बूढ़ी काकी कहती है-‘‘बुढ़ापा तो आना ही है। सच का सामना करने से भय कैसा? क्यों हम घबराते हैं आने वाले समय से जो सच्चाई है जिसे झुठलाना नामुमकिन है।’’.

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Tuesday, June 30, 2009

गुरु ऐसे ही होते हैं

कुछ लोग ऐसे होते हैं जिन्हें आप भूल नहीं सकते। उनके आप आजीवन आभारी रहते हैं। उनसे आपने बहुत कुछ सीखा होता है। हम उनका धन्यवाद पहले करना चाहेंगे जिन्होंने हमें शिक्षा दी, बाद में अपने माता-पिता का। एक ने हमें जन्म दिया-बहुत बड़ा उपकार किया। गुरुओं ने हमें जीने की कला सिखाई-यह सबसे बड़ा उपकार है।

हमने शरारत की, उन्होंने हमें डांटा भी। हम अगर रोये, उन्होंने हंसाया भी। हम लड़खड़ाए, उन्होंने सहारा दिया। अपनी उंगली दे आगे बढ़ाया, हमारा हौंसला गिरने न दिया। यह उनका प्रेम है और कभी न खत्म होने वाला- निरंतर प्रेम।

चुपचाप वे रहे, खूब बोले भी, लेकिन नजर बराबर हम पर रही। घर से स्कूल का सफर हमने तय किया। जीवन के सफर के बारे में हमारे गुरुओं ने हमें बताया।

बहुत से लोग ऐसे हैं जिन्होंने अपनों से बड़ों का हमेशा अपमान किया। इसमें उनका आनंद रहा। वे भूल गये कि वे क्या कर रहे हैं। पहले अपने माता-पिता से शुरुआत की। घर में कोहराम मचाया। स्कूल में गये तो वहां अपने गुरुओं को सम्मान नहीं दिया। ये वे लोग हैं जो सम्मान का मतलब ही नहीं जानते। यदि जानते तो ऐसा कभी नहीं करते।

मैं अपने गुरुओं को आज तक नहीं भूला। मुझे लगता है कि उनकी बताई बातों को हम खोते जा रहे हैं। मुझे नहीं लगता कि उन्होंने हमें कभी कुछ गलत बताया हो।

रंजना दूबे को मैंने कम हंसते हुये देखा, जबकि विजया डोगरे का मुस्कराता चेहरा मुझे आज भी याद है। दोनों का अपना तरीका था, उनके विषय अलग-अलग थे, लेकिन मकसद एक था और आज भी ये शिक्षिकायें अपने कार्य में तल्लीन हैं।

डोगरा जी कहती थीं कि वे हम सभी को जानती हैं। उनका मतलब था कि वे हमारी अच्छाईयों-बुराईयों को परख चुकी थीं। ऐसे लोग आप पर असर डालते हैं। बच्चों का मस्तिष्क अधिक संवेदनशील होता है। उसे हल्की सी आहट भी चैंका देती है। उनका च’मा शायद आज भी उनके साथ है जिसकी नजर हर बारीकी को परखती है, और मुझे लगता है कि वे बच्चों को एक मां का प्यार भी करती हैं, मुझे तब ऐसा महसूस हुआ था। चेहरे पर सख्ती के भाव आ जरुर जाते हैं, लेकिन वे वैसी बिल्कुल भी नहीं थीं, अब बदल गयी हों ऐसा मैं कह नहीं सकता।

डोगरा जी हमारी क्लास टीचर रहीं, कई साल तक। उनके सानिध्य में सभी बच्चों को अपनापन महसूस हुआ। जिन लोगों से आप खुश रहते हैं, जो आपको दूसरों की अपेक्षा बेहतर सकते हैं, उनसे एक लगाव सा हो जाता है। वक्त कितना भी बीत जाये, डोर कमजोर नहीं पड़ती। मुझे नहीं लगता स्कूल से विदा लेकर गये बच्चे उन्हें भूले होंगे। मैं यह भी उम्मीद करता हूं कि वे हमें भूली नहीं होंगी।

वे हमें गणित पढ़ाती थीं। मैं कितना पढ़ता था, यह वह अच्छी तरह जानती हैं। एक बात मैं बताना चाहूंगा कि मैथ से मैं कई बार नहीं, बहुत बार घबरा जाता था, लेकिन कोशिश जारी रहती थी। सबसे अधिक मेहनत मैंने गणित में ही की, लेकिन उतना अधिक हासिल नहीं हो सका। उनकी भाषा साधारण थी। उनकी कक्षा में बोर होने का कोई मतलब ही नहीं था। मेरे हिसाब से गणित की बारीकियों को उनसे बेहतर हमें कोई समझा नहीं सकता था क्योंकि धर्मेन्द्र चतुर्वेदी से बच्चे खौफ खाते थे। वे दूसरे सेक्शन में मैथ पढ़ाते थे।

विजया डोगरा बच्चों की मानसिकता को समझती थीं, इसलिये उनके साथ हम सहज थे। जितने आप बाहर से नरम होते हैं, कई बार गुस्सा आने पर वह काफी बड़ा लगता है। उन्हें गुस्सा कम आता था। एक-आध बार उन्होंने आवेश में आकर गलती करने वालों की काफी खिंचाई की लेकिन वे पिघल भी जल्दी जाती थीं। यह उनका प्रेम था जैसा एक मां का अपने बच्चों से होता है- सख्त भी और नरम भी।

-हरमिन्दर सिंह

1 comment:

  1. हर्मिन्दर जी आपमे जो अपने गुरूओं के प्रति जो श्रद्धा है उसी का नतीजा है कि आज आप एक सार्थक और प्रेरक पोस्ट लिख रहे हैं और जीवन मे तरक्की कर रहे हैं जो अपने माँ बाप और गुरूओं के महत्व और प्यार को पहचान लेता है वो एक सचा और सफल इन्सान बनता है बहुत बहुत शुभकामनायें

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कैदी की डायरी......................
>>सादाब की मां............................ >>मेरी मां
बूढ़ी काकी कहती है
>>पल दो पल का जीवन.............>क्यों हम जीवन खो देते हैं?

घर से स्कूल
>>चाय में मक्खी............................>>भविष्य वाला साधु
>>वापस स्कूल में...........................>>सपने का भय
हमारे प्रेरणास्रोत हमारे बुजुर्ग

...ऐसे थे मुंशी जी

..शिक्षा के क्षेत्र में अतुलनीय काम था मुंशी जी का

...अपने अंतिम दिनों में
तब एहसास होगा कि बुढ़ापा क्या होता है?

सम्मान के हकदार

नेत्र सिंह

रामकली जी

दादी गौरजां

कल्याणी-एक प्रेम कहानी मेरा स्कूल बुढ़ापा

....भाग-1....भाग-2
सीधी बात नो बकवास

बहुत कुछ बदल गया, पर बदले नहीं लोग

गुरु ऐसे ही होते हैं
युवती से शादी का हश्र भुगत रहा है वृद्ध

बुढ़ापे के आंसू

बूढ़ा शरीर हुआ है इंसान नहीं

बुढ़ापा छुटकारा चाहता है

खोई यादों को वापिस लाने की चाह

बातों बातों में रिश्ते-नाते बुढ़ापा
ऐसा क्या है जीवन में?

अनदेखा अनजाना सा

कुछ समय का अनुभव

ठिठुरन और मैं

राज पिछले जन्म का
क्योंकि तुम खुश हो तो मैं खुश हूं

कहानी की शुरुआत फिर होगी

करीब हैं, पर दूर हैं

पापा की प्यारी बेटी

छली जाती हैं बेटियां

मां ऐसी ही होती है
एक उम्मीद के साथ जीता हूं मैं

कुछ नमी अभी बाकी है

अपनेपन की तलाश

टूटी बिखरी यादें

आखिरी पलों की कहानी

बुढ़ापे का मर्म



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>>मेरी बहन नेत्रा

>>मैडम मौली
>>गर्मी की छुट्टियां

>>खराब समय

>>दुलारी मौसी

>>लंगूर वाला

>>गीता पड़ी बीमार
>>फंदे में बंदर

जानवर कितना भी चालाक क्यों न हो, इंसान उसे काबू में कर ही लेता है। रघु ने स्कूल से कहीं एक रस्सी तलाश कर ली. उसने रस्सी का एक फंदा बना लिया

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वृद्धग्राम पर पहली पोस्ट में मा. होराम सिंह का जिक्र
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वृद्धों की सेवा में परमानंद -
डा. रमाशंकर
‘अरुण’


बुढ़ापे का दर्द

दुख भी है बुढ़ापे का

सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य गिरीराज सिद्धू ने व्यक्त किया अपना दुख

बुढ़ापे का सहारा

गरीबदास उन्हीं की श्रेणी में आते हैं जिन्हें अपने पराये कर देते हैं और थकी हड्डियों को सहारा देने के बजाय उल्टे उनसे सहारे की उम्मीद करते हैं
दो बूढ़ों का मिलन

दोनों बूढ़े हैं, फिर भी हौंसला रखते हैं आगे जीने का। वे एक सुर में कहते हैं,‘‘अगला लोक किसने देखा। जीना तो यहां ही है।’’
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इक दिन बिक जायेगा माटी के मोल
प्रताप महेन्द्र सिंह कहते हैं- ''लाचारी और विवशता के सिवाय कुछ नहीं है बुढ़ापा. यह ऐसा पड़ाव है जब मर्जी अपनी नहीं रहती। रुठ कर मनाने वाला कोई नहीं।'' एक पुरानी फिल्म के गीत के शब्द वे कहते हैं-‘‘इक दिन बिक जायेगा, माटी के मोल, जग में रह जायेंगे, प्यारे तेरे बोल।’’

...............कहानी
[kisna.jpg]
किशना- एक बूढ़े की कहानी
(भाग-1)..................(भाग-2)
ये भी कोई जिंदगी है
बृजघाट के घाट पर अनेकों साधु-संतों के आश्रम हैं। यहां बहुत से बूढ़े आपको किसी आस में बैठे मिल जायेंगे। इनकी आंखें थकी हुयी हैं, येजर्जर काया वाले हैं, किसी की प्रेरणा नहीं बने, हां, इन्हें लोग दया दृष्टि से जरुर देखते हैं

अपने याद आते हैं
राजाराम जी घर से दूर रह रहे हैं। उन्होंने कई साल पहले घर को अलविदा कह दिया है। लेकिन अपनों की दूरी अब कहीं न कहीं परेशान करती है, बिल्कुल भीतर से

कविता.../....हरमिन्दर सिंह .
कभी मोम पिघला था यहां
इस बहाने खुद से बातें हो जायेंगी
विदाई बड़ी दुखदायी
आखिर कितना भीगता हूं मैं
प्यास अभी मिटी नहीं
पता नहीं क्यों?
बेहाल बागवां

यही बुढापा है, सच्चाई है
विदा, अलविदा!
अब कहां गई?
अंतिम पल
खत्म जहां किनारा है
तन्हाई के प्याले
ये मेरी दुनिया है
वहां भी अकेली है वह
जन्म हुआ शिशु का
गरमी
जीवन और मरण
कोई दुखी न हो
यूं ही चलते-चलते
मैं दीवाली देखना चाहता हूं
दीवाली पर दिवाला
जा रहा हूं मैं, वापस न आने के लिए
बुढ़ापा सामने खड़ा पूछ रहा
मगर चुप हूं मैं
क्षोभ
बारिश को करीब से देखा मैंने
बुढ़ापा सामने खड़ा है, अपना लो
मन की पीड़ा
काली छाया

तब जन्म गीत का होता है -रेखा सिंह
भगवान मेरे, क्या जमाना आया है -शुभांगी
वृद्ध इंसान हूं मैं-शुभांगी
मां ऐसी ही होती है -ज्ञानेंद्र सिंह
खामोशी-लाचारी-ज्ञानेंद्र सिंह
उम्र के पड़ाव -बलराम गुर्जर
मैं गरीबों को सलाम करता हूं -फ़ुरखान शाह
दैनिक हिन्दुस्तान और वेबदुनिया में वृद्धग्राम
hindustan vradhgram ब्लॉग वार्ता :
कहीं आप बूढ़े तो नहीं हो रहे
-Ravish kumar
NDTV

इन काँपते हाथों को बस थाम लो!
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