बूढ़ी काकी कहती है-‘‘बुढ़ापा तो आना ही है। सच का सामना करने से भय कैसा? क्यों हम घबराते हैं आने वाले समय से जो सच्चाई है जिसे झुठलाना नामुमकिन है।’’.

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Thursday, November 27, 2008

इतिहास अदभुत है और लोग भी




सौ साल पहले की दुनिया सौ साल बाद कुछ और हो गयी। लोग भी बदले, मौसम भी, विचार भी और इतिहास भी। इतिहास ने बहुत कुछ सिखाया है हमें क्योंकि इतिहास में बहुत कुछ गंवाया है हमने. इतिहास हम ही बनाते और बिगाड़ते हैं इसलिये इतिहास हमारे द्वारा ही लिखा जायेगा



वे लोग आज हमारे बीच नहीं हैं। उनके बारे में हम कहीं न कहीं कुछ न कुछ पढ़ते-देखते-सुनते-लिखते रहते हैं। वे अदभुत थे और पराक्रमी भी, शांत भी थे और हिंसक भी। विद्वान भी और महान भी। उन पुराने लोगों को स्मरण करने मात्र से एक अजीब सी अनुभूति होती है। यह एक लगाव है, जो समय के साथ-साथ घटता-बढ़ता रहता है।

सौ साल पहले की दुनिया सौ साल बाद कुछ और हो गयी। लोग भी बदले, मौसम भी, विचार भी और इतिहास भी। पुराने युग के लोगों के बारे में जानने की इच्छा होती है क्योंकि मैं उनको समझना चाहता हूं। मेरा इतिहास से कोई खास लगाव कभी नहीं रहा। इतिहास केवल मेरे लिये बोरियत का विषय था।

आज मैं कई प्राचीन पुस्तकें पढ़ रहा हूं। इतिहास में भविष्य छिपा है और भविष्य के लिये इतिहास को छूना बहुत जरुरी है। इस स्पर्श से दुनिया में बहुत कुछ बदला और दहला है।

इतिहास ने बहुत कुछ सिखाया है हमें क्योंकि इतिहास में बहुत कुछ गंवाया है हमने। अपनी पहचान को तलाश करने की कोशिश की है, अपने पूर्वजों को जाना है। भविष्य में आज का वक्त इतिहास हो जायेगा, लेकिन हम जानते हैं कि इतिहास हम ही बनाते और बिगाड़ते हैं इसलिये इतिहास हमारे द्वारा ही लिखा जायेगा।

हमने अपने बड़ों से अपने पूर्वजों के बारे में काफी सुना है। अपनी जाति विशेष के बारे में पढ़ा भी है। हमें इतना अवश्य जान लेना चाहिये कि हम कौन थे और क्या हुये? अपने धर्म के विषय में हम पूरा नहीं जानते और न ही यह कि हमारे महापुरुष किस तरह जीवन व्यतीत करते थे, उनका रहन-सहन क्या था, वे वास्तव में जैसा कहा जाता है वैसे ही थे या सच्चाई कुछ और थी। मैंने जाट इतिहास को पूरा तो नहीं पढ़ा लेकिन ठाकुर देसराज की लिखी पुस्तक के कई अहम खंडों को पढ़ चुका हूं। मैं विभिन्न धर्मों की पुस्तकों को पढ़ने का इच्छुक हूं। समय-समय पर यह अवसर मुझे मिलता रहता है। शिव पुराण पढ़कर पता लगा कि शिव के कितने नाम हैं। गुजरे लोगों के द्वारा कहे गये कथन भविष्य के प्रति आगाह करते हैं। उनका भविष्य हमारा आज है।


पुदीने की चटनी और परांठे

पुदीने की चटनी का स्वाद काफी अच्छा होता है। अगर परांठे के साथ यह चटनी ली जाये तो स्वाद कई गुना बढ़ जाता है। और पुदीना घर का हो तो समझो रोज चटनी चखी जा सकती है। खासकर सर्दियों में यह काफी अच्छी लगती है।

स्कूल में लंच के दौरान मैं अक्सर परांठे और चटनी लेकर जाता था। कुछ दोस्त थे जो मैदान में इकट्ठा हो जाते। सबके टिफिन बाक्स खुल जाते- स्कूल की छोटी-सी पार्टी हो जाती। राहुल शर्मा मेरे साथ बचपन से पढ़ा है। उसे पुदीने की चटनी बहुत भाती थी। उसकी जुगत रहती कि वह सारी चटनी चट कर जाये। चटनी के लिये मेरी मां की तारीफ होती। मुझे अच्छा लगता। हम जानते हैं कि तारीफ इंसान की ऊर्जा को कई गुना बढ़ा देती है। मेरे साथ ऐसा ही होता। लंच के समय मैं अधिक उत्साहित रहता। शायद मिलबांट कर खाने की प्रवृत्ति का आनंद था वह।

पुदीना स्वास्थ्य के लिये काफी लाभदायक होता है। वैसे धनिये के ताजे पत्तों की चटनी भी परांठों साथ बुरी नहीं लगती। वह भी कम स्वास्थ्यवद्र्धक नहीं।

-harminder singh

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प्रताप महेन्द्र सिंह कहते हैं- ''लाचारी और विवशता के सिवाय कुछ नहीं है बुढ़ापा. यह ऐसा पड़ाव है जब मर्जी अपनी नहीं रहती। रुठ कर मनाने वाला कोई नहीं।'' एक पुरानी फिल्म के गीत के शब्द वे कहते हैं-‘‘इक दिन बिक जायेगा, माटी के मोल, जग में रह जायेंगे, प्यारे तेरे बोल।’’

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ये भी कोई जिंदगी है
बृजघाट के घाट पर अनेकों साधु-संतों के आश्रम हैं। यहां बहुत से बूढ़े आपको किसी आस में बैठे मिल जायेंगे। इनकी आंखें थकी हुयी हैं, येजर्जर काया वाले हैं, किसी की प्रेरणा नहीं बने, हां, इन्हें लोग दया दृष्टि से जरुर देखते हैं

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राजाराम जी घर से दूर रह रहे हैं। उन्होंने कई साल पहले घर को अलविदा कह दिया है। लेकिन अपनों की दूरी अब कहीं न कहीं परेशान करती है, बिल्कुल भीतर से

कविता.../....हरमिन्दर सिंह .
कभी मोम पिघला था यहां
इस बहाने खुद से बातें हो जायेंगी
विदाई बड़ी दुखदायी
आखिर कितना भीगता हूं मैं
प्यास अभी मिटी नहीं
पता नहीं क्यों?
बेहाल बागवां

यही बुढापा है, सच्चाई है
विदा, अलविदा!
अब कहां गई?
अंतिम पल
खत्म जहां किनारा है
तन्हाई के प्याले
ये मेरी दुनिया है
वहां भी अकेली है वह
जन्म हुआ शिशु का
गरमी
जीवन और मरण
कोई दुखी न हो
यूं ही चलते-चलते
मैं दीवाली देखना चाहता हूं
दीवाली पर दिवाला
जा रहा हूं मैं, वापस न आने के लिए
बुढ़ापा सामने खड़ा पूछ रहा
मगर चुप हूं मैं
क्षोभ
बारिश को करीब से देखा मैंने
बुढ़ापा सामने खड़ा है, अपना लो
मन की पीड़ा
काली छाया

तब जन्म गीत का होता है -रेखा सिंह
भगवान मेरे, क्या जमाना आया है -शुभांगी
वृद्ध इंसान हूं मैं-शुभांगी
मां ऐसी ही होती है -ज्ञानेंद्र सिंह
खामोशी-लाचारी-ज्ञानेंद्र सिंह
उम्र के पड़ाव -बलराम गुर्जर
मैं गरीबों को सलाम करता हूं -फ़ुरखान शाह
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hindustan vradhgram ब्लॉग वार्ता :
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