बूढ़ी काकी कहती है-‘‘बुढ़ापा तो आना ही है। सच का सामना करने से भय कैसा? क्यों हम घबराते हैं आने वाले समय से जो सच्चाई है जिसे झुठलाना नामुमकिन है।’’.

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Saturday, January 23, 2010

दुलारी मौसी



गांव में रघु मेरा अच्छा दोस्त बन गया था। हम दोनों घंटों तालाब में पत्थर फेंका करते थे-‘‘छपाक।’’ तालाब पर गांव की महिलांए कपड़े धोने आतीं। यह कहा जा सकता है कि वहां छोटा घाट भी था। पानी में पत्थर फेंकने की वजह से दुलारी मौसी से मेरी बहस हो गयी। रघु मेरा बखूबी साथ दे रहा था। बहस ने तमाशे की शक्ल ले ली थी। पास खड़ी महिलांए सारा नजारा देख रही थीं।

  ‘‘देखो कैसी कैंची की तरह जुबान चल रही है, इस छुटके की।’’ दुलारी मौसी बोली।

  ‘‘छुटका न कहो मौसी। चौथी जमात में हूं। मैं औरतों के मुंह नहीं लगता।’’ मैंने सीना चौड़ा कर कहा।

  ‘‘ओह! औरतों के मुंह नहीं लगता। कहीं का कलैक्टर है क्या तू?’’

  ‘‘हां, हूं। क्या करोगी?’’

  ‘‘राम रे! छोटा मुंह, बड़ी बातें। मां-बाप ने तुझे यही सिखाया है।’’

  ‘‘मां-बाप को बीच में मत घसीटो मौसी।’’

  ‘‘जुबान लड़ा रहा है। तेरी दादी से ’शिकायत करनी पड़ेगी।’’

  ‘‘कर देना। कुछ बिगाड़ नहीं सकोगी मेरा। दादी मुझे बहुत प्यार करती है।’’ मैं मुस्कराया।

  ‘‘पहले चोरी, फिर सीनाजोरी। कमाल है रे तू।’’ मौंसी बोली।

  ‘‘अभी पत्थर तुम्हें भिगो गया। अगली बार पत्थर का निशाना पानी नहीं तुम होगी।’’ मैं गुर्राया।

  ‘‘ठीक है, मार निशाना।’’ दुलारी मौसी ने आंखें निकाल लीं। ‘‘मैं तेरे सामने खड़ी हो जाती हूं।’’ इतना कहकर वह मेरे सामने बाजुएं चढ़ाकर खड़ी हो गयी।

  मैंने रघु के कंधे पर हाथ रखा और उससे कहा,‘‘मौसी बड़ी गुस्सैल मालूम पड़ती है। समझा इसे इतना गुस्सा करेगी तो हार्ट-अटैक आ जाएगा। शंभू और जीवा बेचारे बिन मां के हो जाएंगे।’’

  रघु मौसी से बोला,‘‘हां, मौसी यह सही कह रहा है। तुम गुस्सा मत करो।’’

  ‘‘मैं गुस्सा कर रही हूं। अभी बताती हूं।’’ इतना कहकर दुलारी मौसी हमारे पीछे दौड़ पड़ी। कुछ देर में वह हांफ गयी और बोली,‘‘घर जाकर दोनों की खबर लेती हूं। इसकी तो दादी से ’शिकायत पक्की है।’’ मौसी का इशारा मेरी तरफ था।

  ‘‘हम चलें तुम्हारे साथ। कहो तो घाट से कपड़े ले आयें।’’ रघु ने चुटकी ली।

  ‘‘देखो मौसी आप ठहरीं हमसे बड़ी। अब माफ भी कर दो।’’ मैंने आंखें नीचे झुकाकर झूठी विनती की।

  ‘‘माफी, नहीं किसी कीमत पर माफी नहीं मिलेगी। शंभू के बापू से भी कहूंगी। जरुरत पड़ी तो पंचायत होगी, लेकिन तुम्हारी अक्ल ठिकाने जरुर लगनी चाहिए।’’ मौसी का गुस्सा कम होने का नाम नहीं ले रहा था, जबकि उसकी सांस उखड़ रही थी। उसका शरीर मोटापा लिए था और लंगड़ा कर चलती थी।

  मैंने रघु के कान में कहा,‘‘चल मौसी को और छकाते हैं।’’

  रघु दौड़ा-दौड़ा घाट पर गया। जल्दी में दुलारी मौसी कपड़े धोना भूल, हमारे पीछे दौड़ी थी। रघु गीले कपड़े उठा लाया और मौसी के पीछे से आकर उसके सिर पर रख दिये।

  तभी मौसी चिल्लाई,‘‘सत्यानाश हो तेरा रघु।’’

  हम भागकर पेड़ पर चढ़ गए और आम तोड़ने लगे। मौसी नीचे खड़ी हमें गालियां देती रही। मैंने एक आम खाया और गुठली दुलारी मौसी के सिर पर टपका दी। मौसी फिर चिल्लाई,‘‘रुक जाओ, अभी आती हूं।’’

  ‘‘कैसे आओगी मौसी?’’ मैंने प्र’न किया। ‘‘औरतें पेड़ों पर नहीं चढ़तीं।’’

  गुस्से में मौसी ने जमीन पर पड़ी गुठली ऊपर की ओर फेंकी, लेकिन यह क्या, गुठली टहनियों में टकराकर मौसी के माथे पर जा लगी।

  ‘‘ऊई मां!’’ मौसी चिल्लाई।

  बड़बड़ाती हुई दुलारी मौसी वहां से चली गई।

  ‘‘कमाल हो गया रघु।’’ मैंने कहा।

  ‘‘लेकिन, संभल कर रहना। कुछ ज्यादा सता दिया बेचारी मौसी को।’’ रघु गंभीर होकर बोला।

  ‘‘मुझे लगता है दुलारी मौसी सीधी दादी के पास गयी होगी। चल वहां का नजारा देखते हैं।’’ मैंने रघु से कहा जो आम अपनी जेब में रख रहा था।

  हम छिपकर दादी और मौसी को देख रहे थे। मौसी कह रही थी,‘‘ ये कपड़े जानती हैं, कितनी मेहनत से धुलते हैं। आपके पोते ने गांव के दूसरे लड़के के साथ मिलकर खराब कर दिए। ऊपर से मुझसे सीनाजोरी की। पेड़ पर चढ़कर आम की गुठली मुझे मारी। ये देखो सिर कैसा हो गया?’’ मौसी ने दादी को सिर दिखाया जिसपर गुठली का निशान था। ‘‘जब से आपका पोता गांव आया है तालाब पर हमारे जैसों का जाना मुहाल हो गया है। मैं चाहती  तो उसे वहीं पकड़कर पीटती, पर आपके पास आयी हूं। उसे तो किसी का शर्म-लिहाज है नहीं, हमारा-आपका वास्ता पुराना है।’’

  दादी ने किसी तरह दुलारी मौसी को समझा दिया। मौसी के जाने के बाद मैं और रघु दादी के पास पहुंचे।

  दादी ने कहा,‘‘तुम्हारी शैतानी बढ़ती जा रही है। आज दुलारी घर तक आ गई। कल कोई और आयेगा। ऐसा कैसे चलेगा बेटा।’’

  मैंने कहा,‘‘दादी आप भी दूसरों की बातों में आ जाती हो। रघु बता न सच क्या था?’’ मैंने रघु की पीठ पर हाथ मारा।

  ‘‘वो...वो....दादी....हम दोनों खेल रहे थे कि.....।’’ रघु हिचक कर बोला कि दादी ने बीच में उसकी बात काटते हुए कहा,‘‘मैं समझ गयी रघु बेटा। अच्छी तरह जानती हूं तुम दोनों को। मेरे बाल ऐसे ही सफेद नहीं हो गए।’’

  दादी सब समझ चुकी थी। उन्हें मूर्ख बनाना हमारे जैसे बच्चों का खेल नहीं था। रघु के जाने के बाद मैंने किताब निकाली और पढ़ने लगा।

-harminder singh


अगले अंक में पढ़िये:
लंगूर वाला

2 comments:

  1. वाह..दुलारी मौसी जैसे अपनी सी लगती हैं..और यह शरारतें भी और फिर पिटाई का डर..सब याद आता है

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  2. बचपन की शरारतें बालसुलभ होती हैं ...मगर फिर भी दुलारी मौसी के लिए दुःख हुआ ....!!

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...ऐसे थे मुंशी जी

..शिक्षा के क्षेत्र में अतुलनीय काम था मुंशी जी का

...अपने अंतिम दिनों में
तब एहसास होगा कि बुढ़ापा क्या होता है?

सम्मान के हकदार

नेत्र सिंह

रामकली जी

दादी गौरजां

कल्याणी-एक प्रेम कहानी मेरा स्कूल बुढ़ापा

....भाग-1....भाग-2
सीधी बात नो बकवास

बहुत कुछ बदल गया, पर बदले नहीं लोग

गुरु ऐसे ही होते हैं
युवती से शादी का हश्र भुगत रहा है वृद्ध

बुढ़ापे के आंसू

बूढ़ा शरीर हुआ है इंसान नहीं

बुढ़ापा छुटकारा चाहता है

खोई यादों को वापिस लाने की चाह

बातों बातों में रिश्ते-नाते बुढ़ापा
ऐसा क्या है जीवन में?

अनदेखा अनजाना सा

कुछ समय का अनुभव

ठिठुरन और मैं

राज पिछले जन्म का
क्योंकि तुम खुश हो तो मैं खुश हूं

कहानी की शुरुआत फिर होगी

करीब हैं, पर दूर हैं

पापा की प्यारी बेटी

छली जाती हैं बेटियां

मां ऐसी ही होती है
एक उम्मीद के साथ जीता हूं मैं

कुछ नमी अभी बाकी है

अपनेपन की तलाश

टूटी बिखरी यादें

आखिरी पलों की कहानी

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जानवर कितना भी चालाक क्यों न हो, इंसान उसे काबू में कर ही लेता है। रघु ने स्कूल से कहीं एक रस्सी तलाश कर ली. उसने रस्सी का एक फंदा बना लिया

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दो बूढ़ों का मिलन

दोनों बूढ़े हैं, फिर भी हौंसला रखते हैं आगे जीने का। वे एक सुर में कहते हैं,‘‘अगला लोक किसने देखा। जीना तो यहां ही है।’’
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इक दिन बिक जायेगा माटी के मोल
प्रताप महेन्द्र सिंह कहते हैं- ''लाचारी और विवशता के सिवाय कुछ नहीं है बुढ़ापा. यह ऐसा पड़ाव है जब मर्जी अपनी नहीं रहती। रुठ कर मनाने वाला कोई नहीं।'' एक पुरानी फिल्म के गीत के शब्द वे कहते हैं-‘‘इक दिन बिक जायेगा, माटी के मोल, जग में रह जायेंगे, प्यारे तेरे बोल।’’

...............कहानी
[kisna.jpg]
किशना- एक बूढ़े की कहानी
(भाग-1)..................(भाग-2)
ये भी कोई जिंदगी है
बृजघाट के घाट पर अनेकों साधु-संतों के आश्रम हैं। यहां बहुत से बूढ़े आपको किसी आस में बैठे मिल जायेंगे। इनकी आंखें थकी हुयी हैं, येजर्जर काया वाले हैं, किसी की प्रेरणा नहीं बने, हां, इन्हें लोग दया दृष्टि से जरुर देखते हैं

अपने याद आते हैं
राजाराम जी घर से दूर रह रहे हैं। उन्होंने कई साल पहले घर को अलविदा कह दिया है। लेकिन अपनों की दूरी अब कहीं न कहीं परेशान करती है, बिल्कुल भीतर से

कविता.../....हरमिन्दर सिंह .
कभी मोम पिघला था यहां
इस बहाने खुद से बातें हो जायेंगी
विदाई बड़ी दुखदायी
आखिर कितना भीगता हूं मैं
प्यास अभी मिटी नहीं
पता नहीं क्यों?
बेहाल बागवां

यही बुढापा है, सच्चाई है
विदा, अलविदा!
अब कहां गई?
अंतिम पल
खत्म जहां किनारा है
तन्हाई के प्याले
ये मेरी दुनिया है
वहां भी अकेली है वह
जन्म हुआ शिशु का
गरमी
जीवन और मरण
कोई दुखी न हो
यूं ही चलते-चलते
मैं दीवाली देखना चाहता हूं
दीवाली पर दिवाला
जा रहा हूं मैं, वापस न आने के लिए
बुढ़ापा सामने खड़ा पूछ रहा
मगर चुप हूं मैं
क्षोभ
बारिश को करीब से देखा मैंने
बुढ़ापा सामने खड़ा है, अपना लो
मन की पीड़ा
काली छाया

तब जन्म गीत का होता है -रेखा सिंह
भगवान मेरे, क्या जमाना आया है -शुभांगी
वृद्ध इंसान हूं मैं-शुभांगी
मां ऐसी ही होती है -ज्ञानेंद्र सिंह
खामोशी-लाचारी-ज्ञानेंद्र सिंह
उम्र के पड़ाव -बलराम गुर्जर
मैं गरीबों को सलाम करता हूं -फ़ुरखान शाह
दैनिक हिन्दुस्तान और वेबदुनिया में वृद्धग्राम
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कहीं आप बूढ़े तो नहीं हो रहे
-Ravish kumar
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