बूढ़ी काकी कहती है-‘‘बुढ़ापा तो आना ही है। सच का सामना करने से भय कैसा? क्यों हम घबराते हैं आने वाले समय से जो सच्चाई है जिसे झुठलाना नामुमकिन है।’’.

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Wednesday, October 7, 2009

क्या अपने इतने सस्ते होते हैं?












रिश्तों की कीमत भला क्या रह गयी? जब अपने ही अपनों की जिंदगियां खत्म करने पर उतारु हों, तो भरोसा किस पर किया जाए? रिश्तों का खून, जिंदगी का खात्मा और तड़पते लोग।

जे.पी. नगर (U.P) में इकौंदा और फौंदापुर में जो हुआ वह काफी वीभत्स था। पल भर में दो परिवार उजड़ गए। जहां दिमागी रुप से बीमार बताया जा रहा भूपेंद्र अपनी पत्नि और 12 साल के बेटे को मार डालता है, वहीं दो भाईयों ने मिलकर अपने सगे भाई और भाभी की हत्या कर दी। तीन साल के हर्षित को भी मरणासन्न किया। वह जिंदगी और मौत के बीच झूल रहा है।

ये चार मौतें कई सवाल खड़े करती हैं। उनके उत्तर मिले रहे हैं और कुछ शायद सदा के लिए दफन हो जाएं। ऐसा लगता है जैसे हमारे हाथ-बंधे हुए हैं। आसपास इतना कुछ घट रहा है, पर कुछ कर नहीं पाते। इसे समाज की विडंबना कह सकते हैं या लोग असहाय समझ रहे हैं स्वयं को या फिर वे अपनी कायरता का परिचय दे रहे हैं। जिस समय फौंदापुर में रोहता्श और उसकी पत्नि मुनेश के साथ खूनी खेल खेला जा रहा था, सारा गांव उनकी चीख-पुकार सुनता रहा। किसी भी गांव वाले में इतना साहस न हो सका कि वह हत्यारों को भगाने का प्रयास करता। इसे क्या कहा जा सकता है? इससे कई बातें स्पष्ट हो जाती हैं कि हमें अपनी चिंता अधिक है। किसी के लिए दूसरे की जान की कीमत बिल्कुल नहीं। गांव वाले इतना जरुर जानते होंगे कि मासूम हर्षित ऐसे हालात में किस स्थिति में होगा?

रोहताश के परिवार को खत्म करने वाले और कोई नहीं उसके दो सगे भाई ही थे। चाकू से रोहताश को गोदने के बाद मुनेश के सिर पर गंडासे से प्रहार किया गया। हत्यारों ने तीन साल के हर्षित पर भी गंडासे से वार किया।

दूसरी ओर इकौंदा में भूपेंद्र ने दोपहर लगभग 3 बजे सो रही पत्नि सीमा का गला गंडासे से रेत दिया। टयूश्न पढ़कर लौटे छठी कक्षा में पढ़ रहे अपने इकलौते बेटे रोहन को भी गला रेत कर मार डाला। घर पहुंचकर उसने बाप के हाथ में खून से सना गंडासा देखा और मां को मृत अवस्था में देखकर उसकी चीख निकल गयी। जैसे ही वह जीने की तरफ दौड़ा, सिर पर खून सवार पिता ने उसे खींच लिया और कमरे में ले जाकर मौत की नींद सुला दिया। भूपेंद्र खून से सना घर से बाहर निकल आया। उसने गांव वालों को अपनी दास्तान बयां कर डाली।



कोई नहीं मिला अर्थी को कंध देने वाला

रोहताश और मुने्श की अर्थी को कंधा देने के लिए एक अदद व्यक्ति आगे नहीं आया। क्या उनका कोई रिश्ते-नाते का नहीं था? स्थिति को देखकर यही लगता था। किसी ग्रामीण में हिम्मत नहीं हुई कि वह उनकी अर्थी को कंधा दे सके। यहां तक कि दाह-संस्कार भी किराये का ग्रामीण लेकर कराया गया।

फौंदापुर गांव के कुद लोगों ने अपनी घटिया मानसिकता का परिचय देते हुए बाद में उसका सामान भी घर से बाहर फेंका।


मंजर कितना भयानक होगा?

हत्यारे रोहताश व उसकी पत्नि को मार रहे थे। वे तड़प रहे थे। उस समय का मंजर शायद बयान करना कठिन है। चाकू से गोदकर पति की उसकी पत्नि के सामने हत्या की गयी। उसकी स्थिति क्या रही होगी? बाद में उसके सिर पर गंडासे से प्रहार किया गया। मौत का यह सिलसिला तब तक चलता रहा जबतक हत्यारों को यकीन नहीं हो गया कि पूरा परिवार खत्म हो गया।

तीन साल के हर्षित को भी हत्यारों ने नहीं बख्शा। उसपर कातिलाना वार किया गया। मां जब जमीन पर गिरी तड़प रही थी, तब वह अपनी आंखों से अपने लाल को खून से लथपथ देख रही थी क्योंकि तब उसकी कुछ सांसें शेष थीं। उसका हाथ अपने इकलौते पुत्र की तरफ बढ़ रहा था, पर वह बेबस थी।

जिस तरह खून के छींटे पड़े थे, उससे लगता है कि दृश्य काफी दर्दनाक रहा होगा।



हां, दिल पत्थर के भी होते हैं

फौंदापुर में हुए खूनी खेल को देखकर तो यह कहा ही जा सकता है। इंसान इंसानों को देखकर पिघलते नहीं। उनका दिल पत्थर का हो जाता है। शायद ऐसे दृश्य को देखकर पत्थर भी पिघल जाते होंगे, पर फौंदापुर के ग्रामीणों का हृदय नहीं पिघला। रोहताश के घर चीख-पुकार हुई तो गांव के लोग छतों पर चढ़कर एक तमाशे की तरह देख रहे थे- इंसानों का संहार करते इंसानों का खूनी खेल। मासूम बच्चे को फर्श से उठाने को भी किसी का दिल नहीं पसीजा।




















पहले भी हुआ है रिश्तों का कत्ल

बावनखेड़ी की शबनम को भला कौन भूलना चाहेगा। उसने अपने प्रेमी संग मिलकर परिवार के सात सदस्यों को मौत की नींद सुला दिया। यह मामला पहली बार सुना गया था क्योंकि एक साथ किसी ने इनके लोगों को इकट्ठे नहीं मारा था।

कत्ल की रात शबनम ने चाय में नशीला पदार्थ डाला था। उसके प्रेमी सलीम के हाथ में कुल्हाड़ी थी। शबनम टार्च दिखाती रही, सलीम गर्दन रेतता रहा। ताहरपुर के इंटर कालेज के कला प्रवक्ता शौकत अली अपनी इकलौती सगी बेटी को अंत तक समझ नहीं सके। शबनम ने सबसे पहले अपने पिता का सिर बाल पकड़कर उठाया और सलीम से कहा,‘काट डालो।’ कुछ माह के मासूम अर्श का गला दबा दिया गया था, पर वह बाद में रो पड़ा। सगी बुआ शबनम ने उसे खामो्श करने के लिए अपने हाथों से उसका फिर से गला दबाया और वह कुछ ही पलों में तड़पकर शांत हो गया।

शबनम द्वारा 7 लोगों की हत्या के लिए जिम्मेदार होने के बाद मुरादाबाद की एक युवती ने अपने प्रेमी संग मिलकर अपने पिता को मौत की नींद सुला दिया। पिता उन दोनों के बीच बाध बना था। तब लड़की ने अपने प्रेमी से कहा था,‘उसने सात मार दिये, तू एक भी नहीं मार सकता।’

इसी तरह का एक ताजा मामला हरियाणा का भी था। रोहतक के एक गांव में एक प्रेमी-प्रेमिका ने मिलकर परिवार के सात सदस्यों की हत्या कर दी। उन्हें डर था कहीं वे उन दोनों को न मार दें।

source: gajraula times

1 comment:

  1. सही और गम्भीर बातें कही हैं आपने।
    पर समाज न जाने क्यों इन सवालों से बचकर निकल जाता है।
    ----------
    बोटी-बोटी जिस्म नुचवाना कैसा लगता होगा?

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(भाग-1)..................(भाग-2)
ये भी कोई जिंदगी है
बृजघाट के घाट पर अनेकों साधु-संतों के आश्रम हैं। यहां बहुत से बूढ़े आपको किसी आस में बैठे मिल जायेंगे। इनकी आंखें थकी हुयी हैं, येजर्जर काया वाले हैं, किसी की प्रेरणा नहीं बने, हां, इन्हें लोग दया दृष्टि से जरुर देखते हैं

अपने याद आते हैं
राजाराम जी घर से दूर रह रहे हैं। उन्होंने कई साल पहले घर को अलविदा कह दिया है। लेकिन अपनों की दूरी अब कहीं न कहीं परेशान करती है, बिल्कुल भीतर से

कविता.../....हरमिन्दर सिंह .
कभी मोम पिघला था यहां
इस बहाने खुद से बातें हो जायेंगी
विदाई बड़ी दुखदायी
आखिर कितना भीगता हूं मैं
प्यास अभी मिटी नहीं
पता नहीं क्यों?
बेहाल बागवां

यही बुढापा है, सच्चाई है
विदा, अलविदा!
अब कहां गई?
अंतिम पल
खत्म जहां किनारा है
तन्हाई के प्याले
ये मेरी दुनिया है
वहां भी अकेली है वह
जन्म हुआ शिशु का
गरमी
जीवन और मरण
कोई दुखी न हो
यूं ही चलते-चलते
मैं दीवाली देखना चाहता हूं
दीवाली पर दिवाला
जा रहा हूं मैं, वापस न आने के लिए
बुढ़ापा सामने खड़ा पूछ रहा
मगर चुप हूं मैं
क्षोभ
बारिश को करीब से देखा मैंने
बुढ़ापा सामने खड़ा है, अपना लो
मन की पीड़ा
काली छाया

तब जन्म गीत का होता है -रेखा सिंह
भगवान मेरे, क्या जमाना आया है -शुभांगी
वृद्ध इंसान हूं मैं-शुभांगी
मां ऐसी ही होती है -ज्ञानेंद्र सिंह
खामोशी-लाचारी-ज्ञानेंद्र सिंह
उम्र के पड़ाव -बलराम गुर्जर
मैं गरीबों को सलाम करता हूं -फ़ुरखान शाह
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-Ravish kumar
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