बूढ़ी काकी कहती है-‘‘बुढ़ापा तो आना ही है। सच का सामना करने से भय कैसा? क्यों हम घबराते हैं आने वाले समय से जो सच्चाई है जिसे झुठलाना नामुमकिन है।’’.

LATEST on VRADHGRAM:

Friday, January 22, 2010

सादाब के अब्बा की मौत



[jail+diary.jpg]



सादाब की कहानी की अभी शुरुआत भर थी। उसके शब्दों को मैं आंखों के आगे तैरता पाता हूं। उसकी बताई हर एक घटना मानो साक्षात हो रही थी। उसके अब्बा ऐसे ही सड़क के किनारे पड़े रहते यदि पड़ोस में रहने वाला हरप्रसाद उन्हें न देखता। हरप्रसाद एक रिक्शावाला था। उसने उन्हें पहचान लिया। रिक्शा पर लादकर उन्हें घर पहुंचाया।

खून से लथपथ परिवार का मुखिया बेहोशी की हालत में एक चारपाई पर डाल दिया जाता है। सादाब की अम्मी चीख पड़ी। शौहर की हालत को देखकर वह गश खाकर गिर पड़ी। हरप्रसाद ने तुरंत सादाब की अम्मी को संभाला। रुखसार और जीनत भी पास खड़े रो रहे थे। जीनत ने अम्मी को पानी पिलाया। उधर उनके अब्बा को होश आ चुका था।

सादाब ने कहा,‘मुझे हैरानी हो रही थी कि यह सब क्या हो रहा है। सब रो क्यों रहे हैं? अब्बा-अम्मी अजीब से हो रहे हैं। मैं अब्बा के हाथ से चिपक कर उनकी चारपाई के नजदीक बैठ गया। उनका हाथ खून से सना था। जख्मों पर घर में रखा थोड़ा सरसों का तेल लगा दिया। हमारे पास इतने पैसे कहां थे? रोज की कमाई कितनी होती होगी। अगर ऐसा होता तो अब्बा खुद का रिक्शा न खरीद लेते। ईद दो दिन बाद थी। हमारे लिए सब दिन एक-से थे, सारी रातें सूनी थीं। फीका जीवन जीते-जीते हम जायका भूल चुके थे। जीनत और रुखसार बार-बार आंसू पोछ रही थीं। बीच-बीच में हिचकी लेती थीं। कितनी दुखी थी वे दोनों और अम्मी। घर में सब सुबक रहे थे, तो मैं भी वैसा ही कर रहा था। अब्बू मेरी तरफ देखकर कुछ बोलना चाह रहे थे। उनके होंठ केवल फड़फड़ा रहे थे, कह नहीं पा रहे थे। चेहरे पर कई चोटें थीं जिनसे उनका चेहरा सूज गया था। अम्मी ने जीनत से कहा कि हमें सुला दे। उस रात पता नहीं क्यों में अम्मी के बिना सोया था। सुबह उठा तो देखा कि अम्मी दहाड़े मार-मार रो रही थी। मेरे अब्बू........मेरे अब्बू चल बसे थे। हम आधे यतीम हो गये थे। जब कमाने वाला चला जाए तो परिवार के लोगों के फाके से भी बदतर हालात हो जाते हैं। अम्मी बेसुध सी हो गयी थी। वह पागलों की तरह बड़बड़ाती रही। कुछ देर चुप होकर रोनी लगती, फिर बड़बड़ाना शुरु कर देती। जनाजे में कम लोग थे क्योंकि कोई बड़ा आदमी थोड़े ही मरा था, एक मामूली रिक्शावाले की मौत हुई थी। मगर हमारे लिए अब्बा मामूली नहीं थे। बहुत चाहते थे हम सबको। ईद हम कैसे मना सकते थे। यहां रंज था, वहां खुशियां राज कर रही थीं। अब्बा का सफर बस इतना ही था। जन्नत के दरवाजे ऐसे लोगों के लिए हमेशा खुले रहते हैं। दोजख में वे लोग जाएंगे जिन्होंने अन्याय किया है। अब्बा के साथ अच्छा नहीं हुआ। उन जालिम पुलिसवालों को शायद नरक में भी जगह नसीब न हो। भटकेंगे तमाम जिंदगी दुख में और मरने के बाद भी। जाने कितने परिवारों को तबाह किया होगा उन लोगों ने। खुद चैन की नींद न सो पायेंगे। दूसरों का दर्द उनके लिए तमाशा होता है। हंसते हैं वे हमारे जैसों पर। गरीबी का फायदा उठाते हैं। कमजोर को और कमजोर करते हैं। बनते हैं कानून के रखवाले। ऐसे रखवालों से अच्छा है, हमें पैदा होते ही उठा ले। कम से कम उनके जुल्मों से तो निजात मिलेगी।

 ----to be contd.

-harminder singh

2 comments:

  1. मार्मिक ....अगली कड़ी का इन्तजार रहेगा ...!!

    ReplyDelete
  2. एक करुण शुरुआत। तो अंत क्या होगा?

    ReplyDelete

Blog Widget by LinkWithin
coming soon1
कैदी की डायरी......................
>>सादाब की मां............................ >>मेरी मां
बूढ़ी काकी कहती है
>>पल दो पल का जीवन.............>क्यों हम जीवन खो देते हैं?

घर से स्कूल
>>चाय में मक्खी............................>>भविष्य वाला साधु
>>वापस स्कूल में...........................>>सपने का भय
हमारे प्रेरणास्रोत हमारे बुजुर्ग

...ऐसे थे मुंशी जी

..शिक्षा के क्षेत्र में अतुलनीय काम था मुंशी जी का

...अपने अंतिम दिनों में
तब एहसास होगा कि बुढ़ापा क्या होता है?

सम्मान के हकदार

नेत्र सिंह

रामकली जी

दादी गौरजां

कल्याणी-एक प्रेम कहानी मेरा स्कूल बुढ़ापा

....भाग-1....भाग-2
सीधी बात नो बकवास

बहुत कुछ बदल गया, पर बदले नहीं लोग

गुरु ऐसे ही होते हैं
युवती से शादी का हश्र भुगत रहा है वृद्ध

बुढ़ापे के आंसू

बूढ़ा शरीर हुआ है इंसान नहीं

बुढ़ापा छुटकारा चाहता है

खोई यादों को वापिस लाने की चाह

बातों बातों में रिश्ते-नाते बुढ़ापा
ऐसा क्या है जीवन में?

अनदेखा अनजाना सा

कुछ समय का अनुभव

ठिठुरन और मैं

राज पिछले जन्म का
क्योंकि तुम खुश हो तो मैं खुश हूं

कहानी की शुरुआत फिर होगी

करीब हैं, पर दूर हैं

पापा की प्यारी बेटी

छली जाती हैं बेटियां

मां ऐसी ही होती है
एक उम्मीद के साथ जीता हूं मैं

कुछ नमी अभी बाकी है

अपनेपन की तलाश

टूटी बिखरी यादें

आखिरी पलों की कहानी

बुढ़ापे का मर्म



[ghar+se+school.png]
>>मेरी बहन नेत्रा

>>मैडम मौली
>>गर्मी की छुट्टियां

>>खराब समय

>>दुलारी मौसी

>>लंगूर वाला

>>गीता पड़ी बीमार
>>फंदे में बंदर

जानवर कितना भी चालाक क्यों न हो, इंसान उसे काबू में कर ही लेता है। रघु ने स्कूल से कहीं एक रस्सी तलाश कर ली. उसने रस्सी का एक फंदा बना लिया

[horam+singh.jpg]
वृद्धग्राम पर पहली पोस्ट में मा. होराम सिंह का जिक्र
[ARUN+DR.jpg]
वृद्धों की सेवा में परमानंद -
डा. रमाशंकर
‘अरुण’


बुढ़ापे का दर्द

दुख भी है बुढ़ापे का

सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य गिरीराज सिद्धू ने व्यक्त किया अपना दुख

बुढ़ापे का सहारा

गरीबदास उन्हीं की श्रेणी में आते हैं जिन्हें अपने पराये कर देते हैं और थकी हड्डियों को सहारा देने के बजाय उल्टे उनसे सहारे की उम्मीद करते हैं
दो बूढ़ों का मिलन

दोनों बूढ़े हैं, फिर भी हौंसला रखते हैं आगे जीने का। वे एक सुर में कहते हैं,‘‘अगला लोक किसने देखा। जीना तो यहां ही है।’’
[old.jpg]

इक दिन बिक जायेगा माटी के मोल
प्रताप महेन्द्र सिंह कहते हैं- ''लाचारी और विवशता के सिवाय कुछ नहीं है बुढ़ापा. यह ऐसा पड़ाव है जब मर्जी अपनी नहीं रहती। रुठ कर मनाने वाला कोई नहीं।'' एक पुरानी फिल्म के गीत के शब्द वे कहते हैं-‘‘इक दिन बिक जायेगा, माटी के मोल, जग में रह जायेंगे, प्यारे तेरे बोल।’’

...............कहानी
[kisna.jpg]
किशना- एक बूढ़े की कहानी
(भाग-1)..................(भाग-2)
ये भी कोई जिंदगी है
बृजघाट के घाट पर अनेकों साधु-संतों के आश्रम हैं। यहां बहुत से बूढ़े आपको किसी आस में बैठे मिल जायेंगे। इनकी आंखें थकी हुयी हैं, येजर्जर काया वाले हैं, किसी की प्रेरणा नहीं बने, हां, इन्हें लोग दया दृष्टि से जरुर देखते हैं

अपने याद आते हैं
राजाराम जी घर से दूर रह रहे हैं। उन्होंने कई साल पहले घर को अलविदा कह दिया है। लेकिन अपनों की दूरी अब कहीं न कहीं परेशान करती है, बिल्कुल भीतर से

कविता.../....हरमिन्दर सिंह .
कभी मोम पिघला था यहां
इस बहाने खुद से बातें हो जायेंगी
विदाई बड़ी दुखदायी
आखिर कितना भीगता हूं मैं
प्यास अभी मिटी नहीं
पता नहीं क्यों?
बेहाल बागवां

यही बुढापा है, सच्चाई है
विदा, अलविदा!
अब कहां गई?
अंतिम पल
खत्म जहां किनारा है
तन्हाई के प्याले
ये मेरी दुनिया है
वहां भी अकेली है वह
जन्म हुआ शिशु का
गरमी
जीवन और मरण
कोई दुखी न हो
यूं ही चलते-चलते
मैं दीवाली देखना चाहता हूं
दीवाली पर दिवाला
जा रहा हूं मैं, वापस न आने के लिए
बुढ़ापा सामने खड़ा पूछ रहा
मगर चुप हूं मैं
क्षोभ
बारिश को करीब से देखा मैंने
बुढ़ापा सामने खड़ा है, अपना लो
मन की पीड़ा
काली छाया

तब जन्म गीत का होता है -रेखा सिंह
भगवान मेरे, क्या जमाना आया है -शुभांगी
वृद्ध इंसान हूं मैं-शुभांगी
मां ऐसी ही होती है -ज्ञानेंद्र सिंह
खामोशी-लाचारी-ज्ञानेंद्र सिंह
उम्र के पड़ाव -बलराम गुर्जर
मैं गरीबों को सलाम करता हूं -फ़ुरखान शाह
दैनिक हिन्दुस्तान और वेबदुनिया में वृद्धग्राम
hindustan vradhgram ब्लॉग वार्ता :
कहीं आप बूढ़े तो नहीं हो रहे
-Ravish kumar
NDTV

इन काँपते हाथों को बस थाम लो!
-Ravindra Vyas WEBDUNIA.com