बूढ़ी काकी कहती है-‘‘बुढ़ापा तो आना ही है। सच का सामना करने से भय कैसा? क्यों हम घबराते हैं आने वाले समय से जो सच्चाई है जिसे झुठलाना नामुमकिन है।’’.

LATEST on VRADHGRAM:

Sunday, November 30, 2008

अपने ही अपने होते हैं




प्रेम की वजह अनंत हैं। इसके रुपों की व्याख्या करना इतना आसान नहीं। यह विस्तृत है। बचपन से लेकर आजतक हमने किसी किसी से प्रेम ही तो किया है। शायद इसमें बंधकर ही हमने कठिन रास्तों को चुना, लेकिन सरलता से पार करने में हम कामयाब भी हुए। मां-बाप और औलाद के बीच प्रेम जमकर हंसा और खूब नाचा


बूढ़ी काकी का जीवन नीरस था। उसकी उम्र हंसने-खेलने की नहीं, ढांढस बांधने की थी। वह ममता को टटोलती नहीं, ममता मायूस भी नहीं, जैसी पहले थी, अब उससे अधिक बहती थी।

यह हकीकत किसी से छिपी नहीं कि बुढ़ापा नम्र हृदय होता है। बूढ़ी काकी का दिल पिघल जाता है। उसकी आंखें छलक रही थीं, इतनी सूखी होकर भी। हृदय मोम है, विचार उसे पिघला देते हैं।

काकी को देखकर मैंने पूछा,‘इतने प्रेम की वजह क्या है?’

काकी बोली,‘यह भाव है जो प्रकट हो जाता है। रोकना बस से बाहर, लेकिन सच यह है कि प्रेम का रुप न तुमने साक्षात देखा, न मैंने, केवल हृदय ने उसे ढंग से पहचाना है। मेरे जैसे बुजुर्गों के लिये बहुत कुछ मायने रखता है प्रेम का एक-एक शब्द।’

‘मेरे अपने यदि मेरे साथ होते हैं तो वह संसार की सबसे मूल्यवान चीज होती है। उस समय की खुशी के बराबर कुछ नहीं। तुम्हें मैंने स्नेह किया है और मेरे लिये यह वक्त यादगार रहेगा।’

‘प्रेम की वजह अनंत हैं। इसके रुपों की व्याख्या करना इतना आसान नहीं। यह विस्तृत है। बचपन से लेकर आजतक हमने किसी न किसी से प्रेम ही तो किया है। शायद इसमें बंधकर ही हमने कठिन रास्तों को चुना, लेकिन सरलता से पार करने में हम कामयाब भी हुए। मां ने औलाद से प्रेम किया, पिता ने भी। रुठने-मनाने का खेल भी यहीं से शुरु हुआ। प्रेम का उदय होता है, तो उसमें गुंजाइश होती है। अपने लाडले को सर आंखों पर बैठाया। पालने में झुलाया, किसी सुख की कमी न रहने दी। लाडली भी अपना ही खून थी। उसे भरपूर स्नेह दिया। मगर अंतर की उत्पत्ति भी प्रेम के साथ ही हो चुकी थी। सो फर्क का नजारा भी देखने को मिला। खैर, औलाद का सुख उसे जनने वाले अच्छी तरह जान सकते हैं। मां-बाप और औलाद के बीच प्रेम जमकर हंसा और खूब नाचा।’

बूढ़ी काकी की बात खत्म ही नहीं हो रही थी। चूंकि सवाल इतना पेचीदा था कि उसका उत्तर शुरु ही ठीक तरह से कहां हुआ था।

काकी ने आगे कहा,‘औलाद का अपनापन हर किसी पालनहार की ख्वाहिश होती है। चाहत का दामन न छूटे इसलिये वे चाहते हैं कि उनकी औलाद उनकी आंखों से दूर न हो।’

‘अगर हमें युवाओं की बात करें तो इस समय में रिश्तों की एक अजीब उलझन का सामना करने की तैयारी पहले से ही की जाए तो बेहतर है। यह समय रिश्तों के दरकने का भी होता है, डरने-सहमने का होता है, अपनों से दूरी बनने का भी होता है और हां, पतली डोर पर चलने का भी होता है। युवा मन चंचलता लिये होता है, अठखेलियां जमकर होती हैं। जिम्मेदारियों का अहसास कभी होता है, कभी नहीं। मनमौजी कहने में कोई हिचक नहीं है। यह बदलावों का वक्त होता है, शारीरिक भी और मानसिक भी। वास्तव में यह दौर हलचलों का होता है। पर हमने तो बुढ़ापे के प्रेम के विषय में बात की थी, ये अवस्थायें मध्य कहां से गईं।’ इतना कहकर काकी रुक गई।

-Harminder Singh

Saturday, November 29, 2008

जिंदगी छिनने का मातम



कल खुशी के दिने थे, आज वहां रोने वालों का तांता लगा है। क्योंकि किसी ने कोई अपना खोया है। कईयों के घर मातम छाया है। जिंदगी छिनने के बाद मातम ही तो मनाया जाता है। आतंकियों की करतूत ने पल भर में मुंबई को कभी न खत्म होने वाला दर्द दे दिया। मुंबई दहली, देश दहला और पूरी दुनिया ने इसपर क्षोभ प्रकट किया। निरीह लोगों को मारना कायराना कृत्य नहीं तो और क्या है?

जिन्होंने अपनों को खोया है वे टूट चुके हैं। कभी यह सोचा नहीं गया था कि रात इतनी काली भी हो सकती है।
कुछ लोगों ने जिंदगियां तबाह करने का ठेका लिया हुआ है। वे खौफ का खेल बखूबी जानते हैं। उनका मकसद दहशत फैलाना है। मरते और दर्द से कराहते लोगों से उनका कोई लेना-देना नहीं, वे तो लाशों के ढेर पर जश्न मनाने वालों में से हैं। उन्हें हम हंसते हुये, शांति में रहते अच्छे नहीं लगते। वे चाहते हैं हम भी उनकी तरह एक बर्बाद और टूटे-फूटे मुल्क के बाशिंदों की तरह जियें। हमारी धरती को लाल करने की कोशिश में लगे रहते हैं ये दहशतगर्द।

मुंबई ने पहले भी कई जख्म झेले हैं। पर हर बार उठ खड़ी हुई है मुंबई नये जस्बे के साथ। हम जानते हैं कि मरने वाले इंसान हैं और मारने वाले भी लेकिन किसी हैवान से कम नहीं।

-Harminder Singh

Thursday, November 27, 2008

इतिहास अदभुत है और लोग भी




सौ साल पहले की दुनिया सौ साल बाद कुछ और हो गयी। लोग भी बदले, मौसम भी, विचार भी और इतिहास भी। इतिहास ने बहुत कुछ सिखाया है हमें क्योंकि इतिहास में बहुत कुछ गंवाया है हमने. इतिहास हम ही बनाते और बिगाड़ते हैं इसलिये इतिहास हमारे द्वारा ही लिखा जायेगा



वे लोग आज हमारे बीच नहीं हैं। उनके बारे में हम कहीं न कहीं कुछ न कुछ पढ़ते-देखते-सुनते-लिखते रहते हैं। वे अदभुत थे और पराक्रमी भी, शांत भी थे और हिंसक भी। विद्वान भी और महान भी। उन पुराने लोगों को स्मरण करने मात्र से एक अजीब सी अनुभूति होती है। यह एक लगाव है, जो समय के साथ-साथ घटता-बढ़ता रहता है।

सौ साल पहले की दुनिया सौ साल बाद कुछ और हो गयी। लोग भी बदले, मौसम भी, विचार भी और इतिहास भी। पुराने युग के लोगों के बारे में जानने की इच्छा होती है क्योंकि मैं उनको समझना चाहता हूं। मेरा इतिहास से कोई खास लगाव कभी नहीं रहा। इतिहास केवल मेरे लिये बोरियत का विषय था।

आज मैं कई प्राचीन पुस्तकें पढ़ रहा हूं। इतिहास में भविष्य छिपा है और भविष्य के लिये इतिहास को छूना बहुत जरुरी है। इस स्पर्श से दुनिया में बहुत कुछ बदला और दहला है।

इतिहास ने बहुत कुछ सिखाया है हमें क्योंकि इतिहास में बहुत कुछ गंवाया है हमने। अपनी पहचान को तलाश करने की कोशिश की है, अपने पूर्वजों को जाना है। भविष्य में आज का वक्त इतिहास हो जायेगा, लेकिन हम जानते हैं कि इतिहास हम ही बनाते और बिगाड़ते हैं इसलिये इतिहास हमारे द्वारा ही लिखा जायेगा।

हमने अपने बड़ों से अपने पूर्वजों के बारे में काफी सुना है। अपनी जाति विशेष के बारे में पढ़ा भी है। हमें इतना अवश्य जान लेना चाहिये कि हम कौन थे और क्या हुये? अपने धर्म के विषय में हम पूरा नहीं जानते और न ही यह कि हमारे महापुरुष किस तरह जीवन व्यतीत करते थे, उनका रहन-सहन क्या था, वे वास्तव में जैसा कहा जाता है वैसे ही थे या सच्चाई कुछ और थी। मैंने जाट इतिहास को पूरा तो नहीं पढ़ा लेकिन ठाकुर देसराज की लिखी पुस्तक के कई अहम खंडों को पढ़ चुका हूं। मैं विभिन्न धर्मों की पुस्तकों को पढ़ने का इच्छुक हूं। समय-समय पर यह अवसर मुझे मिलता रहता है। शिव पुराण पढ़कर पता लगा कि शिव के कितने नाम हैं। गुजरे लोगों के द्वारा कहे गये कथन भविष्य के प्रति आगाह करते हैं। उनका भविष्य हमारा आज है।


पुदीने की चटनी और परांठे

पुदीने की चटनी का स्वाद काफी अच्छा होता है। अगर परांठे के साथ यह चटनी ली जाये तो स्वाद कई गुना बढ़ जाता है। और पुदीना घर का हो तो समझो रोज चटनी चखी जा सकती है। खासकर सर्दियों में यह काफी अच्छी लगती है।

स्कूल में लंच के दौरान मैं अक्सर परांठे और चटनी लेकर जाता था। कुछ दोस्त थे जो मैदान में इकट्ठा हो जाते। सबके टिफिन बाक्स खुल जाते- स्कूल की छोटी-सी पार्टी हो जाती। राहुल शर्मा मेरे साथ बचपन से पढ़ा है। उसे पुदीने की चटनी बहुत भाती थी। उसकी जुगत रहती कि वह सारी चटनी चट कर जाये। चटनी के लिये मेरी मां की तारीफ होती। मुझे अच्छा लगता। हम जानते हैं कि तारीफ इंसान की ऊर्जा को कई गुना बढ़ा देती है। मेरे साथ ऐसा ही होता। लंच के समय मैं अधिक उत्साहित रहता। शायद मिलबांट कर खाने की प्रवृत्ति का आनंद था वह।

पुदीना स्वास्थ्य के लिये काफी लाभदायक होता है। वैसे धनिये के ताजे पत्तों की चटनी भी परांठों साथ बुरी नहीं लगती। वह भी कम स्वास्थ्यवद्र्धक नहीं।

-harminder singh

Wednesday, November 19, 2008

न सिमटेगा यह प्रेम


इस समय सूखे रेगिस्तान में एक बूंद भी सागर बहा देती है। थकी आंखें जिनकी नमीं कब की सूख चुकी, हरी-भरी दिखाई देती हैं। बुढ़ापे को और चाहिये ही क्या?


पास रखी एक किताब के पन्ने पलटते हुये काकी कहती है,‘मैं किताबें बहुत खुशी से पढ़ती थी। स्कूल की किताबों के एक-एक अक्षर को मैं जोड़ कर रखती, कभी भूलती नहीं। आज भी कई कहानियां, कविताएं याद हैं जिन्हें शायद ही कभी भूल पाऊं। कोरे कागज पर कलम चलाने का एक अदभुत आनंद था जिसकी सीमा अनंत थी। वह दिन खुशी के थे। मेरी किताबें मेरे पास नहीं, उनका सबकुछ मैंने यहां समेट रखा है।’ काकी ने अपना जर्जर हाथ अपने कमजोर माथे पर रखा।

काकी की बातों में इतना खो गया था कि खुद को भूल गया। कल्पनायें करते-करते मेरी आंख लग गयी। सुबह मेरी नींद टूटी। मैंने खुद को काकी के पास पाया। काकी मेरी बालों को सहला रही थी। यह स्नेह था जिसे परिभाषित करने में युग बीत जायें पर इस धारा को अविरल बहने से कोई रोक नहीं सकता।

प्रेम एक बंधन में बंधा होता है जिसकी डोर मजबूत होती है। एक-दूसरे से जोड़े रखता है प्रेम का बंधन। हम न चाहते हुये भी उससे छूट नहीं सकते। मोह का खेल पुराना नहीं, नया भी नहीं, यह रिश्तों के अदभुत संगम के बाद उत्पन्न हुआ है जो बिना दिखे बहुत कुछ कह जाता है। उन अनछुए पहलुओं से भी हमारा सामना करा देता है जिन्हें हम भूल चुके थे। अनजाने में इतना सब घट जाता है कि उसे सोचना अजीब था। बुढ़ापे का प्रेम अधिक पिघला हुआ होता है। इस समय सूखे रेगिस्तान में एक बूंद भी सागर बहा देती है। थकी आंखें जिनकी नमीं कब की सूख चुकी, हरी-भरी दिखाई देती हैं। बुढ़ापे को और चाहिये ही क्या? इतना सब तो मिल गया उसे।

-harminder singh

Wednesday, November 12, 2008

खाकी का रंगः पर सारा तालाब मैला नहीं

खाकी का समय-दर-समय रंग बदला है, असर भी। आज खाकीवाले बदनाम हैं। तालाब का पानी कहीं मैला है, तो कहीं मटमैला। कुछ मछलियां उसे गंदा करने पर तुली हैं, बाकी उन्हीं की तरह न होते हुये भी, उन्हीं के जैसी लग रही हैं



आप
वरदी वाले हैं तो कुछ भी कर सकते हैं। आपका एक रौब है, बस डंडा घुमाने की देरी है। रिक्शेवाला आपसे डरता है क्योंकि थप्पड़ की ताकत वह जानता है और खाकी की भी।

वरदी की कीमत शायद आजकल पुलिस से जुड़े लोग भूल चुके हैं। वरदी की आड़ में घिनौने काम करने में इन्हें शर्म महसूस नहीं होती। कसूर को बेकसूर साबित करने की जैसे यहां होड़ लगी और धन बटोरने की भूख।

कितनी बद्दुआओं को अपने में समेटे है खाकी। कितने दागों, राजों को छिपाये, एक मामूली इंसान को ताकत बख्शती है खाकी।

नाम काफी है बदनामी के कारण। काफी वक्त पहले लोग एक पुलिसवाले को सलाम करते थे, कुछ इज्जत थी। समय बदला, लोग भी, पुलिस भी। अब पुलिसवाला गुजरता है तो सलाम नहीं होता, कई की नजरों में हिकारत जरुर होती है। सलाम करने वाले गिने-चुने होते हैं।

खाकी का समय-दर-समय रंग बदला है, असर भी। आज खाकीवाले बदनाम हैं। तालाब का पानी कहीं मैला है, तो कहीं मटमैला। कुछ मछलियां उसे गंदा करने पर तुली हैं, बाकी उन्हीं की तरह न होते हुये भी, उन्हीं के जैसी लग रही हैं।

एक पहलू यह भीः वरदी वालों की कहानी दो तरह से चलती है। एक मुखौटा नकली लगता है कभी-कभी और कई बार बहुत बदला हुआ सा। जैसा भी वे करते हैं, रोकना नामुमकिन हैं क्योंकि ऐसा करने और सिखाने वाले हम ही तो हैं। उन्हें रिश्वत देता कौन है? उन्हें राजनीतिक दबाव में दबाता कौन है? उनके तबादले करवाता कौन है?
यह हकीकत है कि चौबीसों घंटें खाकी कुछ इंच की गोली के निशाने पर रहती है। कब किस पुलिसवाले का सीना चीरती हुई यह पार हो जाये किसे पता। सोने की फुर्सत हमें तो है, लेकिन एक सिपाही सोता कितना है यह जानने की कोशिश कितनों ने की होगी? एक पुलिस वाले का जबाव था,‘हम जागते हैं ताकि आप तसल्ली से सो सकें।’

एक बात कही जा सकती है कि पुलिस का अस्तित्व न होता तो शायद स्थिति कहीं कुछ और अधिक भयावह और खतरनाक होती। चलो काफी हद तक इस वजह से हम सेक्योर हैं।

हां, कई स्याह पन्ने जरुर हैं जब वरदी दागदार होती है, लेकिन उसको करता तो एक मामूली इंसान ही है, जिसकी वजह वरदी की ताकत होती है।

-हरमिन्दर सिंह

Thursday, November 6, 2008

उड़ती-चलती जिंदगी




जिंदगी जीने का मुकाम सिखा रही है। यह हंस रही है और मुस्करा रही है। आने वालों को आना है तो आओ, बाकियों को छोड़ती जा रही है। नये जीवन के नये रुप का स्वागत जोर शोर से हो रहा है। उड़ते पंछियों की तरह मदमस्त है जिंदगी लेकिन कहीं उदास भी है।

कोई बात ऐसी नहीं जो न कहे सके जिंदगी। जीने के कई तरीके हैं। कोई कैसा जीता है, तो कोई ऐसे। खुशी और दुख के कारणों को सीखने के लिये पैदा होना जरुरी है। पैदाईश है तो मौत से बचके निकलना नामुमकिन। काफी जोड़ हैं जिन्हें समझना आसान नहीं। रचियता की रचना बेजोड़ है।

कई रंगों से भिगोकर रचनाकार ने तय किया कि क्यों न कोई बेशकीमती चीज बनाई जाये। उसने जीवों का संचार किया। तब से आज तक जीवों का एक बहुत बड़ा संसार है। हम रुकते हुये अच्छे नहीं लगते क्योंकि गति जीवन देती है। किसी के लिये यूं ही शांत रहना आसान नहीं। इसका मतलब कोई रुका हुआ नहीं। नींद में होते हैं तो सपने गतिमान हैं। उनकी गति और पहुंच यहां तक नहीं। न जाने कितनी दूर तक जाते हैं सपने और हमें ले जाते हैं। कल्पनाओं को साकार करने का बेहतर और सुलभ तरीका हैं सपने। दिन में सपने देखने का मन करे तो देखो लेकिन साकार होते हुये सपने अच्छे लगते हैं।

जिंदगी चलती फिरती किताब है जिसके पन्ने कोरे हैं। जितना जिये उतने पन्ने भरे गये बाकि कोरे हैं। इस किताब को कभी भरा नहीं जा सका। इसके कुछ पन्ने जीवन के रंगों से रंगे हैं तो कुछ बेरंग हैं। रुकी थमी यादों के कई पाठ सलीखे से लगे हैं। लिखावट पर किसी का ध्यान नहीं जाता। इतना कुछ पढ़ने को हैं कि पढ़ने में कई जीवन कम पड़ जायें। वाह! क्या कमाल है जिंदगी।

हंसती हुई अच्छी लगती है जिंदगी। रोना उसे संभालने के लिये साथ रहता है। दोनों में प्रेम है और यह रिश्ता अटूट है। कभी न टूटने वाला तथा इतराता हुआ रिश्ता। बचपन से लेकर आजतक तो इन्होंने संभाला हैं हमें। दुखी तो रोये, खुशी इतनी हुई तो रोये। खुशी के आंसू आये। हो गया न हंसना-रोना एक साथ।

उन पलों का शुक्रिया जो कुछ सिखा गये। जीवन तो जैसे-तैसे चल रहा है मगर तेजी के लिये किसी का सहारा चाहिये। खुद को मैंने तलाश किया। आप शायद हैरान हों लेकिन हम ही तो हैं जो खुद को चलाते हैं तेज भी, धीमे भी।

उम्मीदों की टोकरी को सिर पर अभी भी उठाये हैं। शायद इसी ख्याल में कि इक दिन यह टोकरी फूलों की बरसात करेगी। बरसात का इंतजार है और एक ओर उम्मीद की टोकरी आकर टिक गयी है। न जाने कितनी टोकरियों का वजन है, पता नहीं चलता। भला उम्मीदों का भी कोई वजन होता है। वे तो हल्की-फुल्की हैं, शांत हैं, चुप रहती हैं पर पूरी होने पर बहुत चहकती हैं।

जीवन के पहलू कई हैं जिनकी शुरुआत कीजिये तो खत्म होने का नाम नहीं लेंगे। वैसे अनंत का कोई छोर नहीं होता। जीवन को अंत होते हुये भी इसका अंत नहीं। जिंदगी रुकती नहीं, चलती है, न खत्म होती है। यह एक ऐसा ख्याल है जो निरंतर है।

समझ से परे है जीवन, समझना बस से बाहर है। मैं तो यहीं ठहर गया, वह नहीं ठहरा। रहस्य वह जो न समझा जा सके। इसलिये जीवन एक रहस्य है जिसकी शुरुआत तो है लेकिन अंत का पता नहीं। कल्पना से भी परे है और बहुत सी बातों को संजोये है जीवन।

-harminder singh

Monday, November 3, 2008

बूढ़ी काकी कहती है




कई ऐसे पल होते हैं जिन्हें हम कीमती कहते हैं। उन्हें कहां आसानी से भुलाया जा सकता है। छाप गहरी हो तो वह जीवन भर के लिये अमिट हो जाती है और जिंदगी में एक छाप नहीं कई रंग एक साथ अंकित हो जाते हैं। हम सोचते रह जाते हैं। उधर सारा खेल रचा जा चुका होता है। यह जीवन के रंग भी हैं

बूढ़ी काकी मुझे कहानी सुनाती है। मैं बड़े चाव से सुनता हूं। उसके चेहरे की झुर्रियां उसकी उम्र को ढक नहीं सकतीं। वह बताती जाती है, मैं सुनता जाता हूं। काकी कहती है-‘जीवन के रंग एक से नहीं होते। बहुत उतार-चढ़ाव होते हैं, बड़ी फिसलन होती है। मामूली कुछ नहीं होता।’

मैं चुपचाप कभी अपने हाथों को खुजलाता हूं, कभी काकी के चेहरे को देखता हूं। समझ से परे लगता है कि एक व्यक्ति मेरे सामने है, जीवित है मेरी तरह। वह भी हंसता-बोलता है, फिर क्यों वह बूढ़ा है, मैं जवान।

बूढ़ी काकी से यह प्रश्न किया तो वह बोली-‘यह सच है कि हम पैदा हुये। यह भी सच है कि हम जिंदगी बिताने के लिये जीते हैं। और यह भी सच है कि उम्र बीतती है तो बुढ़ापा आना ही है।’

मैं अपने प्रश्न का उत्तर शायद ही पूरा पा सकूं क्योंकि यह सवाल और उत्तर उलझे हुये हैं। मैं पशोपेश में हूं कि पैदा सिर्फ बूढ़ा होने के लिये ही होते हैं या पैदा मरने के लिये होते हैं। इसपर काकी थोड़ा हंसती है, कहती है-‘यह नियम है कि जो उत्पन्न हुआ है, वह समाप्त भी होगा। जैसे-जैसे वस्तुएं पुरानी होती जाती हैं, वे क्षीण भी होने लगती हैं और यहीं से उनका अंतिम अध्याय शुरु होता है। कहानी हर किसी की शुरु होती है, मगर खत्म होने के लिये। हम उन्हीं वस्तुओं में से हैं जो उम्र के बढ़ने के साथ ही क्षीण हो रही हैं।’

‘समय के बीतने के बाद किसी भी चीज की कीमत बदल जाती है। शुरुआत से अंत तक का सफर मजेदार ही रहता हो यह सही नहीं। अब यह निर्णय हमें करना है कि हम जर्जर काया वालों को सलाम करें या उन्हें जिनके बल पर दुनिया घूमती है। यह सच है कि दोनों महत्वहीन नहीं, लेकिन नजरिये की बात है कि फर्क महसूस किया जाता है।’

काकी मुझे प्यार से पुचकारती है। उसकी कहानी शुरु होती है-
‘घर का आंगन था, कोई रोक-टोक नहीं। बच्ची थी आखिर मैं। समय ही समय था, बीत जाये कोई गम नहीं। अठखेलियां होती थीं खूब। फिक्र का नामोनिशान न था। एक अनजानी सी लड़की, अनजान देश में जी रही थी। कायदा क्या होता है कौन जाने? बस मैं ही मैं थी, अपने में मस्त। मां-बाप की लाडली इकलौती नन्हीं परी। मां खुश होती, कहती-‘देखो, कैसे लगती है मेरी लाडो।’

‘हां, सबसे सुन्दर है ना।’ पिताजी भी मां के साथ कहते।

‘अरे, जी करता है देखती रहूं।’

‘मेरा भी मन नहीं करता आंख बचाने को।’

‘निहारती रहूं, बस इसी तरह।’

‘मैं भी.....।’

‘हां।’

‘सुन्दर राजकुमारी।’

‘प्यारी रानी।’

‘भावुकता को समेटा नहीं जाता, वह तो बहती है, बहे चली जाती है। आंसू आंखों में मचलने के बाद गिरते रहे। बूंदे अनगिनत थीं।’

‘मैं आज वह नहीं जो पहले थी और यही तो बदलाव की सच्चाई है। तुम छोटे हो, मैं बुजुर्ग कितना फर्क है।’

इतना कहकर काकी रुक गयी। उसका चेहरा कुछ गंभीर हो गया। काकी किसी सोच में पड़ गयी।

यह सोच भी अजीब चीज होती है। वक्त के साथ चलती है और वक्त-बे-वक्त सिमट भी जाती है।

काकी से मैंने पूछा-‘आप कुछ पुरानी यादें टटोल कर भावुक क्यों हो गयीं?’

काकी ने मुस्कराहट के साथ कहा-‘पुरानी बातें यूं भूली नहीं जातीं। कई ऐसे पल होते हैं जिन्हें हम कीमती कहते हैं। उन्हें कहां आसानी से भुलाया जा सकता है। छाप गहरी हो तो वह जीवन भर के लिये अमिट हो जाती है और जिंदगी में एक छाप नहीं कई रंग एक साथ अंकित हो जाते हैं। हम सोचते रह जाते हैं। उधर सारा खेल रचा जा चुका होता है। यह जीवन के रंग भी हैं।’

‘यादों की पोटली आकार में कितनी भी क्यों न हो, होती बे-हिसाब है। सदियां बीत जाती हैं इन्हें समझने में, लेकिन यादें इकट्ठी एक जिंदगी में इतनी हो जाती हैं, कि संजाते रहिये, और संजोते रहिये।’


-harminder singh
Blog Widget by LinkWithin
coming soon1
कैदी की डायरी......................
>>सादाब की मां............................ >>मेरी मां
बूढ़ी काकी कहती है
>>पल दो पल का जीवन.............>क्यों हम जीवन खो देते हैं?

घर से स्कूल
>>चाय में मक्खी............................>>भविष्य वाला साधु
>>वापस स्कूल में...........................>>सपने का भय
हमारे प्रेरणास्रोत हमारे बुजुर्ग

...ऐसे थे मुंशी जी

..शिक्षा के क्षेत्र में अतुलनीय काम था मुंशी जी का

...अपने अंतिम दिनों में
तब एहसास होगा कि बुढ़ापा क्या होता है?

सम्मान के हकदार

नेत्र सिंह

रामकली जी

दादी गौरजां

कल्याणी-एक प्रेम कहानी मेरा स्कूल बुढ़ापा

....भाग-1....भाग-2
सीधी बात नो बकवास

बहुत कुछ बदल गया, पर बदले नहीं लोग

गुरु ऐसे ही होते हैं
युवती से शादी का हश्र भुगत रहा है वृद्ध

बुढ़ापे के आंसू

बूढ़ा शरीर हुआ है इंसान नहीं

बुढ़ापा छुटकारा चाहता है

खोई यादों को वापिस लाने की चाह

बातों बातों में रिश्ते-नाते बुढ़ापा
ऐसा क्या है जीवन में?

अनदेखा अनजाना सा

कुछ समय का अनुभव

ठिठुरन और मैं

राज पिछले जन्म का
क्योंकि तुम खुश हो तो मैं खुश हूं

कहानी की शुरुआत फिर होगी

करीब हैं, पर दूर हैं

पापा की प्यारी बेटी

छली जाती हैं बेटियां

मां ऐसी ही होती है
एक उम्मीद के साथ जीता हूं मैं

कुछ नमी अभी बाकी है

अपनेपन की तलाश

टूटी बिखरी यादें

आखिरी पलों की कहानी

बुढ़ापे का मर्म



[ghar+se+school.png]
>>मेरी बहन नेत्रा

>>मैडम मौली
>>गर्मी की छुट्टियां

>>खराब समय

>>दुलारी मौसी

>>लंगूर वाला

>>गीता पड़ी बीमार
>>फंदे में बंदर

जानवर कितना भी चालाक क्यों न हो, इंसान उसे काबू में कर ही लेता है। रघु ने स्कूल से कहीं एक रस्सी तलाश कर ली. उसने रस्सी का एक फंदा बना लिया

[horam+singh.jpg]
वृद्धग्राम पर पहली पोस्ट में मा. होराम सिंह का जिक्र
[ARUN+DR.jpg]
वृद्धों की सेवा में परमानंद -
डा. रमाशंकर
‘अरुण’


बुढ़ापे का दर्द

दुख भी है बुढ़ापे का

सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य गिरीराज सिद्धू ने व्यक्त किया अपना दुख

बुढ़ापे का सहारा

गरीबदास उन्हीं की श्रेणी में आते हैं जिन्हें अपने पराये कर देते हैं और थकी हड्डियों को सहारा देने के बजाय उल्टे उनसे सहारे की उम्मीद करते हैं
दो बूढ़ों का मिलन

दोनों बूढ़े हैं, फिर भी हौंसला रखते हैं आगे जीने का। वे एक सुर में कहते हैं,‘‘अगला लोक किसने देखा। जीना तो यहां ही है।’’
[old.jpg]

इक दिन बिक जायेगा माटी के मोल
प्रताप महेन्द्र सिंह कहते हैं- ''लाचारी और विवशता के सिवाय कुछ नहीं है बुढ़ापा. यह ऐसा पड़ाव है जब मर्जी अपनी नहीं रहती। रुठ कर मनाने वाला कोई नहीं।'' एक पुरानी फिल्म के गीत के शब्द वे कहते हैं-‘‘इक दिन बिक जायेगा, माटी के मोल, जग में रह जायेंगे, प्यारे तेरे बोल।’’

...............कहानी
[kisna.jpg]
किशना- एक बूढ़े की कहानी
(भाग-1)..................(भाग-2)
ये भी कोई जिंदगी है
बृजघाट के घाट पर अनेकों साधु-संतों के आश्रम हैं। यहां बहुत से बूढ़े आपको किसी आस में बैठे मिल जायेंगे। इनकी आंखें थकी हुयी हैं, येजर्जर काया वाले हैं, किसी की प्रेरणा नहीं बने, हां, इन्हें लोग दया दृष्टि से जरुर देखते हैं

अपने याद आते हैं
राजाराम जी घर से दूर रह रहे हैं। उन्होंने कई साल पहले घर को अलविदा कह दिया है। लेकिन अपनों की दूरी अब कहीं न कहीं परेशान करती है, बिल्कुल भीतर से

कविता.../....हरमिन्दर सिंह .
कभी मोम पिघला था यहां
इस बहाने खुद से बातें हो जायेंगी
विदाई बड़ी दुखदायी
आखिर कितना भीगता हूं मैं
प्यास अभी मिटी नहीं
पता नहीं क्यों?
बेहाल बागवां

यही बुढापा है, सच्चाई है
विदा, अलविदा!
अब कहां गई?
अंतिम पल
खत्म जहां किनारा है
तन्हाई के प्याले
ये मेरी दुनिया है
वहां भी अकेली है वह
जन्म हुआ शिशु का
गरमी
जीवन और मरण
कोई दुखी न हो
यूं ही चलते-चलते
मैं दीवाली देखना चाहता हूं
दीवाली पर दिवाला
जा रहा हूं मैं, वापस न आने के लिए
बुढ़ापा सामने खड़ा पूछ रहा
मगर चुप हूं मैं
क्षोभ
बारिश को करीब से देखा मैंने
बुढ़ापा सामने खड़ा है, अपना लो
मन की पीड़ा
काली छाया

तब जन्म गीत का होता है -रेखा सिंह
भगवान मेरे, क्या जमाना आया है -शुभांगी
वृद्ध इंसान हूं मैं-शुभांगी
मां ऐसी ही होती है -ज्ञानेंद्र सिंह
खामोशी-लाचारी-ज्ञानेंद्र सिंह
उम्र के पड़ाव -बलराम गुर्जर
मैं गरीबों को सलाम करता हूं -फ़ुरखान शाह
दैनिक हिन्दुस्तान और वेबदुनिया में वृद्धग्राम
hindustan vradhgram ब्लॉग वार्ता :
कहीं आप बूढ़े तो नहीं हो रहे
-Ravish kumar
NDTV

इन काँपते हाथों को बस थाम लो!
-Ravindra Vyas WEBDUNIA.com