बूढ़ी काकी कहती है-‘‘बुढ़ापा तो आना ही है। सच का सामना करने से भय कैसा? क्यों हम घबराते हैं आने वाले समय से जो सच्चाई है जिसे झुठलाना नामुमकिन है।’’.

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Tuesday, March 23, 2010

मामा की चाल

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सादाब का मामा उनके घर ज्यादा आने लगा था। उसकी अम्मी खर्च चलाने के लिए पड़ौस के एक घर में चौका-बरतन करने लगी थी। यह उनकी मजबूरी थी।

सादाब के पिता ने जैसे-तैसे कर मिट~टी की ईंटों से चार दीवारें खड़ी की थीं। बाप की जमीन का उतना ही टुकड़ा बचा था जिसपर दीवारें खड़ी थीं।

मामा की नीयत में खोट आता जा रहा था। उसकी नजर गिद्ध की तरह थी। सादाब की अम्मी तीन बच्चों के साथ जहां गरीबी से जंग लड़ रही थी वहीं मामा झपट~टा मारने की बाट जो रहा था। उसमें उतनी चपलता नहीं थी, लेकिन पाशों को फेंकने में वह माहिर था। उसकी आंखें बिल्ली की तरह थीं। सुना जाता है कि ऐसे लोग मौका मिलते ही वार करने से नहीं चूकते। फिर वहां तो शिकार काफी कमजोर व असहाय था। मामा सोच रहा था कि बिना लाठी तोड़े काम बन जाए।

सादाब की अम्मी अपने भाई पर हद से ज्यादा भरोसा करती थी। शौहर की मौत के बाद मजलूम बेवा की तरह जी रही थी वह। अनपढ़ थी, अंगूठा लगाना जानती थी। मामा ने उसे किसी तरह राजी कर लिया। वह उन्हें अपने घर ले आया। कुछ दिन उसने खूब खातिरदारी की, लेकिन एक रात वह घर आधी रात आया। दो आदमी उसको सहारा दे रहे थे। वह नशे में इतना चूर था कि उसकी आवाज उसी की तरह लड़खड़ा रही थी। पास पड़ी चारपाई पर उसे डाल दिया गया। उसकी जेबों से नोट बाहर बिखर गये। बहन ने भाई का ऐसा रुप पहले देखा नहीं था। सादाब की अम्मी घबरा गयी।

रोज का सिलसिला यही होता रहा। अब घर में शाम को जुए और जाम की महफिल सजने लगी। भाई की हरकतों से आजिज आकर सादाब की मां ने साफ कह दिया कि वह उसकी जमीन के सारे रुपये लौटा दे। वह कहीं भी जाकर अपनी और बच्चों की गुजर-बसर कर लेगी। इसपर मामा तन गया। उसने कहा कि रुपये तो खर्च हो गए। जो बचे हैं वह ले सकती है। सादाब की मां मजबूर थी, इसलिए वह कुछ हजार रुपये अपने साथ लेकर बच्चों सहित भाई के घर से निकल गयी।

ऐसा होता है बुरा वक्त जिसका तमाशा जिंदगी को वीरान कर देता है। पति मरा, भाई ने धोखा दिया, और आसरा..........वह भी न रहा। तीन औलादों की किसी तरह परवरिश करनी थी।

उस मां ने किसी तरह ईंट-पत्थर-गारा ढोया, मजदूरी की। बच्चे बड़े होते रहे। मां का हाथ बंटाते रहे। मजदूरी उन्होंने भी की। सादाब ने कई जगह काम किया, मेहनत कर पैसा कमाया। कुछ गज जमीन पर एक कमरा बना लिया। उसकी अम्मी बीमार रहने लगी थी। दोनों बहनों की उम्र शादी को पार कर चुकी थी।

कहीं से अचानक मामा को उनका पता लग गया। वह अपनी बहन को दुखड़ा सुनाता रहा। बीमार बहन को फिर भाई पर दया आ गई। सादाब ने अपने मामा को देखा तो वह बहुत गुस्सा हुआ, लेकिन अम्मी की तबीयत उसका साथ नहीं दे रही थी। अपनी मां के कहने पर सादाब ने मामा को छोटा-मोटा काम दिलवा दिया। सुबह जाकर मामा शाम को आता।

रुखसार की शादी का इंतजाम सादाब कर रहा था। उसके ब्याह के लिए लड़के की तलाश जारी थी। संयोग से योग्य लड़का मिल गया। वह काफी भला था और अच्छा कारीगर भी। कमाऊ और मेहनती दामाद मिल जाने की आस कब से दिल में लिए थी सादाब की अम्मी। सपना पूरा होने जा रहा था।

कभी-कभी जिन घटनाओं का हम खूब इंतजार कर रहे होते हैं उनमें खलल पड़ जाने की टीस बड़ी होती है। सादाब की अम्मी की तबीयत बिगड़ रही थी। इलाज से कोई फायदा मिलता नहीं दिख रहा था। एक चारपाई पर वह पड़ी रहती। उसकी खांसी कम नहीं हो रही थी। उसके कदम धीरे-धीरे ही सही, ऐसा लगता था जैसे मौत की ओर बढ़ रहे हैं।

सादाब रुखसार को बाजार से कपड़ा दिलाने गया था। जीनत ने जाने की जिद की। मामा ने कहा कि वह घर पर ही रहेगा। उसने यह भी कहा कि अपनी बहन की उसे बहुत फिक्र है। यदि वह पानी या दवा मांगेगी तो वह उसके पास होगा। अपनी बहन के लिए वह एक दिन काम पर नहीं गया कोई पहाड़ थोड़े ही टूट जायेगा। पहले बहन है, बाद में उसका काम।

तीनों के जाने के बाद मामा की खुराफात शुरु हो गई। उसने सामने रखी संदूक पर नजर दौड़ाई। उसपर ताला लटका था। अपनी बहन से उसने चाबी मांगी। बहन ने इंकार कर दिया। मामा ने जबरदस्ती करनी चाही। मामा ने उसके चेहरे पर आवेश में आकर एक तमाचा जड़ दिया। सादाब की मां बेहोश हो गयी। मामा ने पूरे घर में सामान उलट-पुलट दिया। एक-एक कपड़े को झाड़कर देखा, चाबी कहीं नहीं मिली। बाहर से ईंट का टुकड़ा लाकर उसने संदूक का ताला तोड़ दिया। सादाब ने कुछ हजार रुपये और सामान उसमें रखा था। मामा ने एक गठरी में सब भर लिया। सादाब की अम्मी को होश आ चुका था। वह उठ तो नहीं सकती थी, लेकिन देख सब रही थी। हल्की आवाज में उसने गठरी बांध रहे भाई से कहा कि अल्लाह की शर्म करो। सादाब ने जैसे-तैसे कर रुपये इकट~ठा किये हैं, रुखसार के हाथ पीने होने से रह जायेंगे। बिरादरी सामने उनकी क्या इज्जत रह जायगी?

मामा ने गठरी बांध ली। उसे डर था कहीं उसकी बहन शोर न मचा दे। उसने उसके मुंह में कपड़ा ठूंस दिया और हाथ-पैर चारपाई से बांध दिये। सारा सामान लेकर चला मामा चला गया। बहन की आंखों से आंसू झरझर बह रहे थे। इसके अलावा वह कर भी क्या सकती थी?

लोग कितने मतलबी होते हैं। दुनिया में रिश्तों का खून अक्सर होता रहता है। कोई किसी का अपना नहीं, सब मतलब के यार हैं। रिश्ते निभाना कौन जानता है? कोई भी तो नहीं। जिसका बस चलता है, वह काबिज होने की कोशिश करता है। कमजोर को जितना अधिक कुचला जाए, उतना कम है। भाई के लिए बहन केवल कहने के लिए हैं। सादाब का मामा सही मायने में भ्रष्ट और क्रूर इंसान था। उसे सिर्फ खुद से वास्ता था।

-to be contd.......

-harminder singh

1 comment:

  1. कोई किसी का नहीं ...सब मतलब के रिश्ते हैं ...लाख आशावादिता के बाद भी कभी कभी जिंदगी में ऐसी सोच के पल भी आते हैं ...मगर कई बार बिना नाम के रिश्ते वो दे जाते हैं जो ये नामी रिश्ते छिनने में लगे रहते हैं ...!!

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...ऐसे थे मुंशी जी

..शिक्षा के क्षेत्र में अतुलनीय काम था मुंशी जी का

...अपने अंतिम दिनों में
तब एहसास होगा कि बुढ़ापा क्या होता है?

सम्मान के हकदार

नेत्र सिंह

रामकली जी

दादी गौरजां

कल्याणी-एक प्रेम कहानी मेरा स्कूल बुढ़ापा

....भाग-1....भाग-2
सीधी बात नो बकवास

बहुत कुछ बदल गया, पर बदले नहीं लोग

गुरु ऐसे ही होते हैं
युवती से शादी का हश्र भुगत रहा है वृद्ध

बुढ़ापे के आंसू

बूढ़ा शरीर हुआ है इंसान नहीं

बुढ़ापा छुटकारा चाहता है

खोई यादों को वापिस लाने की चाह

बातों बातों में रिश्ते-नाते बुढ़ापा
ऐसा क्या है जीवन में?

अनदेखा अनजाना सा

कुछ समय का अनुभव

ठिठुरन और मैं

राज पिछले जन्म का
क्योंकि तुम खुश हो तो मैं खुश हूं

कहानी की शुरुआत फिर होगी

करीब हैं, पर दूर हैं

पापा की प्यारी बेटी

छली जाती हैं बेटियां

मां ऐसी ही होती है
एक उम्मीद के साथ जीता हूं मैं

कुछ नमी अभी बाकी है

अपनेपन की तलाश

टूटी बिखरी यादें

आखिरी पलों की कहानी

बुढ़ापे का मर्म



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>>मेरी बहन नेत्रा

>>मैडम मौली
>>गर्मी की छुट्टियां

>>खराब समय

>>दुलारी मौसी

>>लंगूर वाला

>>गीता पड़ी बीमार
>>फंदे में बंदर

जानवर कितना भी चालाक क्यों न हो, इंसान उसे काबू में कर ही लेता है। रघु ने स्कूल से कहीं एक रस्सी तलाश कर ली. उसने रस्सी का एक फंदा बना लिया

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बुढ़ापे का दर्द

दुख भी है बुढ़ापे का

सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य गिरीराज सिद्धू ने व्यक्त किया अपना दुख

बुढ़ापे का सहारा

गरीबदास उन्हीं की श्रेणी में आते हैं जिन्हें अपने पराये कर देते हैं और थकी हड्डियों को सहारा देने के बजाय उल्टे उनसे सहारे की उम्मीद करते हैं
दो बूढ़ों का मिलन

दोनों बूढ़े हैं, फिर भी हौंसला रखते हैं आगे जीने का। वे एक सुर में कहते हैं,‘‘अगला लोक किसने देखा। जीना तो यहां ही है।’’
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इक दिन बिक जायेगा माटी के मोल
प्रताप महेन्द्र सिंह कहते हैं- ''लाचारी और विवशता के सिवाय कुछ नहीं है बुढ़ापा. यह ऐसा पड़ाव है जब मर्जी अपनी नहीं रहती। रुठ कर मनाने वाला कोई नहीं।'' एक पुरानी फिल्म के गीत के शब्द वे कहते हैं-‘‘इक दिन बिक जायेगा, माटी के मोल, जग में रह जायेंगे, प्यारे तेरे बोल।’’

...............कहानी
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किशना- एक बूढ़े की कहानी
(भाग-1)..................(भाग-2)
ये भी कोई जिंदगी है
बृजघाट के घाट पर अनेकों साधु-संतों के आश्रम हैं। यहां बहुत से बूढ़े आपको किसी आस में बैठे मिल जायेंगे। इनकी आंखें थकी हुयी हैं, येजर्जर काया वाले हैं, किसी की प्रेरणा नहीं बने, हां, इन्हें लोग दया दृष्टि से जरुर देखते हैं

अपने याद आते हैं
राजाराम जी घर से दूर रह रहे हैं। उन्होंने कई साल पहले घर को अलविदा कह दिया है। लेकिन अपनों की दूरी अब कहीं न कहीं परेशान करती है, बिल्कुल भीतर से

कविता.../....हरमिन्दर सिंह .
कभी मोम पिघला था यहां
इस बहाने खुद से बातें हो जायेंगी
विदाई बड़ी दुखदायी
आखिर कितना भीगता हूं मैं
प्यास अभी मिटी नहीं
पता नहीं क्यों?
बेहाल बागवां

यही बुढापा है, सच्चाई है
विदा, अलविदा!
अब कहां गई?
अंतिम पल
खत्म जहां किनारा है
तन्हाई के प्याले
ये मेरी दुनिया है
वहां भी अकेली है वह
जन्म हुआ शिशु का
गरमी
जीवन और मरण
कोई दुखी न हो
यूं ही चलते-चलते
मैं दीवाली देखना चाहता हूं
दीवाली पर दिवाला
जा रहा हूं मैं, वापस न आने के लिए
बुढ़ापा सामने खड़ा पूछ रहा
मगर चुप हूं मैं
क्षोभ
बारिश को करीब से देखा मैंने
बुढ़ापा सामने खड़ा है, अपना लो
मन की पीड़ा
काली छाया

तब जन्म गीत का होता है -रेखा सिंह
भगवान मेरे, क्या जमाना आया है -शुभांगी
वृद्ध इंसान हूं मैं-शुभांगी
मां ऐसी ही होती है -ज्ञानेंद्र सिंह
खामोशी-लाचारी-ज्ञानेंद्र सिंह
उम्र के पड़ाव -बलराम गुर्जर
मैं गरीबों को सलाम करता हूं -फ़ुरखान शाह
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