Friday, June 13, 2008
नीड़ अब अपने नहीं
नीड़ अब अपने नहीं रह गये। बदलते समाज में आज बहुत से बुजुर्ग उनके नीड़ों से उजाड़े जा रहे हैं। संयुक्त परिवारों में बिखराव आ गया है। उनमें टूट-फूट है, दीवारें पता नहीं कब से गिर रही हैं। एहसास करने वाले एक कोने में चुपचाप यह तमाशा देख रहे हैं। अब उनका जीवन तमाशे से कम नहीं रह गया है। यह कोने पहले अपने घर का हुआ करता था, आज किसी अन्जान कोने में पड़े हैं। वहां क्यों कोई किसी से कुछ पूछे, किसी को क्या पड़ी है? यह आसान नहीं है घड़ी, तमाशबीन हैं सब, अपनें भी और पराये भी। सहारा किसी की सलामती की दुआ नहीं करता, वह मिल जाये तो सब सलामत।
सड़कें वीरान हैं तो हमसे क्यों पूछते हो? पता करो कि माजरा क्या है। कुछ ऐसी ही वीरानी बूढ़ों की जिंदगी में भी है। एक मायूसी सूखे पत्ते की खड़खड़ाहट से भी पैनी, बस सुनाई देने की देर है। जिल्द चढ़ी किताब के पन्ने कुतरें हुये पड़े हैं, ये भी कुछ-कुछ उनके जैसी दशा है। एक डोर छूटने को बेताब है। वक्त कहे तो छूट जाये।
लेकिन इतना सब हो गया, फिर भी कोई शोर नहीं। लगता है अब शोर थम गया है। आहटें कम हो गयी हैं। कंपकंपाती कहीं से आवाज आती है। आने दो, उसका भी मन है। वह भी एक दिन बंद लिफाफे में सिमट जायेगी, ढूंढने से भी नहीं मिलेगी।
हाथों की रेखायें गहरीं जरुर हैं, लेकिन उनमें कोई नदी बहती नहीं, रेत की भी नहीं। मायूसी के समंदरों के थपेड़ों की कोशिशें अब नाकाम नहीं होतीं, सूखी आंखें अब नहीं रोतीं, बस रोता तो मन है वो भी बिना रोये। यह राख अब गीली भी हो जाये कुछ फायदा नहीं। हलक सूख रहा है, सूखने दो। यह वक्त ही कुछ ऐसा है कि सारी नमी को छीन रहा है। बुढ़ापा तन्हाई की आदत और दुख का सैलाब ला रहा है।
बुढ़ापा तन्हाई की आदत और दुख का सैलाब ला रहा है। बहुतों ने इससे पार पाने की कोशिशें कीं, वे बूढ़ी हड्डियों के बावजूद अड़े हैं, पर कब तक?
-Harminder singh
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हमारे प्रेरणास्रोत | हमारे बुजुर्ग |
...ऐसे थे मुंशी जी ..शिक्षा के क्षेत्र में अतुलनीय काम था मुंशी जी का ...अपने अंतिम दिनों में | तब एहसास होगा कि बुढ़ापा क्या होता है? सम्मान के हकदार नेत्र सिंह रामकली जी दादी गौरजां |
>>मेरी बहन नेत्रा >>मैडम मौली | >>गर्मी की छुट्टियां >>खराब समय >>दुलारी मौसी >>लंगूर वाला >>गीता पड़ी बीमार | >>फंदे में बंदर जानवर कितना भी चालाक क्यों न हो, इंसान उसे काबू में कर ही लेता है। रघु ने स्कूल से कहीं एक रस्सी तलाश कर ली. उसने रस्सी का एक फंदा बना लिया |
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सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य गिरीराज सिद्धू ने व्यक्त किया अपना दुख बुढ़ापे का सहारा गरीबदास उन्हीं की श्रेणी में आते हैं जिन्हें अपने पराये कर देते हैं और थकी हड्डियों को सहारा देने के बजाय उल्टे उनसे सहारे की उम्मीद करते हैं |
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अपने याद आते हैं राजाराम जी घर से दूर रह रहे हैं। उन्होंने कई साल पहले घर को अलविदा कह दिया है। लेकिन अपनों की दूरी अब कहीं न कहीं परेशान करती है, बिल्कुल भीतर से |
दैनिक हिन्दुस्तान और वेबदुनिया में वृद्धग्राम |
ब्लॉग वार्ता : कहीं आप बूढ़े तो नहीं हो रहे -Ravish kumar NDTV | इन काँपते हाथों को बस थाम लो! -Ravindra Vyas WEBDUNIA.com |
बुढ़ापा तन्हाई की आदत और दुख का सैलाब ला रहा है। बहुतों ने इससे पार पाने की कोशिशें कीं, वे बूढ़ी हड्डियों के बावजूद अड़े हैं, पर कब तक?
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जिन हड्डियों ने हमें अपनी जवानी दी है
उनके लिए दुआ है कि
ईश्वर उन्हें सौ गुना ताक़त बख्शे....
लेकिन ये सच है की बुजुर्गों के प्रति
उत्तरदायी व्यवहार हो.
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आपका ब्लॉग सचेत कर रहा है
आभार
डा.चंद्रकुमार जैन