुन लो।’ नेत्रा बोली।

  ‘मुझे नींद आ रही है।’ मैं बोला। ‘तुम्हें मालूम नहीं, कितना काम कर चुका हूं।’

  ‘थोड़ी देर ही तो बात है।’ नेत्रा ने कहा।

  मैं तकिया लगाकर लेट गया। सोने का बहाना करने लगा। मुंह पर एक कपड़ा डाल लिया।

  नेत्रा ने मेरे पैर पर जोर से हाथ मारा और बड़बड़ाती हुई कमरे से बाहर चली गयी। उसके जाते ही मैं खुद से बोला,‘बला टली।’

  पहाड़े की किताब नेत्रा के बस्ते से निकाली और याद करने बैठ गया।

-harminder singh

Friday, November 13, 2009

जीवन फीका-फीका लगता है

बहती धारा मद्धिम-मद्धिम,
दिल पिघला-पिघला लगता है,
मन का खाली कोना,
सब सूना-सूना लगता है।

जीवन करता रुकने दो,
सब सूखा-सूखा लगता है,
आस नहीं, अब प्सास नहीं,
अंबर रुखा-रुखा लगता है।

नाव बह गयी पानी में,
तल नीचा-नीचा लगता है,
स्वाद नहीं रहा कहीं,
जीवन फीका-फीका लगता है।

-harminder singh

Tuesday, November 10, 2009

अंतिम यह लड़ाई है

भला जीने में क्या बुराई है?
आंसू में वह नहाई है,
थकी काया कराही है,
धुंध कितनी छाई है।

हौले-हौले बोले वह,
जुबान लड़खड़ाई है,
जर्जर हाथ थामें क्या?
देह भी कंपकपायी है।

हौंसला कम नहीं,
वृद्धा बुदबुदायी है,
हार क्यों मानें, जब
अंतिम यह लड़ाई है।

-harminder singh

Sunday, November 8, 2009

थोड़ा रो लो, मन हल्का हो जाएगा




‘‘मन भारी है, क्या रोकर मन हल्का हो जाता है?’ मैंने बूढ़ी काकी से पूछा।

बूढ़ी काकी बोली,‘‘बहती धारा को न तुम रोक सकते, न मैं। मन में जब भावनाओं की उथलपुथल होती है तो इसका असर हृदय पर होता है। हम खुद को रोक नहीं पाते और बह जाते हैं। ऐसा करने से दुख कम हो जाता है। इसलिए हम कह देते हैं कि थोड़ा रो लिए, मन हल्का हो गया। मन की वेदना ने आंसुओं की शक्ल ली और टपक पड़ी।’’

‘‘अक्सर गुस्सा हम उन्हीं पर करते हैं जिनसे हमारा लगाव भावनात्मक होता है। यह शायद अथाह घनिष्ठता का परिचय देता है। लगाव इंसानी रिश्तों को एक मायना देता है- जुड़कर चलने का, साथ निभाने, कभी न दूर जाने का और एक-दूसरे को बारीकी से समझने का।’’

‘‘लगाव की कोई सीमा नहीं होती। रिश्ते इंसान से जुड़कर चलते हैं। जबकि हम कई बार रिश्तों के कई अजीब तरह की भावनाओं में उलझकर रह जाते हैं। जब कहीं टूटन या दीवार के ढहने की आहट होती है, तो हम चौंक जाते हैं। हमें लगता है कहीं इससे सबकुछ बिखर न जाए। उस आने वाले भय की घबराहट हमें सोचने को विवश करती है। हम भावनाओं में सिमट जाते हैं।’’

‘‘मैं किसी से इतना मोह नहीं रखती क्योंकि मुझे जीने की उतनी इच्छा नहीं रही। ऐसा मैं अनेक बार सोचती हूं। मेरी उम्र काफी हो चली, इसलिए भी मैं आशान्वित नहीं। मगर यह कम होता है जब मैं निराशा से खुद को बचा पाती हूं। जब मैं अधिक निराश हो जाता हूं, मेरी आंखें नम हो जाती हैं।’’

‘मेरी मां कहा करती थी कि आंसू अनमोल हैं, इन्हें यूं जाया मत करो। वक्त आने पर इनकी कीमत मालूम होगी। वैसे जब भी मन को भरा पाया, मैंने आंसू बहा दिये। हृदय की वेदना बाहर आ गयी। मां ने यह भी कहा-‘जो बात छिपी हो किसी कोने में, दर्द बढ़ा हो कहीं, उसे बाहर लाना हो अगर, तो थोड़ा रो लो। शायद तसल्ली मिल जाए, मन हल्का हो जाए।’’

-harminder singh

Friday, November 6, 2009

वृद्ध इंसान हूं मैं



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अंधकार में खो गया प्रकाश,
सूर्य छोड़ चला आकाश,
अंधेरी काली रात है,
न तारे, न चांद साथ है,

जीवन बढ़ रहा अंत दिशा में,
हर्षोल्लास के रंग खो रहे निशा में,
यादें धुंधली पड़ रही हैं,
धड़कनें घड़ी से लड़ रही हैं।

समझ का भंडार भरा-सा लगता है,
दिमाग और मन डरा-सा लगता है,
भूल और गलतियां समझ आ रही हैं,
भूत की स्मृतियां नीदों में छा रही हैं।

अहसास हो रहा मृत्यु की करीबी का,
अंन्तरात्मा की गरीबी का,
डूबने को है नाव, खेने का प्रयास है,
जी तो सकता नहीं, जन्नत की आस है।

जीवन का सार, प्रियजनों का भार हूं मैं,
सच्चाईयों से लड़ता, वृद्ध इंसान हूं मैं।

-शुभांगी

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Wednesday, November 4, 2009

अहिस्ता-अहिस्ता जुड़ते हैं भाव



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मैंने सादाब से कहा कि तुम हंसना बंद कर दो। हालांकि यह एक मजाक की तरह था। इसपर वह मुस्कराया। सुबह शायद मैं उससे खुलकर बात करने की कोशिश करुं कि वह चुप क्यों है? अब यह मैं उसपर छोड़ता हूं कि वह क्या उत्तर दे। हम सवाल तो पूछ लेते हैं, मगर उत्तर का रुप मालूम नहीं होता। जिंदगी में सवाल इतने हैं कि जिंदगी कम पड़ जायेगी। नीरसता एक अधूरेपन का अहसास कराती है। हम चुपचाप रहते हैं, केवल सोचते हैं। मन में एक कशमकश उठ गिर रही होती है। यहीं हम एक आंतरिक लड़ाई लड़ रहे होते हैं। इस समय जंग का मैदान हम स्वयं ही होते हैं। अजीब दौर से गुजर रहे होते हैं और मन में एक घबराहट भी होती है।

  मेरे साथ कई बार ऐसा हुआ है कि मैं बहुत घबरा गया हूं। मैं खुद को पराजित व्यक्ति नहीं कहना चाहता। यह अलग बात है कि मैं मन को निराशा से बचाने की कोशिश करता हूं, पर हर बार हार जाता हूं। साथ ही हारता है मेरा मन भी। सादाब को देखता हूं तो लगता है कि वह बहुत कुछ कहना चाहता है। उसकी एक-एक बात मैं ध्यान से सुनता हूं। वह सोचता बहुत है, ऐसा उसका चेहरा बताता है। उसकी आंखें थकी जरुर हैं, लेकिन उसके हंसने पर वे भी हंसती हैं। उसे मैं पहले अच्छी तरह जानता था, लेकिन अब धीरे-धीरे वह मुझसे कई बातें कर जाता है। शायद उसे लगता है कि वह मुझे समझता है और मैं उसे। फिर भी वह कई बातें खुलकर नहीं बता पाता क्योंकि ऐसा करना उसे उचित नहीं लगता।

  मुझे काफी प्रसन्नता हुई कि सादाब फिर से मुझसे बातें करने लगा। उसके पास उलझनें बहुत हैं, और वह उनका हल ढूंढता रहता है। मैं शायद ऐसा कम ही कर पाता हूं।

  कुछ लोग हम पर प्रभाव डालते हैं, हम प्रभावित होते हैं और एक दिन ऐसा भी आता है जब प्रभाव का असर होता है। अच्छे लोग हमारी दुनिया को बदल देते हैं। धीरे-धीरे हम उनसे जुड़ाव महसूस करने लगते हैं।

  सादाब ने मुझसे कई बार कहा कि वह वक्त आने पर सब कुछ बता देगा। उसकी बातें मुझे सच लगती हैं। ऐसा शायद इसलिए है क्योंकि मुझे उससे लगाव हो गया है। यह रिश्ता मामूली है, पर मायने वाला है। इसकी गांठ दिन-ब-दिन मजबूत होती जा रही है। मुझे मालूम नहीं कब मैंने उसे अपना कह दिया। यह हमारे भावों से जुड़ा है कि किस तरह हम दूसरों में अपनापन तलाशते हैं। यह एक प्रक्रिया की तरह जान पड़ता है- सच पूछा जाए तो मेरा जीवन शायद कुछ बदल जाए।

  अहिस्ता-अहिस्ता भाव जुड़ते हैं। मन का खाली कोना चुपके से भर जाता है। हम शायद अंजान रहते हैं और अचानक बहुत कुछ बदल जाता है। बदल जाता है हमारा संसार, हम और दूसरे भी हमें अलग नजर आने लगते हैं।   

-harminder singh

Tuesday, November 3, 2009

जीवन अभी हारा नहीं

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‘जिंदगी खत्म होते देर नहीं लगती।’ मैं काकी के सिराहाने बैठा कहने लगा।

  काकी मुस्कराई और बोली,‘जीवन पानी का बुलबुला ही तो है। मामूली तिनके से टकराकर कब नष्ट हो जाये।’

  ‘जीवन की धारा को कोई समझ नहीं पाया। यह पहेली ऐसी है जो कभी न सुलझ पाये। इसके विषय में ऊपरी तौर पर विमर्श करने पर यह नहीं लगता कि इसमें रहस्य छिपे हैं। मगर जीवन इतना गहरा है कि उसकी गहराई के विषय में सोचना मुश्किल है। इंसान जीवन के पानी में गोते लगाता है, किनारे की तलाश करता है। इस छोर को पाने की कोशिश रहती है, कभी उस छोर तक पहुंचने की कल्पना करता है। न छोर मिलता, न किनारा। इंसान केवल गोते लगाता रह जाता है। जीवन संघर्ष में गुजर जाता है।’

  मैंने काकी को झपकी लेते पहली बार देखा। उसकी आंखें बंद हो गयीं। मैंने काकी को जगाया। वह बोली,‘ये नींद भी थक कर आती है। जितना कठिन परिश्रम, उतनी बेहतर नींद। जीवन में उतार-चढ़ाव, कठिनाईयां, मुश्किल रास्ते आते हैं। हम एक के बाद एक बढ़ते हैं। संघर्ष की दास्तान मनुष्य लिखता है। पैरों को घिसकर बहुत कुछ आसान बनता है। शरीर को थकाकर पथरीली राहों में हरियाली उग जाती है। पसीने की खारी बूंदों की कीमत लहू के कतरे से की जा सकती है। उधड़ी शक्लों को पहचानने की जुर्रत जीवन में की है, तो सुन्दरता-शौर्यता को लेकर इंसान जीवन में चला है। रस संसार को रंगीन बनाते हैं। बिना रस के जीवन बेकार है। बुढ़ापे में सारे रस छिन चुके होते हैं- रसहीन जीवन के साथ अंतिम यात्रा की तैयारी। इतना कुछ पाकर भी महसूस होता है जैसे कटोरा खाली रह गया। जीवन का कटोरा भरता नहीं। हाथ पहले खाली था, अब भी खाली है और अलविदा भी खाली हाथ से कहा जायेगा। कपड़ों के दिखावे पर मत जाईये, न ही शरीर के। क्या तन सजावट करके हम अपना शरीर सजा सकते हैं? जितने समय वस्त्रों की जगमगाहट है, उतने वक्त शरीर भी जगमगायेगा। फिर नये वस्त्र धारण करते जायेंगे, लेकिन देह तो पुरानी की पुरानी रहेगी, उसका क्या? वही हडिड्यों का पिंजर जिसपर मांस उभर आया, वही ढांचा जिसपर मांस को खाल की परत छिपाती है।’’

  ‘‘मैं इतना कहती हूं कि इंसान भ्रम का जीवन न जिये। सच्चाई से दो-चार होने में बुराई नहीं। सामना एक दिन होता है। इसलिए मैंने तसल्ली पहले कर ली। अब इस नाजुक समय में इतनी परेशानी नहीं लगती। जिंदगी को जीना सीखना होगा। बुढ़ापे में हताशा होती है। व्यक्ति को समझना चाहिए कि वक्त को काटने का बहाना चाहिए। जीवन को बोझ समझकर खुद को व्यथित करना है। कोशिशें बचपन में ही होती हैं, यह सही नहीं। कोशिशें जीवन में की जाती हैं, यह सही नहीं। कोशिशें बुढ़ापे में भी होती हैं, यह गलत नहीं। बुढ़ापा बिल्कुल बोझिल नहीं। सफर कितना भी मुश्किल क्यों न हो, एक मुस्कराहट उसे आसान बना देती है। जिंदगी का यह अंतिम सफर अबतक के सफर का सार है। शायद अधिक कठिन भी। ऊपर से थकी देह, जो सरक कर चलती है, मगर हारता नहीं है तो हौंसला। हां, बुढ़ापा टिका है हौंसले पर, एक वादे पर कि जीवन अभी हारा नहीं, वह पीछे हटेगा नहीं।’’

-harminder singh

Monday, November 2, 2009

गुरु नानक देव




    हमारा देश मध्यकाल में घोर अराजकता का शिकार था। आये दिन विदेशी हमलावर यहां आक्रमण कर जनता को लूट रहे थे और जनता पर घोर अत्याचार कर रहे थे। उस समय कई छोटे-छोटे राज्यों में देश बंटा हुआ था और इन राज्यों के राजा एकजुट होकर आक्रमणकारियों से मोर्चा लेने के बजाय आपस में ही लड़-मर रहे थे।

     लोगों का धार्मिक पतन भी हो चुका था। तत्कालीन तथाकथित धर्मगुरु धर्म व देश की रक्षा नहीं कर पा रहे थे।

      ऐसे घोर अंधकार, निराशा तथा अशांति के समय में अविभाजित पंजाब के साधो की तलबंडी ( पाकिस्तान) में कार्तिक पूर्णिमा संवत 1526 में श्री गुरु नानक देव जी का जन्म हुआ।

      बालक नानक बचपन से एकान्तसेवी व ध्यानमग्न मुद्रा में रहते थे। उनका इस प्रकार रहना उनके पिता कल्याणराय के लिए चिन्ता का कारण बना हुआ था। एक बार उन्होंने बालक नानक को एक वैद्य को दिखाया लेकिन वैद्य भी उनका ‘रोग’ समझ नहीं पाया।

      दस वर्ष की अवस्था में ही बालक नानकदेव ने विद्या अध्ययन पूरा कर लिया था। कुछ इतिहासकारों के अनुसार उनका शिक्षक उनसे बहुत प्रभावित हुआ था और यह कहकर उसने उनसे क्षमा मांग ली थी कि यह बच्चा देवपुरुष है जो आने वाले समय में संसार को शिक्षा देगा।

      किशोर अवस्था में एक बार नानक देव को उनके पिता ने कुछ सामान लाने उन्हें शहर भेजा। रास्ते में नानक देव को भूखे साधू मिले और उन्होंने सारे पैसे का भोजन उन्हें खिला दिया तथा प्रसन्न मुद्रा में खाली हाथ वापस घर लौट आये। उनके इस कृत्य से पिता कल्याणराय बहुत नाराज हुए थे।

      नानक देव ईश्वर भक्त तो थे ही साथ ही अत्यंत कोमल हृदय तथा दीनों पर दया करने वाले भी थे। उनके पिता को केवल नानक की चिंता थी लेकिन नानक को संपूर्ण संसार के लोगों के दुखों की चिंता थी और उन दुखों का अंत करने आये थे।

      अपने पिता के तमाम प्रयासों के बावजूद नानक देव सांसारिक मोह में न बंध सके। उन्होंने एक दिन संसार की चारों दिशाओं की यात्रा करने का निश्चय किया और वह बाला व मरदाना नामक आपने दो प्रिय शिष्यों के साथ लोगों को सन्मार्ग पर लाने तथा ईश्वरीय संदेश देने निकल पड़े।

    नानक देव ने विरक्त होकर घर नहीं छोड़ा था। उनका विवाह हो चुका था। वह अपने माता-पिता, पत्नि तथा बहन नानकी जी से आज्ञा लेकर और शीघ्र वापस लौटने का आ’वासन देकर घर से निकले थे। वह गृहस्थ जीवन व संन्यासी जीवन को एक साथ जीकर संसार को दिखाना चाहते थे।

     अपनी प्रथम यात्रा के दौरान उन्होंने देश की दुर्दशा देखी। उसका वर्णन स्वयं अपनी वाणी में यूं किया है ........

   ‘कलि काती राजे कसाई धर्म पंख कर उडरिया’
अर्थात:  इस कलयुग में राजे (  प्रजापालक के बजाय)  कसाई बन गये हैं तथा धर्म पंख लगाकर यहां से गायब हो गये हैं।


जन्म दिवस पर विशेष
  
  गुरु नानक देव ने अपने सत्तर वर्षीय जीवन में चारों दिशाओं में चार यात्रायें की थीं। इस दौरान उन्होंने भारत के अलावा अफगानिस्तान, श्रीलंका, तिब्बत, मक्का-मदीना, बगदाद आदि देशों की भी पद यात्रा की थी। वह उस समय के लगभग सभी धर्मों के प्रमुख आचार्यों, सन्तों और विद्वानों से मिले थे तथा उनसे ज्ञान चर्चायें की थीं। यात्राओं के दौरान वह अनेक पोंगापंथियों, कर्मकांडियों तथा पाखंडी लोगों से भी मिले थे। गुरु जी ऐसे लोगों को बिना किसी तर्क-वितर्क ही सहज भाव से सीधे मार्ग पर ले आते थे।

    गुरु नानक देव हमेशा कमजोर के पक्षधर तथा जोर-जबरदस्ती के विरुद्ध रहे। वह दूसरे का हक मारने के सर्वथा विरोधी थे। वह धनवानों के पकवानों के बजाय खून-पसीने की कमाई से रुखी रोटी खाने वालों के अन्न को महत्व देते थे। एक बार एक शहर में पहुंचे, जहां उनका एक अत्यंत धनवान तथा दूसरा निर्धन शिष्य रहते थे। गुरु जी ने निर्धन के घर रुकना पसंद किया। उसके यहां उन्होंने बड़े चाव से पानी के साथ रुखी रोटियां खायीं। धनवान शिष्य इस पर बड़ा नाराज हुआ तथा उसने गुरु जी से कहा कि उसके यहां अनेक प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजन छोड़कर उन्होंने रुखा-सूखा भोजन क्यों किया?

     इस बात पर नानक देव अत्यंत सहज भाव से बोले कि इस प्रश्न का उत्तर पाने के लिए वह अपने व निर्धन दोनों के घर से भोजन ले आये। भोजन आने पर गुरुजी ने अनेक लोगों के सामने दोनों हाथों में उन दोनों का खाना अलग-अलग लेकर निचोड़ा तो लोग यह देखकर दंग रह गये कि निर्धन के खाने से दूध तथा धनवान के भोजन से खून की बूंदें टपक पड़ीं। यह देखकर धनवान शिष्य गुरु जी के पैरों पर गिर पड़ा और उसने अपनी सारी सम्पत्ति निर्धनों में बांट दी। उनके जीवन से इस प्रकार की अनेक घटनांए जुड़ी हुयी हैं।

    वह जीवनपर्यन्त जहां ईश्वर आराधना व मन की पवित्रता पर जोर देते रहे वहीं तत्कालीन भारतीय समाज में व्याप्त जाति-पांति के भेदभाव, छुआछूत, नारी उत्पीड़न, ऊंच-नीच, अंधविश्वास और सती प्रथा जैसी सामाजिक बुराइयों के विरुद्ध भी संघर्ष करते रहे। उन्होंने भारतीय समाज के नवनिर्माण में एक जबरदस्त रचनात्मक आन्दोलन छेड़ दिया जिसे उनके बाद नौ गुरुओं ने भी जारी रखा।

     गुरु नानक देव अपने उपदेश गाकर सुनाते थे। उनका शिष्य मरदाना शास्त्रीय संगीत का धुरंधर विद्वान था। वह रबाब पर उनकी संगत करता था। गुरु जी द्वारा उच्चारण किये गये 974 सबद हैं जिन्हें 19 रागों में लयबद्ध कर गुरु ग्रंथ साहिब में संग्रहित किया गया है।

     स्वर्ग प्रस्थान का समय निकट जानकर गुरु नानक ने अपने द्वारा चलाये आन्दोलन को जारी रखने और लक्ष्य प्राप्ति हेतु अपने एक अत्यंत योग्य शिष्य को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया। गुरु जी का यह प्रिय शिष्य बाद में गुरु अंगद देव के नाम से विख्यात हुआ।

      गुरु जी के दो पुत्र बाबा लखमीचन्द और श्रीचन्द थे जो गुरु जी की परीक्षा में विफल रहने के कारण गुरु गद्दी से वंचित रहे। ये दोनों जीवनपर्यन्त ब्रहमचारी रहे और तपस्या करते रहे।

       गुरु अंगद देव जी को गुरु गद्दी सौंपकर गुरु नानक देव संवत 1596 में क्वार सुदी 23 को इस असार संसार को छोड़कर सदा के लिए परम सत्ता में विलीन हो गये।

-harminder singh
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कैदी की डायरी......................
>>सादाब की मां............................ >>मेरी मां
बूढ़ी काकी कहती है
>>पल दो पल का जीवन.............>क्यों हम जीवन खो देते हैं?

घर से स्कूल
>>चाय में मक्खी............................>>भविष्य वाला साधु
>>वापस स्कूल में...........................>>सपने का भय
हमारे प्रेरणास्रोत हमारे बुजुर्ग

...ऐसे थे मुंशी जी

..शिक्षा के क्षेत्र में अतुलनीय काम था मुंशी जी का

...अपने अंतिम दिनों में
तब एहसास होगा कि बुढ़ापा क्या होता है?

सम्मान के हकदार

नेत्र सिंह

रामकली जी

दादी गौरजां

कल्याणी-एक प्रेम कहानी मेरा स्कूल बुढ़ापा

....भाग-1....भाग-2
सीधी बात नो बकवास

बहुत कुछ बदल गया, पर बदले नहीं लोग

गुरु ऐसे ही होते हैं
युवती से शादी का हश्र भुगत रहा है वृद्ध

बुढ़ापे के आंसू

बूढ़ा शरीर हुआ है इंसान नहीं

बुढ़ापा छुटकारा चाहता है

खोई यादों को वापिस लाने की चाह

बातों बातों में रिश्ते-नाते बुढ़ापा
ऐसा क्या है जीवन में?

अनदेखा अनजाना सा

कुछ समय का अनुभव

ठिठुरन और मैं

राज पिछले जन्म का
क्योंकि तुम खुश हो तो मैं खुश हूं

कहानी की शुरुआत फिर होगी

करीब हैं, पर दूर हैं

पापा की प्यारी बेटी

छली जाती हैं बेटियां

मां ऐसी ही होती है
एक उम्मीद के साथ जीता हूं मैं

कुछ नमी अभी बाकी है

अपनेपन की तलाश

टूटी बिखरी यादें

आखिरी पलों की कहानी

बुढ़ापे का मर्म



[ghar+se+school.png]
>>मेरी बहन नेत्रा

>>मैडम मौली
>>गर्मी की छुट्टियां

>>खराब समय

>>दुलारी मौसी

>>लंगूर वाला

>>गीता पड़ी बीमार
>>फंदे में बंदर

जानवर कितना भी चालाक क्यों न हो, इंसान उसे काबू में कर ही लेता है। रघु ने स्कूल से कहीं एक रस्सी तलाश कर ली. उसने रस्सी का एक फंदा बना लिया

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वृद्धग्राम पर पहली पोस्ट में मा. होराम सिंह का जिक्र
[ARUN+DR.jpg]
वृद्धों की सेवा में परमानंद -
डा. रमाशंकर
‘अरुण’


बुढ़ापे का दर्द

दुख भी है बुढ़ापे का

सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य गिरीराज सिद्धू ने व्यक्त किया अपना दुख

बुढ़ापे का सहारा

गरीबदास उन्हीं की श्रेणी में आते हैं जिन्हें अपने पराये कर देते हैं और थकी हड्डियों को सहारा देने के बजाय उल्टे उनसे सहारे की उम्मीद करते हैं
दो बूढ़ों का मिलन

दोनों बूढ़े हैं, फिर भी हौंसला रखते हैं आगे जीने का। वे एक सुर में कहते हैं,‘‘अगला लोक किसने देखा। जीना तो यहां ही है।’’
[old.jpg]

इक दिन बिक जायेगा माटी के मोल
प्रताप महेन्द्र सिंह कहते हैं- ''लाचारी और विवशता के सिवाय कुछ नहीं है बुढ़ापा. यह ऐसा पड़ाव है जब मर्जी अपनी नहीं रहती। रुठ कर मनाने वाला कोई नहीं।'' एक पुरानी फिल्म के गीत के शब्द वे कहते हैं-‘‘इक दिन बिक जायेगा, माटी के मोल, जग में रह जायेंगे, प्यारे तेरे बोल।’’

...............कहानी
[kisna.jpg]
किशना- एक बूढ़े की कहानी
(भाग-1)..................(भाग-2)
ये भी कोई जिंदगी है
बृजघाट के घाट पर अनेकों साधु-संतों के आश्रम हैं। यहां बहुत से बूढ़े आपको किसी आस में बैठे मिल जायेंगे। इनकी आंखें थकी हुयी हैं, येजर्जर काया वाले हैं, किसी की प्रेरणा नहीं बने, हां, इन्हें लोग दया दृष्टि से जरुर देखते हैं

अपने याद आते हैं
राजाराम जी घर से दूर रह रहे हैं। उन्होंने कई साल पहले घर को अलविदा कह दिया है। लेकिन अपनों की दूरी अब कहीं न कहीं परेशान करती है, बिल्कुल भीतर से

कविता.../....हरमिन्दर सिंह .
कभी मोम पिघला था यहां
इस बहाने खुद से बातें हो जायेंगी
विदाई बड़ी दुखदायी
आखिर कितना भीगता हूं मैं
प्यास अभी मिटी नहीं
पता नहीं क्यों?
बेहाल बागवां

यही बुढापा है, सच्चाई है
विदा, अलविदा!
अब कहां गई?
अंतिम पल
खत्म जहां किनारा है
तन्हाई के प्याले
ये मेरी दुनिया है
वहां भी अकेली है वह
जन्म हुआ शिशु का
गरमी
जीवन और मरण
कोई दुखी न हो
यूं ही चलते-चलते
मैं दीवाली देखना चाहता हूं
दीवाली पर दिवाला
जा रहा हूं मैं, वापस न आने के लिए
बुढ़ापा सामने खड़ा पूछ रहा
मगर चुप हूं मैं
क्षोभ
बारिश को करीब से देखा मैंने
बुढ़ापा सामने खड़ा है, अपना लो
मन की पीड़ा
काली छाया

तब जन्म गीत का होता है -रेखा सिंह
भगवान मेरे, क्या जमाना आया है -शुभांगी
वृद्ध इंसान हूं मैं-शुभांगी
मां ऐसी ही होती है -ज्ञानेंद्र सिंह
खामोशी-लाचारी-ज्ञानेंद्र सिंह
उम्र के पड़ाव -बलराम गुर्जर
मैं गरीबों को सलाम करता हूं -फ़ुरखान शाह
दैनिक हिन्दुस्तान और वेबदुनिया में वृद्धग्राम
hindustan vradhgram ब्लॉग वार्ता :
कहीं आप बूढ़े तो नहीं हो रहे
-Ravish kumar
NDTV

इन काँपते हाथों को बस थाम लो!
-Ravindra Vyas WEBDUNIA.com