
उम्र के कई पड़ाव होते हैं। उन्हीं पड़ावों का जिक्र कर रहे हैं अपनी कविता में बलराम गुर्जर।
उम्र के पड़ाव
जब बच्चा हुआ वर्ष दस का,
लगने लगा उसे चस्का।
जब वर्ष बीते बीस,
करने लगा रीस।
जब वर्ष हुए तीसा,
हर समय रहता पत्नि का किस्सा।
जब हुई उम्र चालीस,
करवाने लगे मालिस।
जब वर्ष हुए पचास,
नहीं रहा कोई खास।
जब वर्ष बीते साटा,
रहता है दो रोटियों का घाटा।
जब हुई उम्र सत्तर,
तन पे नहीं है कत्तर।
जब हुई उम्र अस्सी,
टूट ली जीवन की रस्सी।
जब हुई उम्र वर्ष नब्बे,
जहां थूकें वहीं दाबें।
जब वर्ष हुये सौ,
नहीं कोई डर, न कोई भौ।
-बलराम सिंह गुर्जर
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