बूढ़ी काकी कहती है-‘‘बुढ़ापा तो आना ही है। सच का सामना करने से भय कैसा? क्यों हम घबराते हैं आने वाले समय से जो सच्चाई है जिसे झुठलाना नामुमकिन है।’’.

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Saturday, January 31, 2009

मां का दिल ऐसा ही होता है

मेरी मां को मेरी फिक्र रहती है। हम कहते हैं,‘माओं के दिल ही ऐसे होते हैं।’ एक मां को चाहिये ही क्या, उसके बच्चे सुखी रहें और परिवार भरा-पूरा रहे। हम अपनों की चिंता शायद न भी करते हों, लेकिन उन्हें पल-पल हमारी चिंता रहती है।

मां की बात में सुनता हूं, पर मुस्करा जाता हूं। दिन भर किताबें, अखबार, अपने विचारों को घंटों कम्प्यूटर में फीड करना, बगैरह-बगैरह। शाम को करीब एक-दो घंटा कुछ न कुछ लिखना। ऐसा करने से मेरी भावनाएं अक्षरों के बहाने कोरे कागजों पर उकरती रहती हैं। इससे पैन से लिखने की कला को भी आप अपने साथ संजोये रखते हैं। हाल ही मैं दो नई कविताओं की रचना की है। कुछ कहानियां धीरे-धीरे लिख रहा हूं। खुद को व्यस्त रखने में एक अलग तरह का आनंद है। किताबों में खोना चाहता हूं, लेकिन ऐसा होता नहीं। एक बच्चे ने मुझे ‘क्रेजी’ भी कहा था। उसे लगता है जितनी किताबों के ढेर मैंने अपने घर के कोने में सजा रखे हैं, शायद वे हद से ज्यादा है। हाल ही मैं कुछ नई किताबें लाया हूं, जिनमें कई नये और कुछ पुराने रचनाकार हैं। किताबें हमारा मार्गदर्शन सबसे अच्छी तरह करती हैं।

अधिक व्यस्तता आपको थकान कर सकती है। दिमाग थकने पर हमें नुक्सान हो सकता है। हाल ही में मैं चोट खा गया। मुझे ‘बैंड-एड’ लगानी पड़ी। माथे पर मामूली सूजन आयी। हुआ यह था कि मुझे नींद आनी शुरु हो गई थी। मैं अक्सर मध्यरात्रि के आसपास ही सोता हूं। मुझे याद है मैं अद्र्धनिंद्रा की अवस्था में दरवाजे के बाहर गया था। अचानक मुझे लगा कि मेरी आंख अब लगी। मेरा मन बेचैन सा हो गया, हृदय की कंपन इतनी तेज थी कि मैं सहम गया। फिर मुझे लगा कि मैं सपने में हूं। मैं जमीन से उठा। मैं सोच में पड़ गया कि मैं गिरा कैसे? थोड़ा आगे चला तो पाया कि मेरे पैर मैं एक ही चप्पल है। पीछे देखा तो चप्पल वहां पड़ी थी। मुंह में लगा कि मिट्टी है। चेहरे पर हाथ फेरा तो पाया कि मैं चेहरे के बल गिरा था। यह सब इतनी जल्दी हुआ था कि मैं आज भी हैरान हूं कि मैं गिरा कैसे?

मैंने सुना था कि लोग बेहोश हो जाते हैं या असंतुलन में गिर जाते हैं, लेकिन मैंने उस स्थिति में खुद को पाया तो अजीब लगा। एक बार स्कूल में सुबह की प्रार्थना के समय धूप में मेरी आंखों के सामने अंधेरा छा गया और पसीने से लथपथ हो गया। तब मैंने खुद को संभाल लिया था।

मां को इसपर टेंशन हो गयी। उन्होंने हैरानी में कहा कि कहीं कुछ ऐसा-वैसा न हो। मैं समझ गया। मैं एक बात बताना चाहूंगा कि हमारे परिवार में अंधविश्वास के बारे में बात करते हैं तो बुरा माना जाता है। मैं स्वयं कहता हूं कि जो लोग अपना भला नहीं कर सकते, वे दूसरों को नुक्सान पहुंचाने की युक्तियां सुझाते रहते हैं या फिर दूसरों पर टोटका करवाते रहते हैं। यही कारण है कि मैं ताबीज जैसे चीज को हमेशा नकाराता हूं। मुझे दो तरह के लोगों से नफरत महसूस होती है-एक मांसाहारी और दूसरे अंधविश्वासी। खैर, मां की सोच कुछ समय के लिये अंधविश्वासी मान सकता हूं क्योंकि उस समय वह काफी परेशान थी। हम जानते हैं जितना दुख हमें होता है, उससे कई गुना दुखी वे होती हैं जो हमसे स्नेह रखते हैं। परेशानियां हमें इधर-उधर की बातें काफी कुछ सोचने पर विवश करती हैं। मैंने मां को समझाया कि इतनी मामूली चोट के लिये क्यों फिक्र करती हो, मुझे कुछ नहीं हुआ है।

दुनिया भर की मांओं को लगता है कि उनसे अधिक प्यार अपने बच्चों को कोई नहीं कर सकता। यह सही ही है। वे अपने बच्चों के लिये कुछ भी कर सकती हैं।

मां और बेटीः मैंने एक मां को उसकी बेटी के साथ टहलते देखा है। वे दोनों अक्सर धूप निकलने के समय घूमती देखी जा सकती हैं। मां के हाथ में उसकी शादी-शुदा बेटी का हाथ होता है। कैसा दृश्य होता है जब एक मां अपनी बेटी को सहारा दे कर चलाती है जो चलने-फिरने-बोलने में लाचारी महसूस करती है। उस लड़की का पति उसे अपने घर नहीं ले जाना चाहता क्योंकि वह एक लाचार को अपनी पत्नि नहीं बनाना चाहता। जबकि शादी के समय वह बिल्कुल स्वस्थ थी। उसके मां-बाप ने उसकी शादी में दिल खोल कर जो उनसे बन पड़ा किया। पता नहीं क्या हुआ कि शादी के कुछ दिन बाद ही लड़की का शरीर सुन्न सा हो गया। उसकी मानसिक स्थिति खराब हो गयी। वह न चल सकती थी, न बोल सकती थी। यह दुख का विषय था। ससुराल वालों ने उसे उसके मायके भेज दिया। काफी मिन्नतों के बाद भी उसे उसका पति अपने घर ले जाने को राजी नहीं हुआ। लड़की को पता नहीं कि उसके आसपास क्या घट रहा था। उसके बाप को इतना दुख नहीं था, लेकिन एक मां का अपनी बेटी का दुख देखकर हृदय कितना रो रहा था, यह एक मां ही जान सकती है। बाप मजदूर है, जितना कमाते हैं, उतना खाते हैं। मां के पास इतने पैसे नहीं कि अपनी बेटी का इलाज करा सके। किसी ने उससे बताया कि वह अपनी लड़की को रोज नंगे पैर धूप में चलाये तो कुछ फर्क आ सकता है। पिछले एक साल से अधिक वह उसका सहारा बन रही है। रोज-रोज अंदर-अंदर घुट रही है। बेटी खिलखिलाती है, उसे संसार का पता नहीं। वह लड़खड़ा कर चलती है, फिर खिलखिलाती है। उसकी मां दुखी है, शायद यह संसार का सबसे बड़ा दुख है।

-Harminder Singh

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इक दिन बिक जायेगा माटी के मोल
प्रताप महेन्द्र सिंह कहते हैं- ''लाचारी और विवशता के सिवाय कुछ नहीं है बुढ़ापा. यह ऐसा पड़ाव है जब मर्जी अपनी नहीं रहती। रुठ कर मनाने वाला कोई नहीं।'' एक पुरानी फिल्म के गीत के शब्द वे कहते हैं-‘‘इक दिन बिक जायेगा, माटी के मोल, जग में रह जायेंगे, प्यारे तेरे बोल।’’

...............कहानी
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किशना- एक बूढ़े की कहानी
(भाग-1)..................(भाग-2)
ये भी कोई जिंदगी है
बृजघाट के घाट पर अनेकों साधु-संतों के आश्रम हैं। यहां बहुत से बूढ़े आपको किसी आस में बैठे मिल जायेंगे। इनकी आंखें थकी हुयी हैं, येजर्जर काया वाले हैं, किसी की प्रेरणा नहीं बने, हां, इन्हें लोग दया दृष्टि से जरुर देखते हैं

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राजाराम जी घर से दूर रह रहे हैं। उन्होंने कई साल पहले घर को अलविदा कह दिया है। लेकिन अपनों की दूरी अब कहीं न कहीं परेशान करती है, बिल्कुल भीतर से

कविता.../....हरमिन्दर सिंह .
कभी मोम पिघला था यहां
इस बहाने खुद से बातें हो जायेंगी
विदाई बड़ी दुखदायी
आखिर कितना भीगता हूं मैं
प्यास अभी मिटी नहीं
पता नहीं क्यों?
बेहाल बागवां

यही बुढापा है, सच्चाई है
विदा, अलविदा!
अब कहां गई?
अंतिम पल
खत्म जहां किनारा है
तन्हाई के प्याले
ये मेरी दुनिया है
वहां भी अकेली है वह
जन्म हुआ शिशु का
गरमी
जीवन और मरण
कोई दुखी न हो
यूं ही चलते-चलते
मैं दीवाली देखना चाहता हूं
दीवाली पर दिवाला
जा रहा हूं मैं, वापस न आने के लिए
बुढ़ापा सामने खड़ा पूछ रहा
मगर चुप हूं मैं
क्षोभ
बारिश को करीब से देखा मैंने
बुढ़ापा सामने खड़ा है, अपना लो
मन की पीड़ा
काली छाया

तब जन्म गीत का होता है -रेखा सिंह
भगवान मेरे, क्या जमाना आया है -शुभांगी
वृद्ध इंसान हूं मैं-शुभांगी
मां ऐसी ही होती है -ज्ञानेंद्र सिंह
खामोशी-लाचारी-ज्ञानेंद्र सिंह
उम्र के पड़ाव -बलराम गुर्जर
मैं गरीबों को सलाम करता हूं -फ़ुरखान शाह
दैनिक हिन्दुस्तान और वेबदुनिया में वृद्धग्राम
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