Wednesday, November 19, 2008
न सिमटेगा यह प्रेम
इस समय सूखे रेगिस्तान में एक बूंद भी सागर बहा देती है। थकी आंखें जिनकी नमीं कब की सूख चुकी, हरी-भरी दिखाई देती हैं। बुढ़ापे को और चाहिये ही क्या?
पास रखी एक किताब के पन्ने पलटते हुये काकी कहती है,‘मैं किताबें बहुत खुशी से पढ़ती थी। स्कूल की किताबों के एक-एक अक्षर को मैं जोड़ कर रखती, कभी भूलती नहीं। आज भी कई कहानियां, कविताएं याद हैं जिन्हें शायद ही कभी भूल पाऊं। कोरे कागज पर कलम चलाने का एक अदभुत आनंद था जिसकी सीमा अनंत थी। वह दिन खुशी के थे। मेरी किताबें मेरे पास नहीं, उनका सबकुछ मैंने यहां समेट रखा है।’ काकी ने अपना जर्जर हाथ अपने कमजोर माथे पर रखा।
काकी की बातों में इतना खो गया था कि खुद को भूल गया। कल्पनायें करते-करते मेरी आंख लग गयी। सुबह मेरी नींद टूटी। मैंने खुद को काकी के पास पाया। काकी मेरी बालों को सहला रही थी। यह स्नेह था जिसे परिभाषित करने में युग बीत जायें पर इस धारा को अविरल बहने से कोई रोक नहीं सकता।
प्रेम एक बंधन में बंधा होता है जिसकी डोर मजबूत होती है। एक-दूसरे से जोड़े रखता है प्रेम का बंधन। हम न चाहते हुये भी उससे छूट नहीं सकते। मोह का खेल पुराना नहीं, नया भी नहीं, यह रिश्तों के अदभुत संगम के बाद उत्पन्न हुआ है जो बिना दिखे बहुत कुछ कह जाता है। उन अनछुए पहलुओं से भी हमारा सामना करा देता है जिन्हें हम भूल चुके थे। अनजाने में इतना सब घट जाता है कि उसे सोचना अजीब था। बुढ़ापे का प्रेम अधिक पिघला हुआ होता है। इस समय सूखे रेगिस्तान में एक बूंद भी सागर बहा देती है। थकी आंखें जिनकी नमीं कब की सूख चुकी, हरी-भरी दिखाई देती हैं। बुढ़ापे को और चाहिये ही क्या? इतना सब तो मिल गया उसे।
-harminder singh
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
|
हमारे प्रेरणास्रोत | हमारे बुजुर्ग |
...ऐसे थे मुंशी जी ..शिक्षा के क्षेत्र में अतुलनीय काम था मुंशी जी का ...अपने अंतिम दिनों में | तब एहसास होगा कि बुढ़ापा क्या होता है? सम्मान के हकदार नेत्र सिंह रामकली जी दादी गौरजां |
>>मेरी बहन नेत्रा >>मैडम मौली | >>गर्मी की छुट्टियां >>खराब समय >>दुलारी मौसी >>लंगूर वाला >>गीता पड़ी बीमार | >>फंदे में बंदर जानवर कितना भी चालाक क्यों न हो, इंसान उसे काबू में कर ही लेता है। रघु ने स्कूल से कहीं एक रस्सी तलाश कर ली. उसने रस्सी का एक फंदा बना लिया |
|
|
सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य गिरीराज सिद्धू ने व्यक्त किया अपना दुख बुढ़ापे का सहारा गरीबदास उन्हीं की श्रेणी में आते हैं जिन्हें अपने पराये कर देते हैं और थकी हड्डियों को सहारा देने के बजाय उल्टे उनसे सहारे की उम्मीद करते हैं |
|
|
|
अपने याद आते हैं राजाराम जी घर से दूर रह रहे हैं। उन्होंने कई साल पहले घर को अलविदा कह दिया है। लेकिन अपनों की दूरी अब कहीं न कहीं परेशान करती है, बिल्कुल भीतर से |
दैनिक हिन्दुस्तान और वेबदुनिया में वृद्धग्राम |
ब्लॉग वार्ता : कहीं आप बूढ़े तो नहीं हो रहे -Ravish kumar NDTV | इन काँपते हाथों को बस थाम लो! -Ravindra Vyas WEBDUNIA.com |
बहुत अच्छी बात!
ReplyDelete