बूढ़ी काकी कहती है-‘‘बुढ़ापा तो आना ही है। सच का सामना करने से भय कैसा? क्यों हम घबराते हैं आने वाले समय से जो सच्चाई है जिसे झुठलाना नामुमकिन है।’’.

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Wednesday, February 24, 2010

संबंधों के दायरे में

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कभी-कभी काकी को लगता है कि वह मुझसे घृणा क्यों नहीं करती?

उसे यह अटपटा लगता है। काकी को मुझसे लगाव है, यह मैं जानता हूं। उसकी बातों को मैंने बारीकी से समझाया और पाया कि वाकई बुढ़ापा अनुभव लिए होता है।

समय के साथ-साथ बूढ़ी काकी का मोह मेरे प्रति बढ़ता गया। उम्र के फासले को मोह ने छोटा बना दिया। मैं उसकी थकी जिंदगी को नजदीक से देखता हूं तो पाता हूं कि इन आंखों ने जिंदगी को कितने करीब से देखा है।

बूढ़ी काया है, फिर भी काकी को एहसास नहीं कि वह कब अलविदा कह दे, क्योंकि उससे संवाद करते समय ऐसा बिल्कुल नहीं लगता। उसने हमेशा मुझे मुस्कराकर कई बातों से अवगत कराया है। यह मोह के कारण उपजी स्थिति है या कुछ ओर।

मुझे यह सोचने पर विवश करता है कि बूढ़े लोग लगाव इतना क्यों करते हैं? क्यों वे प्रेम की एक छींट से खुद को भिगो देते हैं? क्यों उनका प्रेम उनकी सूखी आंखों से छलकता है? क्या बुढ़ापा प्रेम का भूखा होता है? वृद्धों का मन क्यों मामूली बात पर पिघल जाता है?

काकी ने कहा,‘‘मन का क्या, वह तो बहता है। प्रेम की चाह किसे नहीं। मन को बंधना नहीं आता और प्रेम को रुकना। दोनों ही इंसान के संगी हैं। तुमने बचपन में मां-बाप का दुलार देखा। उन्होंने तुम्हें कितना कुछ दिया। सबसे बड़ी बात यह कि उन्होंने तुम्हें जीवन दिया। इस संसार में तुम उन्हीं की वजह से हो। तुमने उनसे घृणा की होगी, लेकिन वे तुम्हें सदा दुलार ही करते रहेंगे। बूढ़ों को अपने ही छोड़ जाते हैं, जबकि बूढ़े लोग तमाम जिंदगी उनके मोह में जकड़े रहते हैं। औलाद का सुख क्या होता है, यह वे ही जानते हैं।’’

‘‘मेरी जिंदगी अधूरी है, यदि मैं अपने माता-पिता से दूरी बना लूं।’’ मैंने कहा।

इसपर काकी बोली,‘‘बिल्कुल इंसान इंसान के बिना पूरा नहीं। हम संबंधों के दायरे में जीते हैं। यह किसी ने सिखाया नहीं, स्वत: है। जरुरतें मिलजुलकर पूर्ण होती हैं। इंसानियत सिखाती है कि जुड़कर चलो। रिश्ते यहीं उत्पन्न होते हैं। रिश्ते टूटते जरुर हैं, लेकिन उनका अंत नहीं होता। इंसान को जीना यही सिखाते हैं। इसलिए जीवन को पूर्ण करने के लिए कुछ बंधनों में रहना पड़ता है। माता-पिता या उन्हें तुमसे लगाव है, उनकी भावनाओं को समझना जरुरी है।’’

‘‘रही बात घृणा कि तो उसकी उपज भी इंसान ही करते हैं। जहां प्रेम नहीं, वहां घृणा मंडराती है। इंसान को इंसान से ही समस्या है। जबकि लगाव करके हम अपनों में रहना सीखते हैं। बुढ़ापे में बहुत कुछ बदल जाता है। मोह बढ़ता जाता है, क्योंकि वक्त कम होता है। उतने में अपनों का साथ पाने की इच्छा होती है. शायद उनका सुख आसानी से हमें संसार छोड़कर जाने दे। शायद हौंसला दे जाए, ताकि शेष वक्त को उनके सहारे बिता सकें। मन की गहराई को बुढ़ापा जानता है। उसे मालूम है कि कितना कुछ हासिल कर चुका। उसे यह भी पता है कि बहुत कुछ पाकर, जीवन अभी तक प्यासा है।’’

काकी ने खिड़की से खुले आसमान को निहारा। वह काफी देर तक सफेद बादलों की चमक में खोई रही। उसने पलकों को नीचे किया, आंखों को थोड़ा आराम दिया।

मैंने सोचा कि बुढ़ापा समय को पढ़ रहा है। शनै: शनै: जीवन की अंतिम उड़ान की तैयारी कर रहा है। यहां पलकों को भिगोने की जरुरत है, मन भरा जरुर है, लेकिन खुशी उस बात की है कि बुढ़ापे को सब्र बहुत है।

-harminder singh

Tuesday, February 23, 2010

जिंदगियों का सौदा

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सादाब को काफी गुस्सा आ गया था। उससे मैंने कहा कि अब उसे आराम करना चाहिए। उसकी कहानी तसल्ली से किसी दिन सुन लेंगे।

पता नहीं क्यों वह जैसे मुझे सबकुछ बताना चाह रहा था। उसने आगे बताना शुरु किया,‘‘मामा की छोटी बेटी शायना मुश्किल से छह साल की थी और बड़ी फरीदा नौ की। वह रात को देर से आता था। घर में जुआ खेलता। कई लोगों को साथ लाता। बेटियों से उनके लिए चाय-पानी मंगवाता और रात का खाना बनवाता। कहा न मानने पर उनके सामने ही बाल पकड़कर अपनी बेटियों को बेरहमी से पीटता। बच्चियां थीं, मासूम थीं, अंजान भी, इसलिए बाप की मर्जी को बेचारी आंसू पोंछते-पोंछते मान लेतीं। एक कसाई से कम नहीं था हमारा मामा।’’

‘‘शायना और फरीदा ने कभी मेरी अम्मी से यह नहीं बताया। अम्मी को अपने सगे भाई की असलियत पता नहीं थी। एक रोज मामा शाम को हमारे घर रोता हुआ आया। उसने कहा कि शायना का सुबह से पता नहीं चला। सारा मोहल्ला छान मारा वह मिली नहीं। इसपर अम्मी परेशान हो गयी। लड़कियों की उन्हें बहुत फिक्र रहती थी। शायना फिर कभी नहीं लौटी। मालूम पड़ा कि मामा ने उसे जुए में दांव पर लगाया था। दांव हार जाने पर शायना को उस खूसट जमील को सौंप दिया। जमील उस रात मामा के यहां से नागपुर जा रहा था जहां वह जूते बनाने की एक कंपनी में काम करता था। वहां शायना का क्या हुआ होगा मुझे पता नहीं। लेकिन मामा अच्छा नहीं कर रहा था। अब उसकी नियत यह थी कि किसी तरह फरीदा से भी छुटकारा पा ले।’’

‘‘वह फरीदा को मेला दिखाने ले गया। फरीदा अंजान थी। मेला एक बहाना था। फरीदा का कुछ हजार में पहले ही सौदा किया जा चुका था। सौदेबाज तैयार थे। भीड़ में फरीदा का हाथ छूट गया। उसे किसी ओर ने थामा। कुछ पलों में फरीदा की जिंदगी का फैसला हो चुका था। उसकी दुनिया उजड़ चुकी थी। वह बिक चुकी थी। और ऐसे लोगों के हाथ में थी जिनके लिए वह केवल मांस का लोथड़ा भर थी, कोई मामूली खरीदी हुई वस्तु जिसकी कीमत चुकायी जा चुकी थी।’’

सादाब का दर्द और गहरा होता जा रहा था। मैं उसकी पीड़ा समझ सकता था। एक व्यक्ति कितना गिर सकता है, मैंने सोचा नहीं था। कितना दुख होता है जब कोई आपका अपना आप पर भरोसा करे और अपने स्वार्थ के लिए आप उसे ऐसे लोगों के हवाले कर दें जो जिंदगियों का सौदा करते हैं। उनके यहां मरी हुई आत्माओं का बाजार सजता है जिनके खरीददार होते हैं। छी है ऐसे इंसानों पर जिनके लिए इंसान मंडी की सजावट से अधिक कुछ नहीं। मैं इसके आगे इसपर लिखना नहीं चाहूंगा।

लोगों की चमड़ी एक सी होती है, फर्क रंग का होता है। लोग एक से होते हैं, यहां भी फर्क रंग का होता है। रंग बदलते देर नहीं लगती। गिरगिट को ही देख लें। जिस जगह बैठा, वैसा उसका रंग हो जाता है।

इंसानों की कला जानवरों से कई गुना शक्तिशाली और अनोखी है। वह जितनी अजीब है, उतनी भयानक भी।

सादाब ने बताया कि उसका मामा अम्मी के सामने फूट-फूटकर रोया। मेले की झूठी कहानी गढ़ दी। उसकी अम्मी को मामा पर यकीन आ जाता था।

to be contd.......

-harminder singh

Monday, February 22, 2010

बूढ़ा शरीर हुआ है इंसान नहीं



दरख्त सूखे हैं। उन्हें हंसी नहीं आती। आस है हंसने की। खुलकर जीना चाहते हैं। काश! एक बार ऐसा हो। तसल्ली है- जितना जिये अधूरे नहीं जिये।

बुढ़ापे की सूखी टहनियां हरियाली चाहती हैं। अनगिनत उतार-चढ़ावों का गवाह है बुढ़ापा। कहानी में रंग थे कभी। आज रंग फीके जरुर हैं, छिने नहीं। वृद्धों में अधिकतर को ऐसा लगता है कि लौ बुझने से पहले जीवन को खुलकर जिया जाये। वे चाहते हैं कि विदाई यादगार हो।

नेत्र सिंह की उम्र उनका साथ नहीं देती। यदि आप उनके साथ कुछ वक्त गुजारें तो एहसास होगा कि बुढ़ापा कितना जिंदादिल है। वास्तव में वे बात-बात पर ठहाके लगाते हैं। हां, थोड़ा ऊंचा जरुर सुनते हैं।

विचारों का उनके पास अद~भुत भंडार है। सरकारी नौकरी से रिटायर्ड वे किसी को भी प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं। इतिहास के विषय में उनकी जानकारी उच्च कोटि की है। शब्दों की बारीकियों में वे उलझते नहीं, बल्कि उन्हें बारीकी से समझते और समझाते हैं।

नेत्र सिंह से मैं समय-समय पर मिलता रहता हूं। वे हमारे घर घंटों बैठते हैं और एक परिवार के सदस्य की तरह हैं। मुझसे अक्सर कहते हैं कि कोई नई पत्रिका है, उन्हें पढ़नी है।

किताबें पढ़ने का उन्हें काफी शौक है। अखबार का तो एक-एक अक्षर वे तसल्ली से पढ़ते हैं। रविवार शाम को वे जरुर आते हैं। ‘टाइम्स आफ इंडिया’ का अध्यात्मिक पन्ना ले जाते हैं। कहते हैं,‘इसमें मेरे मतलब का काफी कुछ है।’

उनकी अध्यात्मिक रुचि मुझे प्रभावित करती है। धर्म और ईश्वर के विषय में उनके पास ढेर है, मुझे बहुत सीखने को मिला उनसे।

‘‘मैं हार क्यों मानूं?’’ साफ शब्दों में नेत्र सिंह कहते हैं।

‘‘अगर हार मानना हल है, तो जीना बेकार है। मैं यह मानता हूं कि हम बूढ़े जरुर हैं, लेकिन बुढ़ापे से दबे नहीं।’’

इतना कहकर उनके सूखे चेहरे पर मुस्कार उभर आती है।

‘‘मैं हमेशा हंसता हूं। कई बार बिना बात के भी। जिंदादिली का इससे बड़ा क्या सबूत हो सकता है।’
नेत्र सिंह अपना चश्मा हटाते हैं, फिर उसे कपड़े से साफ करने लगते हैं।

वे आगे कहते हैं,‘‘कुछ दिन बाद मैं नहीं रहने वाला। बचे दिनों में भी न ‘जिये’ तो क्या जिये?’’
उनके इन वाक्यों को मैं हमेशा याद रखना चाहूंगा।

उनका मानना है कि कमजोरी शरीर में है, इंसान में नहीं। बूढ़ा शरीर हुआ है, इंसान नहीं।

नेत्र सिंह अपने बारे में लिखना चाहते हैं। पुराने दिनों की बातों को कागज पर उतारना एक बेहतर काम होगा क्योंकि जीवन को लिखकर पढ़ना शानदार अनुभव होता है। इस तरह यादें शब्द बनेंगी और नई शुरुआत होगी। मैंने उनसे कहा कि उन्हें इस काम में जल्द जुट जाना चाहिए।

इसपर वे बोले,‘‘जरुरत शुरुआत करने की है, शब्द खुद-ब-खुद उकरते जायेंगे।’’

-harminder singh

Friday, February 19, 2010

कल्याणी-एक प्रेम कहानी-१




मोती चुनने निकला था। अब कही खो गया। मुझे मालूम नहीं कि मैं किस दिशा जा रहा हूं। न मैं यह जानता कि सन्नाटा मेरे आसपास क्यों मंडरा रहा है। काफी पता करने की कोशिश की मगर असफल रहा।

मेरी पत्नि का हाथ कुछ वर्षों पहले छूट गया। अब वह यहां नहीं। उसके बिना अधूरा-सा लगता है। शायद कुछ छूट गया कहीं। ढूंढ रहा हूं, मिल नहीं रहा।

वह बड़ी भली थी। उसके हाथों का स्पर्श मैं इस वक्त भी महसूस कर सकता हूं। उसकी मीठी बातें कैसे भूलूं? वह जब मुझे समझाती थी, तो मैं उसकी आंखों में खोया रहता था। उसकी आंखों में खोया रहता था। उसकी आंखें थीं ही ऐसी। वह हंसती थी तो मैं बस उसे ही देखता रह जाता था।

इतने साल बाद भी मुझे वह पहले वाली कल्याणी लगती थी। उसके सफेद बालों को मैं सहलाता रहता।

जब वह मुझसे पहली बार मिली तो उसने दो शब्द कहे,‘आप कौन?’

दरअसल मैं धोखे से उसके सामने आ खड़ा हुआ। बस में काफी भीड़ थी। मुझे पीछे से किसी ने आगे धक्का दिया। मैं गिरते-गिरते बचा। कल्याणी सामने सीट पर बैठी थी। मैं उसकी गोद में गिर सकता था। मैंने खुद को संभाला और उसके सामने खुद को खड़ा पाया। उसने मेरी ओर देखा। मैं उसके चेहरे को सारे रास्ते निहारता रहा।

वह बस से उतर गयी। मेरा स्टाप भी वही था। वह सड़क किनारे खड़े फलवाले से फल खरीद रही थी। मैंने भी एक किलो फल छांट कर अपने थैले में भर लिए। उसने शायद मेरी तरफ ध्यान नहीं दिया। मैं बार-बार उसे देखता रहा।

जब कल्याणी फलवाले को पैसे दे रही थी, मैं उसके चेहरे पर नजरें गढ़ाए था, एकटक, बिना अवरोध के। थैला मेरे हाथ में था। कल्याणी को मालूम नहीं था उसके आसपास किसी के हृदय में कितनी उथलपुथल हो रही है। उसे मालूम नहीं था कि कोई उसे एक नजर में जीभर कर चाहने लगा है। शायद वह यह भी नहीं जानती होगी कि किसी का दिल उसने चुरा लिया था।

अजीब था वह समय, बहुत अजीब।

वह समय ऐसा था जिसकी शुरुआत अनजाने में हुई जरुर थी, लेकिन लगने यह लगा था कि अनजाना जाना-पहचाना होने जा रहा है। कल्याणी से पता नहीं क्यों मैं इतना जुड़ाव कुछ ही पलों में करने लगा था।

मैं अपने हृदय की गति को तेज पा रहा था। मेरी धड़कन बढ़ चुकी थी। अलग-सा महसूस कर था मैं।

ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था, जैसा अब हो रहा था। क्या पल थे वह भी। प्रेम का अंकुर कैसे फूटता है, मैं जान चुका था।

सचमुच वह प्रेम ही था। मुझे कल्याणी से प्यार हो गया था। 

‘एक लड़की मेरी जिंदगी में आने वाली है’- मैंने खुद से कहा।

मेरा मन चुप नहीं था। वह क्या-क्या कहता जा रहा था, कुछ समझ नहीं आ रहा था, कुछ नहीं। शायद नासमझी और समझदारी के बीच झूल रहा था मेरा मन। मीठे सपनों में खोने की तमन्ना कर बैग था मेरा मन।

वह अनजान थी इस सबसे जिसके लिए मैं अजीब महसूस कर रहा था। उसे इतना पता भी नहीं था कि वह किसी के सपनों की परी बन चुकी थी।

मैं दिन मैं उसे सामने मुस्कराते पा रहा था। आंखें खोलता तो वह कहती,‘आप कौन?’

आंखें बंद करता, फिर उसकी तस्वीर उभर आती। कभी वह मेरे इतने करीब आ जाती कि मैं उसे स्पर्श करने की कोशिश करता, पर वह दूर चली जाती।


to be contd.......


-harminder singh

Wednesday, February 10, 2010

सादाब का मामा

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सादाब से मैंने कहा,‘जिंदगी को शायद यही मंजूर था कि वह एक बसी-बसाई दुनिया को पल भर में उजाड़ दे।’

वास्तव में हम ऐसे मौकों पर कुछ कर नहीं सकते। करने की क्षमता का ह्रास हो चुका होता है।

सादाब बोला,‘वक्त की मार से कुछ भी हो सकता है। हमारे मामा की इकलौती बहन हमारी अम्मी उससे मिलना चाहती थी। मामा सही आदमी नहीं था। उसकी मोहल्ले में रोज मारपीट होती थी। उसने कई बार चोरी की तथा रंगें हाथों पकड़ा जा चुका था। हराम का माल खाने की जैसे उसे आदत पड़ गयी थी। मोहल्ले के लोग कहते थे कि उसने अपनी पत्नि जेबा को जलाकर मार दिया था। जेबा के परिवार वाले काफी गरीब थे, इसलिए उसकी दो बच्चियों की खातिर उसके खिलाफ पुलिस में रिपोर्ट नहीं की। उनका कहना था कि बाप उनसे अच्छी तरह बच्चियों की देखभाल कर लेगा। मामा पूरा ढोंगी था। वह जेबा के घरवालों के सामने गिड़गिड़ाया और बोला कि वह दोनों लड़कियों को जान से ज्यादा मोहब्बत करेगा। जेबा को उसने बताया कि खाना बनाते समय खौलते तेल की कड़ाही उसके ऊपर गिर गई, जबकि वह जमीन पर रखे ईंटों के चूल्हे पर रोटी बनाती थी। शिकायत के लिए सबूत चाहिए था। मोहल्ले वालों को कोई मतलब न था। एक औरत ही तो मरी थी। बच्चे बाहर खेल रहे थे और घर में मामा जेबा से उसकी जिंदगी छीन रहा था। कारण क्या था यह मुझे आजतक पता नहीं चल सका। जेबा कुछ पल के लिए छटपटाई होगी। फिर उसकी सांसों को विराम लग गया होगा। अक्सर मौत से पहले जिंदगी इसी तरह छटपटाती है। मेरा खून खौल जाता है यह सब कहकर, लेकिन मैं कहता हूं। अभी तक मैं चुप रहा, सोता रहा। चुप्पी कब तक मेहमानों की तरह रहती, उसे टूटना था। तुमने पूरी हकीकत अभी जानी कहां है? मामा का असली रंग अभी बाकी था। अपनी मौत का कारण वह खुद था। इंसान शायद अपनी मौत का रास्ता खुद चुनता है, वह भी इंसान ही था जो हैवान से कम नहीं था। उसकी मौत न होती तो वह न जाने और क्या करता?’

--to be contd.

-harminder singh

Tuesday, February 9, 2010

बहुत कुछ बदल गया, पर बदले नहीं लोग



हम इतने समय बाद जब उन लोगों से मिलते हैं जो कभी हमारे लिये काफी अहम रहे हों तो काफी बेहतर लगता है। मुझे इतने समय बाद काफी सुखद एहसास हुआ। दरअसल अचानक ही ऐसा कुछ हुआ कि मैं अपने स्कूल पहुंच गया।

इतने समय में कितना बदल गया मेरा स्कूल -सैंट मैरी कान्वेंट। कालेज बन सेकेंडरी स्कूल कहा जाने लगा है। पहले जैसा कुछ था तो वह थे मेरे टीचर, खासकर मैडम डोगरा और मोहनचंद्रा जी। इसके अलावा मैं श्रीमान जगवीर सिंह का भी जिक्र करना चाहूंगा। सबसे पहले मेरी मुलाकात उनसे ही हुई। हालांकि उनका शरीर पहले से कुछ बदल गया, लेकिन उनका अंदाज वही पुराना था। शायद कुछ लोग हमेशा अपनी कुछ न कुछ खासियतों के साथ उसी तरह रहते हैं।

डोगरा जी को मैं कभी नहीं भूलना चाहूंगा क्योंकि वे ही एकमात्र ऐसी शिक्षिका हैं जिनसे मैं बहुत ही अपनेपन से मिला हूं। फोन पर भी उनसे काफी देर बात की थी तो मैं भावुक हो गया था। एक इंसान जो पहले से ही उसी तरह का हृदय रखता हो, उसे हम आसानी से भुला नहीं सकते और न ही मैं चाहूंगा कि मैं भूलूं। यह हममें खूबी नहीं नेमत है कि हम दूसरों को देखकर बहुत बार इतना खुश हो जाते हैं कि उनकी तारीफ करने लगते हैं। पर यहां मामला अलग है। मैंने मुलाकात की उन लोगों से जो शायद उससे भी ऊपर हैं। उनकी तारीफ नहीं की जा सकती। वे हमारे श्रद्धेय हैं। हमने उनका अनुसरण किया है ताकि हम कुछ हासिल कर सकें। और हमने बहुत कुछ हासिल भी किया है।

मैडम डोगरा को चौथी क्लास से जानता हूं। जब वे शुरु में आयीं तो हमें अजीब लगा। उन्होंने हमें मैथ्स पढ़ाया। गणित की सबसे बेहतरीन टीचर मैं उन्हें आज भी मानता हूं। अपने पड़ौस के बच्चों से मैं उनके बारे में अक्सर मौका मिलने पर बात करता हूं।

वे स्टाफ रुम से बाहर आ रही थीं तो मुझसे काफी दूरी पर थीं। उनके साथ मैडम कुमकुम और मैडम जैस्सी भी थीं। डोगरा जी की नजर जैसे ही मुझ पर पड़ी तो मैं छोटा बच्चे जैसे बन गया। मुझे काफी खुशी हुई और वे भी कम खुश नहीं थीं। उन्होंने मेरा हालचाल पूछा और मैंने उनका। खड़े-खड़े कितनी बातें होती हैं, वे सब हम कर पाये। थोड़े समय में इतना कुछ कह गयीं वे कि मैं उनका आभार व्यक्त करता हूं। सबसे पहले उनके शब्द थे,‘‘देखो कितना बदल गया है।’’ पास में मोहनचन्द्रा जी भी खड़े मुस्करा रहे थे। सबसे मेहनती व्यक्ति मोहनजी को कहा जा सकता है। वे साधारण दिखते जरुर हैं लेकिन कालेज की कई अहम जिम्मेदारियों को वे बखूबी निभाते हैं। उनकी खासियत उनके स्वभाव में साफ झलकती है।
खैर, डोगरा जी से मिलकर मुझे पुराने दिनों की याद ताजा हो गयी। उनका व्यवहार आंका नहीं जा सकता। कुछ लोग शायद होते ही ऐसे हैं कि वे जब भी आपसे मिलते हैं, आपको उनमें अपनापन नजर आता है। वे आपकी फिक्र करते हैं, ठीक एक बेटे की तरह। या फिर ऐसे जैसे आप उनके खुद के परिवार के हों। यह हमें इंसानों की उस खूबी का ज्ञान कराता है कि हम सब प्रेम भाव से कितने गदगद हो जाते हैं। यह बहने वाली भावना है जो हमारे हृदय को कितना सुकून पहुंचाती है, यह हम ही जान सकते हैं। और शायद वे भी जो हमें यह अनुभूति कराते हैं। कितना अच्छा हो, अगर हम सभी एक-दूसरे को इस तरह समझें। प्रेमपूर्ण व्यवहार की हवायें हमेशा इसी तरह चलती रहीं।

मैं आजतक कुछ इंसानों को समझ नहीं पाया। एक वे जो ‘स्पेशल’ हैं और एक वे जो हमसे प्रेम करते हैं। ये दोनों व्यक्तित्व ही ऐसे हैं जिनकी दुनिया थोड़ी अलग है आम इंसान से। इन्हें एक भाषा पक्की आती है और वह है रिश्तों के अपनेपन की। ऐसा ये करते हैं क्योंकि ऐसा करना इन्हें अच्छा नहीं, मेरे ख्याल से बहुत ही अच्छा लगता है।

मेरी तबीयत थोड़ा इस लेख को लिखते समय ठीक नहीं है। पर मैं उन पलों को जीवित रखना चाहता हूं जो मैंने जिये।

गुरप्रीत जी से मेरी मुलाकात पहले कभी नहीं हुई थी। वह केवल मेरे लेख पढ़ते थे। जब उन्होंने मुझसे हाथ मिलाया तो उनके शब्द थे,‘‘जिस इंसान को मैं मिलने की उम्मीद कर रहा था, उससे आज मुलाकात हो गयी।’’ इससे खुशी की बात क्या हो सकती है कि कोई व्यक्ति दिल से आपकी कद्र करता है। ये ऐसे लोग होते हैं जो भी शायद हम कभी भूल सकते हों। ये ऐसे लोग होते हैं जिनका कद उनसे मिलने के बाद हमारी नजरों में और बढ़ जाता है। उन्होंने एक बात और कही,‘‘पंजाबियों के दिल तो हर किसी से मिल जाते हैं।’’

एक और व्यक्ति से मेरी मुलाकात हुई। वे थे वहां के मैथ्स के टीचर श्रीमान रिंकू सक्सेना। उनके बारे में कहा जाता है कि वह अपने विषय के महारथी हैं। सीबीएसई के ग्रेडिंग सिस्टम पर उनसे बात हुई तो उनका कहना था इससे स्टूडेंट पता नहीं कितना फायदा होगा।

कुछ वक्त बिता कर मुझे लगा कि मैं बरसों पहले के समय में पहुंच गया। हम अक्सर ऐसा अनुभव करते हैं जब हम लंबे समय बाद यादों को ताजा करने की कोशिश करते हैं। वैसे ऐसा स्वत: ही हो जाता है।

मेरी निगाह उस मैदान पर थी जहां हम कभी गिने-चुने मित्रों की टोली के साथ बतियाते हुए घूमते थे। उन बच्चों को देखकर मुझे पुराने दिन याद आ गये जो बास्केटबाल कोर्ट। मेरे कुछ साथी बास्केटबल के शौकीन थे। एक-आध बार मैंने भी गेंद को हाथ लगाया, लेकिन इतना साहस नहीं हुआ कि नैट में गेंद फेंक सकता।

आकाश आज भी वैसा ही है। हालांकि उससे मेरी मुलाकात काफी समय से नहीं हुई। वह नहीं बदला, दुनिया बदल गयी। जैसे ही मैं कालेज के गेट पर पहुंचा, उसने मेरे पैर छुए। वह खुश कुछ अधिक ही था। लेकिन मैं पता नहीं क्यों उससे अधिक देर बात नहीं कर सका। मेरे साथ अक्सर ऐसा हो जाता है कि मैं कई मायनों में एक तरह से ‘रुखा’ किस्म का इंसान हो जाता हूं। मैं ऐसा नहीं चाहता मगर हो जाता है। घर लौटकर मैंने इस विषय में सोचा तो पाया कि मुझे उससे तसल्ली से बात करनी चाहिए थी।

डोगरा जी से भी उतना देर नहीं बात कर सका। मैं बस उनकी सुनता रहा। कुछ शब्द ही मैं कह पाया। उस समय मैं एक तरह से अजीब सा हो गया था। यह वक्त की वजह से हुआ था, या लिख लिख कर मैं ऐसा बन गया- रुखापन लिए एक आम इंसान। वैसे रंजना दूबे जी से मुझे मलाल है नहीं मिलने का । उनसे मैंने कितना कुछ सीखा है। उनके व्यवहार को आप उनसे मिलकर अच्छी तरह जान सकते हैं। बाहर से आप उन्हें थोड़ी सख्त समझ सकते हैं, लेकिन उनका हृदय उतना ही कोमल भी हो जाता है। उनकी ‘सीरीयसनेस’ का मैं आभारी हूं। आज भी जब मैं सुमित या शुभांगी से उनका जि्क्र करता हूं तो यह बात जरुर कहता हूं कि उनके सामने जब हम पढ़ते तो हम केवल पढ़ते ही थे। विषय से संबंधित जो बातें होती थीं, वे रंजना जी इस तरह से समझाती थीं कि हम उन्हें शायद ही कभी भूल पायें। हिन्दी पढ़ाने का तरीका उनका अपना है और आप बोर तो बिल्कुल नहीं हो सकते। जिंदगी की बारीकियों को चैप्टर के साथ उनसे अच्छा भला कौन समझा सकता है? शायद ऐसे शिक्षकों की वजह से ही मैं इतना कुछ लिख पाया हूं। वे आभार योग्य हैं।

-harminder singh

Tuesday, February 2, 2010

पूर्व जनम के मिले संजोगी

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‘‘क्या हम इसलिए साथ बैठे हैं कि कुछ बातें जो पिछले जन्म में अधूरी रह गयी थीं, उन्हें पूरा कर सें?’’
मैंने उत्सुकतावश काकी से पूछा।

  बूढ़ी काकी ने मुझे जीवन के अनगिनत पहलुओं पर पहले भी बताया है। उसने कभी खुद को एहसास नहीं होने दिया कि वह बूढ़ी है। यह उसके व्यक्तित्व की सबसे अच्छी खूबी रही।

  उसने एक बार कहा था कि शायद पिछले जन्म के कामों को पूरा करने के लिए हमें फिर से जन्म लेना पड़ा। ऐसा तब तक होगा जबतक हम तृप्त नहीं हो जाते। या हम मुक्त नहीं हो जाते।

  काकी ने मेरे प्र’न का उत्तर देने के बजाय इतना कहा,‘‘तुम खुद से क्यों नहीं पूछ लेते?’’

  मैं हैरानी से बिना पलक झपके काकी की ओर देखता रहा। फिर बोला,‘‘मैं क्या जानूं जन्म-मरण? उम्र आपकी ज्यादा, अनुभव भी अधिक। और सबसे बड़ी बात जीवन की समझ भला मुझे कैसे हो सकती है? मुझे याद नहीं कि मैं पहले भी जन्म ले चुका। यह कैसे मालूम होगा कि हम अधूरी बातों को पूर्ण करने आये हैं? आपने जब मुझे पहले बताया था तब की उत्सुकता नये प्र’नों को जरुर जन्म दे रही थी।’’

  काकी ने हल्की मुस्कान के साथ मेरे सिर पर हाथ फेरा और कहा,‘‘देखो, हम इस जन्म को मृत्यु तक याद रखते हैं। बाद का कोई नहीं जानता। लेकिन मुझे लगता है कि हम कई जन्मों तक प्यासे रहते हैं। उस चीज की तलाश शायद हमें बार-बार जन्म लेने को विवश करती है जिसे पाने की इच्छा एक जन्म में अधूरी रह गयी थी। उन ख्वाबों को हमने कभी देखा था, जिंदगी रुठ गयी, पूरा न कर सके। जन्म लेंगे दोबारा इसी तमन्ना के साथ की सपना पूरा हो, और इस बार जिंदगी रुठे नहीं।’’

  ‘‘सच में कितना सुकून मिलता है जब हम खुद को पूर्ण-सा पाते हैं। असल में ऐसा न कभी हुआ है और न होगा। इंसान ने पाने की जाने क्या-क्या कोशिश की, पर हासिल क्या किया, यह वह अच्छी तरह जानता है।’’ काकी ने विराम लिया।

  वह बोली,‘‘तुम्हारा मेरा साधारण रिश्ता है। शायद पिछले जन्म में हमारा कोई अलग रिश्ता रहा हो। लेकिन मुझे लगता है कि हम बहुत लगाव वाले रहे होंगे, क्योंकि हम एक-दूसरे से काफी लगाव रखते हैं। पूर्व जन्म का योग इस जन्म में हमें साथ लाया। तभी हमारे विचार इधर-उधर टहलने के बजाय एक-जैसे हैं। विचारों की टकराहट का मतलब कैसे बैठ सकता है?’’

  ‘‘जरुरत शायद थी, इसलिए हमारी मुलाकात हुई। दो अनजाने आज जाने-पहचाने हो गए। कभी ढंग से सोचना। यदि हमारे नसीब में कुछ लिखा न होता तो हम मिलते ही क्यों? इतनी बातें करते ही क्यों? तुम मुझे अपने हृदय का हाल बताते क्यों? कितना भरोसा किया हम दोनों ने एक-दूसरे पर। तभी तो बहुत कुछ बता बैठे यूं ही बातों-बातों में। ऐसा होने के पीछे कारण था। हम जान गए काफी हद तक एक-दूसरे को। आखिर पिछले जन्म के संजोगी मिल ही गए।’

  ‘‘अब कितना पा लिया हमने एक-दूसरे से यह हम जान गए। कितना पाना बाकी रह गया, यह वक्त पर छोड़ते हैं। तुमने एक मजबूत रिश्ता बना लिया जो शायद ही कभी टूटे। एहसास हो गया मुझे कि अनजाने लोग किस तरह अपनों की तरह लगने लगते हैं। कितना प्रेम करने लगते हैं हम उनसे। ये लोग शायद कभी हमसे जुड़े रहे होंगे, तभी फिर से हमारे साथ हैं- यह संयोग नहीं तो क्या है?’’
काकी इतना कहकर चुप हो गयी।

-harminder singh

Monday, February 1, 2010

खोई यादों को वापिस लाने की चाह





लाठी जर्जरता को ओढ़े है मेरी तरह। न वह थकी है, न मैं। हमारा साथ समय के साथ पुराना होता जा रहा है। वह भी चुप है, मैं भी।

हमारी किस्मत शायद एक-जैसी लगती है। मैं नहीं जानता कि कितना वक्त बचा है। हां, इतना मालूम है कि वक्त कम है।

खोई यादों को वापिस लाने की चाह है मेरी। उन्हें सीने से लगाने की ख्वाहिश है क्योंकि एक बार ही सही, मैं उन पलों को जीना चाहता हूं। मैं उन शब्दों की रो में बहना चाहता हूं जो नाजुक थे, प्रभावपूर्ण थे, चंचल थे, हृदय पर छपते थे।

नहीं चाहता कड़वी यादों को दोहराना। कड़वापन मीठा नहीं हो सकता। मिठास की वास्तविक परिभाषा मैं नहीं जानता। अंधकार में लौटने की ख्वाहिश किसी की नहीं होती। उजाला सबको अच्छा लगता है।


-harminder singh
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coming soon1
कैदी की डायरी......................
>>सादाब की मां............................ >>मेरी मां
बूढ़ी काकी कहती है
>>पल दो पल का जीवन.............>क्यों हम जीवन खो देते हैं?

घर से स्कूल
>>चाय में मक्खी............................>>भविष्य वाला साधु
>>वापस स्कूल में...........................>>सपने का भय
हमारे प्रेरणास्रोत हमारे बुजुर्ग

...ऐसे थे मुंशी जी

..शिक्षा के क्षेत्र में अतुलनीय काम था मुंशी जी का

...अपने अंतिम दिनों में
तब एहसास होगा कि बुढ़ापा क्या होता है?

सम्मान के हकदार

नेत्र सिंह

रामकली जी

दादी गौरजां

कल्याणी-एक प्रेम कहानी मेरा स्कूल बुढ़ापा

....भाग-1....भाग-2
सीधी बात नो बकवास

बहुत कुछ बदल गया, पर बदले नहीं लोग

गुरु ऐसे ही होते हैं
युवती से शादी का हश्र भुगत रहा है वृद्ध

बुढ़ापे के आंसू

बूढ़ा शरीर हुआ है इंसान नहीं

बुढ़ापा छुटकारा चाहता है

खोई यादों को वापिस लाने की चाह

बातों बातों में रिश्ते-नाते बुढ़ापा
ऐसा क्या है जीवन में?

अनदेखा अनजाना सा

कुछ समय का अनुभव

ठिठुरन और मैं

राज पिछले जन्म का
क्योंकि तुम खुश हो तो मैं खुश हूं

कहानी की शुरुआत फिर होगी

करीब हैं, पर दूर हैं

पापा की प्यारी बेटी

छली जाती हैं बेटियां

मां ऐसी ही होती है
एक उम्मीद के साथ जीता हूं मैं

कुछ नमी अभी बाकी है

अपनेपन की तलाश

टूटी बिखरी यादें

आखिरी पलों की कहानी

बुढ़ापे का मर्म



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>>मेरी बहन नेत्रा

>>मैडम मौली
>>गर्मी की छुट्टियां

>>खराब समय

>>दुलारी मौसी

>>लंगूर वाला

>>गीता पड़ी बीमार
>>फंदे में बंदर

जानवर कितना भी चालाक क्यों न हो, इंसान उसे काबू में कर ही लेता है। रघु ने स्कूल से कहीं एक रस्सी तलाश कर ली. उसने रस्सी का एक फंदा बना लिया

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वृद्धग्राम पर पहली पोस्ट में मा. होराम सिंह का जिक्र
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वृद्धों की सेवा में परमानंद -
डा. रमाशंकर
‘अरुण’


बुढ़ापे का दर्द

दुख भी है बुढ़ापे का

सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य गिरीराज सिद्धू ने व्यक्त किया अपना दुख

बुढ़ापे का सहारा

गरीबदास उन्हीं की श्रेणी में आते हैं जिन्हें अपने पराये कर देते हैं और थकी हड्डियों को सहारा देने के बजाय उल्टे उनसे सहारे की उम्मीद करते हैं
दो बूढ़ों का मिलन

दोनों बूढ़े हैं, फिर भी हौंसला रखते हैं आगे जीने का। वे एक सुर में कहते हैं,‘‘अगला लोक किसने देखा। जीना तो यहां ही है।’’
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इक दिन बिक जायेगा माटी के मोल
प्रताप महेन्द्र सिंह कहते हैं- ''लाचारी और विवशता के सिवाय कुछ नहीं है बुढ़ापा. यह ऐसा पड़ाव है जब मर्जी अपनी नहीं रहती। रुठ कर मनाने वाला कोई नहीं।'' एक पुरानी फिल्म के गीत के शब्द वे कहते हैं-‘‘इक दिन बिक जायेगा, माटी के मोल, जग में रह जायेंगे, प्यारे तेरे बोल।’’

...............कहानी
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किशना- एक बूढ़े की कहानी
(भाग-1)..................(भाग-2)
ये भी कोई जिंदगी है
बृजघाट के घाट पर अनेकों साधु-संतों के आश्रम हैं। यहां बहुत से बूढ़े आपको किसी आस में बैठे मिल जायेंगे। इनकी आंखें थकी हुयी हैं, येजर्जर काया वाले हैं, किसी की प्रेरणा नहीं बने, हां, इन्हें लोग दया दृष्टि से जरुर देखते हैं

अपने याद आते हैं
राजाराम जी घर से दूर रह रहे हैं। उन्होंने कई साल पहले घर को अलविदा कह दिया है। लेकिन अपनों की दूरी अब कहीं न कहीं परेशान करती है, बिल्कुल भीतर से

कविता.../....हरमिन्दर सिंह .
कभी मोम पिघला था यहां
इस बहाने खुद से बातें हो जायेंगी
विदाई बड़ी दुखदायी
आखिर कितना भीगता हूं मैं
प्यास अभी मिटी नहीं
पता नहीं क्यों?
बेहाल बागवां

यही बुढापा है, सच्चाई है
विदा, अलविदा!
अब कहां गई?
अंतिम पल
खत्म जहां किनारा है
तन्हाई के प्याले
ये मेरी दुनिया है
वहां भी अकेली है वह
जन्म हुआ शिशु का
गरमी
जीवन और मरण
कोई दुखी न हो
यूं ही चलते-चलते
मैं दीवाली देखना चाहता हूं
दीवाली पर दिवाला
जा रहा हूं मैं, वापस न आने के लिए
बुढ़ापा सामने खड़ा पूछ रहा
मगर चुप हूं मैं
क्षोभ
बारिश को करीब से देखा मैंने
बुढ़ापा सामने खड़ा है, अपना लो
मन की पीड़ा
काली छाया

तब जन्म गीत का होता है -रेखा सिंह
भगवान मेरे, क्या जमाना आया है -शुभांगी
वृद्ध इंसान हूं मैं-शुभांगी
मां ऐसी ही होती है -ज्ञानेंद्र सिंह
खामोशी-लाचारी-ज्ञानेंद्र सिंह
उम्र के पड़ाव -बलराम गुर्जर
मैं गरीबों को सलाम करता हूं -फ़ुरखान शाह
दैनिक हिन्दुस्तान और वेबदुनिया में वृद्धग्राम
hindustan vradhgram ब्लॉग वार्ता :
कहीं आप बूढ़े तो नहीं हो रहे
-Ravish kumar
NDTV

इन काँपते हाथों को बस थाम लो!
-Ravindra Vyas WEBDUNIA.com