दरख्त सूखे हैं। उन्हें हंसी नहीं आती। आस है हंसने की। खुलकर जीना चाहते हैं। काश! एक बार ऐसा हो। तसल्ली है- जितना जिये अधूरे नहीं जिये।
बुढ़ापे की सूखी टहनियां हरियाली चाहती हैं। अनगिनत उतार-चढ़ावों का गवाह है बुढ़ापा। कहानी में रंग थे कभी। आज रंग फीके जरुर हैं, छिने नहीं। वृद्धों में अधिकतर को ऐसा लगता है कि लौ बुझने से पहले जीवन को खुलकर जिया जाये। वे चाहते हैं कि विदाई यादगार हो।
नेत्र सिंह की उम्र उनका साथ नहीं देती। यदि आप उनके साथ कुछ वक्त गुजारें तो एहसास होगा कि बुढ़ापा कितना जिंदादिल है। वास्तव में वे बात-बात पर ठहाके लगाते हैं। हां, थोड़ा ऊंचा जरुर सुनते हैं।
विचारों का उनके पास अद~भुत भंडार है। सरकारी नौकरी से रिटायर्ड वे किसी को भी प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं। इतिहास के विषय में उनकी जानकारी उच्च कोटि की है। शब्दों की बारीकियों में वे उलझते नहीं, बल्कि उन्हें बारीकी से समझते और समझाते हैं।
नेत्र सिंह से मैं समय-समय पर मिलता रहता हूं। वे हमारे घर घंटों बैठते हैं और एक परिवार के सदस्य की तरह हैं। मुझसे अक्सर कहते हैं कि कोई नई पत्रिका है, उन्हें पढ़नी है।
किताबें पढ़ने का उन्हें काफी शौक है। अखबार का तो एक-एक अक्षर वे तसल्ली से पढ़ते हैं। रविवार शाम को वे जरुर आते हैं। ‘टाइम्स आफ इंडिया’ का अध्यात्मिक पन्ना ले जाते हैं। कहते हैं,‘इसमें मेरे मतलब का काफी कुछ है।’
उनकी अध्यात्मिक रुचि मुझे प्रभावित करती है। धर्म और ईश्वर के विषय में उनके पास ढेर है, मुझे बहुत सीखने को मिला उनसे।
‘‘मैं हार क्यों मानूं?’’ साफ शब्दों में नेत्र सिंह कहते हैं।
‘‘अगर हार मानना हल है, तो जीना बेकार है। मैं यह मानता हूं कि हम बूढ़े जरुर हैं, लेकिन बुढ़ापे से दबे नहीं।’’
इतना कहकर उनके सूखे चेहरे पर मुस्कार उभर आती है।
‘‘मैं हमेशा हंसता हूं। कई बार बिना बात के भी। जिंदादिली का इससे बड़ा क्या सबूत हो सकता है।’
नेत्र सिंह अपना चश्मा हटाते हैं, फिर उसे कपड़े से साफ करने लगते हैं।
वे आगे कहते हैं,‘‘कुछ दिन बाद मैं नहीं रहने वाला। बचे दिनों में भी न ‘जिये’ तो क्या जिये?’’
उनके इन वाक्यों को मैं हमेशा याद रखना चाहूंगा।
उनका मानना है कि कमजोरी शरीर में है, इंसान में नहीं। बूढ़ा शरीर हुआ है, इंसान नहीं।
नेत्र सिंह अपने बारे में लिखना चाहते हैं। पुराने दिनों की बातों को कागज पर उतारना एक बेहतर काम होगा क्योंकि जीवन को लिखकर पढ़ना शानदार अनुभव होता है। इस तरह यादें शब्द बनेंगी और नई शुरुआत होगी। मैंने उनसे कहा कि उन्हें इस काम में जल्द जुट जाना चाहिए।
इसपर वे बोले,‘‘जरुरत शुरुआत करने की है, शब्द खुद-ब-खुद उकरते जायेंगे।’’
-harminder singh
बूढा शरीर होता है ...इंसान नहीं ...लाख टके की बात ...!!
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